Bhagwan ka Avatar Kyon Lete Hain?
इस ब्रह्माण्ड में पृथ्वी का अस्तित्व धूल के एक कण के बराबर भी नहीं है. क्या इस ब्रह्माण्ड के रचियता पृथ्वी पर पैदा हुए किसी राक्षस का वध करने के लिए अवतार लेंगे? नहीं, वे मानव जाति को कुछ न कुछ सिखाने या शिक्षा देने के लिए अवतार लेते हैं. वे कुछ ऐसी लीलाएं करके चले जाते हैं, जो कदम-कदम पर हमारा मार्गदर्शन करती हैं.
श्रीराम ने पंचवटी में खर-दूषण का 14,000 सैनिकों सहित अकेले ही वध कर दिया था, जो बल-पराक्रम में रावण से किसी प्रकार कम नहीं थे, फिर भी उस समय तो श्रीराम को किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ी. न रोये न घबराये… उस समय श्रीराम ने बता दिया कि वे कौन हैं और उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं.
लेकिन उसके बाद आतताई शक्तियों के खिलाफ होने वाला धर्मयुद्ध श्रीराम ने सभी प्रकार के और सभी वर्ग के प्राणियों की सहायता से लड़ा. ऐसा क्यों..?
यह सिखाने के लिए कि आतताई शक्तियों को कैसे हराया जा सकता है-
पृथ्वीराज चौहान के लिए कहा जाता है कि पड़ोसी हिन्दू राजाओं के खिलाफ अपने युद्धों के परिणामस्वरूप पृथ्वीराज के पास कोई भी सहयोगी नहीं था, यानी आपसी फूट…
लेकिन श्रीराम को देखिये-
समाज में समरसता स्थापित करने के लिए श्रीराम ने भीलों को गले लगाया, अपने भाई भरत जी के पास चतुरंगिणी सेना होने के बावजूद उन्होंने बिना किसी भेदभाव के “वन के नरों” की सहायता ली और दुनिया को रावण सहित अनगिनत राक्षसों के अत्याचारों से मुक्त करवाया. ये सब सभी वर्गों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए किया गया.
यह श्रीराम का सबके प्रति प्रेम, सेवा और उनकी व्यवहार-कुशलता थी कि एक वनवासी का जीवन जीते हुए भी वे जिस-जिससे भी मिले, उन सबको अपने पक्ष में किया, सबको इकठ्ठा किया और भगवान शिवजी की विधिवत पूजा-अर्चना कर लंका पर चढ़ाई कर दी.
श्रीराम चाहते तो लंका तक जाने वाला पुल अपने बाणों से भी बना सकते थे, जैसे महाभारत में अर्जुन ने बना लिया था, या हनुमान जी अकेले ही पूरी सेना को पार करवा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
इन सबसे वे क्या बताना चाहते थे..?
यही कि ऊंच-नीच का भाव मिटाकर एकजुटता, इच्छा शक्ति, आत्मविश्वास और कर्म— ये ऐसे हथियार हैं, जो कम साधन-शक्ति होते हुए भी असंभव को संभव कर दिखा सकते हैं.
लक्ष्मण जी को शक्ति लगने पर श्रीराम का रोना यह बताता है कि कभी-कभी जीवन में ऐसी परिस्थिति आ जाती हैं, जब धीर-वीर और ज्ञानी पुरुष का भी धैर्य और आत्मविश्वास टूटने लगता है, लेकिन बैठकर रोने से तो कोई समस्या हल नहीं होती… उस समय तो जो हनुमान जी की तरह चिंता में समय गंवाने की बजाय बुद्धि-विवेक के साथ केवल समाधान खोजने और कर्म करने की ठान लेता है, वह बड़े से बड़े “युद्ध” की भी दिशा पलट सकता है…
रामकाज करने वालों में राम की शक्ति समाई…
श्रीराम साहस, धर्म, मर्यादा, नीति के अवतार हैं. जो कोई भी अपने जीवन में साहस, धर्म, मर्यादा, नीति का अनुसरण करता है, वह रामकाज करता है.
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अर्जुन जानते थे कि उनके सामने साक्षात् परब्रह्म खड़े हुए हैं, जो अर्जुन को अपने विराट स्वरूप का दर्शन भी करा चुके थे. अर्जुन श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को पहचानते थे, और इसीलिए उन्होंने सेना के स्थान पर केवल श्रीकृष्ण को ही माँगा था.
भगवान सामने खड़े हैं, फिर युद्ध अर्जुन ने लड़ा, श्रीकृष्ण ने नहीं. श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का जो ज्ञान दिया, उसे उन्होंने पूरी तरह आत्मसात किया और पांडव धर्म की पुनर्स्थापना का माध्यम बने.
भगवान “गीता” का ज्ञान सबको नहीं देते, उसी को देते हैं जिसने स्वयं को तैयार किया हो, जिसके साथ कर्म भी हों.
कर्म करो, फल की चिंता मत करो
फल की चिंता उसे ही ज्यादा सताती है जिसने अपने कर्म निर्वहन में पूरी निष्ठा न निभाई हो. जैसे- एक छात्र जिसने बहुत मेहनत से परीक्षा की तैयारी की है, वह परीक्षा देकर परिणाम की चिंता नहीं करेगा बल्कि परिणाम का इंतजार करेगा, और कोई त्रुटि होगी तो उसका निराकरण कर फिर से प्रयास करेगा. अर्थात कर्म करके फल की चिंता छोड़ देगा. जबकि वह छात्र जिसने मेहनत नहीं की, वह फल की चिंता नहीं छोड़ सकता. वह सफलता के लिए इधर-उधर के कयास लगाता ही रहेगा.
इसलिए “कर्म करो, फल की चिंता न करो” वाली कहावत वहीं चरितार्थ होती है, जहां पूरी निष्ठा और लगन से मेहनत की जाती है, सभी जगह नहीं.
ईश्वर सगुण है या निर्गुण
ईश्वर को पूर्ण रूप से निर्गुण और निराकार या पूर्ण रूप से सगुण और साकार नहीं कहा जा सकता है. दोनों में कोई भेद नहीं है. ईश्वर जो सर्वशक्तिमान है, वह निर्गुण और सगुण दोनों हो सकता है. वेदों में एक ब्रह्म की सत्ता है, पर उस ब्रह्म के अलग-अलग स्वरूपों का ज्ञान भी हमें वेदों से ही प्राप्त होता है. वेदों में जहां ईश्वर को निर्गुण माना गया है, वहीं ईश्वर की सगुण उपासना का भी प्रावधान है.
निर्गुण पद्धति को ज्ञानमयी और सगुण पद्धति को प्रेममयी कहा जाता है. जहां ईश्वर का सगुण रूप देखकर हमें उनसे प्रेम हो जाता है, वहीं उनकी अनंतता का ज्ञान हमें निर्गुण उपासना से मिलता है. दोनों ही तरीके से हम ईश्वर की पूजा कर रहे होते हैं, लेकिन दोनों तरीकों में हम ईश्वर के अलग-अलग गुणों को देख रहे होते हैं.
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सगुण पर काल का प्रभाव होता है, पर निर्गुण पर किसी चीज का कोई प्रभाव नहीं होता. वह सबसे परे होता है. वही परम सत्य और परम ब्रह्म होता है. जब हम ईश्वर की उपासना उसके सगुण रूप में करते हैं, तब हम उनसे अपनी इन्द्रियों से जुड़ जाते हैं, जबकि निर्गुण रूप की उपासना करने के लिए हमें अपनी इन्द्रियों से परे जाना पड़ता है.
सगुण को आरम्भ और निर्गुण को अंत कह सकते हैं. निर्गुण तक पहुँचने के लिए हमें सगुण की उपासना करनी ही होगी. जिस प्रकार सभी नदियां जाकर सागर में मिल जाती हैं, उसी प्रकार ईश्वर के सभी सगुण रूप निर्गुण में ही मिल जाते हैं. चाहे हम भगवान शिव की उपासना करें, या भगवान विष्णु जी की, या श्रीराम की या श्रीकृष्ण की, या मां दुर्गा जी की… ये सभी हमें उस निर्गुण ब्रह्म से ही जोड़ देते हैं.
निर्गुण ईश्वर को तो हम समझ ही नहीं सकते, उनसे खुद को कनेक्ट कर पाना भी बेहद कठिन है. उनके साथ हम भावनाओं से नहीं जुड़ सकते, और इसीलिए हम उनकी शिक्षाओं को भी ग्रहण नहीं कर सकते. निर्गुण और निराकार स्वरूप में जब उनका कोई निश्चित आकार ही नहीं है, जब उन्हें देखा ही नहीं जा सकता, उन्हें सुना नहीं जा सकता, तो हम उनसे जुड़ भी कैसे सकते हैं?
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जैसे इस ब्रह्मांड को ही देखिये, जिसके बारे में अब तक कोई नहीं जानता कि यह कितना बड़ा है, कहाँ तक फैला हुआ है, इसका कोई अंत है भी या नहीं, तो इसे समझ पाना भी किसी के भी लिए बहुत कठिन ही है. वहीं, जिसका आकार निश्चित होता है, उसे समझ पाना, उससे स्वयं को जोड़ पाना भी आसान होता है.
सोचिये कि यदि भगवान अवतार न लें, तो मानव जाति को कैसे पता चलेगा कि ईश्वर की शिक्षाएं क्या हैं. यदि श्रीकृष्ण अवतार न लेते तो मानव जाति को उनकी गीता का ज्ञान कैसे मिलता? अवतारों की जरूरत भगवान को नहीं, हमें है…
भगवान के अवतारों का रहस्य आसानी से समझा नहीं जा सकता है. रामचरितमानस में भगवान शिव माता पार्वती जी से कहते हैं, “पार्वती! नारायण का अवतार जिस कारण से होता है, वह कारण “बस यही है” ऐसा नहीं कहा जा सकता. यानी अनेकों ऐसे कारण हो सकते हैं जिन्हें कोई नहीं जान सकता. मन, बुद्धि और वाणी से की तर्कना नहीं की जा सकती. संत, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार जो जैसा समझ आता है, कहते रहते हैं.”
पुराणों से वेदांत तक का सफर
हमसे कहा जाता है कि पहले हमें पुराण, फिर रामायण, महाभारत, भगवद्गीता आदि पढ़नी चाहिए और इन सबके बाद ही वेद और वेदांत. यदि शुरुआत में हमें सबसे पहले वेद ही पढ़ा दिए जाएँ, तो हमें समझ तो कुछ आएगा नहीं, लेकिन हम अर्थ का अनर्थ जरूर कर डालेंगे. जैसे- जब हम छोटे होते हैं, तब हमें हर चीज कहानियों के माध्यम से समझाई जाती है, चाहे विज्ञान हो या भूगोल. लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, हमें सभी चीजें शुद्ध रूप में सूत्रों सहित पढ़ाई जाने लगती हैं, क्योंकि तब तक हम उन्हें समझने के योग्य हो जाते हैं.
Written by : Aditi Singhal (working in the media)
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