राधा जी का रहस्य : श्रीकृष्ण और राधा जी से जुड़े कुछ रोचक और महत्वपूर्ण तथ्य

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श्रीकृष्ण और राधा जी

Radha Krishna Love (Radha Krishna Leela Story)

कुछ लोग यह कहते हैं कि ‘महाभारत में राधा जी का उल्लेख नहीं है, इसलिए राधा जी काल्पनिक हैं.’ लेकिन इस आधार पर तो बहुत कुछ काल्पनिक हो जायेगा.

श्री राधा जी का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण, देवी भागवत पुराण, शिव पुराण, स्कंद पुराण, वाराह पुराण, पद्म पुराण और गर्ग संहिता में स्पष्ट रूप से मिलता है, वहीं श्रीमद्भागवत पुराण और विष्णु पुराण में सांकेतिक रूप से मिलता है.

पुराणों के अनुसार राधा-कृष्ण से सम्बंधित कुछ स्पष्ट तथ्यों को देखिये —

मूल प्रकृति ईश्वरीय शक्ति पांच भागों में विभक्त है –
गणेशजननी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री और राधा. इन्हीं पर सृष्टि निर्भर है. इन पांचों में कोई छोटा या बड़ा नहीं है.

परब्रह्म श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं–
द्विभुज और चतुर्भुज. चतुर्भुज रूप में वे वैकुण्ठधाम में निवास करते हैं और स्वयं द्विभुज श्रीकृष्ण गोलोकधाम में. श्रीकृष्ण की पत्नी श्रीराधा हैं, जो उनके अर्धांग से प्रकट हुई हैं. और चतुर्भुज रूप में उनकी पत्नी लक्ष्मी जी हैं. चतुर्भुज रूप में वे सुदर्शन चक्र और कौमोदकी गदा धारण करते हैं.

परब्रह्म श्रीकृष्ण जब तक गोकुल में रहे, तब तक श्रीकृष्ण के रूप में रहे, अतः वहां वे राधा जी के साथ रहे. वहां से जाने के बाद वे अपने विष्णु अवतार के स्वरूप में आ जाते हैं. तब वे लक्ष्मी जी (रुक्मिणी जी) के साथ रहे, साथ ही अपने सुदर्शन चक्र और कौमोदकी गदा भी धारण करते हैं.

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यशोदा जी के छोटे भाई ‘रायाण’ नाम के वैश्य से राधा जी का नहीं, राधा जी की छाया का विवाह हुआ था.

जब राधा जी के माता-पिता ने उनका विवाह रायाण से तय किया, तब राधाजी अपने घर में अपनी छाया को छोड़कर स्वयं वहां से अंतर्धान हो गई थीं.

राधाजी की छाया और कोई नहीं, बल्कि वृंदा (तुलसी) थीं (वृंदा श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए बहुत वर्षों से तप कर रही थीं), वहीं रायाण भगवान विष्णु के श्रेष्ठ पार्षद हैं.

(भगवान विष्णु के अनेक पार्षद हैं, जिनमें से 16 पार्षद प्रमुख हैं, जो रंग-रूप और गुणों में भगवान विष्णु जी के समान ही दिखाई देते हैं, क्योंकि ये विष्णु जी के ही अंश हैं. ये भगवान की लीलाओं में उनका सहयोग करने के लिए उनकी आज्ञा पर आ जाते हैं)

भगवान श्रीकृष्ण ने वृंदा से कहा-
“तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्माजी की आयु के समान आयु प्राप्त कर ली है. तुम अपनी आयु धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ. वहां तुम तपस्या के द्वारा इसी शरीर से मुझे प्राप्त करोगी. गोलोक आने के पश्चात्‌ वाराहकल्प में तुम वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता होओगी. उस समय मेरे कलांश से उत्पन्न हुए रायाण गोप तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे. फिर रासलीला के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे प्राप्त करोगी.”

जब राधा जी की छाया (वृंदा) का विवाह रायाण से हो रहा था, तब ब्रह्माजी ने वृन्दावन में वास्तविक राधा और श्रीकृष्ण का विधिवत विवाह कर दिया.

 दोनों के विवाह के बाद छायाभूता राधा (वृंदा) रायाण के घर में, और वास्तविक राधाजी श्रीकृष्ण के वक्षस्थल में निवास करती थीं.

महारासलीला राधा-कृष्ण जी के विवाह के बाद हुई थी.

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भागवत पुराण और विष्णु पुराण में राधाजी का नाम सीधे तौर पर नहीं मिलता है, लेकिन इन दोनों में यह बताया गया है कि महारासलीला के दौरान श्रीकृष्ण केवल एक गोपी के साथ ही वन में विहार कर रहे थे. दोनों वन में जहां-जहां भी गए, उनके चरण चिन्हों का पीछा करते-करते सारी गोपियां उन तक पहुंचने का प्रयास करती हैं, लेकिन पहुंच नहीं पातीं. सभी गोपियां अनुमान लगाती हैं कि “अवश्य ही वह गोपी “अराधिका” ही होगी.”

यहां “अराधिका” किसी गोपी का नाम नहीं बताया गया है. “अराधिका” का अर्थ यह बताया गया है कि गोपियां अनुमान लगाती हैं कि “अवश्य ही यह वही गोपी है, जिसके द्वारा श्रीकृष्ण आराधित किये गए हैं.”

अनयाऽऽराधितो नूनं भगवान हरिरीश्वर:.
यन्नो विहाय गोविन्द: प्रीतो यामनयद् रह:॥
(भागवत पुराण १०|३०|२८)

जितने भी पुराणों में राधा जी का वर्णन आया है, उनमें यह भी बताया गया है कि “श्रीकृष्ण राधा जी की आराधना करते हैं और राधा जी श्रीकृष्ण की आराधना करती हैं, दोनों एक-दूसरे के इष्ट हैं. श्रीकृष्ण की निरंतर आराधना करने के कारण राधा जी का नाम “राधिका” है.

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार-
पूर्वकाल में राधाजी ने श्रीकृष्ण के लिए शतशङ्ख नामक पर्वत पर एक सहस्र दिव्य युगों तक निराहार रहकर तपस्या की थी. इससे वे अत्यंत कृशकाय हो गई थीं. श्रीकृष्ण ने देखा कि अब राधा जी के शरीर में साँसों का चलना भी बंद हो गया, तब वे प्रभु करुणा से द्रवित हो उन्हें छाती से लगाकर फूट-फूटकर रोने लगे. उन्होंने राधाजी को वह सारभूत वर दिया, जो अन्य सब लोगों के लिये दुर्लभ है.
वे बोले- “प्राणवल्वभे! तुम्हारा स्थान मेरे वक्षःस्थल पर है, तुम यहीं रहो. सौभाग्य, मान, प्रेम और गौरव की दृष्टि से तुम मेरे लिये सबसे श्रेष्ठ और सर्वाधिक प्रियतमा बनी रहो.”

राधा जी श्रीकृष्ण के वामभाग से प्रकट हुई हैं और उनके वक्षस्थल में निवास करती हैं, और रूप, गुण व तेज में श्रीकृष्ण के ही समान हैं, इसलिए राधाकृष्ण में कोई अंतर नहीं है. राधा जी श्रीकृष्ण की प्रपञ्चलीलाओं का गोपन (संरक्षण) करती हैं इसलिए उन्हें “गोपी” कहते हैं. सभी गोपियों की उत्पत्ति राधा जी से हुई है.

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चूंकि गोलोक में श्रीदामा ने राधाजी को शाप दिया था कि वे भूतल पर मानवीयोनि में जाकर 100 वर्षों के लिए श्रीकृष्ण से बिछड़ जायेंगी, और इसीलिए 100 वर्षों के लिए राधाकृष्ण अलग-अलग हो गए थे, और उस दौरान श्रीकृष्ण ने धरती का भार उतारा था. 100 वर्ष पूर्ण होने पर राधा-कृष्ण एक-दूसरे से फिर मिले थे और तब वे गोकुल धाम को चले गए थे.

इसी के साथ, ब्रह्मवैवर्त पुराण के अध्याय 111 में राधा जी और यशोदा जी का संवाद भी उल्लेखनीय है.

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श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं और राधा जी उनकी मूल प्रकृति शक्ति हैं. सृष्टि या ब्रह्मांड में जो कुछ भी है, वह सब कुछ प्रकृति का ही रूप है, जो कई रूपों में विभक्त है. (पुरुष और प्रकृति के संबंध को भगवान श्रीकृष्ण ने भगवदगीता में भी विस्तार से समझाया है).

प्रकृति माता समान है और पुरुष पिता समान. वेदों की आज्ञा है कि पुरुषवाची शब्द का उच्चारण करने से पहले प्रकृति का उच्चारण किया जाना चाहिए (माता का नाम पिता से पहले लिया जाना चाहिए). और यही कारण है कि शंकर जी के पहले गौरी जी का, राम से पहले सीता जी का, और कृष्ण से पहले राधा जी का नाम लिया जाता है. इस क्रम में उलटफेर करने वाला मनुष्य वेदों की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला व पाप का भागीदार होता है.

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जैसे पुरुष अपनी पत्नी की रक्षा करता है, उसका श्रृंगार आदि करता है,
उसी प्रकार ईश्वर (श्रीकृष्ण) अपनी प्रकृति (राधाजी) की रक्षा करते हैं, उसका श्रृंगार (व्यवस्थित) आदि करते रहते हैं. यही संबंध शिव-पार्वती का और राम-सीता आदि का है.

उदाहरण-
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचंडपंचसायके.
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम॥७॥

पति के रूप में भगवान् शिव बड़ी निपुणता से अपनी लीलासंगिनी गिरिराजनन्दिनी का श्रृंगार कर रहे हैं. वस्तुतः उनके इस श्रृंगार से युगल-तत्व की एकता परिलक्षित होती है. दिव्य प्रकृति शिव की गृहिणी है. धराधरेन्द्रनन्दिनी प्रकारांतर से धरित्री हैं. अतः पार्वती जी को सजाते हुए शिव प्रकारांतर से धरा को, प्रकृति को सजा रहे हैं, उसमें चैतन्य फूंक रहे हैं. इसलिए उन्हें ‘प्रकल्पनैक शिल्पी’ भी कहा गया है.

पुरुष और प्रकृति को लीलाएं रचाकर भक्तों का उद्धार करने में रस (आनंद) आता है, इसलिए उनकी लीला को “रासलीला” कहते हैं. रासलीला भगवान श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण कर्मों और विचारों का एक छोटा हिस्सा है. भगवान विष्णु के पूर्णावतार की पूर्णता रासलीला के बिना सम्भव नहीं है.

रासलीला अध्यात्म के उच्च स्तर की चीज है जिसे कामी लोग नहीं समझ सकते. सृष्टि की सारी क्रिया ही लीला है – पुरुष और प्रकृति की रासलीला, जिसका संक्षिप्त संकेत भगवद्गीता में भी है. विराट पुरुष और आदि-शक्ति की यह रासलीला उनके निजी मनोरंजन के लिए नहीं, जीवों को भोग और मोक्ष का अवसर प्रदान करने के लिए ही होती है. जीवों का उद्धार ही सृष्टिकर्ता को “रास” आता है, जिस कारण वे “लीला” करते हैं.

Written By : Aditi Singhal (working in the media)


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