पुष्पवाटिका में श्रीराम और सीता जी ने पहली बार एक-दूसरे को इस प्रकार देखा, जैसे वर्षों से बिछड़े दो प्रेमी फिर से मिल गए हों. श्रीराम को देखते ही सीता जी ने तुरंत गौरी जी के पास जाकर अपने मन की सारी बात उन्हें ही बता दी. अपने सारे पुण्यों का फल श्रीराम के रूप में ही मांग लिया. सीता जी ने श्रीराम से विवाह के लिए गौरी जी का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया. वहीं, श्रीराम ने सीता जी को देखते ही यह प्रतिज्ञा कर ली कि ‘राम के जीवन में आएगी तो केवल सीता, और कोई नहीं’.
देखि सीय शोभा सुखु पावा।
हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई।
बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥
सीताजी की शोभा देखकर श्रीराम ने बड़ा सुख पाया. वे हृदय में वे उनकी सराहना करते हैं, पर मुख से वचन नहीं निकलते. (सीता जी की शोभा ऐसी अनुपम है) मानो ब्रह्मा जी ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो. सीताजी की शोभा सुंदरता को भी सुंदर करने वाली है.
पार्वती जी का आशीर्वाद प्राप्त कर सीता जी प्रसन्न मन से अपने महल को लौट जाती हैं और श्रीराम भी लक्ष्मण जी के साथ गुरु विश्वामित्र के पास चले जाते हैं.
रात्रि में पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ. श्रीराम को उज्जवल चन्द्रमा में भी सीता जी ही दिखाई दे रही हैं. वे सीता जी के मुख की उपमा चन्द्रमा से देने लगते हैं, लेकिन फिर उन्होंने विचार किया कि क्या सीता की तुलना चन्द्रमा से की जा सकती है? नहीं, यह चन्द्रमा सीता के मुख के समान नहीं है.
श्रीराम ने सीता जी को पहली बार देखते ही चन्द्रमा के बहाने उनके सभी गुणों का वर्णन कर दिया. चन्द्रमा के बहाने सीता जी की सुन्दरता की प्रशंसा कर दी. श्रीराम ने चन्द्रमा के नौ अवगुण बताए हैं, और उसी बहाने उन्होंने सीता जी के गुण भी बता दिए हैं-
जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥
(1) श्रीराम कहते हैं कि, “हे चन्द्रमा! तुम्हारा जन्म खारे समुद्र से हुआ है, पर सीता का जन्म तो जगत का भरण-पोषण करने वाली पृथ्वी से हुआ है.”
(2) “हे चन्द्रमा! तुम समुद्र मंथन से उत्पन्न हुए हो और तुम्हारे साथ विष भी उत्पन्न हुआ था, अतः विष तुम्हारा भाई हुआ, पर सीता का भाई तो मंगल है जो पृथ्वी का ही पुत्र है और जो मंगल करने वाला है.”
(3) “हे चन्द्रमा! तुम दिन में मलीन रहते हो, पर सीता तो दिन में भी प्रकाश करती फिरती हैं.”
यथा… पुष्पवाटिका में सीता जी को देखते ही श्रीराम लक्ष्मण जी से कहते भी हैं-
पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥
(4) “हे चन्द्रमा! तुम तो कलंक (काले दाग) से युक्त हो पर सीता तो निष्कलंक है, पूर्ण पवित्र है. बेचारा (गुणों से) गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?”
घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥
(5) “हे चन्द्रमा! तुम घटते-बढ़ते रहते हो पर सीता तो वृद्धि स्वरूप हैं.”
(6) “हे चन्द्रमा! तुम उदय होकर विरहिणी स्त्रियों के विरह को और बढ़ाकर उन्हें दुख देते हो, पर सीता का प्राकट्य तो सारे जगत को प्रफुल्लित कर देता है (अर्थात सीता जी सबको सुख देने वाली हैं).”
(7) “हे चन्द्रमा! तुम्हें तो राहु अपनी संधि में पाकर ग्रस लेता है, पर सीता को तो कोई नहीं ग्रस सकता (कोई भी बुरी या नकारात्मक शक्ति सीता जी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकती, और न ही सीता जी को अपने वश में कर सकती है)”
यथा… रावण लंका में सीता जी से कह-कहकर थक जाता है कि-
एक बार बिलोकु मम ओरा (एक बार मेरी ओर देखो तो सही)
(8) “हे चन्द्रमा! तुम तो रात्रि में चकवा-चकवी को विलग (पृथक) करके उन्हें विरह का दुख देते हो, पर सीता ने किसी प्राणी जोड़े को कभी विलग नहीं किया (सीता जी तो सबके दुःख दूर करने वाली हैं)”
(9) “हे चन्द्रमा! तुम कमल के बैरी हो. तुम्हारा उदय कमल को मुरझा देता है, पर सीता के आने से तो सारा जगत खिल उठता है.”
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥ (सीताजी जहाँ दृष्टि डालती हैं, वहाँ मानो श्वेत कमलों की कतार बरस जाती है).
श्रीराम ने कहा, “हे चन्द्रमा! तुझमें तो बहुत से अवगुण हैं (जो सीता में नहीं हैं). यदि मैं जानकी के मुख की उपमा तुमसे दूँ, तो मुझे बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा. अतः हे चन्द्रमा! तुम्हारी तुलना सीता से नहीं हो सकती.”
और इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने श्रीराम बड़ी देर तक सीता जी को ही याद करते रहते हैं और उनके रूप तथा गुणों की प्रशंसा करते रहते हैं.
तुलसीदास जी लिखते हैं- “रूप और गुणों की खान जगत जननी सीता जी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता. सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूठा कर रखा है. सीताजी के वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाए और अपयश का भागी बने.”
“शोभा की खान, सुशील और विनम्र सीताजी सदा श्रीराम के अनुकूल रहती हैं. यद्यपि घर में बहुत से दास-दासियाँ हैं और सभी सेवा की विधि में कुशल हैं, फिर भी सीताजी घर की सब सेवा अपने ही हाथों से करती हैं. जिस प्रकार से भी श्रीराम को सुख मिले, श्री जी वही करती हैं. शिवजी, ब्रह्मा जी और देवताओं से वंदित सीताजी घर में कौसल्या आदि सभी सासुओं की सेवा करती हैं. उन्हें किसी बात का अभिमान और मद नहीं है.”
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