इच्छा-शक्ति के चमत्कार : मन की हारे हार है, मन के जीते जीत

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Man ki Shakti

“साइंस के नियम के अनुसार, भौंरा उड़ नहीं सकता क्योंकि उसके शरीर के भार और उसके पंखों के बीच कोई संतुलन नहीं है. लेकिन किसी ने भौंरे को बताया ही नहीं कि वह उड़ नहीं सकता और… वह उड़ता रहता है…”

वेदों का कथन है कि मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसके शरीर या बाहरी साधनों से अधिक उसके मन में निहित है. बाहरी साधन रखते हुए भी यदि व्यक्ति का मन दुर्बल हो, तो वह हार जाता है, और यदि मन सबल हो तो अल्प साधनों के बल पर भी वह दिग्विजय को प्राप्त कर सकता है. वैदिक मंत्रों में मन की प्रकृति को स्पष्ट किया गया है.

ॐ यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥

“जो मन हमारे जागने पर दूर चला जाता है, सोने पर भी कहीं अन्य चला जाता है, जो बहुत दूर जाने की शक्ति रखता है, जो प्रकाशों का भी प्रकाश है, वह मन मेरे लिए कल्याणकारी चिंतन करे.” किसी भी सिद्धि को प्राप्त करने के लिए सबसे पहले अपने मन को ही तैयार करना पड़ता है.

भगवान श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र में अर्जुन से कहते हैं-

‘हे अर्जुन! मैं इन कौरवों को पहले ही मार चुका हूं, तुम तो इन्हें मारने का बस निमित्त भर हो जाओ.’ यहां श्रीकृष्ण कहना चाहते हैं कि युद्ध में उतरने से पहले ही कौरव मन से हार चुके थे, मर चुके थे. उन्हें विश्वास हो गया था कि वे इस धर्मयुद्ध में पांडवों से नहीं जीत सकेंगे. बस वे तो केवल दुर्योधन की जिद के कारण लड़ रहे थे. इस प्रकार वास्तविक जय-पराजय, सफलता-असफलता मन की दृढ़ता या दुर्बलता पर निर्भर है, साधनों पर नहीं.

यही बात लंका पर श्रीराम की विजय के उदाहरण से भी स्पष्ट होती है.

जब श्रीराम रावण के विरुद्ध युद्ध लड़ रहे थे, तब उनके पास वैसी सशस्त्र सेना और साधन न थे, जैसे लंका में थे, फिर भी लंका जैसे दुर्जेय राज्य पर चढ़ाई करना, रावण जैसे त्रिलोकविजयी शत्रु से मोर्चा लेना, दुर्लंघ्य सागर को बांधकर पार करना… आदि मन में अडिग विश्वास और दृढ़ता का ही परिणाम था और इसी से संपूर्ण राक्षस कुल का विनाश सम्भव हुआ. इससे स्पष्ट है कि महापुरुषों को सफलता साधनों के बल पर नहीं, बल्कि अपने आत्मबल, अपनी दृढ़चित्तता और अपने अडिग निश्चय के बल पर मिलती है.

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ऐसी दृढ़चित्तता के सामने पर्वत झुक जाते हैं, नदियाँ पट जाती हैं और समुद्र मार्ग दे देता है. संसार की कोई भी बाधा इस दृढ़ता के सामने टिक नहीं पाती, लेकिन ऐसा तभी होता है, जब हम अपने मन को जीत लेते हैं, क्योंकि ऐसा करना सरल नहीं होता.

दृढ़चित्त महापुरुषों का व्यवहार ऐसा ही होता है. उनके सामने कोई भय, कोई विपत्ति, कोई बाधा टिकती ही नहीं. अपने अपराजेय मन के बूते पर वे सब कुछ जीतते चले जाते हैं. मन की अस्थिरता हार का कारण बनती है और एकाग्रता जीत का. अर्जुन मछली की आँख पर निशाना इसीलिए साध सके, क्योंकि उनका मन एकाग्र था, अपनी लक्ष्य की ही ओर था.

महाराणा प्रताप बरसों पहाड़ों-जंगलों में मारे-मारे फिरे, दाने-दाने को तरसे, पर विचलित न हुए. वे मन से कभी न हारे, तो इसका फल क्या हुआ? उन्होंने पुनः सैन्य संगठन कर शत्रु पर भीषण प्रहार किया और अपना लगभग सारा राज्य शत्रुओं से छीन लिया.

हनुमान जी के पास समस्त शक्तियां होते हुए भी वे लंका के पार जाने की नहीं सोच पा रहे थे. लेकिन जब जाम्बवान जी ने उन्हें बताया और विश्वास दिलाया कि “वीर! सोच क्या रहे हो? तुममें असीमित शक्ति है, तुम कुछ भी कर सकते हो. उठो, यह महासागर लांघ जाओ और लंका में अपने नाम का डंका बजा दो.” वाल्मीकि जी लिखते हैं कि ‘जाम्बवान की प्रेरणा पाकर हनुमान जी को अपने महान वेग पर विश्वास हो गया और तब उन्होंने अपना विराट रूप प्रकट किया.’

सारांश यह है कि यदि हमें स्वयं पर विश्वास नहीं है, यदि हमें आत्मज्ञान नहीं है, यदि हम मन से हारे हुए होते हैं, तो असीमित शक्तियां होते हुए भी हम कुछ नहीं कर पाते. मानव-मन अजस्त्र शक्ति का स्तोत्र है, आवश्यकता है इस शक्ति को पहचानने की. जो पुरुष स्वभाव से ही दृढ़चित्त होते हैं, वे संसार में महान कार्य करके इतिहास को नया मोड़ देकर सदा के लिए अपना नाम अमर कर जाते हैं.

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इस दृढ़चित्तता की एक प्रमुख विशेषता है कि प्रत्येक स्थिति में अविचलित रहना. सुख-दुख, आशा-निराशा, स्तुति-निंदा, निर्धनता-संपन्नता, तत्काल प्राणनाश की आशंका या दीर्घायु… कोई भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति ऐसे धीर को उसके द्वारा स्वीकृत न्यायमार्ग से डिगा नहीं सकती. ऐसे दृढ़चित्त धीर पुरुष जब एक बार किसी कार्य को शुरू कर देते हैं, फिर चाहे लाखों विघ्न-बाधाएं आकर बार-बार टकराएं, वे कार्य पूरा करके ही दम लेते हैं.

गीता में ऐसे धीर पुरुषों को स्थितप्रज्ञ कहा गया है, जो सुख-दुख को समभाव से ग्रहण करते हैं. श्रीवाल्मीकि जी और गोस्वामी तुलसीदास जी दोनों ही श्रीराम के विषय में लिखते हैं कि जब श्रीराम को राज्याभिषेक का समाचार मिला तो वे प्रफुल्लित नहीं हुए, और जब अगले ही दिन उन्हें वनगमन का आदेश मिला तो दुखी नहीं हुए.

मन के विषय में लिखा गया है- “मनः शीघ्रतरं वातात्” अर्थात् मन की गति वायु से भी अधिक है. यहीं बैठे एक क्षण में ही मन सारा संसार घूमने की बात सोच सकता है. मनुष्य के द्वारा जो कुछ होता है, वह मन के द्वारा ही होता है. तो जिसके द्वारा काम होता है, वह एजेंसी अगर बिगड़ी हुई हो, तो सारा काम बिगड़ जायेगा. मनुष्य जैसा संकल्प करने लगता है, वैसा ही आचरण करता है और जैसा आचरण करता है, वैसा ही बन जाता है. कर्म का आधार मन में उठने वाले विचार हैं.


मन से हार जाने के परिणाम

कुछ दशकों पहले भारत में तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला आदि समृद्ध विश्वविद्यालयों के साथ-साथ इनके अति दुर्लभ ग्रंथों से सुसज्जित व कठिन परिश्रम से बनाए गए पुस्तकालयों को जलाकर राख कर दिया गया था. उदाहरण केवल इतने ही नहीं हैं.

क्या आप बता सकते हैं कि कोई आतताई किसी देश पर आक्रमण करते ही सबसे पहले उसके ज्ञान को नष्ट करने का प्रयास क्यों करता है? भला किताबें किसी को क्या नुकसान पहुँचा सकती हैं? तो इन सवालों का एक जवाब यह है कि जब तक किसी देश के मस्तिष्क व मन पर कब्जा नहीं किया जाता, तब तक उस देश को जीता नहीं जा सकता है.

आपको जिन चीजों से प्रेरणा मिलती है, जिनमें लिखी बातों से ज्ञान और शक्ति मिलती है, जिन चीजों से एकता मिलती है, जिन चीजों से आपको अपने देश, अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराओं से प्रेम होता है, उन्हीं चीजों को सबसे पहले खत्म कर देना चाहता है हर आतताई. कोई भी आतताई किसी भी देश के सारे ज्ञान को खत्म करके उसके नागरिकों के मन-मस्तिष्क में यह बात बिठा देना चाहता है कि तुम पिछड़े हुए हो, तुम दुर्बल हो, तुम कुछ नहीं कर सकते. तुम हमें नहीं जीत सकते.

यदि देखा जाए तो ब्रिटेन की जनसंख्या और क्षेत्रफल भारत के किसी एक राज्य के ही बराबर है, लेकिन, उन्होंने दशकों तक विश्व को गुलाम बनाए रखा. एक सच्चाई यह है कि भारत के एक जिले में शायद ही 50 से अधिक अंग्रेज रहे होंगे. जब हम इतिहास देखते हैं तो पता चलता है कि उनके पास हम पर अत्याचार करने के लिए अधिक लोग भी नहीं थे, बल्कि उन्होंने हम में से ही कुछ लोगों को सेना या पुलिस में भर्ती किया.

सोचिए कि हम लोग अंग्रेजों के सैनिक बनकर अपने ही लोगों पर कैसे अत्याचार करते थे? हमारे ऊपर जब आक्रमण हो रहे थे और जब हम युद्धकाल से गुजर रहे थे, तब हमारे ही कुछ लोग इस मानसिकता में थे कि “कोउ नृप होइ हमें का हानी”.

अटल बिहारी वाजपेयी जी ने प्लासी की लड़ाई की चर्चा करते हुए एक भाषण में कहा था कि एक युद्ध जीतने के बाद जब 1000 अंग्रेज सैनिकों ने विजय-जुलूस निकाला, तो सड़क के दोनों तरफ करीब 20,000 लोग देखने आए थे. यदि ये 20,000 लोग पत्थर-डण्डे से भी मारते, तो अंग्रेजों के 1000 सैनिकों को भागते भी नहीं बनता. लेकिन ये 20 हजार लोग केवल मूक दर्शक बनकर खड़े थे. इसी मानसिक दुर्बलता का परिणाम है कि भारत की करोड़ों की जनसंख्या को मात्र कुछ लाख या हजार लोगों ने सदियों तक गुलाम बनाकर रखा, और केवल गुलाम ही नहीं बनाया बल्कि खूब हत्यायें और लूटपाट भी की.

आज भी कुछ नहींं बदला है… मुगलों और अंग्रेजों का स्थान एक खास वर्ग ने ले लिया है, और वामपंथियों/सेक्युलरों के रूप में खतरनाक गद्दारों की फौज भी खड़ी हो गई है. लेकिन, सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि हम आज भी बंटे हुए हैं, मन से अभी भी दुर्बल हैं, और इसीलिए 100 करोड़ होकर भी मूकदर्शक बने हुए हैं.


कथनी और करनी

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में मानव जीवन को प्रेरणा देने वाली व योग्य दिशा-निर्देश करने वाली कितनी ही सूक्तियां संजों रखी हैं, जिनमें से एक यह भी है-

तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन।
आपुन मंद कथा सुभ पावन॥
पर उपदेस कुसल बहुतेरे।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥

रावण दूसरों को तो बहुत उपदेश और ज्ञान देता था, पर स्वयं उसका आचरण क्या था? एक असहाय पराई नारी को बलपूर्वक उठा लाना, उसे पाने के लिए समस्त लंका राज्य, बंधु-बांधव, स्वजन-परिजन को विनष्ट कर डालना. इस प्रकार वह स्वयं तो था पापाचारी, पर बातें बड़ी-बड़ी और ऊंची करता था. सचमुच दूसरों को उपदेश देने में बहुत से लोग बड़े कुशल होते हैं, पर उसे स्वयं अपने आचरण में भी उतारकर दिखाने वाले विरले ही मिलते हैं.

पांडव-कौरव बाल्यावस्था में गुरुजी के पास विद्याध्ययन के लिए गए. गुरुजी ने पहला पाठ दिया- “सत्यं वद” (सत्य बोलो) और बच्चों ने पाठ तत्काल याद करके सुना भी दिया, पर युधिष्ठिर न सुना सके. एक-एक करके कई दिन बीत गए, युधिष्ठिर यही कहते रहे कि “गुरुजी! अभी तक ठीक से याद नहीं हुआ”. फिर एक दिन बोले- “गुरुजी! पाठ याद हो गया.”

गुरुजी को बड़ा आश्चर्य हुआ. उन्होंने पूछा- “जरा सा पाठ याद करने में इतना समय कैसे लग गया?” तब युधिष्ठिर ने नम्रतापूर्वक कहा- “भगवन्! आपके दिए पाठ के शब्द थोड़े ही रटने थे, उसे तो व्यवहार में उतारना था. मुझसे कभी-कभी असत्य भाषण हो जाता था. अब इतने दिनों के अभ्यास से ही दुर्बलता को दूर कर सका हूँ. इसी से कहता हूं कि पाठ याद हो गया.”

Written By : Aditi Singhal (Working in the Media)

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