Radha Krishna Story
जब भक्त को अपने भगवान के सिवाय और कुछ नहीं दिखाई देता, जब उसे अपने भगवान से इतना प्रेम हो जाता है कि उसे अपना भी भान नहीं रहता कि वह कौन है, तब वह अपने असली स्वरूप को ही भूल जाता है. ऐसा ही एक बार राधा जी (Shri Radha) के साथ भी हुआ. एक प्रचलित कथा के अनुसार, एक बार श्रीराधा जी ने भगवान श्रीकृष्ण (Shri Krishna) से कहा, “कोई भी गोपी तुम्हें मेरे समान प्रेम नहीं कर सकती”. भगवान समझ गए कि राधा जी उनके प्रेम में अपने वास्तविक स्वरूप को ही भूल गईं.
राधा जी ने श्रीकृष्ण को दी ये चुनौती
श्रीकृष्ण ने राधा जी से कहा कि सभी गोपियां मुझे तुम्हारे समान ही प्रेम करती हैं. ये सुनकर राधा जी को क्रोध आ गया. उन्होंने श्रीकृष्ण को चुनौती दे डाली. उन्होंने कृष्ण जी के चारों तरफ एक रेखा खींचकर कहा कि “तुम मुरली बजाओ और मुरली की आवाज सुनकर जो भी गोपी तुम्हें मेरे समान प्रेम करती होगी, केवल वही इस रेखा के अंदर आ सकेगी, नहीं तो इस रेखा को छूते ही वह भस्म हो जाएगी.”
राधा जी ने श्रीकृष्ण से मांगी क्षमा
श्री कृष्ण जी ने कहा, “ठीक है”. उन्होंने मुरली बजाना शुरू किया. उनके मुरली बजाते ही सभी गोपियां अपना-अपना सब काम छोड़कर उनकी तरफ खिंची चली आने लगीं. सभी गोपियां उस रेखा के पास पहुंचीं. श्री राधिका जी ने देखा कि सभी गोपियां उस रेखा के अंदर आ गईं और किसी को भी कुछ नहीं हुआ. सभी गोपियां भगवान को प्रेम से एकटक देख रही थीं. उन्हें अपने शरीर की सुधबुध ही नहीं थी.
यह देखकर राधा जी भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में बैठ गईं और रोने लगीं. राधा जी ने कहा कि “मुझे क्षमा कर दो, मैंने तुम पर केवल अपना ही अधिकार समझा.”
श्रीकृष्ण ने राधा जी को दिखाया उनका वास्तविक स्वरूप
ये देखकर भगवान कृष्ण ने उन्हें समझाया कि, “हे राधे! तुम फिर भूल कर रही हो. तुम अपने वास्तविक रूप को पहचानो कि तुम कौन हो. जरा इन गोपियों की तरफ ध्यान से देखो कि ये सब कौन हैं.”
तब राधा जी ने देखा कि सभी गोपियों में उन्हीं का रूप है. तब श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं कि “मैंने बिल्कुल सही कहा था कि सभी गोपियां मुझे तुम्हारे समान ही प्रेम करती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि गोपियां भी तुम ही हो. इस धरती पर इतने रूपों में आई हो तुम”.
भगवान ने राधा जी की एक सहेली ललिता की तरफ इशारा करके कहा, “ये गोपी अपने आपको ललिता कहती है, लेकिन वास्तव में देखो कि ये कौन है.”
राधा जी ने देखा कि ललिता में भी उन्हीं का रूप है.
तब श्रीकृष्ण ने कहा, “ललिता भी सिर्फ मुझसे ही प्रेम करती है, लेकिन वह जानती है कि मैं सिर्फ तुमसे प्रेम करता हूं, इसलिए वह मेरी प्रसन्नता के लिए अपने प्रेम का बलिदान कर रही है. यहां तक कि वह हम दोनों को मिलाने का प्रयास भी करती रहती है. ये त्याग, समर्पण और निष्काम भक्ति प्रेम के ही रूप हैं यानी तुम्हारे ही रूप हैं. तुम धरती पर प्रेम के सभी रूपों में आई हो. अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानो.”
अत्यंत कठिन है राधा-कृष्ण को समझ पाना
ऐसी लीला करके भगवान श्रीकृष्ण और राधा जी ने ये समझाने की कोशिश की है कि प्रेम केवल अपने प्रेमी को पाने का ही नाम नहीं है. प्रेम में त्याग, समर्पण और निष्काम भक्ति शामिल है. प्रेम में कोई उम्मीद नहीं होती. चाहे वह मिले या ना मिले, और जहां उम्मीद होती है तो वह प्रेम नहीं, मोह बन जाता है.
प्रेम कभी अपनी बढ़ाई नहीं करता. वह अहंकार से रहित होता है. प्रेम का स्वभाव ही है अपने प्रेमी की प्रसन्नता में ही प्रसन्न रहना. प्रेम में न कोई स्वार्थ, न कोई उम्मीद और ना कोई परिस्थिति, बस रहता है तो एकमात्र प्रेम… तब ऐसे में शरीर भले ही दो हों पर आत्मा एक ही हो जाती है और यही गुण हैं राधा-कृष्ण के प्रेम में. राधा-कृष्ण को समझ पाना अत्यंत कठिन है.
‘राधा’ से ही पाया जा सकता है श्रीकृष्ण को
राधा जी अपने एक रूप में भगवान की हृदय स्वामिनी बनकर उन्हीं के साथ रहती हैं तो दूसरे ही रूप में अपने प्रेम का बलिदान भी कर रही हैं. श्री राधा जी के हृदय में केवल भगवान कृष्ण का ही वास है. वे एक क्षण के लिए उनसे अलग नहीं होतीं. लेकिन जब बात संसार और मानव जाति के कल्याण की आती है तो वह श्रीकृष्ण को अपने से दूर जाने को भी स्वीकार कर लेती हैं. लेकिन वह श्रीकृष्ण के साथ ही रहती हैं, क्योंकि राधा जी ही श्रीकृष्ण की आत्मा हैं.
जब उद्धव जी को अपनी भक्ति का अहंकार हुआ तो भगवान श्रीकृष्ण ने उनका अहंकार दूर करने के लिए उन्हें गोपियों और राधा जी के पास ही भेजा. राधा जी के दर्शन से उद्धव का उद्धार हो गया. वह प्रेम और भक्ति की सही परिभाषा को जान पाए. ‘राधा’ वह नाम है जिनसे प्रेम परिभाषित होता है, जिनसे श्रीकृष्ण को पाया जा सकता है, जिनसे भगवान की कृपा को पाया जा सकता है.
राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं और इसीलिए तो कृष्ण से पहले राधा का नाम लिया जाता है. श्रीकृष्ण में ‘श्री’ शब्द राधा रानी के लिए ही प्रयुक्त हुआ है. ‘राधे-राधे’ रटते ही मनुष्य का कल्याण हो जाता है, क्योंकि प्रेम के माध्यम से ही परमात्मा को पाया जा सकता है. प्रेम और भक्ति ही है, जिसके आगे भगवान भी हार जाते हैं. प्रेम ही तो है जो निर्गुण और निराकार ब्रह्म को भी सगुण और साकार रूप में अपने पास आने के लिए विवश कर देता है. यानी प्रेम और भक्ति ही जगत का सार है.
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