भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 84 : कब लिया जा सकता है ‘पागलपन’ का बचाव?

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IPC Section 84 in Hindi

भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code-IPC) के अध्याय 4 में धारा 76 से लेकर धारा 106 तक उन ‘सामान्य अपवादों (General Exceptions)’ के बारे में बताया गया है, जो किए गए अपराध को भी क्षमा करने योग्य बनाते हैं, यानी इन धाराओं में उन परिस्थितियों या हालात के बारे में बताया गया है, जिनके मौजूद होने पर कोई आपराधिक कार्य होते हुए भी वह अपराध नहीं माना जाएगा, या उस आपराधिक कार्य के लिए क्षमा कर दिया जाएगा. हम इन धाराओं का अध्ययन अलग-अलग भागों में करेंगे-

IPC की धारा 84 ‘विकृतचित्त व्यक्ति’ या पागल व्यक्ति से संबंधित है. यह धारा पागल व्यक्ति के द्वारा किए गए कार्य को अपराध नहीं मानती और पागलपन या विकृतचित्तता को आपराधिक आरोप के खिलाफ एक बचाव के रूप में पेश करती है.

धारा 84 के तहत आपराधिक दायित्व से उन्मुक्ति या बचाव केवल विधिक पागलपन के आधार पर ही दिया जा सकता है, यानी यह सिद्ध करना जरूरी है कि अपराध करते समय व्यक्ति की दिमागी हालत ऐसी थी, कि वह अपने द्वारा किए गए कार्य की प्रकृति को समझने में असमर्थ था, या वह यह जानने में असमर्थ था कि वह कोई गलत कार्य या कानून के खिलाफ कार्य कर रहा है.

IPC की धारा 84

विकृतचित्त व्यक्ति का कार्य-
“वह कोई बात अपराध नहीं है जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है, जो उसे करते समय चित्त विकृति के कारण उस कार्य की प्रकृति, या यह कि वह जो कुछ भी कर रहा है, वह दोषपूर्ण या कानून के खिलाफ है, जानने में असमर्थ है.”

इस तरह, धारा 84 के तहत आपराधिक दायित्व से मुक्ति पाने के लिए यह जरूरी है कि-
(1) जिस व्यक्ति से अपराध हुआ है, वह पागल हो (यह सिद्ध करना होगा)
(2) अपराध करते समय वह अपने द्वारा किए गए कार्य की प्रकृति, परिणाम को समझने में असमर्थ हो, या यह जानने में असमर्थ हो कि वह विधि विरुद्ध कार्य कर रहा है.

यानी सभी पागल व्यक्ति इस धारा के तहत बचाव नहीं ले सकते. पागलपन अपराध कारित समय अस्तित्व में होना चाहिए, तभी इस धारा का बचाव मिल सकता है. अगर किसी व्यक्ति पर कभी-कभी पागलपन सवार होता है और किसी-किसी समय वह ठीक भी रहता है, तो बचाव के लिए उसे यह सिद्ध करना होगा कि अपराध करते समय वह पागल ही था और अपने कार्य की प्रकृति को नहीं समझता था.

पागलपन को सिद्ध करने का दायित्व

विकृतचित्तता पागलपन को सिद्ध करने का दायित्व अभियुक्त (Accused) पर होता है. जहां विकृतचित्त या पागलपन को बचाव का आधार बनाया जाता है, वहां कार्य करने से पहले, कार्य करने के दौरान, और कार्य करने के बाद अभियुक्त के आचरण का पूरा परीक्षण होना चाहिए. अभियुक्त का पागलपन विधिक होना चाहिए. चिकित्सा विज्ञान (मेडिकल साइंस) की तरफ से मान्य सभी पागलपन विधिक नहीं होते, जब तक कि यह सिद्ध न कर दिया जाए कि अभियुक्त कार्य करते समय मानसिक रूप से विक्षिप्त था.

विकृतचित्त कौन है या किसे माना जाए पागल?

विकृत मस्तिष्क वाले व्यक्ति चार प्रकार के होते हैं- (1) जड़मूर्ख (जो अपने माता-पिता को भी नहीं पहचानता, जो जन्म से ही पागल हो) (2) विक्षिप्त या पागल (3) किसी बीमारी के कारण मानसिक रूप से अस्वस्थ (4) नशा किया हुआ व्यक्ति.

पागल किसे माना जाए, इसके लिए अलग-अलग मामलों में अलग-अलग सिद्धांत बताए गए हैं-

(1) R. बनाम Arnold (1724) के मामले में कहा गया है कि जो व्यक्ति अच्छाई और बुराई में अंतर करने में असमर्थ है, वह पागल है.
(2) Hadfield (1800) के मामले में कहा गया कि जो व्यक्ति उन्माद (पागलपन या चित्तविभ्रम) से पीड़ित है और वह अपने कार्य की प्रकृति को नहीं जानता है, वह पागल है.
(3) R. बनाम Oxford (1840) के मामले में कहा गया कि जो व्यक्ति सही और गलत के बीच अंतर करने में असमर्थ है, वह पागल है.
(4) R. बनाम मैकनॉटन (1843) के मामले में पागलपन से संबंधित सम्पूर्ण विधि पारित की गई, इसलिए यह मामला धारा 84 से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण मामला है. इस सिद्धांत का प्रतिपादन हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने किया था. इसे धारा 84 का सार भी माना जाता है. इस वाद में कहा गया है कि-

(A) विधि हमेशा यह मानकर चलती है कि हर एक व्यक्ति स्वस्थचित्त (सही मानसिक स्थिति) है, जब तक कि अन्यथा साबित ना कर दिया जाए.

(B) अगर कोई व्यक्ति मानसिक बीमारी के कारण कार्य की प्रकृति, गुण या परिणाम को जानने में असमर्थ है, या वह यह समझने में असमर्थ है कि वह जो कार्य कर रहा है, दोषपूर्ण है या कानून के खिलाफ है, तो वह उन्मत्ता या पागलपन को बचाव के रूप में ले सकता है.

(अगर कोई व्यक्ति यह जानता है कि वह जो कार्य कर रहा है, वह कानून के खिलाफ है, तो वह इस धारा का बचाव नहीं ले सकता और उसे दंडित किया जाएगा, लेकिन अगर कोई व्यक्ति कार्य करते समय अपने कार्य की प्रकृति या परिणामों को नहीं जानता है, तो वह दोषमुक्त किया जाएगा.)

(C) अगर कोई व्यक्ति कार्य करते समय यह नहीं जानता है कि वह जो कार्य या अपराध उसके द्वारा किया जा रहा है, वह से करना चाहिए या नहीं, या अगर वह यह नहीं जानता है कि जो कार्य कर रहा है, वह स्थानीय नियमों के खिलाफ है, तो वह पागलपन का बचाव ले सकता है.

(D) अगर कोई डॉक्टर अपराधी को पहले से नहीं जानता है, तो अपराधी की मानसिक स्थिति के संबंध में उस डॉक्टर की राय जरूरी नहीं है, भले ही डॉक्टर ने उसे पागल साबित कर दिया हो, लेकिन जब तक विधिक कार्यवाही पूरी नहीं हो जाती, तब तक न्यायालय उस व्यक्ति को पागल नहीं मानेगा. (क्योंकि मेडिकल साइंस कहता है कि जब कोई व्यक्ति अपराध करता है, तो वह पागल है)


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