Gita Adhyay 12 Bhakti Yog (Shri Krishna Arjun)
गीता के दूसरे अध्याय से लेकर छठे अध्याय तक भगवान श्रीकृष्ण ने जगह-जगह निर्गुण ब्रह्म की और सगुण परमेश्वर की उपासना की प्रशंसा की है. सातवें अध्याय से 11वें अध्याय तक तो विशेष रूप से सगुण भगवान की उपासना का महत्त्व दिखलाया है. इसी के साथ पांचवे अध्याय में 17वें से 26वें श्लोक तक, छठे अध्याय में 24वें से 29वें तक, आठवें अध्याय में 11वें से 13वें तक तथा इसके सिवा और भी कितनी ही जगह निर्गुण की उपासना का महत्त्व भी दिखलाया है.
आखिर 11वें अध्याय के अंत में सगुण-साकार भगवान की अनन्य भक्ति का फल भगवत्प्राप्ति बतलाकर ‘मत्कर्मकृत्’ से आरंभ होने वाले इस अंतिम श्लोक में सगुण-साकार-स्वरूप भगवान के भक्त की विशेष-रूप से प्रशंसा की. इस पर अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा हुई कि निर्गुण-निराकर ब्रह्म की और सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले दोनों प्रकार के उपासकों में उत्तम उपासक कौन हैं, तो अर्जुन पूछते हैं-
भगवद्गीता – द्वादश अध्याय (Gita 12 Bhakti Yog)
(Bhagwat Geeta Adhyay 12 Shlok in Sanskrit)
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥१॥
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेताः ते मे युक्ततमा मताः॥२॥
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलन्ध्रुवम्॥३॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥४॥
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥५॥
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥६॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥७॥
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥८॥
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥९॥
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥१०॥
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥११॥
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥१२॥
अर्जुन उवाच
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी॥१३॥
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१४॥
श्रीभगवानुवाच
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥१५॥
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१६॥
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥१७॥
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥१८॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥१९॥
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥२०॥
भावार्थ (बारहवाँ अध्याय) (Gita 12 Bhakti Yog)
(Bhagwat Geeta Adhyay 12 in Hindi)
अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को, और दूसरे (भक्तजन) जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं- उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?॥1॥
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं॥2॥
किन्तु जो मनुष्य इन्द्रियों को भली-भांति वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे संपूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥
उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले मनुष्यों के साधन में परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है (देह में अभिमान रहते निर्गुण ब्रह्म का तत्त्व समझ में आना बहुत कठिन है. इसलिये जिनका शरीर में अभिमान है, अर्थात जो केवल अपने बारे में ही सोचते हैं, उन्हें वैसी स्थिति बड़े परिश्रम से प्राप्त होती है)॥5॥
किन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं॥6॥ उन प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ॥7॥
♦ भगवान् को निरंतर भजने का अर्थ लगातार केवल भगवान् के भजन गाने से नहीं हैं, बल्कि गोपियों की तरह समस्त कर्म करते समय भगवान में मन को तन्मय करके उनके गुण, प्रभाव और स्वरूप का सदा-सर्वदा प्रेमपूर्वक चिंतन करते रहना ही मन को एकाग्र करके निरंतर उनके ध्यान में स्थित रहते हुए उनको भजना है.
या दोहनेअवहनने मथनोपलेप-प्रेङ्खेङ्खनार्भरूदितो-क्षणमार्जनादौ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियो-अश्रुकण्ठचो धन्या व्रजस्त्रिय उरूक्रमचित्याना:।।
(श्रीमद्भागवत 10।44।15)
“जो गौओं का दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आंगन लीपते समय, बालकों को पालने में झुलाते समय, रोते हुए बच्चों को लोरी सुनाते समय, घरों में जल छिड़कते समय और झाड़ू देने आदि कर्मों को करते समय प्रेमपूर्वक चित्त से गद्गद वाणी से श्रीकृष्ण का गान किया करती हैं, इस प्रकार सदा श्रीकृष्ण में ही चित्त लगाये रखने वाली ये ब्रजवासिनी गोपियां धन्य हैं.”
अर्जुन! मुझमें मन और बुद्धि को लगाओ, इसके उपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे॥8॥ यदि तुम मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासरूप योग द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा करो॥9॥ और यदि तुम उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ हो, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जाओ. इस प्रकार तुम मेरे निमित्त कर्मों को करता हुए भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगे॥10॥
♦ भगवान की प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार की युक्तियों से भगवान में मन को लगाने का जो बार-बार प्रयत्न किया जाता है, उसे ‘अभ्यासयोग’ कहते हैं. अत: भगवान के जिस नाम, रूप, गुण और लीला आदि में साधक की श्रद्धा और प्रेम हो, उसी में भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से बार-बार मन लगाने के लिये प्रयत्न करना अभ्यासयोग के द्वारा भगवान को प्राप्त करने की इच्छा करना है.
भाँति-भाँति के दु:खों की प्राप्ति होने पर भी प्रह्लाद की तरह भगवान पर स्थिर रहना, भगवान को ही परम प्रेमी, परम गति, परम सुहृद और सब प्रकार से शरण लेने योग्य समझकर स्वयं को भगवान के समर्पण कर देना, भगवान के परायण होना है.
अर्जुन! यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तुम असमर्थ हो, तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करके सब कर्मों के फल का त्याग करो (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में देखिये)॥11॥ मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है॥12॥
♦ ‘सब कर्मों के फल का त्याग’ करने वाला मनुष्य न तो यह समझता है कि मुझसे भगवान कर्म करवाते हैं और न ही वह यह समझता है कि मैं भगवान के लिये समस्त कर्म करता हूँ. वह यह समझता है कि कर्म करने में ही मनुष्य का अधिकार है, उसके फल में नहीं.
अर्जुन! जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरंतर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है॥13-14॥
जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर होने वाला संताप या दुःख), भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझे प्रिय है॥15॥ जो मनुष्य आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध, चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ (सुख-दुख में समान) है- वह सब आरंभों का त्यागी भक्त मुझे प्रिय है॥16॥ जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है॥17॥
जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है॥18॥ जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है॥19॥ किन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझे बहुत प्रिय हैं॥20॥
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