Magic in Sanskrit Language : ग्रंथों में संस्कृत भाषा के अद्भुत और चमत्कारिक प्रयोग

magic in sanskrit language, vedo me nari ka sthan, Beef eating in Vedas in Hindi, ved kya hote hai, vedas sanskrit to hindi, ऋग्वेद में गाय काटने का वर्णन, हिंदू धर्म ग्रंथ और गोमांस, मनुस्मृति मांस खाना लिखा है, वेदों में मांस

Magic in Sanskrit Language

हमारे प्राचीन ग्रंथों की भाषा संस्कृत है, जिसे देववाणी भी कहा जाता है. यह विश्व की सभी भाषाओं से सबसे प्राचीन और सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है. वेदों की भाषा ‘वैदिक संस्कृत’ है. इसे ‘छान्दसी’ भी कहते हैं, क्योंकि वैदिक ऋचाएं छंदों में हैं जैसे अनुष्टुप, गायत्री जगती आदि. संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यंत परिमार्जित एवं वैज्ञानिक है. यह डिक्शनरी पर आधारित भाषा नहीं है कि हमने डिक्शनरी से शब्दों के मात्र अर्थ या अनुवाद देख लिए और अर्थ निकाल लिया. संस्कृत में जितने भी शब्द बनते हैं, उनका एक नियम होता है. पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ से ये नियम समझे जा सकते हैं, हालाँकि यह इतना आसान नहीं है. वर्तमान समय में प्राप्त सबसे प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ ॠग्वेद है.

ऋग्वेद की वैदिक संस्कृत, जिसे ऋग्वैदिक संस्कृत कहा जाता है, सबसे प्राचीन रूप है. बहुत प्राचीन काल से ही व्याकरण के अनेक आचार्यों ने संस्कृत व्याकरण पर बहुत कुछ लिखा है, लेकिन पाणिनि का संस्कृत व्याकरण पर किया गया कार्य सबसे प्रसिद्ध है. उनका ‘अष्टाध्यायी’ किसी भी भाषा के व्याकरण का सबसे प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है.

महर्षि पाणिनि का ‘अष्टाध्यायी’

‘अष्टाध्यायी’ महर्षि पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण का एक अत्यंत प्राचीन ग्रंथ है, जो चार भागों में लिखा गया है. प्रथम रचना महेश्वरसूत्र (14 सूत्रों की रचना) कहलाती है. ये १४ सूत्र (अक्षरसमाम्नाय या अक्षरों के समूह) हैं जिनका उपयोग करके व्याकरण के नियमों को अत्यंत लघु रूप देने में पाणिनि ने सफलता हासिल की है. शिवसूत्रों को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है. महेश्वर सूत्र को ही शिव सूत्र, पाणिनी सूत्र और प्रत्याहार सूत्र के नाम से भी जाना जाता है. दूसरी अष्टाध्यायी में आठ अध्याय और लगभग चार हजार सूत्र हैं, जो अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में वैज्ञानिक ढंग से संगृहीत हैं.

वैदिक संस्कृत तथा लौकिक संस्कृत – एक परिवर्तन

प्राचीन वेद धर्मग्रन्थ वैदिक संस्कृत में लिखे गए हैं, जो कि सबसे प्राचीन प्रामाणिक भाषा है. संस्कृत का सबसे प्राचीन अर्थात वेदकालीन व्याकरण ‘वैदिक व्याकरण’ कहलाता है. यह पाणिनी की व्याकरण से कुछ अलग था. वेदों के अध्ययन से देखा गया है कि सैकड़ों वर्षों के दीर्घकाल में वैदिक संस्कृत का रूप बदलता चला गया है.

पाणिनि के नियमीकरण के बाद की शास्त्रीय संस्कृत और वैदिक संस्कृत में पर्याप्त अंतर है. लौकिक संस्कृत का साहित्य वैदिक साहित्य से अनेक प्रकार से भिन्न है. लौकिक साहित्य की भाषा एवं वैदिक साहित्य की भाषा में भी अंतर पाया जाता है. दोनों के शब्दरूप तथा धातुरूप अनेक प्रकार से भिन्न हैं. वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं, बल्कि अनेक भी हैं, विशेष रूप से वे रूप जो क्रिया रूपों एवं धातुओं के स्वरूप से सम्बंधित हैं (वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अंतर है. वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं).

Read Also : वेदों में मांसाहार, पशुबलि और अश्लीलता

वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है और उसमें कुछ अन्य रूपों की भी उपलब्धता है. जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बतलाने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं- लोट् और विधिलिं जो कि लट्प्रकृति अर्थात् वर्तमान काल की धातु से बनते हैं. इसी प्रकार शब्दार्थ विज्ञान की दृष्टि से कुछ शब्दों में एक विशेष परिवर्तन देखने को मिलता है जैसे ‘ऋतु’ जिसका वैदिक संस्कृत में अर्थ है ‘शक्ति’, जबकि लौकिक संस्कृत में उसका अर्थ ‘यज्ञ’ हो गया है. इस प्रकार के परिवर्तन बहुत अधिक हैं.

कुछ वैदिक शब्द लौकिक संस्कृत में दुर्लभ या अप्राप्य हैं, साथ ही कुछ नये शब्दों का जन्म भी हो गया है. उदाहरणार्थ, वैदिक संस्कृत में ‘अपस्’ को ‘कार्य’ के अर्थ में भी लिखा गया है, वहीं लौकिक संस्कृत में यह अर्थ लुप्त हो गया है. वैदिक संस्कृत में ‘फ़’ और ‘ख़’ की भी ध्वनियाँ थीं जो बाद की संस्कृत में खो गईं. यह वैदिक और लौकिक संस्कृत की अपनी विशेषता है. इसलिए वेदों को मूल रूप में पढ़ने के लिए मात्र संस्कृत ही सीखना पार्याप्त नहीं है, बल्कि वैदिक संस्कृत का भी पर्याप्त अध्ययन करना पड़ता है.

Read Also : रामायण में मांसाहार – एक महत्वपूर्ण तथ्य

आज हम संस्कृत भाषा के कुछ चमत्कार या अद्भुत प्रयोग देखेंगे. ऐसे प्रयोग किसी और भाषा में न तो देखने को मिलते हैं और न ही किये जा सकते हैं.

एक ही वर्ण से सम्पूर्ण श्लोक की रचना-

दाददो दुद्ददुद्दादी दाददो दूददीददोः।
दुद्दादं दददे दुद्दे दादाददददोऽददः॥
(शिशुपालवधम् – महाकवि माघ)

अर्थात्- दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खण्डन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया.

उपर्युक्त श्लोक में केवल ‘द’ अक्षर का प्रयोग करके एक अर्थपूर्ण श्लोक की रचना कर दी गई है. इसी प्रकार निम्नलिखित श्लोक में केवल ‘ल’ का प्रयोग किया गया है-

लोलालालीललालोल लीलालालाललालल।
लेलेलेल ललालील लाललोलीललालल॥

अर्थात्- हे एकमात्र प्रभु! जो अपने घुँघराले केशों की लटों की एक पंक्ति के साथ क्रीड़ारत हैं, जो कदापि परिवर्तित नहीं होते, जिनका मुख लीलाओं में श्लेष्मा से परिपूर्ण है, जो (शिव धनुर्भंग) क्रीड़ा में पृथ्वी की सम्पत्ति (सीता) को स्वीकार करते हैं, जो मर्त्यजनों की विविध सांसारिक कामनाओं का नाश करते हैं, हे बालक! जो प्राणियों के चंचल प्रकृति वाले स्वभाव को विनष्ट करते हैं, (ऐसे आप सदैव मेरे मानस में) आनन्द करें.

महाकवि भारवि ने किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में केवल ‘न’ व्यंजन का प्रयोग करके अद्भुत श्लोक की रचना करके थोड़े में बहुत कह दिया है-

न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नाना नना ननु।
नुन्नोSनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नन्नुनन्नुनुत्॥

अर्थात्- जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है, वह सच्चा मनुष्य नहीं है. इसी प्रकार जो अपने से दुर्बल को घायल करता है वह भी मनुष्य नहीं है. घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल (पराजित) नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करे, वह भी मनुष्य नहीं है.

ऐसा ही एक अन्य अद्भुत कौशल देखिये-

कः कौ के केककेकाकः काककाकाककः ककः।
काकः काकः ककः काकः कुकाकः काककः कुकः॥
काककाक ककाकाक कुकाकाक ककाक क।
कुककाकाक काकाक कौकाकाक कुकाकक॥
(श्रीभार्गवराघवीयम्)

अर्थात्- परब्रह्म श्री राम पृथ्वी और साकेत लोक में (दोनों स्थानों पर) सुशोभित हो रहे हैं. उनसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में आनन्द निःसृत होता है. वे मयूर की केकी एवं काक (काकभुशुण्डि) की काँव-काँव में आनन्द और हर्ष की अनुभूति करते हैं. उनसे समस्त लोकों के लिए सुख का प्रादुर्भाव होता है. उनके लिए (वनवास के) दुःख भी सुख हैं. उनका काक प्रशंसनीय है. उनसे ब्रह्मा को भी परमानन्द की प्राप्ति होती है. वे (अपने भक्तों को) पुकारते हैं. उनसे सीता को भी आमोद प्राप्त होता है. उनसे सांसारिक फलों एवं मुक्ति का आनन्द प्रकट होता है. हे मेरे एकमात्र प्रभु! आप जिनसे काक के शीश पर दुःख (रूपी दण्ड प्रदान किया गया) था, आप जिनसे समस्त प्राणियों में आनन्द निर्झरित होता है, कृपया पधारें, कृपया पधारें. हे एकमात्र प्रभु! जिनसे सीता प्रमुदित हैं; कृपया पधारें. हे मेरे एकमात्र स्वामी! जिनसे ब्रह्माण्ड के लिए सुख है; कृपया आ जाइये. हे भगवन! हे एकमात्र प्रभु! जो नश्वर संसार में आनन्द खोज रहे मनुष्यों को स्वयं अपनी ओर आने का आमंत्रण देते हैं; कृपया आ जाएँ, कृपया पधारें. हे मेरे एकमात्र नाथ! जिनसे ब्रह्मा एवं विष्णु दोनों को आनन्द है; कृपया आ जाइये. हे एक! जिनसे ही भूलोक पर सुख है; हे एकमात्र प्रभु! जो (रक्षा हेतु) दुष्ट काक द्वारा पुकारे जाते हैं, कृपया पधारें, कृपया पधारें.

मात्र एक स्वर (उ) का प्रयोग कर बना श्लोक-

उरुगुं द्युगुरुं युत्सु चुक्रुशुस्तुष्टुवुः पुरु।
लुलुभुः पुपुषुर्मुत्सु मुमुहुर्नु मुहुर्मुहुः॥
(भोजराजकृत सरस्वतीकण्ठाभरणम् २|२७६)

 मात्र एक स्वर (आ) का प्रयोग कर बना श्लोक-

सामायामामाया मासा मारानायायाना रामा।
यानावारारावानाया मायारामा मारायामा।
(दण्डीकृत काव्यादर्श ३|८२)

• अन्य उदाहरण-

क्षितिस्थितिमितिक्षिप्तिविधिविन्निधिसिद्धिलिट्।
मम त्र्यक्ष नमद्दक्ष हर स्मरहर स्मर॥
(भोजराजकृत सरस्वतीकण्ठाभरणम् २|२७८)

अर्थात्- हे भगवान् शिव! त्रिनेत्रधारी, अस्तित्व के ज्ञाता, धरा के मापक व संहारक, अष्टसिद्धि, नवनिधि के भोक्ता, आप जिन्होंने दक्ष एवं कामदेव के मान का संहार किया, मुझे स्मरण करें.

क्या किसी और भाषा में एक ही अक्षर या स्वर से पूरा अर्थपूर्ण वाक्य लिखा जा सकता है? नहीं, ऐसा केवल संस्कृत में ही संभव है. इन सभी श्लोकों में आपको संधि-विच्छेद और एक-एक मात्रा का महत्त्व अच्छे से समझ आ रहा होगा. यदि एक भी संधि-विच्छेद गलत हुआ, या एक भी वर्ण इधर से उधर हो गया, तो पूरा अर्थ ही बदल जायेगा.


अब केवल दो अक्षरों से एक सम्पूर्ण अर्थपूर्ण श्लोक की रचना का कौशल देखिये-

महाकवि माघ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल ‘भ’ और ‘र’ अक्षरों से एक श्लोक की रचना की है-

भूरिभिर्भारिभिर्भीभीराभूभारैरभिरेभिरे।
भेरीरेभिभिरभ्राभैरूभीरूभिरिभैरिभा:॥

अर्थात्- निर्भय हाथी जो भूमि पर भार स्वरूप लगता है, अपने वजन के चलते जिसकी आवाज नगाड़े की टेरेह है और जो काले बादलों के समान है, वह दूसरे शत्रु हाथी पर आक्रमण कर रहा है.

अन्य उदाहरण –

क्रोरारिकारी कोरेककारक कारिकाकर।
कोरकाकारकरक: करीर कर्करोऽकर्रुक॥

अर्थात्- क्रूर शत्रुओं को नष्ट करने वाला, भूमि का एक कर्ता, दुष्टों को यातना देने वाला, कमलमुकुलवत, रमणीय हाथ वाला, हाथियों को फेंकने वाला, रण में कर्कश, सूर्य के समान तेजस्वी था.

वरदोऽविवरो वैरिविवारी वारिराऽऽरवः.
विववार वरो वैरं वीरो रविरिवौर्वरः॥
(केवल ‘व’ और ‘र’ वर्णों का प्रयोग)

निम्नलिखित श्लोक की पहली पंक्ति में केवल ‘ज’ व्यंजन, दूसरी में ‘त’, तीसरी में ‘भ’ और चौथी में ‘र’ शामिल हैं-

जजौजोजाजिजिज्जाजी तं ततोऽतितताततुत्।
भाभोऽभीभाभिभूभाभू रारारिररिरीररः॥
(किरातार्जुनीय)

अर्थात्- महान योद्धा और कई युद्धों के विजेता, शुक्र और बृहस्पति के समान तेजस्वी, शत्रुओं के नाशक बलराम, रणक्षेत्र की ओर इस प्रकार चले, मानो चतुरंगिणी सेना से युक्त शत्रुओं की गति को अवरुद्ध करता हुआ सिंह चला आ रहा हो.

केवल 3 अक्षरों से बना श्लोक-

देवानां नन्दनो देवो नोदनो वेदनिंदिनां।
दिवं दुदाव नादेन दाने दानवनंदिनः॥

अर्थात् – वह परमात्मा (श्रीविष्णु) जो दूसरे देवों को सुख प्रदान करते हैं और जो वेदों को नहीं मानते (जो वेद विरुद्ध कार्य करते हैं) उन्हें दण्ड देते हैं. वे स्वर्ग को उस ध्वनि नाद से भर देते हैं, जिस तरह के नाद से उन्होंने (हिरण्यकश्यप) दानव का वध किया था.


यह तो हुई सीमित अक्षरों से सम्पूर्ण श्लोक या वाक्य रचना की बात. अब देखते हैं कि वर्णमाला के सभी अक्षरों का व्यवस्थित प्रयोग करके भी कैसे एक अर्थपूर्ण वाक्य बनाया जा सकता है. इसके लिए हम देखेंगे ‘सरस्वतीकण्ठाभरणम्’ का उदाहरण, जो कि मालवा के राजा भोजराज जी की एक रचना है. इसमें उन श्लोकों का संग्रह है, जो बहुत ही अद्भुत तरीके से लिखे गए हैं. एक उदाहरण देखिये-

क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोटौठीडढण:।
तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह॥

आप देख सकते हैं कि इस पद्य में संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन आ गए हैं. इतना ही नहीं, उनका क्रम भी यथायोग्य है. इसमें हिंदी के ‘क’ से ‘ह’ तक के सभी अक्षर क्रम से लगे हुए हैं और इस श्लोक का अर्थ भी बहुत अच्छा है-

अर्थात्- जो पक्षी प्रेमी हैं, जिनकी बुद्धि निर्मल है, जो पराक्रम का हरण करने में निपुण हैं, जो शत्रु-संहारकों में अग्रणी हैं, मन से निश्चल तथा निडर हैं, महासागर का सर्जन कौन हैं? राजा मय जिन्हें शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं.

अब एक ऐसा उदाहरण देखिये, जिसमें महायमक अलंकार का प्रयोग किया गया है. निम्नलिखित श्लोक में चार पद हैं, बिलकुल एक जैसे, लेकिन सबके अर्थ अलग-अलग हैं-

विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः।
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः॥

अर्थात्- अर्जुन के असंख्य बाण सर्वत्र व्याप्त हो गये जिसने भगवान् शंकर के बाण खण्डित कर दिये. इस प्रकार अर्जुन के रण कौशल को देखकर दानवों को मारने वाले भगवान् शंकर के गण आश्चर्य में पड़ गये. भगवान् शंकर और तपस्वी अर्जुन के युद्ध को देखने के लिए शंकर जी के भक्त आकाश में आ पहुँचे.


इसी के साथ, संस्कृत श्लोकों में ज्यामितीय प्रयोग भी देखिये. दरअसल, ऐसे प्रयोग श्लोकों के मूल अर्थ को छिपाने के लिए भी किये जाते थे. कुछ उदाहरण-

निम्नलिखित श्लोक की आप दोनों पंक्तियों को किसी भी तरफ से पढ़ सकते हैं-

वारणागगभीरा सा साराभीगगणारवा।
कारितारिवधा सेना नासेधा वारितारिका॥
(शिशुपालवधे)

निम्नलिखित श्लोक में पहली पंक्ति दूसरी पंक्ति की ठीक उल्टी है. इसे प्रतिलोम (या गतप्रतियोगता) कहा जाता है-

तं श्रिया घनयानस्तरुचा सारतया तया।
यातया लाटा चारुस्तनयनघया श्रितं॥

निम्नलिखित श्लोक को सिलेबिक सैटर स्क्वायर के रूप में भी सोचा जा सकता है. संस्कृत के सौंदर्यशास्त्री इसे ‘सर्वतोभद्र’ कहते हैं, अर्थात् “हर दिशा में परिपूर्ण” – आगे, पीछे, नीचे या ऊपर पढ़ने पर यह समान पाठ देता है.

सकारनानारकास कायसाददसायका।
रसाहवा वाहसार नादवाददवादना॥

निम्नलिखित श्लोक को “ड्रम” (मुरजबंध) पैटर्न के साथ पढ़ने पर पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी पंक्तियाँ समान पाठ देती हैं.

सासेनागमनारम्भे रसेनासीदनारता।
तारनादजनामत्त धीरनागमनामया॥

निम्नलिखित श्लोक में प्रत्येक चारों पदों को उल्टा भी पढ़ा जा सकता है. इस पैटर्न को ‘प्रतिलोमनुलोमपाद’ कहा जाता है.

नानाजाववजानाना साजनौघघनौजसा।
परानिहऽहानिराप तान्वियाततयान्विता॥

निम्नलिखित श्लोक में आप दोनों पंक्तियों के प्रत्येक अक्षर को अलग-अलग लिख लें, जिससे ऊपर की पंक्ति के सभी अक्षर नीचे की पंक्ति के सभी अक्षर के ठीक ऊपर हों. फिर ऊपर वाली पंक्ति के पहले अक्षर से शुरू करके एक जिगजैग लाइन खींचें, तो आपको ठीक यही श्लोक फिर मिल जायेगा. इसे ‘गोमूत्रिकाबंध’ कहते हैं.

प्रवृत्तेविकसद्धानं साधने प्यविपादिभिः।
व वृषेविकसद्धानं युधमा प्यविषाणिभिः॥

निम्नलिखित श्लोक में ‘चक्रबंध’ पैटर्न है, जिसमें अक्षरों को छह प्रवक्ताओं के साथ एक चक्र के रूप में व्यवस्थित किया गया है. यह अत्यंत कठिन है, जिसे सोच पाना हमारे लिए संभव ही नहीं है-

सत्वं मानविशिष्टमाजिरभसादालम्ब्य भव्यः पुरो
लब्धाघक्षयशुद्धिरुद्धरतरश्रीवत्सभूमिर्मुदा।
मुक्त्वा काममपास्तभीः परमृगव्याधः स नादं
हरेरेकौघैः समकालमभ्रमुदयी रोपैस्तदा तस्तरे॥
(शिशुपालवध-माघ-काव्यमिदं)

अन्य उदाहरण-

अभीकमतिकेनेद्धे भीतानन्दस्यनाशने।
कनत्सकामसेनाके मन्दकामकमस्यति॥
(अर्धभ्रमक पैटर्न)


ये थे संस्कृत के कुछ चमत्कारी ज्यामितीय प्रयोग. अब जैसे कि वेदमंत्रों को देखकर बहुत से लोग यही कहते रहते हैं कि वेदों में तो केवल स्तुतियां हैं, विज्ञान नहीं. तो इसी को लेकर आप एक और अद्भुत श्लोक देखिये-

गोपीभाग्य मधुव्रातः श्रुंगशोदधि संधिगः।
खलजीवितखाताव गलहाला रसंधरः॥

अनुष्टुभ छंद में रचा उपर्युक्त श्लोक पढ़कर ऐसा लगता हैं कि इसमें भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की गई है, लेकिन इसमें भगवान शिव की भी स्तुति है, पर इससे भी एक बड़ी महत्वपूर्ण बात इस श्लोक में छिपी है, वह यह है कि यह श्लोक पाई (π) का सटीक मान बताता है.

इस श्लोक को डीकोड करने पर 32 अंकों तक π का मान 3.1415926535897932384626433832792… आता है.

अब इस श्लोक में छिपी हुई π की संख्या ‘कटपयादी संख्या’ का प्रयोग करने पर दिखती है. कटपयादी प्राचीन काल से संख्या को कूटबद्ध (Encrypt) करने की पद्धति है. इस कटपयादी संख्या को समझने के लिए एक श्लोक का प्रयोग किया जाता है (जैसे गणित में सूत्रों का प्रयोग किया जाता है) –

कादि नव
टादि नव
पादि पञ्चक
यद्यश्टक
क्ष शुन्यम्


इसी प्रकार के बहुत उदाहरण भरे पड़े हैं संस्कृत ग्रंथों में. आपने सुना होगा कि वेदों के मंत्र कई प्रकार के अर्थ देते हैं. वेदों से दर्शन, अध्यात्म, उपासना, ज्ञान-विज्ञान और इतिहास की जानकारी प्राप्त की जा सकती है. हर एक मंत्र स्तुति या उपासना के रूप में कहा गया है, पर अर्थ अलग-अलग देता है. जैसे दयानन्द सरस्वती जी ने जिन वेद मंत्रों का अर्थ दर्शन और अध्यात्म के अर्थ में निकाला है, उन्हीं मंत्रों से विज्ञान की भी जानकारी मिलती है. हम वेद मंत्रों का जो भी अर्थ निकालते हैं, वह हमारी ही प्रकृति या हमारे ही झुकाव को दर्शाता है.

संस्कृत ग्रंथों में बहुत सारे श्लोकों की क्रिप्टोग्राफी भी की गई है. यानी इन ग्रंथों के श्लोक लिखे ही इस प्रकार से गए हैं, जिससे उन्हें समझना आसान ही न हो. मतलब यदि आप इन श्लोकों का अर्थ संस्कृत के साधारण नियमों या शब्दार्थों से लगाएंगे, तो आप इतने भ्रमित हो जायेंगे कि आप सोचेंगे – ‘What is this?’

Read Also : देवी-देवताओं के क्यों हैं इतने हाथ और सिर?

जैसे वैमानिक शास्त्र को समझने के लिए 32 रहस्यों (Systems) की जानकारी आवश्यक बतायी गयी है. उन रहस्यों को जान लेने के बाद ही यह विद्या कुछ समझ आ सकती है. ‘समरांगणसूत्रधार’ के लेखक राजा भोज ने लिखा है कि इस वैमानिकी विद्या को खुलकर इसलिए नहीं लिखा गया है, क्योंकि यदि यह विद्या गलत लोगों के हाथों में पड़ गई, तो नुकसान ही अधिक होगा (राजा भोज द्वारा रचित ग्रन्थ जिसके ‘यन्त्रविधान’ नामक 31वें अध्याय में भी विमानविद्या से जुड़े कुछ श्लोक हैं. ऋग्वेद के चौथे मंडल के 36वें सूक्त में भी विमानों का वर्णन हुआ है).

निश्चित सी बात है कि सनातन ग्रंथों के अर्थ का अनर्थ कर उनमें हर समय अश्लीलता, मांसाहार, हिंसा, जातिवाद खोजने का शौक रखने वाले लोग इन श्लोकों को कभी समझ ही नहीं सकते, और इस प्रकार ऐसी विद्याएं ऐसे कुपात्रों के हाथों में जाने से बच जाती हैं.

इसी के साथ, संस्कृत के अधिकतर ग्रन्थ काव्यात्मक रूप (Poetic Form) में लिखे गए हैं, जैसे कि वाल्मीकि रामायण. इन काव्य ग्रंथों की यह विशेषता होती है कि कवियों को किसी भी पात्र की शारीरिक दशा, मन के भाव, उसके कार्य आदि को एक ही पंक्ति में समेट देना होता है. इसके लिए वैदिक कवियों ने बड़े विचित्र और अद्भुत प्रयोग भी किये हैं, जिनकी वजह से हमें अनुवादों में कभी-कभी अशुद्धियों और त्रुटियों का भी सामना करना पड़ता है, साथ ही लिखने वाले के भावों को भी समझने में भूल कर बैठते हैं.

शास्त्रों और ग्रंथों को पढ़ने का एक तरीका और नियम होता है. यदि हम उस तरीके को नहीं जानते, तो हम केवल अर्थ का अनर्थ ही करेंगे, और वह अर्थ कभी नहीं समझ पाएंगे जो अर्थ वे ग्रन्थ हमें देना चाहते हैं.

Read Also : भगवान क्यों करते हैं ऐसे कार्य और ‘गलतियां’?

Read Also : सनातन धर्म से जुड़े तथ्य और सवाल-जवाब


Tags : sanskrit kaise sikhe padhe, sanskrit bhasha ka mahatva, sanskrit shlok, sanskrit shala darpan, sanskrit pratibha khoj, sanskrit to hindi, Best Sanskrit to Hindi translation, sanskrit counting, sanskrit mein ginti



Copyrighted Material © 2019 - 2024 Prinsli.com - All rights reserved

All content on this website is copyrighted. It is prohibited to copy, publish or distribute the content and images of this website through any website, book, newspaper, software, videos, YouTube Channel or any other medium without written permission. You are not authorized to alter, obscure or remove any proprietary information, copyright or logo from this Website in any way. If any of these rules are violated, it will be strongly protested and legal action will be taken.



About Niharika 255 Articles
Interested in Research, Reading & Writing... Contact me at niharika.agarwal77771@gmail.com

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*