Mansahar in Mahabharat : मांस-भक्षण को लेकर भीष्म पितामह ने क्या कहा है

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Non Veg in Mahabharata

युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछा कि-

“पितामह! आपने बहुत बार यह कहा है कि अहिंसा परम धर्म है. इसलिये मैं यह जानना चाहता हूँ कि जो मनुष्य मांस-भक्षण करते हैं, उनकी क्या हानि होती है और जो मांसभक्षण नहीं करता, उसे कौन-कौन से लाभ मिलते हैं? जो स्वयं पशु का वध करके उसका मांस खाता है या दूसरे के दिये हुए मांस का भक्षण करता है या जो दूसरे के खाने के लिये पशु का वध करता है अथवा जो खरीदकर मांस खाता है, उसे क्या दण्ड मिलता है? मनुष्य कैसे शुभ लक्षणों से संयुक्त होता है? किस प्रकार उसे पूर्णांगता प्राप्त होती है? मैं निश्चित रूप से सदा ही इस सनातन धर्म के पालन की इच्छा रखता हूँ. मैं चाहता हूँ कि आप इस विषय का यथार्थ रूप से विवेचन करें.”

तब भीष्म पितामह उत्तर देते हैं-

“राजन्! मांस न खाने से जो धर्म होता है, उसका मुझसे यथार्थ वर्णन सुनो तथा उस धर्म की जो उत्तम विधि है, वह भी जानो. जो मनुष्य सुंदर रूप, पूर्णांगता, पूर्ण आयु, उत्तम बुद्धि, सत्त्व, बल एवं स्मरणशक्ति प्राप्त करना चाहते थे, उन महात्मा पुरुषों ने हिं*सा का सर्वथा त्याग किया था. राजेन्द्र! श्येनचित्र, सोमक, वृक, रैवत, रन्तिदेव, वसु, सृंजय, अन्यान्य नरेश, कृप, भरत, दुष्यन्त, करूष, राम, अलर्क, नर, विरूपाश्व, निमि, राजा जनक, पुरूरवा, पृथु, वीरसेन, इक्ष्वाकु, शम्भु, श्वेतसागर, अज, धुन्धु, सुबाहु, हर्यश्व, क्षुप, भरत– इन सबने तथा अन्यान्य राजाओं ने भी कभी मांस-भक्षण नहीं किया था.”

श्री वाल्मीकि जी भी रामायण में लिखते हैं-

“कोई भी रघुवंशी न तो मांस खाता है और न ही मधु का सेवन करता है. श्रीराम सदा चार समय उपवास करके पांचवे समय शास्त्रविहित जंगली फल-फूल और नीवार आदि भोजन करते हैं.” (वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड सर्ग ३६).

भीष्म पितामह आगे कहते हैं, “निष्पाप राजेन्द्र! सप्तर्षि, वालखिल्य तथा सूर्य की किरणों का पान करने वाले अन्यान्य मनीषी महर्षि मांस न खाने की ही प्रशंसा करते हैं. जो मनुष्य मांस का परित्याग कर देता है, श्रेष्ठ पुरुष सदा ही उसका सम्मान करते हैं. जो मनुष्य सौ वर्षों तक कठोर तपस्या करता है तथा जो केवल मांस का परित्याग कर देता है- ये दोनों मेरी दृष्टि में एक समान हैं. जो पुरुष नियमपूर्वक व्रत का पालन करता हुआ अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करता है तथा जो केवल मद्य व मांस का परित्याग करता है, उन दोनों को एक-सा ही फल मिलता है.”

“युधिष्ठिर! मनु का कथन है कि जो मनुष्य न मांस खाता है और न पशु की हिंसा करता और न दूसरे से ही हिं*सा कराता है, वह सम्पूर्ण प्राणियों का मित्र कहा जाता है. नारदजी कहते हैं कि जो दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, वह निश्चय ही दुःख उठाता है. गुरु बृहस्पति जी का कथन है कि जो मद्य व मांस का त्याग कर देता है, उसे ही दान, यज्ञ और तपस्या का फल प्राप्त होता है. जो धर्मात्मा पुरुष जन्म से ही इस जगत् में मधु, मद्य और मांस का सदा के लिये परित्याग कर देते हैं, वे सभी मुनि माने गये हैं.”

“कुरुनन्दन! प्राचीनकाल में मनुष्यों के यज्ञादि केवल अन्न से ही हुआ करते थे. पुण्यलोक की प्राप्ति के साधनों में लगे रहने वाले याज्ञिक पुरुष अन्न के द्वारा ही यज्ञ करते थे. किन्तु जब एक समय ऋषियों ने चेदिराज वसु से अपना संदेह पूछा, उस समय वसु ने मांस को भी जो सर्वथा अभक्ष्य है, को भक्ष्य बता दिया. अनुचित निर्णय देने के कारण आकाशचारी राजा वसु आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े. इसके बाद पृथ्वी पर भी फिर ऐसा ही निर्णय देने के कारण वे पाताल में समा गये.”

कथा के अनुसार, एक समय ऋषियों तथा अन्य लोगों में, यज्ञ में प्रयोग होने वाले “अज” शब्द पर विवाद हुआ. ऋषियों का पक्ष ‘अज’ का अर्थ ‘अन्न’ अर्थात् ‘जो उत्पत्तिरहित है’ से करता ही था, जबकि दूसरा पक्ष ‘अज’ का अर्थ ‘बकरा’ करना चाहता था. दोनों पक्षों ने चेदिराज वसु से अपना संदेह पूछा. वसु भी अनेक यज्ञ करा चुके थे और वे जानते थे कि यज्ञादि अन्न से ही होते हैं, किन्तु मलेच्छों के संसर्ग से वे ऋषियों के द्वेषी बन गए थे. ऋषि उनकी बदली हुई मनोवृत्ति से परिचित न थे. चेदिराज वसु ने ऋषियों के विरोधी पक्ष का ही समर्थन करते हुए कहा- “छागेनाजेन यष्टव्यम”. असुर तो ऐसा ही चाहते थे, अतः वे उसके प्रचारक बन गए. परन्तु ऋषियों ने उस मत को ग्रहण नहीं किया; क्योंकि वसु का यह अर्थ, वेदों का अर्थ निकालने के लिए बनाये गए नियमों का पालन नहीं करता था.

भीष्म पितामह आगे कहते हैं, “हे भारत! जो लोग स्वाहा (देवयज्ञ) और स्वधा (पितृयज्ञ) का अनुष्ठान करके यज्ञशिष्ट अमृत का भोजन करने वाले तथा सत्य और सरलता के प्रेमी है, वे देवता हैं, किन्तु जो कुटिलता और असत्य भाषण में प्रवृत्त हैं एवं सदा मांसभक्षण करते हैं, उन्हें राक्षस ही समझो. लोभ से, बुद्धि के मोह से अथवा पापियों के संसर्ग में आने से मनुष्यों की अधर्म में रुचि हो जाती है. मांस के रस का आस्वादन एवं अनुभव कर लेने पर उसे त्यागना एवं समस्त प्राणियों को अभय देने वाले इस सर्वश्रेष्ठ अहिंसा व्रत का आचरण करना अत्यंत कठिन हो जाता है.”

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“नृपश्रेष्ठ! जैसे मनुष्य को अपने प्राण प्रिय होते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्रिय होते हैं. जब अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले विद्वानों को भी मृत्यु का भय बना रहता है, तब जीवित रहने की इच्छा रखने वाले नीरोग और निरपराध प्राणियों को, जो मांस पर जीविका चलाने वाले पापी पुरुषों द्वारा बलपूर्वक मारे जाते हैं, उन्हें क्यों न भय प्राप्त होगा. तिनके से, लकड़ी से अथवा पत्थर से मांस पैदा नहीं होता, वह जीव की हत्या करने पर ही उपलब्ध होता है, अतः मांसाहार में महान दोष है. जो अपना कल्याण चाहता हो, वह मनुष्य मांस का सर्वथा परित्याग कर दे.”

“राजन्! जो मनुष्य मांस खाने वालों के लिये पशुओं की हत्या करता है, वह मनुष्यों में अधम है. प्राणियों की हिं*सा करने वाले भयंकर मनुष्य दूसरे जन्म में सभी प्राणियों के उद्वेगपात्र होते हैं और उन्हें अपने लिये भी कोई संरक्षक नहीं मिलता है. जो दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ कहीं भी जन्म लेता है, चैन से नहीं रह पाता है. जो मांसलोभी मूर्ख एवं अधम मनुष्य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गों के नाम पर प्राणियों की हिं*सा करता है, वह नरकगामी होता है.

“युधिष्ठिर! ऋषि मार्कण्डेयजी ने कहा है कि जो मनुष्य जीवित रहने की इच्छा रखने वाले निरपराध प्राणियों को मारकर अथवा उनके स्वयं मर जाने पर उनका मांस खाता है, वह न मारने पर भी उन प्राणियों का हत्यारा ही समझा जाता है. जो मांस को स्वयं नहीं खाता, किन्तु खाने वाले का समर्थन करता है, वह मनुष्य भी भावदोष के कारण मांसभक्षण के पाप का भागी होता है. इसी प्रकार जो निरपराध पशुओं को मारने वाले का अनुमोदन करता है, वह भी हिं*सा के दोष से लिप्त होता है.”

“जो मनुष्य हत्या के लिये पशु लाता है, जो उसे मारने की अनुमति देता है, जो उसका वध करता है तथा जो खरीदता, बेचता, पकाता और खाता है, वे सब-के-सब खाने वाले ही माने जाते हैं. अर्थात् वे सब खाने वाले के समान ही पाप के भागी होते हैं. खरीदने वाला धन के द्वारा, खाने वाला उपभोग के द्वारा और घातक वध एवं बन्धन के द्वारा पशुओं की हिं*सा करता है. इस प्रकार इन तीन प्रकार से प्राणियों का वध होता है.”

“कुन्तीनन्दन! यदि कोई भी मांस खाने वाला न रह जाये तो पशुओं की हिं*सा करने वाला भी कोई न रहे, क्योंकि हत्यारा मनुष्य मांस खाने वालों के लिये ही पशुओं की हिं*सा करता है. यदि सब लोग मांस को खाना छोड़ दें तो पशुओं की हत्या अपने-आप ही बंद हो जाये. इसलिए मांस का परित्याग ही धर्म, स्वर्ग और सुख का सर्वोत्तम आधार है. जो विद्वान् सब जीवों को अभयदान देता है, वह निःसंदेह इस संसार में प्राणदाता माना जाता है.”

“राजन्! जो मांस-भक्षण के परित्यागरूप इस धर्म का आचरण करता अथवा इसे दूसरों को भी सुनाता है, वह नरक में नहीं पड़ता. जो ऋषियों द्वारा सम्मानित एवं पवित्र इस मांस-भक्षण के त्याग को पढ़ता अथवा बारंबार सुनता है, वह पापों से मुक्त हो मनोवांछित भोगों द्वारा सम्मानित होता है. कुरुश्रेष्ठ! इसके प्रभाव से मनुष्य तिर्यग् योनि में नहीं पड़ता तथा उसे सुन्दर रूप, सम्पत्ति और महान् यशकी प्राप्ति होती है. सत्य ही सनातन धर्म है. राजा हरिश्चन्द्र सत्य के प्रभाव से आकाश में चन्द्रमा के समान विचरते हैं.”

— महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय ११५ (Mahabharat Anushasan Parva Adhyay 115)

राजा पृथु ने कहा है कि-

“जो अपने या पराये किसी एक के लिए बहुत से प्राणियों का वध करता है, उसे अनंत पातक लगता है, किन्तु जिस दुष्ट या अशुभ व्यक्ति का वध करने पर बहुत से लोग या समाज सुखी हो, उसे मारने से पातक नहीं लगता.”

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About Sonam Agarwal 238 Articles
LLB (Bachelor of Law). Work experience in Mahendra Institute and National News Channel (TV9 Bharatvarsh and Network18). Interested in Research. Contact- sonagarwal00003@gmail.com

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