Creative Freedom : रामकथा में आजादी

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Ramayana (Creative Freedom)?

सोशल मीडिया पर एक व्यक्ति ने अपने हजारों फॉलोवर्स के बीच लाइक-कमेंट्स पाने के लिए एक अलग जानकारी डालते हुए लिखा कि “अंगद मंदोदरी के पुत्र थे और रावण ने मंदोदरी का हरण उस समय किया था जब अंगद मंदोदरी के गर्भ में थे…”

उनकी इस पोस्ट को लेकर जब बहुत लोगों ने आपत्ति जताई तो उन्होंने आपत्ति जताने वाले लोगों के प्रति नाराजगी जाहिर की और कह दिया कि ‘जाकर गूगल कर लो…’

एक सज्जन ने पूछा कि, “क्या वाल्मीकि रामायण में यह कहीं है कि अंगद मंदोदरी के पुत्र थे जो बाली से उन्हें पैदा हुए थे? बताइए कि शास्त्रों को तोड़ना कितना सही है?”

खैर! आज कुछ लोग प्राचीन भारत के ऐतिहासिक तथ्य भी इस प्रकार से ढूंढकर लाते हैं कि द्रौपदी के पांच पति थे तो इसका मतलब कि उस समय बहुपति विवाह प्रचलित था. राजा दशरथ की तीन रानियां थीं, तो इसका मतलब जनसामान्य में भी बहुपत्नी विवाह प्रचलित होगा, वह स्त्री ऐसे कपड़े पहनती थी तो इसका मतलब सभी स्त्रियां ऐसे ही वस्त्र पहनती थीं, उस राक्षस ने स्त्रियों के प्रति ‘ऐसी’ बातें कही थीं, तो इसका मतलब कि उस समय के पुरुषों की सोच स्त्रियों के प्रति ऐसी ही थी… जबकि क्या वाकई में ऐसा ही था?

वाल्मीकि जी द्वारा रामायण के रूप में एक ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना करने के बाद, श्रीराम के नाम पर किताबें एक-दो नहीं, हजारों तरह की रामायण दुनियाभर में लिखी जा चुकी हैं. वाल्मीकि जी के बाद अपनी-अपनी बुद्धि के हिसाब से लोग रामायण लिखते रहे हैं और लिखते रहेंगे. चूँकि सभी की कहानी के केंद्र में राम मौजूद हैं, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सभी ने राम को अपने-अपने अनुसार दर्शाया है.

एक उदाहरण-

बौद्ध लोगों ने अपनी रामायण में राम-सीता जी को भाई-बहन के रूप में लिखा है, क्यों? क्योंकि बौद्ध लोगों में इस तरह के विवाह होते थे.

असमिया भाषा में ‘माधव केदली’ में राजा दशरथ की 700 रानियाँ बताई गई हैं. कृतिवास रामायण में सीताजी को पूर्व जन्म में अप्सरा बताया गया है. ओड़िया रामायण में बालि और सुग्रीव को अहिल्या का पुत्र बताया गया है. ठीक इसी तरह थाईलैंड और कोरिया की रामायण को भी उनकी स्थानीय संस्कृति के अनुसार लिखा गया है.

किसी अन्य रामायण में सीताजी को मंदोदरी और रावण की पुत्री बता दिया गया है, तो अन्य में अंगद जी को मंदोदरी और बालि का पुत्र दर्शा दिया गया है. किसी अन्य रामायण में श्रीराम को मांसाहारी भी बता दिया गया है. अन्य सभी रामायणों में कई छोटी घटनाओं और चित्रण में काफी मतभेद देखने को मिलता है.

ऐसे में यदि आप बारीकियों में जाते हैं तो आप सिर्फ लिखने वाले के मत और विचारों को जान रहे होते हैं ना कि सच्चाई को. ऐसे में कुछ नया लाने के चक्कर में क्या किसी भी किताब को रिफरेंस बना लेना चाहिए?

जबकि आज हर कोई जानता है कि श्रीराम के लिए सबसे प्रमाणिक वाल्मीकि रामायण और उसके बाद तुलसीदास जी की रामचरितमानस ही है, और श्रीराम की कथा के लिए इन दोनों रामायणों का ही रिफरेंस दिया जाना चाहिए, फिर भी कुछ लोग कभी इस रामायण तो कभी उस रामायण से न जाने कौन-कौन से तथ्य लेकर आ जाते हैं.

इसका परिणाम यह होता है कि आगे चलकर ये सारे तथ्य एक-दूसरे में मिल जाते हैं और फिर एक प्रमाणिक ग्रंथ में भी इतने सारे विरोधाभास खड़े हो जाते हैं कि सच और झूठ में फर्क करना भी मुश्किल हो जाता है.

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आज वाल्मीकि रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि के कुछ तथ्यों में इतने विरोधाभास इसीलिए देखने को मिलते हैं, क्योंकि लोगों ने अलग-अलग तथ्यों के नाम पर इन सबमें काफी मिलावट कर रखी है, यानी विधर्मियों ने भी इन ग्रंथों के नाम से अपनी कुबुद्धि लगाकर कुछ भी लिख दिया, तो पुस्तक प्रकाशकों द्वारा उसे भी तथ्य मानकर इन्हीं ग्रंथों में मिला लिया गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि आज कुछ लोग अपने ही ग्रंथों को काल्पनिक मानने लगे, क्योंकि उनके लिए सच और झूठ में फर्क करना बहुत मुश्किल हो गया.

इसीलिए जिन रामायणों को प्रमाणिक माना गया है, उन्हीं से तथ्य लेकर आना चाहिए, हर प्रकार की रामायण से नहीं, नहीं तो अब कल को कोई थाईलैंड की रामायण से यह बात उठा कर ले आए कि “हनुमान जी ने एक स्त्री का शीलभंग किया था” तो क्या उसे भी यह तर्क देकर सही ठहरा देना चाहिए कि “जाकर पढ़ लो, थाईलैंड की रामायण में यह तथ्य तो लिखा है?”

इस तरह की बातें फैलाने वालों का उद्देश्य क्या होता है?

दरअसल इनका एक ही उद्देश्य होता है, आम हिन्दू की आस्था को ठेस पहुँचाना. अब किसी भक्त को आप यह बताओगे कि राम तो मांस खाते थे, तो इससे उसकी आस्था को धक्का लगेगा, उसके मन में राम की छवि बदलने लगेगी.

कुछ लोगों ने श्रीराम को मांसाहारी साबित करने के लिए क्या नहीं किया, किताबों की फोटो तक डालीं. तो जरा यह बताइये कि ये तस्वीरें क्या श्रीराम के समय छपी थीं? नहीं न? तो फिर?

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Creative Freedom असीमित नहीं हो सकती

‘आदिपुरुष’ फिल्म में रामकथा के नाम पर जो कुछ भी दिखाया गया, वह रामायण के मूल कथानक से मैच नहीं होता. पता नहीं कि इस फिल्म को बनाने वाली टीम को क्या हुआ था कि इन्होंने अपनी ही रामायण रच मारी, जिसमें क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर श्रीराम, सीताजी, हनुमानजी जैसे चरित्रों की मूल गरिमा का भी ध्यान नहीं रखा गया.

मूल रामायण में तो श्रीराम को सीताहरण के बारे में जटायु जी से पता चलता है, पर ‘आदिपुरुष’ फिल्म की रामकथा में श्रीराम इधर से उधर दौड़ते हुए सीताजी को हरण करके ले जाते रावण को अपनी आंखों से देख रहे हैं. श्रीराम अपने तुणीर से एक बाण निकालने तक की जहमत नहीं उठाते और लाचारी से घुटनों के बल बैठकर अपनी आंखों से सीताहरण देखते रहते हैं. क्या क्रिएटिविटी की आजादी के नाम पर कुछ भी?

श्रीराम के सामने ही उनकी पत्नी का अपहरण करा दिया और राम कुछ न कर सके? मूल रामायण के अनुसार श्रीहरि के अवतार और ब्रह्मास्त्रधारी श्रीराम के लिए एक उड़ता चमगादड़ मार गिराना असंभव हो गया? क्या ही शर्म और आश्चर्य की बात है.

‘परत’ पुस्तक के लेखक श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख जी लिखते हैं-

अपनी किसी धार्मिक कथा पर फिल्म या सीरियल बनाने के लिए सबसे आवश्यक वस्तु क्या है? पैसा? स्टार अभिनेता? तकनीक? बढ़िया डायलॉग? यह सब भी आवश्यक तत्व हैं, पर पहले नहीं हैं. सबसे पहले आवश्यकता होता है धर्म और अपनी पौराणिक कथा के प्रति अगाध श्रद्धा की! पूर्ण समर्पण की! पूर्ण विश्वास की.

यदि श्रद्धा हो तो पुरानी तकनीक के सहारे भी रामायण बनाकर रामानंद सागर जी अमर हो गए, पर उससे हजार गुना बजट और तकनीक लेकर भी एकता कपूर एक भद्दा सीरियल ही बना सकी. तो क्या अंतर था दोनों में? अंतर केवल श्रद्धा का था, समर्पण और सम्मान का था.

हमारी धार्मिक कथाएं किसी फिल्मी कहानीकार की गढ़ी हुई कहानी नहीं हैं. पौराणिक कथाएं एक्सपेरिमेंट की वस्तु नहीं होतीं, जिनमें रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर आपको कुछ भी तोड़-मरोड़ करने की आजादी चाहिए. वहां आप कुछ अलग हटकर दिखाने की मूर्खता नहीं कर सकते. आपको याद रखना होगा कि धार्मिक कथाएं आस्था का विषय होती हैं, मनोरंजन का नहीं. यदि मनोरंजन के लिए निर्माण करना है तो हजारों विषय पड़े हैं, उन पर काम किया जा सकता है.

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हजार बार सुनी-सुनाई कथा के फिर से रिलीज होने का अगर लाखों लोग बेसब्री से इंतजार करते हैं, तो उसका एकमात्र कारण उनकी आस्था ही होती है. आप दर्शक और पाठक तो बटोरना चाहते हैं आस्था के नाम पर, लेकिन आस्था ही गायब करके उल्टे-सीधे तर्क देने लगते हैं. ये ऐसे लोग हैं जिन्हें रामचरितमानस से कोई तथ्य दिखाओ तो तुरंत उछलकर बोलते हैं कि ‘हम रामचरितमानस को ऐतिहासिक तथ्य ही नहीं मानते, और यही लोग श्रीराम-सीता जी में दोष या कमी ढूंढने के लिए बीच में लिखी गईं किसी भी रामायण को तथ्य के रूप में पेश करने करते हैं.

इन बातों का प्रतिकार या विरोध करना क्यों आवश्यक है?

मान लीजिये कि आपके माता-पिता ने जीवन भर सदा सात्विक जीवन जीया, लोगों के लिए बहुत कुछ किया, और आपके साथ-साथ हजारों लोग आपके माता-पिता को अपना आदर्श मानते हैं और उनके रास्ते पर चलते हैं. अब आपका कोई शत्रु आता है और समाज में यह झूठा प्रचार कर देता है कि ‘इसके माता-पिता तो मांस खाते थे, जाति पूछकर लोगों की हत्या कर देते थे, शराब भी पीते थे, स्त्रियों का नाच भी देखते थे..’

तो क्या आप अपने माता-पिता के लिए उन बातों का प्रतिकार नहीं करेंगे? क्या आप चुप रह जायेंगे? क्या आप सबूत ढूंढकर नहीं लाएंगे कि “नहीं, यह मेरे माता-पिता की छवि को खराब करने के लिए झूठ बोल रहा है.”

यदि किसी अच्छे व्यक्ति के बारे में इस प्रकार के झूठ फैलाने से कोई फर्क नहीं पड़ता, तो इतना झूठ फैलाया नहीं जाता. फर्क पड़ता है, इसीलिए ऐसे झूठ फैलाये जाते हैं. झूठ फैलाने वाला व्यक्ति यही दिखाना चाहता है कि तुममे और मुझमें कोई अंतर नहीं है. इसलिए तुम्हारे द्वारा मेरी परम्परा या मेरे कार्यों या मेरी सोच का विरोध करना गलत है.

लेकिन यदि दो पक्ष एक ही जैसे होंगे, तो उनके बीच में होने वाला युद्ध भी धर्मयुद्ध नहीं कहलायेगा, दो सांडों की लड़ाई कहलायेगा. जब एक आदर्श है, और दूसरा प्रतिआदर्श, एक नारायण है और दूसरा प्रतिनारायण, तभी तो धर्मयुद्ध होता है…

मैं तो श्रीराम से ही सीखती हूँ, जिन्होंने वैज्ञानिकता के नाम पर महर्षि जाबालि के कुतर्कों का तत्काल खण्डन किया, आज की तरह यह कहकर उसे जस्टिफाई नहीं किया कि “केवल विचार ही तो अलग हैं, केवल अनीश्वरवादी ही तो है… ”

श्रीराम यदि उस समय महर्षि जाबालि के कुतर्कों का खण्डन नहीं करते, तो जाबालि भी उस समय एक अलग पंथ बनाकर ‘दूत’ बन जाते. पर उस समय श्रीराम थे तो कोई अलग पंथ या मजहब बन न सका…

Written By : Aditi Singhal (Working in the Media)


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