Mahishasura Mardini Stotram : महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र (हिंदी अर्थ सहित)

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नवरात्रि पर देवी को प्रसन्न करने के लिए किए जाने वाले कुछ उपाय.

Mahishasura Mardini Stotram (Sanskrit and Hindi)

मां दुर्गा (Maa Durga) को सभी शक्तियों का सम्मिलित रूप माना जाता है. इन्हें मूलप्रकृति आदिशक्ति भी कहा गया है. ये आदि शक्ति, पराशक्ति, मूलप्रकृति, गुणवती योगमाया, बुद्धितत्व की जननी एवं विकार रहित हैं. वे अंधकार और अज्ञानता रूपी राक्षसों से रक्षा करने वाली तथा कल्याणकारी हैं. वे शान्ति, समृद्धि एवं धर्म पर आघात करने वाली राक्षसी शक्तियों का विनाश करती हैं. माता नित्य होती हुई भी बार-बार प्रकट होती हैं.

मां दुर्गा से तीनों सर्वोच्च शक्तियां- मां पार्वती (शक्ति), मां लक्ष्मी और मां सरस्वती जी हैं. ये सभी शक्तियां मिलकर दैत्यों, असुरों आदि का संहार करती हैं. मां दुर्गा के रूप में तीनों सर्वोच्च शक्तियों की उपासना की जाती है. मार्कण्डेय पुराण में श्री ब्रह्माजी ने मनुष्‍य जाति की रक्षा के लिए एक परम गुप्‍त, परम उपयोगी और कल्‍याणकारी देवी कवच एवं देवी सूक्‍त बताया है, जिसमें सभी शक्तियों की उपासना और उनसे प्रार्थना की गई है.

प्रस्तुत महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र (Mahishasura Mardini Stotram) में सभी देवियों की स्तुति की गई है. यह स्तोत्र श्री आदि शंकराचार्य (Adi Shankaracharya) द्वारा रचित, मां भवानी की अत्यंत कर्ण प्रिय स्तुति है (कहीं-कहीं पर इस स्तोत्र को भगवतीपद्यपुष्पांजलिस्तोत्र का एक भाग बताया गया है जो रामकृष्ण कवि द्वारा लिखा गया है). यह स्त्रोत बहुत ही शक्तिशाली माना जाता है. जो व्यक्ति शक्ति की इच्छा रखता है, उसे मां भवानी की इस स्तोत्र से आराधना करनी चाहिए.

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महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्य शिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

हे हिमालय राज की पुत्री (गिरिजा देवी)! विश्व को आनंदित करने वाली देवी (वे समय-समय पर पृथ्वी का भार उतारती हैं व अपने अनेक रूपों से विविध लीलाएं रचती है), नंदी गणों द्वारा पूजित (नंदी द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है), गिरिश्रेष्ठ विन्ध्याचल के शिखर पर निवास करने वाली देवी, अपनी लीला से भगवान् श्री विष्णु को प्रसन्न करने वाली (महालक्ष्मी-स्वरूपा), देवताओं के अधिपति जिष्णु या इंद्र द्वारा सुपूजित (देवराज इन्द्र समस्त देवताओं सहित जिनका सदा स्तुतिगान करते हैं),

भगवान् नीलकंठ (शिवजी) की पत्नी, विश्व में विशाल कुटुम्ब वाली (जगत की माता होने के कारण बहुत विशाल कुटुम्ब वाली हैं) विश्व को ऐश्वर्य प्रदान करने वाली, सबका कल्याण करने वाली हे देवी! महिषासुर (दैत्य) का मर्दन करने वाली हे (सुन्दर) मनोहर जटाधारिणी या सुकेशिनी (भगवान् शिव को भी उनके जटाधारी होने के कारण ‘कपर्दी’ कहा जाता है. मां पार्वती भी तपस्विनी रूप में जटाधारिणी हैं. इसी के साथ, माँ शक्ति के अनेक नामों में से उनका एक नाम ‘कपर्दिनी’ भी है) हे पर्वत की पुत्री आपकी जय हो, जय हो, जय हो.


सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि कल्मषमोषिणि घोषरते।
दनुजनिरोषिणि दुर्मदशोषिणि दुर्मुनिरोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

सुरों को वरदान देने वाली (देवताओं पर कृपा बरसाने वाली), दुर्धर और दुर्मुख दैत्यों का संहार करने वाली, स्वयं में हर्षित रहने वाली, तीनों लोकों का पालन-पोषण करने वाली (अन्नपूर्णा, भुवनेश्वरी), भगवान् शंकर को प्रसन्न रखने वाली, पाप समूहों का नाश करने वाली, घोर गर्जना करने वाली (घोष, युद्ध करती हुई देवी), दनुजों (दानव) के रोष को निरोष (निःशेष) करने वाली (दनुजों को समाप्त करके उनके रोष को समाप्त करने वाली), दुर्मद दैत्यों (बल के मद से उन्मत्त दैत्यों) को भयभीत करके उन्हें सुखाने वाली (उनके प्राण सुखाने वाली), (चरित्र और सदाचार से विमुख) मुनिजनों पर क्रोध करने वाली हे सिंधुसुता (सागर-पुत्री महालक्ष्मी स्वरूपा)! महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे पर्वत की पुत्री आपकी जय हो, जय हो, जय हो.

कहीं-कहीं पर (इस श्लोक की तीसरी पंक्ति में)- “दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते” लिखा गया है. अर्थ में बदलाव आ जाता है पर दोनों ही सही हैं. ‘दितिसुतरोषिणि’ के अनुसार ‘दितिसुत’ अर्थात असुरों पर क्रोध करने वाली.

इसी प्रकार, कहीं-कहीं पर इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में “त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते” लिखा गया है. दोनों ही सही हैं, क्योंकि ‘किल्विष’ और ‘कल्मष’ दोनों ही शब्दों का अर्थ पाप, दोष, अपराध होता है.


अयि जगदम्ब कदम्बवनप्रियवासिनि तोषिणि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमालय शृङ्गनिजालय मध्यगते।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि महिषविदारिणि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

हे जगन्माता (जगत की माता)! अपने प्रिय कदम्ब-वृक्ष के वनों में वास करने वाली (वस्तुत: मां को कदम्ब के वन-वृक्ष बहुत प्रिय हैं. इसी के साथ ‘कदम्ब’ शब्द ‘सुगन्ध’ का भी बोध कराता है. कदम्ब वायु, अर्थात् सुगन्धित वायु. ध्यातव्य है कि देवी-देवता सुगन्ध-प्रिय होते हैं), सदा सन्तोष से संपन्न रहने वाली, हे सुहासिनी (सदा मुस्कुराने वाली)! पर्वत-मुकुटमणि हिमाद्रि के उच्च शिखर के मध्य में जिनका निवास स्थान है, (हे शिखर-मंदिर में रहने वाली देवी)! (हे) मधु से भी मधुरतर! मधु-कैटभ को पराभूत करने वाली (जीतने वाली, मारने वाली), महिष असुर को चीरकर रख देने वाली (वध करने वाली), कोलाहल में रत रहने वाली, महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे शैलसुता आपकी जय हो, जय हो, जय हो.

कहीं-कहीं पर इस श्लोक की पहली पंक्ति इस प्रकार दी गई है-
“अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते”


अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्ड गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशौण्ड मृगाधिपते।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपाटितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

महासंग्राम में (शत्रुपक्ष के गजाधिपतियों अर्थात् बलशाली हाथियों) की सूँड़ें (शुण्ड) काटकर उनके धड़ों को सैकड़ों टुकड़ों में खण्ड-खण्ड करके रख देने वाली, शत्रुओं के हाथियों के कपोल आदि को चीर देने में हिंसक रूप से कुशल (शौण्ड) अपने सिंह पर सवारी करने वाली हे मृगाधिपति (सिंह की स्वामिनी, सिंहवाहिनी)! चण्ड-मुण्ड को अपने भुजदण्ड (त्रिशूल) से मार-मारकर विदीर्ण (विपाटित, खण्ड-खण्ड) कर देने वाली (रणशूर योद्धाओं पर प्रभुत्व रखने वाली) हे परमेश्वरी, महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे पर्वत की पुत्री आपकी जय हो, जय हो, जय हो.


अयि रणदुर्मद शत्रुवधाद्धुर दुर्धरनिर्भर शक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदूत दुरन्तगते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

रणभूमि में हिंसा के मद में चूर वैरी-वध से बढ़ी हुई एवं दुस्सह तथा उत्कट शक्ति को धारण किये हुए (मदोन्मत्त शत्रुओं के वध से बढ़ी हुई अदम्य एवं पूर्ण शक्ति धारण करने वाली) हे देवी, विचक्षण (तीव्र दृष्टि वाले) बुद्धिशालियों में अग्रणी और सर्वश्रेष्ठ भूतनाथ (महाशिव, महाबुद्धिमान प्रमथाधिपति अर्थात् गणों के अधिपति) को दूत बनाकर दैत्यराज के पास भेजने वाली, दूषित कामनाओं तथा कुत्सित विचारों वाले दुर्बुद्धि दानवों के दूतों से न जानी जा सकने वाली (अधम, पापेच्छा व कुत्सित प्रयोजन रखने वाले दुष्टबुद्धि दानवदूत जिन्हें तनिक भी समझ न सके, जिनका तनिक भी थाह न पा सके) ऐसी हे माता, महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे पर्वत की पुत्री आपकी जय हो, जय हो, जय हो.

कहीं-कहीं पर इस श्लोक की दो पंक्तियां इस प्रकार दी गई हैं-
“अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते”

अर्थ अलग-अलग हो जाता है, पर दोनों ही सही हैं (कथा के अनुसार, देवी पर बलप्रयोग करने के प्रयोजन से दैत्यराज शुम्भ द्वारा निर्लज्ज सन्देश देकर भेजे गये दानवदूतों का अंत कर देने के कारण देवी को यमराज (और धर्मराज) बुद्धि वाली अथवा ‘कृतान्तमते’ कहा गया है).

कृतान्त – समाप्त करने वाला, अंत करने वाला, यम, धर्मराज
दुरन्त – जिसका अंत या पार पाना कठिन हो, अपार, बड़ा भारी
महाशय – पूज्य, श्रेष्ठ
दुर् – कठिनाई और बुराई सूचक शब्द (उपसर्ग) जैसे दुरात्मा, दुर्जन, दुर्भाव आदि.


अयि शरणागत वैरिवधूवर वीरवराभयदायकरे
त्रिभुवनमस्तक शूलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शूलकरे।
दुमिदुमितामर दुन्दुभिनादमुहुर्मुखरीकृत दिङ्निकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

शरण में आई हुईं पतिपरायण शत्रुपत्नियों के वीर पतियों को अभय प्रदान करने वाले हाथों से शोभा पाने वाली (माँ दुर्गा अखण्ड सुहाग की देवी हैं. रण में शत्रुओं का विनाश करते हुए देखकर वैरियों की पतिव्रता पत्नियां भयभीत होकर अपने सुहाग की रक्षा के लिए उनकी शरण में आ जाती हैं, तब वे सर्वमंगला दया करके उनके स्वामियों को भी अभय प्रदान कर देती हैं) तीनों लोकों को पीड़ित करने वाले दैत्य शत्रुओं के मस्तक पर प्रहार करने योग्य तेजोमय (त्रि)शूल हाथ में धारण करने वाली (अपने त्रिशूल-विरोधी के मस्तक को, फिर चाहे वह त्रिभुवन का स्वामी ही क्यों न हो, अपने त्रिशूल से अपने अधिकार में करने वाली), हे ‘दुमि-दुमि’ की ताल पर बजने वाली देवताओं की दुन्दुभि के नाद को समस्त दिशाओं में बार-बार गुंजायमान करवाने वाली (देवताओं की दुन्दुभि से निकलने वाली ‘दुम्-दुम्’ ध्वनि से समस्त दिशाओं को बार-बार गुंजित करने वाली), महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे पर्वत की पुत्री आपकी जय हो, जय हो, जय हो.


अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते।
शिवशिव शुम्भनिशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अपनी हुंकार मात्र से धूम्रविलोचन (एक दैत्य, जो देवी की हुंकार मात्र से ही भस्म हो गया था) को निराकृत करके सौ-सौ धुयें के कणों में बदलकर राख कर देने वाली, युद्धभूमि में शोणितबीज (एक दैत्य का नाम, कहीं-कहीं इसका नाम ‘रक्तबीज’ भी दिया गया है) और उसके रक्त की बूँद-बूँद से पैदा होते और बीजों की बेल के समान दिखने वाले (बीजलता) अन्य अनेक शोणितबीजों का संहार करने वाली (रक्तबीज के रक्त से उत्पन्न हुए अन्य रक्तबीज समूहों का रक्त पी जाने वाली), शुम्भ-निशुम्भ (दैत्यों) के साथ महाहव (महायुद्ध) से (दैत्यवध करके) मंगलकारी और कल्याणकारी शिव के भूत-पिशाचों को तृप्त करने वाली (यहां यह बताने का प्रयास किया गया है कि वह युद्ध कितना भयंकर रहा होगा) हे देवी, महिषासुर का संहार करने वाली हे जटाधरी गिरिजा आपकी जय हो, जय हो, जय हो.

कहीं-कहीं पर इस श्लोक की दूसरी पंक्ति इस प्रकार दी गई है-
“समरविशोषित रोषित शोणितबीज समुद्भवबीजलते”


धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके
कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटश्रृंङ्ग हताबटुके।
हतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद् बहुरङ्ग रटद् बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

समरभूमि में युद्ध के क्षणों में, धनुष थामे हुए जिनके हाथों के कंकण हाथों की गति-दिशा के अनुरूप नर्तन करने लगते हैं (युद्धभूमि में असुरों के साथ संग्राम करते हुए जिनके धनुष लहराते हाथ की गति का अनुसरण हाथ में पहने हुए कंकण भी करते हैं या, युद्धभूमि में धनुष धारण कर अपने शरीर को हिलाने मात्र से शत्रुदल को कम्पित कर देने वाली हे देवी)! रण में भीषण कोलाहल करते हुए मूढ़ शत्रु योद्धाओं को अपने सुनहरे-भूरे तीर-तरकश से मार गिराने वाली (कर्णभेदी ध्वनि में चीत्कार करते हुए जड़बुद्धि, मूर्ख दैत्य-योद्धाओं को मार गिराने वाली) हे देवी! रणक्षेत्र में शत्रु की चतुरंगिणी सेना को नष्ट कर उसका संहार करने वाली तथा रणभूमि में अनेक प्रकार की शब्दध्वनि करने वाले बटुकों (अपने विकराल गणों व बटुक भैरव) को उत्पन्न करने वाली हे देवी! महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे पर्वत की पुत्री आपकी जय हो, जय हो, जय हो.

कहीं-कहीं पर इस श्लोक की तीसरी पंक्ति इस प्रकार दी गई है-
“कृतचतुरंग बलक्षितिरंग घटद् बहुरंगरटद् बटुके”


सुरललना ततथेयि तथेयि तथाभिनयोत्तर नृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते।
धुधुकुट धुक्कुट धिन्धिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

देवांगनाओं द्वारा ततथेयि-तथेयि की लय-ताल पर नृत्य और उस नृत्य के अनुरूप किये जाने वाले अभिनय से प्रसन्न होने वाली हे देवी (देवस्त्रियों के तत-था-थेयि-थेयि आदि शब्दों से युक्त भावमय नृत्य में मग्न रहने वाली; ध्यातव्य है कि स्वर्गलोक में कामदेव, रति तथा अन्य अप्सराओं द्वारा भगवान की लीलाओं की नृत्य-नाटिकाएं अभिनीत की जाती हैं), कुकुथा-कुकुथा आदि ताल पर कुतूहल जगाते गान में तन्मय होती हुई (हे देवी), धुधुकुट-धुक्कुट की धिंम्-धिम् ध्वनि करते हुए मृदंग के धीर-गम्भीर निनाद में खो जाने वाली (हे देवी), महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे पर्वत की पुत्री आपकी जय हो, जय हो, जय हो.

कहीं-कहीं पर इस श्लोक को इस प्रकार दिया गया है-
“सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते
हासविलास हुलासमयि प्रणतार्त जनेऽमित प्रेमभरे।
धिमिकिट धिक्कट धिकट धिमिध्वनि घोर मृदंग निनादरते”


जय जय जप्यजये जयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते
झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुर शिञ्जितमोहित भूतपते।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१०

हे जये (जया)! आप जपनीय हो, आपकी जय हो, जय हो (हे जपनीय मंत्र की विजयशक्ति स्वरूपिणी! आपकी बार-बार जय हो)! जयकार करने में लीन व स्तुति करने में तत्पर विश्व द्वारा वन्दिता (जय-जयकार शब्द सहित स्तुति करने में तत्पर समस्त विश्व से नमस्कृत होने वाली हे देवी), झन-झन झनकते नूपुरों की ध्वनि से (रुनझुन से) भूतनाथ (भगवान् शंकर) को मुग्ध कर देने वाली (हे देवी), नट व नटियों के प्रमुख नायक नटेश्वर (अर्धनारीश्वर भगवान् शिव) के नृत्य से सुशोभित नाट्य देखने में तन्मय हे देवी (जहाँ नट-नटी दोनों प्रमुख होते हैं, ऐसी नृत्यनाटिका में नटेश्वर के अर्धभाग के रूप में नृत्य करने एवं सुमधुर गायन में रत रहने वाली) हे देवी! महिषासुर का संहार करने वाली हे जटाधारी गिरिजा, हे पर्वत की पुत्री आपकी जय हो, जय हो, जय हो.

कहीं-कहीं पर इस श्लोक की तीसरी पंक्ति इस प्रकार दी गई है-
“नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटन नाटित नाट्यरते”


अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनीकर वक्त्रवृते।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥११

सुमन (पुष्प) के समान सुकोमल तन तथा सुन्दर मन वाली और श्रेष्ठ मनोहर कांति से संयुत रूप वाली हे देवी (प्रसन्नचित्त देवताओं के द्वारा अर्पित किये गये पुष्पों से अत्यंत मनोरम कान्ति धारण करने वाली पुष्प सी कोमल या उदार मन वाली हे देवी)! रात्रि के आश्रय अर्थात् चन्द्रमा जैसी उज्जवल मुख-मंडल (वक्त्र) की आभा से युक्त हे देवी! (देवी रात्रि के समान ही परम रहस्यमयी हैं, महामाया हैं तथा शांति व विश्राम प्रदान करने वाली हैं, रजनीकर या चन्द्रमा के समान सौम्य व सुखकरी हैं), काले, मतवाले भंवरों के समान, बल्कि उनसे भी अधिक गहरे काले और मतवाले-मनोरम तथा चंचल नेत्रों वाली (भ्रांतियों को दूर करने वाले ज्ञानियों से अनुसरण की जाने वाली) हे देवी! महिषासुर का संहार करने वाली हे जटाधारी गिरिजा, हे पर्वत की पुत्री आपकी जय हो, जय हो, जय हो.

सुमन – सुप्रसन्न, सन्तुष्ट, सुन्दर मन वाली, उदार, पुष्प, पुष्प सी कोमल
रजनी – देवी का एक नाम, रात्रि, रात्रि सी रहस्यमयी, रात्रि सी सुखकरी (सभी जीवों का श्रम दूर कर उन्हें विश्राम प्रदान करने वाली).


महितमहाहव मल्ल मतल्लिक वल्लि तरल्लित भल्लिरते
विरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक झिल्लिक भिल्लिक वर्गवृते।
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१२

गौरवशाली महासंग्राम में श्रेष्ठ योद्धाओं के (हाथों में) घूमते, लहराते, काँपते भालों को देखने या उनका निपुण निरीक्षण करने में रत हे देवी (देवी यह महायुद्ध भील-भीलनियों के साथ मिलकर कर रही थीं, जो श्रेष्ठ योद्धा हैं. वन्य अंचल में रहने वाले भीलगण अपने भाले व अन्य अस्त्र-शस्त्रों के साथ देवी की सहायता में जुटे थे. वे सभी हाथों में भाले थामे हुए हैं, जिन्हें वे जोश के साथ घुमाते हैं, तब उन हिलते-काँपते-थरथराते भालों का देवी प्रसन्नता व कुशलता के साथ अवलोकन करती हैं), कृत्रिम लतागृहों का निर्माण कर उसका पालन करने वाली स्त्रियों की बस्ती में झिल्लिक (एक वाद्य-यंत्र, जो वनवासी भीलों द्वारा प्रयोग में लाया जाता है) बजाने वाली भीलनियों के समूह से सेवित होने वाली हे देवी (यहां भीलों के वनजीवन की एक सुन्दर झांकी प्रस्तुत की गई है. भीलांगनाएं वन-चमेली की घुमावदार लताओं से लतागृह या पर्णकुटी बनाती हैं), उदयकालीन (सूर्य के समान) अरुणाली रंगत के विकसित तथा कोमल पत्र-पल्लवों को (भीलनियों की भांति) कानों पर लगाये हुए हे सुन्दर-सलोनी देवी (देवी इन भील-भीलनियों के प्रति प्रीतियुक्त होती हुई इन्हीं के रंग में रंगी हुई हैं), महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे शैलसुते आपकी जय हो, जय हो, जय हो.

कहीं-कहीं पर इस श्लोक की दो पंक्तियाँ इस प्रकार दी गई हैं-
“सहितमहाहव मल्ल मतल्लिक मल्लि तरल्लक मल्लरते
विरचित वल्लिक पालिक पल्लिक झिल्लिक भिल्लिक वर्गवृते”


अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्त मतङ्गजराजगते
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१३

(हाथियों के) गण्डस्थल से निरन्तर झरते हुए मदयुक्त मदोन्मत्त गजराज के सदृश मन्थर गतिवाली हे गजगामिनी, त्रिभुवन की भूषण के सदृश व कलानिधान चंद्रमा-स्वरूपिणी हे लक्ष्मी (त्रिभुवन के आभूषण स्वरूप चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त सागर कन्या के रूप में प्रतिष्ठित), सुन्दर दंतपंक्ति वाली अर्थात् सुन्दर मुखमण्डल वाली स्त्रियों के उत्कण्ठापूर्ण मन को मुग्ध कर देने वाले कामदेव को जीवन प्रदान करने वाली हे देवी (भगवती जगन्माता हैं. विश्व के पालन एवं विस्तार के लिए वे भस्म हुए कामदेव की पत्नी रति के याचना पर उन्हें जीवनदान दे देती हैं, पर उन्हें देह प्रदान नहीं करतीं. देह नहीं है, फिर भी विश्व पर कामदेव अर्थात मन्मथ का राज है. यह मां भगवती की कृपा है. अतः मन्मथ भगवती के कृपाप्राप्त पुत्र हैं). महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे शैलसुते आपकी जय हो, जय हो, जय हो.


कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१४

कमल की पंखुड़ी के समान वक्र, निर्मल और कोमल कान्ति से परिपूर्ण कला वाले चन्द्रमा से सुशोभित उज्ज्वल ललाट पटलवाली हे भाल-लता, सम्पूर्ण विलासों और कलाओं की आश्रयभूत, मन्दगति एवं क्रीड़ा से सम्पन्न राजहंसों के समुदाय से सुशोभित होने वाली तथा भँवरों के समान काले व सघन केशपाश की चोटी पर शोभायमान मौलश्री पुष्पों की सुगन्ध से भ्रमर समूहों को आकृष्ट करने वाली हे देवी, महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे गिरिराज पुत्री आपकी जय हो, जय हो, जय हो.


करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते।
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१५

आपके हाथ में सुशोभित मुरली की ध्वनि सुनकर बोलना बंद करने वाली लाज से भरी हुई कोकिल के प्रति प्रिय भावना रखने वाली हे माधुर्यमयी (हिमालय का पर्वत-प्रदेश देवी की क्रीड़ास्थली है. यहां के कोकिल-कूजित सुन्दर वन देवी की मुरली से झर-झर कर बहती स्वरलहरियों से स्पन्दित हैं और इस मिठास भरे मुरलीरव को सुनकर कोयल लज्जित होकर नीरव अर्थात् शब्दरहित हो जाती है. माता उस मौन हो जाने वाली कोकिल के प्रति प्रीतिभाव रखती हैं, अत: उन्हें मंजुमति वाली कहा गया है. वस्तुत: देवी की मुरली अलौकिक तान छेड़ती है जिससे मन की वृत्तियां सात्त्विक व सुशान्त हो जाती हैं), भंवरों के समूहों की मनोहर गूँज से सुशोभित व विविध रंगों से रंजित पार्वत्य प्रदेश के वनकुंजों में विहार करने वाली हे देवी, अपने भूतादि भीलनियों (महाशबरीगण) आदि गणों के साथ नृत्याभिनय तथा क्रीड़ा से विनोद पाती हुई हे देवी! महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी, हे शैलसुते आपकी जय हो, जय हो, जय हो.

कहीं-कहीं पर इस श्लोक की दो पंक्तियाँ इस प्रकार दी गई हैं-
“करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते
निजगणभूत महाशबरीगण रंगणसम्भृत केलिरते”


कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चण्डरुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे।
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१६

अपने कटिप्रदेश पर सुशोभित पीले रंग के रेशमी वस्त्र की विचित्र कान्ति से सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत कर देने वाली हे देवी, आपके चरण-कमलों में प्रणाम करने वाले देवताओं तथा दैत्यों के मस्तक पर (मुकुटों पर) स्थित मणियों से निकली हुई किरणों से प्रकाशित चरणनखों में चन्द्रमा के समान कान्ति धारण करने वाली, सुमेरु पर्वत के शिखर पर मदोन्मत्त गर्जना करने वाले हाथियों के गण्डस्थल के समान वक्षस्थल वाली हे देवी! महिषासुर का संहार करने वाली हे जटाधारी गिरिजा! आपकी जय हो, जय हो, जय हो.


विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते।
सुरथसमाधि समानसमाधि समानसमाधि सुजाप्यरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१७

सहस्र किरणों वाले भगवान सूर्य से नमस्कृत होने वाली, सहस्र हस्त नक्षत्रों को जीतने वाली हे देवी (अपने सहस्र हाथों से देवी ने जिन सहस्र हाथों को अर्थात् सहस्र दानवों को पराजित किया उनके और सहस्र देवताओं के हाथों द्वारा वन्दित हे देवी), अपने पुत्र (कार्तिकेय जी) को सुरगणों का तारक (तार देने वाला यानी रक्षक) बनाने वाली एवं देवताओं के उद्धार हेतु तारकासुर से युद्ध करने वाले पुत्र से नमस्कृत हे माता, राजा सुरथ तथा समाधि नामक वैश्य की सविकल्प समाधि के समान समाधियों में सम्यक जपे जाने वाले मन्त्रों में प्रेम रखने वाली हे देवी, महिषासुर का संहार करने वाली हे जटाधारी गिरिजा! आपकी जय हो, जय हो, जय हो.


पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत्।
तव पदमेव परं पदमस्त्विति शीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१८

हे करुणामयी कल्याणमयी शिवे (हे शुभे)! हे कमलवासिनी कमले! जो मनुष्य प्रतिदिन आपके चरण-कमलों की उपासना करता है, वह कमलानिवास (श्रीमंत) कैसे न बने (उसे लक्ष्मी का आश्रय क्यों न प्राप्त होगा अर्थात् अवश्य ही प्राप्त होगा). हे शिवे! आपका चरण ही परमपद है, ऐसी भावना रखने वाले मुझ भक्त को क्या-क्या सुलभ नहीं हो जायेगा (अर्थात् सब कुछ प्राप्त हो जायेगा). हे महिषासुरमर्दिनी माता पार्वती! आपकी जय हो, जय हो.


कनकलसत्कल सिन्धुजलैरनुषिञ्चति तेगुणरङ्गभुवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भ सुखानुभवम्।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१९

स्वर्ण के समान चमकते घड़ों के जल से जो आपके प्रांगण की रंगभूमि को प्रक्षालित कर उसे स्वच्छ बनाता है, वह इन्द्राणी के समान सुन्दरी का सान्निध्य सुख अवश्य ही प्राप्त करता है (शची लक्ष्मीजी की एक कला मानी गई हैं. ये बल-वीर्यादि विविध कामनाओं की अधिष्ठात्री हैं. यहां किसी भी मनुष्य की स्वाभाविक कामनाओं और उसे प्राप्त करने के लिए मां दुर्गा के महासरस्वती स्वरूप की स्तुति कर उनसे सहायता और मार्गदर्शन करने हेतु प्रार्थना की गई है. एक मनुष्य की स्वाभाविक कामना होती है- जीवन में सभी सुख-साधन, ऐश्वर्य, आनंद और अच्छे तथा सुन्दर जीवनसाथी की प्राप्ति. जो कोई भी मनुष्य माता रानी के रंग-कला-मंदिर को तथा मंदिर के प्रांगण को पवित्र रखेगा, दूसरे शब्दों में जो कोई भी अपने मन-मंदिर की शुचिता को बनाये रखने में तत्पर रहेगा, वह महाभाग्यशाली देवोपम ऐश्वर्य का भोक्ता होगा). हे मां सरस्वती (वागीश्वरी)! मैं आपके चरणों को ही अपनी शरणस्थली बनाऊँ, मुझे कल्याणकारक मार्ग प्रदान करो (मेरा मार्गदर्शन करो). हे महिषासुरमर्दिनी जटाधारी गिरिजा! आपकी जय हो, जय हो.


तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलंननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमु न क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥२०

उज्जवल चन्द्रमा के समान शोभित होता हुआ आपका मुखचन्द्र साधक के मन के विकारों को दूर कर देता है व उसे निर्मल कर देता है (आपकी शरण में आने वाला सभी प्रकार के मानसिक विकारों से मुक्त हो जाता है). क्या इन्द्रपुरी की चंद्रमुखी सुन्दरियां उसे आपकी भक्ति से विमुख कर सकती हैं? अर्थात् नहीं कर सकती हैं (अर्थात् देवी का कृपापात्र विघ्नों से रक्षित रहता है. उसे किसी के प्रलोभन में आने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि देवी मां की कृपा से उसे सब प्राप्त हो जाता है). भगवान शिव के सम्मान को अपना सर्वस्व समझने वाली हे भगवती! आपकी कृपा से क्या-क्या संपन्न नहीं हो सकता? (भगवती की कृपा से क्या कुछ नहीं हो सकता है) अर्थात् सब कुछ हो सकता है. महिषासुर का संहार करने वाली हे सुकेशिनी गिरिजा! आपकी जय हो, जय हो, जय हो.


अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते।
यदुचितमत्र भवत्युररी कुरुतादुरुतापमपा कुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥२१

हे उमा, मुझ दीन पर आपकी दया हो जाये, आपकी कृपा हो जाये (तुम मुझ दीन पर दयालु बनी रहो). हे रमा (महालक्ष्मी)! जैसे आप सारे जगत की माता हो, उसी प्रकार मेरी भी माता हो तथा आप सबकी प्रिय हो (सब आपकी ही कृपा को प्राप्त करना चाहते हैं. आप हम सबकी अभीष्ट हो और आप हम सभी को बहुत प्यारी हो). अब जो उचित समझो वह मेरे लिये करो. अपने लोक में गमन करने की (जाने की) मुझे पात्रता दो, योग्यता दो, आपका दिव्य धाम मेरे लिये गम्य हो (मैं सदा सुकृत्य करूँ, भक्तिभाव से भरा रहूँ, ताकि भगवती की कृपा को पाने का अधिकारी बनूँ व माँ के द्वार मेरे लिये खुले रहें). हे शिवानी! मुझ पर दया करो. हे महिषासुरमर्दिनी जटाधारी गिरिजा! आपकी जय हो, जय हो.

इस श्लोक की दो पंक्तियाँ इस प्रकार भी मिलती हैं-
“अयि जगतो जननीति यथाऽसि मयाऽसि तथाऽनुमतासि रमे
यदुचितमत्र भवत्पुरगं कुरु शाम्भवि देवि दयां कुरु मे”


स्तुतिमिमां स्तिमित: सुसमाधिना नियमतो यमतोऽनुदिनं पठेत्।
प्रिया रम्या स निषेव्यते परिजनोऽरिजनोऽपि च ते भजेत्॥

जो मनुष्य निश्चल मन से (एकाग्रचित्त होकर), अपनी इन्द्रियों का निग्रह करके (इन्द्रियों पर पर नियंत्रण करके) नियम से इस स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करता है, भगवती महालक्ष्मी उसके यहाँ सदा वास करती हैं और उस उपासक के परिजन व अरिजन भी (उसके बन्धु-बान्धव तथा शत्रुजन भी) सदा उसका सम्मान करते हैं (विभिन्न उपलब्धियों से सजा हुआ, भरा-पूरा जीवन जीते हुए सर्वत्र आदर प्राप्त करता है).

ambe tu hai jagdambe kali

नोट – महिषासुरमर्दिनि स्तोत्र मुख्य रूप से दो स्थानों पर मिलता है- गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक ‘देवीस्तोत्ररत्नाकर’ में तथा रामकृष्ण कवि द्वारा रचित ‘भगवतीपद्यपुष्पांजलि’ में. यह स्तोत्र ‘श्रीसंकटास्तुति:’ के नाम से भी प्राप्त होता है. इन सबमें कुछ शब्दों एवं वाक्यों में कुछ अंतर देखने को मिलता है. पर्वतराज-पुत्री माता पार्वती जी को ‘संकटादेवी’ भी कहा जाता है. इसके विपत्ति बोधक अर्थ में माता पार्वती संकटनाशिनी हैं.

संकट – विपदा, आपदा, पर्वत की संकीर्ण घाटी.


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