Manusmriti on Women : प्राचीन भारत में ऐसी थी महिलाओं की दशा और आज…

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प्राचीन भारत में नारी की स्थिति

बचपन से शिक्षा की किताबों में यही पढ़ाया जाता रहा है कि प्राचीन भारत में बहुत कुरीतियां और बुराईयां थीं. स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं थे… और समय-समय पर कभी अंग्रेजों ने तो कभी राजा राममोहन राय जैसे लोगों ने आकर इन कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया. सावित्री बाई फुले की क्रांति से पहले भारत में लड़कियों को पढ़ने-लिखने का अधिकार ही नहीं था. यह भी बताया जाता है कि राममोहन राय और सावित्री बाई फुले जैसे लोग पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित थे, इसलिए स्त्रियों के प्रति उनकी सोच उच्च कोटि की थी.

लेकिन यदि सावित्री बाई फुले की क्रांति से पहले लड़कियों को पढ़ने-लिखने का अधिकार ही नहीं था, तो फिर प्राचीन भारत में गार्गी, अनसूया, लोपामुद्रा, अरुंधति, गौतमी, माद्री, शबरी आदि; इतिहास में संयोगिता, मीराबाई, पद्मावती, रानी कर्णावती, जयवंता बाई, अजबदे आदि और आधुनिक भारत में अहिल्या बाई, रानी लक्ष्मीबाई, रानी चेनम्मा, दुर्गावती आदि और इनकी सेना में भर्ती हजारों स्त्रियां इतनी विदुषी और वीर कैसे बनीं?

खैर, अगर आप अपने वैदिक युग का ठीक से अध्ययन करेंगे तो आप पाएंगे कि सनातन धर्म में कभी कुरीतियां थी ही नहीं, जबकि वैदिक काल जैसी उन्नति और सभ्यता समाज के हर वर्ग के लिए कल्याणकारी थीं. वैदिक युगीन भारत की लड़कियों ने पूरी स्वतंत्रता के साथ जीवन जिया है. उन पर जो भी सामाजिक बंदिशें लगाई गईं, वे एक स्त्री होने के नाते नहीं, बल्कि एक मनुष्य होने के नाते ही लगाई गईं.

उस समय न सती प्रथा थी और न पर्दा प्रथा, न वे.श्या.वृत्ति थी और न दास प्रथा, न बाल विवाह था और न दहेज प्रथा… हर स्त्री को अपना वर चुनने की स्वतंत्रता थी. विवाह से पहले भी किसी को पसंद करने की मनाही नहीं थी, लेकिन मर्यादा के साथ, फिर चाहे वो स्त्री हो या पुरुष.

स्त्रियों को भी हर प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने और हर पद पर बैठने का अधिकार था. उन्हें भी युद्ध कौशल कला के साथ उच्च शिक्षा दी जाती थी. स्त्रियां युद्ध में भी जाती थीं और बड़ी-बड़ी सभाओं में पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ भी करती थीं..

और प्राचीन भारत में ये सब इसलिए था, क्योंकि पहले का विधान मनुस्मृति, वेदों आदि से चलता था. तो सबसे पहले जानते हैं कि सबसे प्राचीन कानून धर्मशास्त्रों में से एक मनुस्मृति में स्त्रियों के लिए क्या विधान बनाए गए थे, और फिर हम देखेंगे कुछ उदाहरण-

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“पुत्रेण दुहिता समा” (मनुस्मृति ९/१३०)
अर्थात् पुत्र-पुत्री समान हैं.

पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा।
पूज्या भूषयित्वाश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः॥

पिता, भाई, पति या देवर को अपनी पुत्री, बहन, पत्नी या भाभी को सदैव यथायोग्य मधुर-भाषा, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए. उन्हें किसी भी प्रकार का कोई क्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए. (मनुस्मृति ३/५५)

नारी की प्रसन्नता में ही कुल की प्रसन्नता है. अतः कल्याण चाहने वाले परिवार जनों को नारी का सम्मान करना चाहिए, क्योंकि नारी का अनादर करने से, या परिवार में दुखी रहने वाली नारी के कारण घर और कुल नष्ट हो जाते हैं. (मनुस्मृति ३.५५-६२)

यत्र नार्य्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रऽफलाः क्रियाः।।

जिस समाज या परिवार में नारी का सम्मान होता है, वहां देवता यानी दिव्यगुण और सुख-समृद्धि का वास होता है, वहीं जहां नारी का सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी कार्य या अनुष्ठान भी निष्फल हो जाते हैं. (मनुस्मृति ३/५६)

जिस कुल में स्त्रियां अपने पति या ससुराल वालों के गलत आचरण, अत्या.चा.र या व्य.भिचा.र आदि दोषों से पीड़ित रहती हैं, वह कुल शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है, वहीं जिस कुल में स्त्री-जन पुरुषों के उत्तम आचरण से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सदा बढ़ता (उन्नति करता) रहता है. (मनुस्मृति ३/५७)

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा॥

जो पुरुष अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है, वहीं यदि पत्नी प्रसन्न रहती है तो पूरा परिवार प्रसन्न रहता है. (मनुस्मृति ३/६२)

पुरुषों को निर्देश हैं कि वे अपनी माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगड़ा न करें. इन पर मिथ्या दोषारोपण करने वालों (गलत आरोप लगाने वालों), या इनके निर्दोष होते हुए भी इन्हें त्यागने वालों, या पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभाने वालों के लिए दंड का विधान है (मनुस्मृति ४/१८०, ८/२७४, ३८९,९/४)

पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं, अत: साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति-पत्नी दोनों को मिलकर ही करना चाहिए. जिस पुरुष की पत्नी जीवित है, उसे कोई भी धार्मिक अनुष्ठान अपनी पत्नी के बिना नहीं करना चाहिए (मनुस्मृति ९/९६)

प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हाः गृहदीप्तयः।
स्त्रियः श्रीयश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन।। (मनुस्मृति १/२६)

नारी घर का भाग्योदय करने वाली,आदर के योग्य, घर की ज्योति, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, गृहसंचालिका और गृहस्वामिनी, घर का स्वर्ग, संसार यात्रा का आधार हैं. (मनुस्मृति ९.११,२६,२८;५.१५०)

पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार है. मातृधन में केवल कन्याओं का अधिकार है (मनुस्मृति ९.१३१). स्त्रियों को अबला समझकर जो कोई भी, चाहे वह बन्धु-बान्धव ही क्यों न हो, यदि स्त्रियों के धन पर कब्जा करता है, तो उन्हें चोर सदृश (चोर के समान समझकर) दण्डित किए जाने का विधान है. (मनुस्मृति ९.२१२;३.५२;८.२;८-२९)

स्त्रियों के विरुद्ध अपराधों जैसे हत्या, अपहरण, ब.ला.त्का.र आदि के लिए कठोर दंड, मृत्युदंड और देश निकाला आदि का प्रावधान है. ब.ला.त्का.रियों के लिए यातनापूर्ण दण्ड के बाद देश निकाला का आदेश (मनुस्मृति ८/३२३,९/२३२,८/३४२)

प्राचीन भारत में भाभी को माता समान, बहू को पुत्री समान और देवरानी को छोटी बहन समान बताया गया है. भगवान श्रीराम भी बालि से कहते हैं, “छोटे भाई की पत्नी, बहन, पुत्र की पत्नी और बेटी- ये चारों समान हैं. और जो कोई भी इन्हें बुरी नजर से देखता है, वह पाप करता है.”

कन्याओं को योग्य पति का स्वयं चुनाव करने का निर्देश, स्वयंवर का अधिकार और स्वतंत्रता (मनुस्मृति ९/९०-९१)
विधवा को पुनर्विवाह का अधिकार (मनुस्मृति ९/१७६,९/५६-६३)

मनुस्मृति में विवाह को स्त्रियों के आदर और स्नेह का प्रतीक बताया गया है. विवाह में किसी भी प्रकार के लेन-देन को अनुचित बताते हुए उसका निषेध किया गया है (मनुस्मृति ३/५१-५४).

स्त्रियों के सुखी-जीवन की कामना के लिए मनु का सुझाव है कि जीवनभर अविवाहित रहना श्रेयस्कर है, परन्तु गुणहीन, या दुष्ट पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए. (मनुस्मृति ९/८९)

अतः हम कह सकते हैं कि राजर्षि मनु की स्त्री-विरोधी छवि निराधार और तथ्यों के विपरीत है. राजर्षि मनु ने मनुस्मृति में स्त्रियों से सम्बंधित जो व्यवस्थाएं दी हैं, वे स्त्रियों के सम्मान, सुरक्षा, समानता, सद्भाव और न्याय की भावना से प्रेरित हैं. मनु ने अपने पुत्र से भी साफ शब्दों में कहा था कि, “मेरी बहू को किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होना चाहिए.”

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अब अगर हम वैदिक युगीन भारत में महिलाओं की स्थिति से सम्बंधित कुछ उदाहरण देखें, तो पाएंगे कि उस समय बाल विवाह, सती प्रथा, दहेज प्रथा, या जबरन किसी से भी विवाह आदि का कोई प्रावधान या प्रचलन नहीं था. जैसे-

रानी कैकेयी देवासुर संग्राम में राजा दशरथ के साथ युद्ध में गई थीं और उनकी सारथी बनी थीं. उसी युद्ध में वह राजा दशरथ के रथ को बड़ी कुशलता के साथ शत्रुओं के बीच से निकालकर सुरक्षित स्थान पर ले आई थीं.

इसका मतलब कि उस समय स्त्रियों को कितनी उच्च शिक्षा, युद्ध कला, घुड़सवारी आदि की भी शिक्षा दी जाती थी. यानी बाल विवाह का भी प्रचलन नहीं था. यानी हमारा देश हमेशा से ही स्त्रियों की शिक्षा और पुरुषों के समान आचरण का पक्षधर रहा है.

राजा दशरथ की मृत्यु के बाद तीनों रानियां सती नहीं हुई थीं, बल्कि राजकाज में अपने पुत्रों की सहायता करती थीं. बालि की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी तारा सती नहीं हुई थीं, बल्कि राजकाज में सुग्रीव की सहायता करने लगी थीं.

सावित्री, शकुंतला आदि की कथा से पता चलता है कि स्त्रियों को अपना वर चुनने की पूरी स्वतंत्रता थी. सावित्री एक राजकुमारी होकर भी एक वनवासी को अपना पति चुन सकती थीं, तो वहीं शकुंतला ने बिना किसी को बताए दुष्यंत से विवाह किया था और उसके बाद भी उन्हें अपने माता-पिता के क्रोध का सामना नहीं करना पड़ा था.

अब अगर कोई पूछे कि राजा जनक ने सीता जी के स्वयंवर के लिए तो पहले ही शर्त रख दी थी तो सीता जी को वर चुनने की स्वतंत्रता कहां मिली?

तो बता दें कि न तो राजा जनक एक साधारण व्यक्ति थे और न ही उनकी पुत्री सीता जी और न ही वह शिव धनुष. महाराज जनक पहले ही जानते थे कि भगवान शिव का धनुष कोई व्यक्ति केवल अपने बाहुबल से नहीं उठा सकता. इसे केवल वही उठा सकता है, जिसे सीता जी के लिए और सीता जी के योग्य बनाया गया होगा.

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राजा जनक की सभा में ब्रह्मवादिनी गार्गी और ऋषि याज्ञवल्क्य का शास्त्रार्थ या दार्शनिक वाद-विवाद प्रसिद्ध है.

राजा दशरथ के समय की अयोध्या के बारे में बताते हुए रामायण अंक में लिखा है कि, “अयोध्या में कामी, कृपण, क्रूर, मांसाहारी, मूर्ख और नास्तिक ढूंढने पर भी नहीं मिलते थे.” इसका मतलब कि उस समय एक आदर्श राज्य में वे.श्या.वृ.त्ति, ब. ला. त्का. र जैसी तो कोई बात थी ही नहीं.

अपने चारों पुत्रों का विवाह हो जाने के बाद राजा दशरथ अपनी पत्नी कौशल्या से कहते हैं कि, “एक पुत्री जो बचपन से अपने पिता के आँगन में लाड़-प्यार से बड़ी होती है, उसके विवाह के बाद उसके लिए माहौल अचानक बदल जाता है. ससुराल में कौन कैसा व्यवहार करेगा.. यही सोचती रहती होगी. तुम चारों बहुओं को अपने प्रेम और ममता के आँचल में उसी तरह समेटकर रखना, जैसे पलकों के बीच में आँख की पुतली रहती है.”

जब सीता जी का हरण हुआ, तब भगवान श्रीराम सीता जी के लिए वन-वन नंगे पैर घूमे. उन्होंने सीता जी के लिए इतना बड़ा युद्ध लड़ा, जिसमें कई बार उनके प्राणों पर गहरा संकट आया. श्रीराम ने पूरी वानर सेना सहित, सीता जी के लिए जमीन-आसमान एक कर दिया. श्रीराम के साथ युद्ध लड़ रही पूरी वानर सेना का राम-सीता जी से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था, लेकिन सभी ने उस युद्ध में अपना पूरा जीवन दांव पर लगा दिया. और यह सब एक नारी के सम्मान को बचाने के लिए ही किया गया था.

इस तरह देखा जाए तो आज की तुलना में मनुस्मृति और वेदों का विधान महिलाओं और समाज के प्रति ज्यादा अनुकूल था.

कुछ लोगों ने यह भी प्रचारित करने का प्रयास किया है कि “वेदों में लिखा है कि स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है.”

हंसी आती है ऐसे लोगों पर जो बिना कुछ पढ़े या जाने ही कुछ भी प्रचारित करने में जुट जाते हैं. आपको पता होना चाहिए कि वेद सूक्तों की द्रष्टा ऋषिकाएँ भी रही हैं, जिनमें लोपामुद्रा, घोषा, शची, कांक्षावृत्ति, पौलोमी आदि प्रमुख नाम हैं. ऋग्वेद के १०वें मंडल के ९५ सूक्त में पुरुरवा, ऐल और उर्वशी का संवाद है.


ऐसे होते थे माता-पिता और बेटियां

प्राचीन भारत में लोग अपनी बेटियों की शादी सही समय आने पर उसकी पसंद से ही करवाते थे. माता-पिता अपनी बेटियों को अच्छी शिक्षा देते थे, उन्हें वीर और बुद्धिमान बनाते थे और फिर उनके विवाह योग्य होने पर उन्हें यात्राओं पर भी भेजते थे, ताकि उन्हें बाहरी दुनिया की समझ हो सके.

वहीं, बेटियां भी अपने माता-पिता की तरफ से दी गई आजादी का गलत फायदा नहीं उठाती थीं. उनके विश्वास को किसी भी तरह टूटने नहीं देती थीं. स्वाभिमानी होती थीं और अपनी सूझ-बूझ से अपने लिए सुयोग्य वर का चुनाव करती थीं.

जैसे कि सावित्री जी ने अपने देशाटन के दौरान सत्यवान को पसंद कर लिया. उनके माता-पिता अंधे थे, गरीब थे, तो सावित्री ने उन्हें उनका सब कुछ वापस दिलवा दिया.

यानी माता-पिता अपनी बेटियों को इस योग्य बनाते थे, इतना गुणी बनाते थे कि वे जिस घर में भी जाती थीं, उसी को धन-धान्य और खुशियों से भर देती थीं.

बेटों को भी इतनी अच्छी शिक्षा दी जाती थी, उन्हें इस योग्य बनाया जाता था कि इस तरह की गुणी बेटियां उन्हें पसंद कर सकें और उनके फैसलों को कोई गलत साबित न कर सके. प्राचीन भारत का इतिहास वीरांगनाओं और विदुषी नारियों से भरा पड़ा है.

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भारत में महिलाओं की स्थिति पर ग्रहण

भारत में महिलाओं की बुरी दशा विदेशी आक्रमणों के बाद शुरू हुई, जब भारत पर कब्जा करने के लिए यहां की संस्कृति को नष्ट करने की पूरी कोशिश की गई. यहां की वीरांगनाओं को देखते हुए धर्मग्रंथों में महिलाओं के खिलाफ गलत बातें जोड़ी गईं और उनका जमकर प्रचार किया गया. जैसे कि मूल मनुस्मृति में 680 श्लोक ही थे, जबकि मिलावटी मनुस्मृति में श्लोकों की संख्या बढ़ते-बढ़ते 2400 हो गई.

आपको यह भी जानना चाहिए कि जिस जमाने में अहिल्या बाई होल्कर भारत में शासन कर रही थीं, उस समय यूरोप में एक ऐसा पार्लियामेंट एक्ट या कानून था जिसके तहत किसी भी चर्च द्वारा किसी भी महिला को संदेह के आधार पर ‘चुड़ैल’ घोषित करके जलाया जा सकता था. और यह एक्ट वहां 1542 से 1951 तक रहा था. और यही ब्रिटिश हमारे देश में आकर यह कहते थे कि ‘भारत में महिला-समानता नहीं है’. अब आप ही बताइये कि इसका क्या अर्थ था?

विदेशी आक्रांताओं ने भारत की महिलाओं की दशा अत्यंत खराब कर दी, समाज को जातियों में बांट दिया. लोगों को अपनी तरह मांसाहारी बना दिया, लोक कल्याणकारी कार्यों को अन्धविश्वास बता दिया. वे छोटी-छोटी बच्चियों पर अत्या.चार करते थे, उसी से हमारे देश में बाल विवाह और सती प्रथा जैसी बुराइयों का जन्म हुआ.

लोग आतताइयों से बचाने के लिए अपनी बच्चियों का विवाह जल्दी-जल्दी करवाने लगे, ताकि उनकी बच्चियां इन लोगों के हाथों में जाने से बची रहें. लड़कियां इन लोगों के हाथों में जाने से बचने के लिए जौहर करने लगीं, जिसे कई बुद्धिजीवियों ने धर्म शास्त्रों में छेड़छाड़ करके इन सबको हमेशा से चली आ रही एक प्रथा का नाम दे दिया.

आधुनिक समाज में लोग ‘सती’ शब्द का अर्थ ही गलत निकालते हैं. ‘सती’ किसी कुरीति या स्त्री को जलाने का नाम नहीं, बल्कि सीता, सावित्री जैसी स्त्रियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है.

लेकिन आधुनिक भारत में वेदों, मनुस्मृति का सही अर्थ जानने वालों ने कभी महिलाओं पर किसी तरह की कोई बंदिश नहीं लगाई, और न ही ऐसी महिलाओं ने कभी खुद को कमजोर महसूस किया. जैसे कि रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई होल्कर, रानी दुर्गावती, जयवंता बाई आदि. ये सभी भगवान की बड़ी भक्त थीं, वेदों-भगवद गीता आदि का पाठ किया करती थीं और इसलिए सही-गलत में फर्क करना और गलत को पहचानकर उसके खिलाफ लड़ना भी जानती थीं. ये नारियां केवल अपनी ही नहीं, बल्कि अपनी दम पर हजारों लोगों की रक्षा करने का दायित्व उठा सकती थीं.

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