जब हनुमान जी को समझ नहीं आया कि इतने बड़े पर्वत पर संजीवनी बूटी कौन सी है, साथ ही समय भी बहुत कम था, तो हनुमान जी ने क्या किया? पूरा पर्वत ही उठाकर ले गए. अब वैद्य या जड़ी-बूटियों की पहचान करने वाले विद्वान स्वयं ही पहचान लेंगे कि पर्वत पर इतनी सारी वनस्पतियों में संजीवनी बूटी कौन सी है.
दरअसल, अपनी इस लीला से मानवजाति को एक बहुत बड़ी सीख देना चाहते थे हनुमान जी.
गीताप्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने भी यही किया. जब अंग्रेजी हुकूमत में उन्होंने हिंदू धर्म से सम्बंधित ग्रंथों और संस्कृति को तेजी से नष्ट होते हुए देखा, तब उन्होंने भी वही किया जो हनुमान जी ने किया था. एक निष्काम कर्मयोगी की तरह हिंदू धर्म या सनातन धर्म से संबंधित उन्हें जहां से, जिस घर से जो कुछ भी मिला, बिना काट-छांट के सबको एकत्रित करना शुरू कर दिया.
और संयोग देखिये कि उनका नाम भी “हनुमान” ही है!
स्व. श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना की और कलयुग में भारत के घर-घर में वैदिक धर्म ग्रंथों, शास्त्रों को पहुंचाने का महत्वपूर्ण काम किया. आज भारत के घरों में जो सनातन शास्त्र पहुँच पा रहे हैं, वे श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की देन है. गीताप्रेस ने सनातन धर्म से सम्बंधित इतना कुछ एकत्रित करने में कड़ी मेहनत की है. इतिहास में उसकी मिसाल मिलना बेहद मुश्किल ही है.
जो समाज अपने इतिहास और महापुरुषों को भूल जाते हैं, वह समाज कुछ समय में ही नष्ट हो जाता है. जब भारतीय समाज अपने ज्ञान, विज्ञान, गौरव को भूल अंग्रेजी सभ्यता का दास बन रहा था, तब इन्होंने हनुमान जी की भांति संजीवनी-पर्वत रूपी गीताप्रेस गोरखपुर (सनातन शक्तिपुंज) की स्थापना कर जो सनातनियों को जड़ से जोड़े रखने का भगीरथी प्रयास किया, उसके लिए भारतीय समाज सदैव इनका ऋणी रहेगा.
इसलिए अब हिंदू समाज की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे उस चील की तरह न बनें, जो ऊंचाई पर उड़कर भी केवल मरे हुए चूहे पर ही नजर रखती है. बल्कि वे उस हंस की तरह बनें, जो दूध और पानी को अलग-अलग करने की क्षमता रखते हैं, उन सुषेण वैद्य की तरह बनें जो पर्वत पर में से संजीवनी बूटी या सही और उपयोगी वनस्पतियों को खोज लेते हैं.
आज धार्मिक ग्रंथों में जो हिंदी टीकाएं या हिंदी अर्थ दिए गए हैं, वे मात्र शब्दार्थ हैं. उन्हें भावार्थ, गूढ़ार्थ और तत्वार्थ न समझें, क्योंकि शब्दार्थ एवं भावार्थ में बहुत अंतर होता है. सही भावार्थ समझना हर किसी के बस की बात नहीं. आजकल के शिक्षक और पुस्तकें केवल शब्दार्थ बताते हैं जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है.
पुराणों में उल्लिखित हमारे आराध्य देवी-देवताओं के स्वरूप, उनके अस्त्र-शस्त्र, वाहन, कार्य इत्यादि गूढ़ अर्थ रखते हैं. जब हम उन्हें डिकोडेड कर समझेंगे, तभी उनके असली अर्थ को समझ पाएंगे. हिन्दू समाज को नीचा दिखाकर सुख पाने वाले लोग इन स्वरूपों का स्थूलीकरण करके जब उनका मखौल उड़ाते हैं, तो उनकी ही विवेचनाओं को सत्य मानते हुए अधिकतर लोग निरुत्तर होकर दिग्भ्रमित होते हैं.
हमें यह समझना होगा कि हमारे वेद-उपनिषद इत्यादि रूपक स्वरूप में भी लिखे गए हैं. पुराण उन्हीं का सरलीकरण हैं. वेदों के ज्ञान और दर्शन को पुराणों में सरल शब्दों और कहानियों के माध्यम से आम जनता तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है. क्योंकि हर व्यक्ति दर्शन को नहीं समझ सकता. आम जनता को कहानी ज्यादा समझ में आती है. पुराणों की एक-एक कहानी के पीछे वेदों का दर्शन है.
लेकिन अब जब कोई गहन अध्ययन में न जाकर मूल ग्रंथों का शाब्दिक अनुवाद ही पढ़ लेता है, तो उलझा ही रह जाता है और तब अगर ऐसे में वह द्रोहियों की विवेचना पर चला जाए, तो उसका दिग्भ्रमित होना तो निश्चित ही है. अतः यह बहुत जरूरी है कि हम स्वयं की समझ भी विकसित करें, उन गूढ़ विवेचनाओं को स्वयं भी समझें. और अगर हम अपनी वैदिक संस्कृत पढ़ने की क्षमता बढ़ा लें, तो फिर तो कोई समस्या ही नहीं रहेगी.
जो लोग गीताप्रेस की किताबों को पढ़कर हिंदू धर्म और संस्कृति के खिलाफ अनर्गल सवाल उठाते हैं, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि यही किताबें रामानंद सागर जी ने भी पढ़ी थीं. लेकिन उन्हें कहीं कोई गलत बातें नजर नहीं आई, क्योंकि उन्होंने किताबों के केवल शब्दों पर न जाकर उनके भावों को भी ग्रहण किया. उन्होंने एक ही किताब पढ़कर अपनी कोई धारणा नहीं बना ली, बल्कि सभी किताबों का अध्ययन कर उनका विश्लेषण भी किया, क्योंकि वे जानते थे कि हिन्दू धर्म-ऐतिहासिक ग्रंथ त्रुटियों या मिलावट से कभी नहीं बच सकते.
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