पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर, अनोखा है महाप्रसाद और अद्भुत है रथयात्रा

Jagannath Temple Puri Odisha, पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर, महाप्रसाद और रथयात्रा
Jagannath Temple Puri Odisha

Jagannath Temple Puri Odisha

चार धामों में से एक पुरी का जगन्नाथ मंदिर (Jagannath Temple) कई बड़े रहस्यों से भरा पड़ा है. इस मंदिर के कुछ रहस्यों को तो आज तक विज्ञान भी नहीं समझ पाया है. इस मंदिर में भगवान श्री कृष्ण (Shri Krishna) अपने भाई बलराम और बहन देवी सुभद्रा के साथ विराजमान हैं. भगवान जगन्नाथ का रूप बहुत ही अलग और बेहद मनमोहक है. इसे धरती का बैकुंठ भी कहा जाता है. यहां जाने का मतलब भगवान का आशीर्वाद लेकर ही लौटना. यहां हनुमान जी कई रूपों में रहकर भगवान की सेवा में लगे हुए हैं और यही कारण है कि इस मंदिर के कुछ रहस्य आज तक आधुनिक विज्ञान की समझ से भी परे हैं.

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कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति यहां तीन दिन-तीन रात ठहर जाए तो वह जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है, यानी मोक्ष मिल जाता है. देश में जगन्नाथ मंदिर ही एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां का प्रसाद भी महाप्रसाद कहलाता है. यहां हर आषाढ़ महीने यानी जून-जुलाई में विशाल रथयात्रा का भव्य आयोजन होता है. जगन्नाथ मंदिर की प्रसिद्ध रथयात्रा का उत्सव हर साल पूरे धूमधाम से मनाया जाता है. आज हम इसी मंदिर से जुड़ीं कई रोचक बातों को आपके सामने रखने जा रहे हैं-

विश्व के प्राचीनतम और पवित्र नगरों में से एक है पुरी

ओडिशा (Odisha) को प्राचीनकाल में ‘उत्कल प्रदेश’ के नाम से जाना जाता था. यहां देश के समृद्ध बंदरगाह थे. इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा, थाईलैंड और अन्य कई देशों का व्यापार इन्हीं बंदरगाह के रास्ते होता था. इसी राज्य की पुरी नगरी (Puri), विश्व की सबसे प्राचीन और पवित्र नगरियों में से एक है, जिसके चरण स्वयं समुद्र धोता है. ओडिशा का यह शहर भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसा है. इसे श्री जगन्नाथ पुरी, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, श्रीक्षेत्र, शंखक्षेत्र, नीलगिरि, नीलांचल और शाक क्षेत्र भी कहा जाता है. यहां भगवान विष्णु ने अनेक लीलाएं की हैं.

मंदिर का निर्माण

कहते हैं कि भगवान विष्णु जब अपने चारों धामों की यात्रा पर निकलते हैं, तो वे उत्तर में हिमालय की चोटियों पर बने अपने बद्रीनाथ धाम में स्नान करते हैं, पश्चिम में गुजरात के द्वारका में वस्त्र पहनते हैं, पूर्व में ओडिशा के जगन्नाथ पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्‍वरम में विश्राम करते हैं. कहा जाता है कि द्वापरयुग के बाद भगवान श्री कृष्ण बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ पुरी में ही निवास करने लगे, जहां वे जगन्नाथ कहलाए. जगन्नाथ का अर्थ है- जगत के स्वामी. इसीलिए जगन्नाथ पुरी भगवान विष्णु जी के चार धामों में से एक है.

यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है. गंग वंश के ताम्र पत्रों से पता चलता है कि वर्तमान मंदिर का निर्माण कार्य दसवीं सदी में कलिंग राजा अनंतवर्मन चोडगंग देव (1078-1148) ने शुरू करवाया था. लेकिन मंदिर में स्थापित भगवान की मूर्तियां इससे भी प्राचीन मानी जाती हैं. अनंतवर्मन के शासनकाल में मंदिर के जगमोहन और विमान भाग बनकर तैयार हो गए थे. फिर इस मंदिर को वर्तमान रूप 1197 में ओडिशा के शासक अनंग भीम देव ने दिया था.

मंदिर में गैर-हिंदुओं का प्रवेश है वर्जित

साल 1558 तक मंदिर में स्वामी जगन्नाथ जी की पूजा-अर्चना बिना किसी विघ्न-बाधा के होती रही. फिर इसी साल सुल्तान सुलैमान करनी के अफगान सेनापति ‘कालपहाड़’ ने ओडिशा पर हमला कर मंदिर और उसमें विराजित मूर्तियों को काफी नुकसान पहुंचाया और पूजा बंद करा दी. लेकिन एक भक्त ने किसी तरह भगवान की मूर्तियों को सुरक्षित रख लिया.

बाद में रामचंद्र देव द्वारा स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के बाद इस मंदिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना की गई. जगन्नाथ मंदिर पर कई विदेशी हमले हुए. ये हमले एक विशेष धर्म के लोगों द्वारा ही किए गए. यही कारण है कि मंदिर को सुरक्षित रखने के लिए जगन्नाथ मंदिर में गैर-हिंदुओं के प्रवेश पर पाबंदी लगाई गई है, फिर चाहे वो कोई भी हो, लेकिन यहां जाति को लेकर कभी कोई मतभेद नहीं रहे.

मंदिर की संरचना और भव्यता

जगन्नाथ मंदिर भारत के भव्यतम ऐतिहासिक स्थलों में से एक है. इस मंदिर को ‘यमनिका तीर्थ’ भी कहा जाता है. चारदीवारी से घिरा यह मंदिर करीब 37 हजार मीटर स्कॉयर या 4 लाख वर्ग फीट में फैला हुआ है. मंदिर की ऊंचाई करीब 214 फीट या 65 मीटर है. दिन के किसी भी समय मंदिर के मुख्य शिखर की परछाई नहीं बनती. मंदिर के चार द्वार हैं- पूर्व में सिंह द्वार, दक्षिण में अश्व द्वार, पश्चिम में व्याघरा द्वार और उत्तर में हस्ति द्वार.

हर एक द्वार पर अलग-अलग तरह की नक्काशी की गई है. इसके प्रवेश द्वार के सामने अरुण स्तंभ या सूर्य स्तंभ स्थित है. इसके द्वार पर रक्षक के रूप में दो सिंह बने हुए हैं. यहां एक आश्चर्य की बात ये है कि सिंहद्वार से पहला कदम अंदर रखने पर ही आपको समुद्र की लहरों की आवाज नहीं सुनाई देगी, वहीं मंदिर से एक कदम बाहर रखते ही समुद्र की आवाज सुनाई देने लगती है. वहीं, आमतौर पर दिन में हवा समुद्र से धरती की तरफ चलती है और शाम को धरती से समुद्र की तरफ, लेकिन पुरी में यह प्रक्रिया उल्टी है.

मंदिर के शिखर पर सुदर्शन चक्र और महाध्वज

मुख्य मंदिर का आकार वक्ररेखीय (Curvilinear) है, जिसके शिखर पर 15 फीट की गोलाई का, भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र लगा हुआ है. इसे ‘नीलचक्र’ भी कहते हैं. अष्टधातु से बने इस पवित्र चक्र को आप किसी भी तरफ से खड़ा होकर देखेंगे, लेकिन आपको ऐसा ही लगेगा कि इस चक्र का मुंह आपकी ही तरफ है. चक्र के ऊपर 18 फीट के लंबे बांस पर महाध्वज फहराता रहता है.

ये झंडा हमेशा हवा की विपरीत दिशा में लहराता है. मंदिर के बनने से लेकर आज तक इस ध्वज को रोज बदला जाता है. रोजाना शाम के समय एक सेवक या पुजारी ध्वज पताका को लेकर इतने ऊंचे मंदिर की दीवार पर चढ़ता है. यहां एक और आश्चर्य की बात ये है कि मंदिर के ऊपर से कोई पक्षी नहीं गुजरता, जबकि ज्यादातर मंदिरों के शिखर पर पक्षी बैठे और उड़ते हुए देखे जाते हैं, लेकिन इस मंदिर के ऊपर से तो हवाई जहाज भी नहीं निकलते.

मंदिर के गर्भगृह में भगवान श्री कृष्ण, भाई बलराम और बहन सुभद्रा की मूर्तियां स्थापित हैं. मंदिर के बाकी भाग में पूजा कक्ष, गुफा और हॉल हैं. यह मंदिर चारों तरफ से 20 मीटर ऊंची दीवारों से घिरा हुआ है और चारों तरफ कई छोटे-छोटे मंदिर भी बने हैं. इस मंदिर के निर्माण में कलिंग शैली की स्थापत्यकला और शिल्प का आश्चर्यजनक प्रयोग हुआ है. इस मंदिर के सफेद रंग के कारण इसे ‘श्वेत पैगोडा’ भी कहा जाता है.

मंदिर की भव्य रसोई और महाप्रसाद

शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो भगवान जगन्नाथ की धरती पर आए और महाप्रसाद (Mahaprasad) का स्वाद न चखे. यह महाप्रसाद अपने आप में ही अनोखा है. देखा जाए तो एक अर्थ में यह महाप्रसाद मानवता का जीता-जागता प्रतीक है, क्योंकि इसके सेवन में ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छुआछूत का कहीं कोई भेदभाव नहीं है. राजा हो या रंक, सभी साथ मिल-बैठकर जगन्नाथ जी के महाप्रसाद का स्वाद आनंद से ग्रहण करते हैं.

स्वयं महालक्ष्मी जी की ही देखरेख में बनता है महाप्रसाद

जगन्नाथ मंदिर के दक्षिण पूर्व दिशा में स्थित रसोई दुनियाभर की सबसे प्रसिद्ध रसोई है, जहां 752 चूल्हे हैं. कहा जाता है कि जिस अग्नि में भोजन पकाया जाता है, वह कभी बुझती नहीं. हर दिन सैकड़ों रसोइए मिलकर 56 प्रकार का प्रसाद बनाते हैं, जिन्हें भगवान को चढ़ाया जाता है. यहां बनने वाले किसी भी भोजन में प्याज-लहसुन का जरा भी इस्तेमाल नहीं किया जाता.

मंदिर में महाप्रसाद बनाने की परंपरा बहुत पुरानी है. इस बात का प्रमाण 16वीं शताब्दी की पुस्तक ‘लक्ष्मी पुराण’ में भी मिलता है. यहां सैकड़ों लोग रसोईघर में कड़ी मेहनत करके प्रसाद बनाते हैं, लेकिन वे अपने आपको असली रसोईया नहीं मानते. एक प्रचलित कथा के अनुसार, इस मंदिर का महाप्रसाद स्वयं देवी महालक्ष्मी की ही देखरेख में तैयार किया जाता है.

कभी कम नहीं पड़ता महाप्रसाद

प्रसाद मिट्टी के बर्तनों में बनाया जाता है. रसोई के पास ही दो कुएं हैं, जिन्हें गंगा और यमुना कहा जाता है. प्रसाद को इन्हीं कुएं के पानी से तैयार किया जाता है. प्रसाद बनाने के लिए मिट्टी के 7 बर्तन एक-दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं और फिर एक लकड़ी के ऊपर बनाया जाता है. आश्चर्य की बात ये है कि सबसे ऊपर रखे बर्तन में रखा पकवान सबसे पहले पकता है और फिर नीचे की तरफ से एक के बाद एक प्रसाद बनता चला चला जाता है. हर दिन हजार से लाखों की संख्या में आए लोगों को यह महाप्रसाद बंटता है. संख्या चाहे जितनी भी हो जाए, लेकिन यह महाप्रसाद कभी कम नहीं पड़ता.

भगवान जगन्नाथ जी की प्रसिद्ध रथयात्रा

जगन्नाथ पुरी की विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा का उत्सव (Rath Yatra) हर साल बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. रथयात्रा को देखने के लिए लाखों देशी और विदेशी भक्त और दर्शक हर साल पुरी आते हैं. 3 किलोमीटर लंबी इस यात्रा के मुख्य आकर्षण होते हैं- तीन भव्य रथ. तीनों रथों के अलग-अलग नाम हैं- नंदीघोष, तालध्वज और दर्पदलन. प्रमुख रथ है नंदीघोष, जिस पर भगवान जगन्नाथ जी विराजमान होते हैं. वहीं, तालध्वज पर भाई बलराम और दर्पदलन पर देवी सुभद्रा सवार होती हैं. रथयात्रा जगन्नाथ मंदिर से शुरू होकर गुंडिचा मंदिर तक समाप्त होती है.

पूरी निष्ठा, श्रद्धा और कड़ी मेहनत के साथ बनाए जाते हैं रथ

इन रथों का निर्माण हर साल किया जाता है, जिस पर विराजमान होकर भगवान जगन्नाथ नगर का भ्रमण करते हैं. इन रथों के निर्माण में हर छोटी से छोटी बारीकी का पूरा ध्यान रखा जाता है. रथों का निर्माण परंपरागत तरीके से पूरी निष्ठा, श्रद्धा और कड़ी मेहनत के साथ करीब 6 महीने में पूरा हो पाता है. रथों को बनाने का काम शिल्पकारों का पुश्तैनी कार्य है. किसी समय इनमें से कई शिल्पकार या उनके वंशज नामी जागीरदार थे. इन रथों का निर्माण मंदिर मार्ग से स्थित महाखाला नाम के विशेष स्थान पर किया जाता है. यह स्थान जगन्नाथ मंदिर के मुख्य द्वार से करीब 100 गज की दूरी पर है.

रथ निर्माण में वर्जित है लोहे के औजारों का इस्तेमाल

रथ बनाने के लिए हर साल दो पूर्व शाही राज्य दसापल्ला और बानापुर के जंगलों से साल या सखुआ की लकड़ी के 1072 टुकड़े लाए जाते हैं. इन लकड़ियों की संख्या न कम हो सकती है और ना ज्यादा. इन लकड़ियों को चुनने और उन्हें इकट्ठा करने का काम केवल अनुभवी शिल्पकारों को ही दिया जाता है. पहले रथयात्रा की समाप्ति के बाद रथों की इन लकड़ियों को नीलाम कर दिया जाता था, लेकिन अब यह प्रथा समाप्त कर, इन लकड़ियों को मंदिर की ही रसोई में महाप्रसाद बनाने में इस्तेमाल किया जाता है.

उत्सव से 5 महीने पहले सरस्वती पूजा के दिन से ही लकड़ियों को इकट्ठा करने का काम शुरू कर दिया जाता है. टुकड़ों को अलग-अलग वर्गों में बांटकर तीनों रथों में लगाया जाता है. नियमानुसार तीनों रथों का निर्माण कार्य 53 दिनों या 59 दिनों में पूरा हो जाना चाहिए. इनके निर्माण में लोहे के औजारों का इस्तेमाल पूरी तरह से वर्जित है. शिल्पकार पूरे तन-मन से इन रथों को बनाने के पुण्य कार्य में जुट जाते हैं. इन रथों पर अलग-अलग देवी-देवताओं की सुंदर प्रतिमाएं उकेरी जाती हैं.

रथयात्रा की रस्सी को छू लेने के लिए लोग लगा देते हैं अपनी पूरी ताकत

भगवान जगन्नाथ का रथ करीब 13.55 मीटर ऊंचा होता है और इसमें 16 पहिए लगाए जाते हैं. भाई बलराम के रथ की ऊंचाई करीब 13.20 मीटर होती है, जिसमें 14 पहिए लगाए जाते हैं. वहीं, देवी सुभद्रा का रथ 12.90 मीटर ऊंचा होता है और इसमें 12 पहिए लगाए जाते हैं. सभी रथों में लगे बड़े पहियों का आकार एक व्यक्ति की ऊंचाई के बराबर होता है. तीनों रथों को चार-चार बड़ी और मोटी रस्सियों से खींचा जाता है. जूट से बनी इन रस्सियों की लंबाई करीब 250 फीट और मोटाई 8 इंच होती है. रथयात्रा के दिन केवल रस्सी को छू लेने के लिए ही भक्त अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं.

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