मन की शक्तियां : इन सिद्धियों को पाने के बाद मनुष्य बन सकता है ‘शक्तिमान’

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Man ki Shaktiyan (Swami Vivekananda)

आज तर्क-वितर्क या विज्ञान के नाम पर हमने ऐसी बहुत सी बातों को नकार दिया है, जो सच में मानव के सर्वांगीण विकास और विश्व कल्याण के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. और यह सब हम केवल इस आधार पर करते हैं क्योंकि हम प्राचीन भारत की उन विद्याओं को समझ ही नहीं पा रहे. जिन बातों को आज विज्ञान के नाम पर तर्क करने वाले लोग अंधविश्वास और पाखंड या मनगढ़ंत कहानियां कहकर मजाक में उड़ा देते हैं, उन्हीं बातों का आँखों देखा हाल स्वामी विवेकांनद ने पूरी दुनिया को बताया था.

सन् 1900 में कैलिफोर्निया के लॉस एंजिल्स में दिए गए एक व्याख्यान में स्वामी विवेकानंद ने कुछ अलौकिक घटनाओं के बारे में बताते हुए कहा था कि हमारे मन-मस्तिष्क में असीमित शक्तियां भरी पड़ी हैं, लेकिन हम उनका बहुत छोटा सा ही अंश इस्तेमाल कर पाते हैं. जब हम मन की इन शक्तियों को नहीं समझ पाते हैं, तो या तो हम इसे कोई चमत्कार कह देते हैं या अन्धविश्वास के नाम पर नकार देते हैं, लेकिन यह एक विज्ञान ही है. जानिए विवेकानंद द्वारा मन की कुछ शक्तियों के बारे में-

(1) “एक बार मैंने एक ऐसे व्यक्ति के बारे में सुना था जो लोगों द्वारा बिना बताए ही उनके मन के सवालों का तुरंत उत्तर दे देते थे. कई लोग अपने मन में कोई भी सवाल लेकर उनके पास जाते और वह लोगों को देखते ही तुरंत ही उनके सवालों के जवाब दे देता.

जब मुझे भी यह बात पता चली तो मैं भी अपने कुछ मित्रों के साथ उनसे मिलने गया. हम सबने पहले ही सोच लिया था कि उनसे क्या पूछना है, और वहां जाकर कोई गलती न हो, इसके लिए हमने अपने-अपने सवाल लिखकर जेब में रख लिए थे.

लेकिन जैसे ही उन्होंने हमें देखा, उन्होंने न केवल हमारे सवाल दोहरा दिए, बल्कि उनके जवाब भी दे डाले. फिर उन्होंने एक कागज पर कुछ लिखकर, उसे मोड़कर मुझे दिया और कहा, “इसे देखना मत, केवल इसके पीछे अपने हस्ताक्षर करके इसे अपनी जेब में रख लो.” उन्होंने ऐसा हम सब मित्रों से करने को कहा. हमने ऐसा ही किया.

इसके बाद उन्होंने हम सबको भविष्य में घटने वाली कुछ घटनाओं के बारे में बताया, साथ ही हम सबसे कहा कि “अपने-अपने मन में किसी भी भाषा में कोई भी शब्द या वाक्य सोच लो.” मैंने सोचा कि उन्हें संस्कृत नहीं आती होगी तो मैंने अपने मन में संस्कृत का ही एक लंबा सा वाक्य सोच लिया.

अब उन्होंने मुझसे कहा कि जेब से अपना वही कागज निकालो. मैंने जब कागज निकालकर उसे पढ़ा तो दंग रह गया. उस कागज पर संस्कृत का वही वाक्य ज्यों का त्यों लिखा हुआ था, जो मैंने अपने मन में सोचा था. कागज पर उस वाक्य के साथ यह भी लिखा हुआ था, “मैंने यह जो वाक्य लिखा है, यही इस व्यक्ति के मन में आएगा.”

हमारे एक मित्र ने तो अरबी में एक वाक्य सोचा था, जो कुरान से लिया गया था. और मेरे मित्र ने भी जब जेब से कागज निकाला तो पाया कि उसका भी ठीक वही वाक्य उसे दिए कागज पर पहले से ही लिखा था. इसी प्रकार हमारे एक और मित्र जो कि डॉक्टर थे, उन्होंने तो जर्मन भाषा में एक वाक्य सोचा था, और वह भी उनकी जेब में रखे कागज पर पहले से लिखा मिला.

फिर कई दिनों बाद मैं उस व्यक्ति के पास यह सोचकर दूसरे साथियों के साथ दोबारा गया, कि शायद पहली बार में कोई धोखा हुआ होगा, लेकिन दूसरी बार में भी उसने हम सबको उसी प्रकार हैरान कर दिया.”

(2) “एक बार जब मैं हैदराबाद में था, तो कुछ लोगों से एक ऐसे ब्राह्मण के बारे में सुना था जो किसी भी अज्ञात चीज को अज्ञात स्थान से मंगा दिया करते थे. मैंने भी उनसे अपना चमत्कार दिखाने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया. जब उन्होंने अपना चमत्कार दिखाना शुरू किया, तब उनकी लंगोटी छोड़कर हमने उनके सारे वस्त्र ले लिए थे, और पूरी 50 आँखें उन्हीं की तरफ बारीकी से देख रही थीं.

उस समय ठण्ड बहुत पड़ रही थी, तो मैंने अपने पास से एक कंबल उन्हें ओढ़ने के लिए दे दिया था. फिर उन्होंने हम लोगों से अपनी-अपनी इच्छित वस्तुओं को एक कागज पर लिख देने के लिए कहा, तो हम लोगों ने ऐसी वस्तुएं लिखीं, जो उस प्रदेश में पैदा ही नहीं होती थीं, जैसे अंगूर, संतरे आदि. और फिर कागज के टुकड़े उन्हें दे दिए.

और फिर देखते ही देखते उस कम्बल के अंदर से उन सभी वस्तुओं के ढेर निकलने लगे. यदि उन सभी वस्तुओं को तौला जाता तो उन सबका वजन उन महात्मा जी के वजन से दोगुना निकलता. फिर उन्होंने हम सबसे उन फलों को खाने के लिए कहा, लेकिन हम लोगों की हिम्मत नहीं हुई. फिर जब उन्होंने स्वयं खाना शुरू किया, तब जाकर हम लोगों ने भी खाना शुरू किया और देखा कि स्वाद में भी कोई अंतर नहीं था.

अंत में ताजे खिले हुए सुंदर गुलाबों का ढेर लगाकर उन्होंने अपने चमत्कार के प्रदर्शन का अंत किया. जब हम सबने उन ब्राह्मण से पूछा कि वे यह सब कैसे करते हैं, तो उन्होंने इन सबको केवल “हाथ की सफाई” कहकर टाल दिया. लेकिन केवल हाथ की सफाई के बल पर भला इतनी वस्तुएं कहाँ से लाई जा सकती हैं?”

विवेकानंद ने यह भी बताया था कि भारतवर्ष की अलग-अलग जगहों पर उन्होंने ऐसी बहुत सी चीजें देखी थीं, और आज से हजारों साल पहले तो इस प्रकार के चमत्कार आज की तुलना में ज्यादा देखने को मिलते थे, लेकिन घनी आबादी होने से देश के लोगों की मानसिक शक्ति निर्बल हो जाती है.

मन की शक्तियां सच में बड़ी ही आश्चर्यजनक हैं. विवेकानंद ने इसे एक विज्ञान ही माना है और इस विज्ञान को उन्होंने ‘राजयोग’ का नाम दिया है. भारत में आज भी कुछ ऐसे लोग मौजूद हैं जो इस विज्ञान का अध्ययन करते हैं, लेकिन अब यह बहुत ही कम संख्या में है, और ऐसे लोग सबसे मिलते ही नहीं हैं.

स्वामी विवेकानंद का यह पूरा भाषण और लेख आप “मन की शक्तियाँ तथा जीवन-गठन की साधनाएँ” नामक पुस्तक में पढ़ सकते हैं, जो कि इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध है.


साधना से प्राप्त होती हैं सिद्धियां

‘अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता।
अस बर दीन्ही जानकी माता।।’

अर्थात हनुमान जी आठ सिद्धियों और नौ निधियों के अधिकारी देव हैं, दाता हैं. ये शक्तियां उन्हें लक्ष्मी स्वरूपा जगतमाता सीता जी ने दी थीं. ये आठ सिद्धियां हैं- अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशत्व और वशित्व. इसमें जो छठवीं सिद्धि है “प्रकाम्य”, उसे प्राप्त कर लेने वाला साधक दूसरों के मनोभावों को आसानी से पढ़ सकता है. बिना अभिव्यक्त किए ही उसके मन की बातें जान सकता है.

कुछ लोग ऐसी सिद्धि प्राप्त करते रहे हैं और इसकी लम्बी परम्परा रही है. सिद्धियां साधना से प्राप्त होती हैं. सनातन परम्परा में इन सिद्धियों का विधान है, और इसकी शिक्षा-दीक्षा होती रही है. पुस्तकें हैं और गुरु भी हैं. लेकिन इन्हें प्राप्त करने के लिए सिद्ध स्थानों, पीठों में भटकना होता है और लम्बी तपस्या करनी पड़ती है. मंत्र-साधना करनी पड़ती है.


स्वामी विवेकानन्द पर एक नजर-

स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) को एक देशभक्त संन्यासी और आध्यात्मिक गुरु के तौर पर याद किया जाता है. उनके जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ (National Youth Day) के रूप में मनाया जाता है. विवेकानंद को वेदांत और योग के भारतीय दर्शन से पश्चिम को परिचित कराने का श्रेय दिया जाता है.

स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका स्थित शिकागो में साल 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की तरफ से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था. उन्हें बोलने के लिए मात्र 2 मिनट का समय दिया गया था, लेकिन उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत “मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों” के साथ की. उनके इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था.

विवेकानंद का जन्म कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था. लेकिन बचपन से ही उनका झुकाव आध्यात्मिकता की ओर था. वेद, उपनिषद, भगवद् गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त अनेक हिंदू शास्त्रों में उनकी गहरी रुचि थी. वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य आदि जैसे विविध विषयों को भी उत्साह से पढ़ते थे.

स्वामी विवेकानंद के गुरु का नाम रामकृष्ण परमहंस (Ramakrishna Paramhans) था जो मां काली के बहुत बड़े भक्त थे. वे पहले तो रामकृष्ण परमहंस की आलोचना करते थे और उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते थे. लेकिन बाद में वे परमहंस से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्हीं के शिष्य बनकर उनकी सेवा करने लगे. रामकृष्ण मिशन की स्थापना विवेकानंद ने ही की थी.

स्वामी विवेकानंद भारत में मैकाले द्वारा प्रतिपादित और उस समय की प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे, क्योंकि इस शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य केवल बाबुओं की संख्या बढ़ाना था. विवेकानंद ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके और वह आत्मनिर्भर बन अपने पैरों पर खड़ा हो सके.

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