Shri Krishna Shiv Mahabharat
भगवान् श्रीकृष्ण राजा युधिष्ठिर से कहते हैं-
महाबाहु युधिष्ठिर! मैं अनेक नाम और रूप धारण करने वाले भगवान शिव का महत्व बतलाता हूं. सुनिए! विद्वान पुरुष महादेव जी को अग्नि, स्थाणु (स्तंभ), महेश्वर, एकाक्ष, त्रयम्बक, विश्वरूप और शिव आदि अनेक नामों से पुकारते हैं. वेद में उनके दो रूप बताए गए हैं, जिन्हें वेदवेत्ता ब्राह्मण (सत्पुरुष) जानते हैं. उनका एक स्वरूप तो घोर है और दूसरा शिव (शुभ व कल्याणकारी). इन दोनों के भी अनेक भेद हैं.
महादेव जी की जो घोर मूर्ति है, वह भय उपजाने वाली है. उसके अग्नि, विद्युत और सूर्य आदि अनेक रूप हैं. इससे भिन्न जो शिव-नामावली मूर्ति है, वह परम शांत एवं मंगलमय है. उसके धर्म, जल और चंद्रमा आदि कई रूप हैं. महादेव जी के आधे शरीर को अग्नि और आधे शरीर को सोम कहते हैं. उनकी शिवमूर्ति ब्रह्मचर्य का पालन करती है और जो अत्यंत घोर मूर्ति है, वह जगत् का संहार करती है.
महादेव जी में महत्व और ईश्वरत्व होने के कारण वे ‘महेश्वर’ कहलाते हैं. वे जो सबको दग्ध करते हैं, अत्यंत तीक्ष्ण हैं, उग्र और प्रतापी हैं, प्रलयाग्निरूप से मांस, रक्त और मज्जा को भी अपना ग्रास बना लेते हैं, इसलिए ‘रुद्र’ कहलाते हैं. वे ऊर्ध्वभाग में स्थित होकर देहधारियों के प्राणों का नाश करते हैं. अत्यंत विराट है शिव का स्वरूप. उग्र हैं पर क्रूर नहीं, प्रलयंकर हैं पर पीड़क नहीं. सर्व-आश्चर्य हैं तो सर्व आश्रय भी. वे दृश्य नहीं, दृष्टा हैं.
वे देवताओं में महान हैं, उनका विषय भी महान है तथा वे महान विश्व की रक्षा करते हैं, इसलिए ‘महादेव’ कहलाते हैं. उनकी जटा का रूप धूम्र वर्ण का है, इसलिए उन्हें ‘धूर्जटि’ भी कहते हैं. महादेव जी सब प्रकार के कर्मों द्वारा सब लोगों की उन्नति करते हैं और सबका कल्याण चाहते हैं, इसलिए इनका नाम ‘शिव’ है. वे सदा स्थिर रहते हैं, इसलिए इनका लिंग-विग्रह भी सदा स्थिर रहता है और इसलिए वे ‘स्थाणु’ कहलाते हैं.
भूत, भविष्य और वर्तमान काल में स्थावर और जंगमों के आकार में उनके अनेक रूप प्रकट होते हैं, इसलिए वे ‘बहुरूपी’ कहलाते हैं. समस्त देवता उनमें निवास करते हैं, इसलिए वे ‘विश्वरूप’ कहे गए हैं. महादेव जी के नेत्र से तेज प्रकट होता है तथा उनके नेत्रों का अंत नहीं है, इसलिए वे ‘सहस्त्राक्ष’, ‘आयुताक्ष’ और ‘सर्वतोऽक्षिमय’ कहलाते हैं. वे सब प्रकार से पशुओं का पालन करते हैं, उनके साथ रहने में सुख मानते हैं तथा पशुओं के अधिपति हैं, इसलिए वे ‘पशुपति’ कहलाते हैं.
समस्त कामनाओं के अधीश्वर होने के कारण उन्हें ‘ईश्वर’ कहते हैं और महान लोकों के ईश्वर होने के कारण भी उनका नाम ‘महेश्वर’ हुआ है. मनुष्य यदि ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्रतिदिन भगवान शिव के श्रीविग्रह अथवा स्थिर शिवलिंग की पूजा करता है, वह लिंगपूजक सदा बहुत बड़ी संपत्ति का भागी होता है. ऋषि, देवता, गंधर्व अप्सराएं ऊर्ध्वलोक में स्थित शिवलिंग का ही पूजन करते हैं.
भगवान शिव ही अग्नि रूप से शव को दग्ध करते हुए शमशान भूमि में निवास करते हैं. जो लोग वहां उनकी पूजा करते हैं, उन्हें वीरों को प्राप्त होने वाले उत्तम लोक की प्राप्ति होती है. वे प्राणियों के शरीर में रहने वाले और उनके मृत्यु रूप हैं तथा वे ही प्राण-अपान आदि वायु के रूप से देह के भीतर निवास करते हैं. उनके बहुत से भयंकर एवं उद्दीप्त रूप हैं, जिनकी जगत् में पूजा होती है. विद्वान ही उन सब रूपों को जानते हैं.
प्रजानाथ युधिष्ठिर! तीनों लोकों में महादेव जी से बढ़कर दूसरा कोई श्रेष्ठ देवता नहीं है, क्योंकि वे समस्त भूतों की उत्पत्ति के कारण हैं. उन भगवान शिव के सामने कोई भी खड़ा होने का साहस नहीं कर सकता. तीनों लोकों में कोई भी प्राणी उनकी समता करने वाला नहीं है. उनकी महत्ता, व्यापकता तथा दिव्या कर्मों के अनुसार देवताओं में उनके बहुत से यथार्थ नाम प्रचलित हैं. वेद के शतरुद्रिय प्रकरण में उनके सैकड़ों उत्तम नाम हैं, जिन्हें वेदवेत्ता ब्राह्मण जानते हैं. महर्षि व्यास ने भी उन भगवान शिव का स्तवन किया है.
भगवान शिव सम्पूर्ण लोकों को उनकी अभीष्ट वस्तु देने वाले हैं. यह महान विश्व उन्हीं का रूप बताया गया है. ब्राह्मण और ऋषि उन्हें सबसे ज्येष्ठ कहते हैं. वे देवताओं में प्रधान हैं. उन्होंने अपने मुख से अग्नि को उत्पन्न किया है. वे नाना प्रकार की ग्रह-बाधाओं से ग्रस्त प्राणियों को दुख से छुटकारा दिलाते हैं. वे पुण्यात्मा और शरणागतवत्सल अपनी शरण में आए हुए किसी प्राणी का त्याग नहीं करते।
वे ही मनुष्यों को आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, धन और सम्पूर्ण कामनाएं प्रदान करते हैं और वे ही पुनः उन्हें छीन लेते हैं. इंद्रादि देवताओं के पास उन्हीं का दिया हुआ ऐश्वर्य है. तीनों लोकों के शुभाशुभ कर्मों का फल देने के लिए वे ही सदा तत्पर रहते हैं. उन्होंने नाना प्रकार के बहुसंख्यक रूपों द्वारा इस संपूर्ण लोक को व्याप्त कर रखा है. उन महादेव जी का मुख ही समुद्र में बड़वानल है. महादेवजी के गुणों का वर्णन सैकड़ों वर्षों में भी नहीं किया जा सकता.
– महाभारत अनुशासन पर्व १६१ (Mahabharat Anushasan Parva 161)
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