Buddha Bhagwan Vishnu Avatar : क्या बुद्ध भगवान विष्णु के अवतार थे? क्या बुद्ध नास्तिक थे?

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क्या बुद्ध भगवान विष्णु के अवतार थे?

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बुद्ध के बारे में हर जगह अलग-अलग जानकारियां मिलती हैं. कुछ लोगों का मानना है कि बुद्ध भगवान् विष्णु के अवतार थे और कुछ लोग उन्हें विष्णुजी का अवतार नहीं मानते. कुछ लोगों का मानना है कि विष्णुजी के अवतार बुद्ध अलग थे और गौतम बुद्ध अलग, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि गौतम बुद्ध ही विष्णु जी के अवतार थे. कुछ लोग कहते हैं कि कई बुद्ध आ चुके हैं (हालाँकि इस बात के कोई सबूत नहीं मिलते हैं), और कुछ कहते हैं कि बुद्ध केवल एक ही हुए हैं, कई नहीं. कुछ लोग बुद्ध को नास्तिक और वेदविरोधी मानते हैं, जबकि कुछ लोग इस बात का खण्डन करते नजर आते हैं.

कहा जाता है कि बुद्ध ने अपने समय के पाखण्डों का विरोध किया था. लेकिन आज लोग पाखंड शब्द का अर्थ अपने ही तरीके से निकालते हैं और उसी के अनुसार बुद्ध के कार्यों का वर्णन करते हैं. हालाँकि सच क्या है, यह तो फिलहाल हम नहीं जानते, लेकिन आज इस विषय पर कुछ चर्चा करते हैं. कृपया पूरे लेख को सावधानीपूर्वक पढ़ें –

भगवान् विष्णु जी के मुख्य दश अवतारों में बुद्ध

22 जनवरी 2024 को भारत एक बड़ी विजय का साक्षी बना, जब भगवान् श्रीराम अपनी जन्मभूमि अयोध्याजी में रामलला के रूप में विराजमान हुए. यह दुनिया के सबसे सुन्दर और भव्य कार्यक्रमों में से एक है. हर कोई रामलला की मोहक छवि को निहारता ही रह गया. रामलला के सिर पर मुकुट सजा है, हाथों में धनुष-बाण है. प्रतिमा में सूर्य, ॐ, गणेशजी, चक्र, शंख, गदा, स्वास्तिक और हनुमानजी की आकृति बनी हुई है.

रामलला की इस प्रतिमा में भगवान विष्णु के 10 अवतारों का वर्णन किया गया है – मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध और कल्कि. प्रतिमा के चारों तरफ सभी 10 अवतारों की आकृतियां बनाई गई हैं.

भगवान श्री रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद कर्नाटक के रायचूर जिले के एक गांव में कृष्णा नदी से भगवान विष्णु जी की प्राचीन प्रतिमा और एक प्राचीन शिवलिंग मिला है, जो करीब हजार साल पुराने बताये जा रहे हैं. पुरातत्ववेत्ताओं की मानें तो ये प्रतिमाएं ईसा पश्चात 11वीं या 12वीं शताब्दी की हो सकती हैं. भगवान विष्णु जी की इस प्रतिमा के प्रभामंडल के चारों ओर भी उनके मुख्य ‘दशावतारों’ को उकेरा गया है- मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिम्हा, वामन, राम, परशुराम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि.

आदिशक्ति माता पार्वती जी के दश रूपों को दशमहाविद्याएं कहा जाता है (कहीं-कहीं 24 विद्याओं का वर्णन भी आता है)- महाकाली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमलात्मिका. इन दस महाविद्याओं को भगवान विष्णु के दस अवतारों से सम्बद्ध किया जाता है. इनमें से मातंगी देवी को भगवान् विष्णु के बुद्ध अवतार के समान बताया गया है (एक अलग स्थान पर कमलात्मिका देवी को बुद्ध के समान बताया गया है).
तो यानी कि यहाँ भी बुद्ध को भगवान् विष्णु का अवतार बताया गया है.

पुराणों में बुद्ध (Buddha in Puran)

कई पुराणों में बुद्ध को भगवान् विष्णु जी का अवतार बताया गया है. अलग-अलग पुराणों में बुद्ध अवतार के बारे में कुछ जानकारी भी दी गई है कि बुद्ध का अवतार क्यों हुआ था, या उन्होंने अपने अनुयायियों को कौन सा ज्ञान दिया था. बुद्ध के बारे में पुराण क्या कहते हैं, आइये देखते हैं –

अग्नि पुराण (Buddha in Agni Purana)-

अग्नि पुराण के सोलहवें अध्याय में लिखा है-
“अब मैं बुद्धावतार का वर्णन करूँगा, जो पढ़ने और सुनने वालों के मनोरथ को सिद्ध करने वाला है. पूर्वकाल में देवताओं और असुरों में घोर संग्राम हुआ. उसमें दैत्यों ने देवताओं को परास्त कर दिया. तब देवतालोग “त्राहि-त्राहि” पुकारते हुए भगवान्‌ की शरण में गये. भगवान्‌ मायामोहमय रूप में आकर राजा शुद्धोदन के पुत्र हुए. उन्होंने दैत्यों को मोहित किया और उनसे वैदिक धर्म का परित्याग करा दिया. वे बुद्ध के अनुयायी दैत्य ‘बौद्ध’ कहलाये. फिर उन्होंने (अपने ही जैसे) दूसरे लोगों से भी वेद-धर्म का त्याग करवाया. इसके बाद मायामोह ही “आर्हत” रूप से प्रकट हुआ. उसने दूसरे लोगों को भी आर्हत बनाया. इस प्रकार उनके अनुयायी वेदधर्म से वंचित होकर पाखण्डी बन गये. उन्होंने नरक में ले जाने वाले कर्म करना आरम्भ कर दिया. वे सब-के-सब कलियुग के अंत में वर्णसंकर होंगे और नीच पुरुषों से दान लेंगे. इतना ही नहीं, वे लोग डाकू और दुराचारी भी होंगे. धर्म का चोला पहने हुए वे सब लोग अधर्म में रुचि रखने वाले होंगे.

अग्निपुराण के अध्याय ४९ में भगवान् विष्णु जी के प्रमुख दश अवतारों की विशेषताओं का उल्लेख किया गया है, जिसमें बुद्ध के बारे में लिखा है-

“बुद्धदेव की प्रतिमा का लक्षण यों है. बुद्ध ऊँचे पद्ममय आसन पर बैठे हैं. उनका एक हाथ वरद और दूसरा हाथ अभय की मुद्रा में है. वे शान्तस्वरूप हैं. उनके शरीर का रंग गोरा और कान लम्बे हैं. वे सुन्दर पीत वस्त्र से आवृत हैं.”

सुत्त पिटक (Sutt Pitak, Tripitak) के खुद्दक निकाय के सुत्तनिपात में गौतम बुद्ध अपना परिचय देते हुए कहते हैं-

“हिमालय की तराई के एक जनपद में कोशल देशवासी धन तथा पराक्रम से युक्त एक ऋजु राजा हैं. वे सूर्यवंशी हैं और शाक्य जाति के हैं. मैं उनके कुल से प्रव्रजित हूँ.”
इसी में यह भी बताया गया है कि “गौतम बुद्ध रूप तथा प्रभाव से युक्त कुलीन क्षत्रिय की तरह दिखाई देते थे. वे प्रसन्न नेत्रवाले, सुन्दर मुखवाले और वीर्यवान थे. उनका वर्ण (त्वचा का रंग) सुवर्ण के समान था.”

स्कन्द पुराण (Buddha in Skand Purana)-

स्कन्द पुराण का माहेश्वरखण्ड कुमारिकाखण्ड कहता है-
“राजन्‌! 28वें कलियुग में जो कुछ होने वाला हे, उसे सुनो! कलियुग के तीन हजार दो सौ नब्बे वर्ष व्यतीत होने पर इस भूमण्डल पर वीरों का अधिपति शूद्रक नामवाला राजा होगा, जो चिता नगरी में आराधना करके सिद्धि प्राप्त करेगा. शूद्रक पृथ्वी का भार उतारने वाला राजा होगा. तदनन्तर कलियुग के तीन हजार तीन सौ दसवें वर्ष में नन्दवंश का राज्य होगा. चाणक्य नाम वाला ब्राह्मण उन नन्दवंशियों का संहार करेगा.”

(यहां चाणक्य का समय नहीं बताया गया है, केवल इतना बताया गया कि नंदवंशियों का अंत चाणक्य के द्वारा हुआ था). आगे लिखा है-

“इसके सिवा कलियुग के तीन हजार बीस वर्ष निकल जाने पर इस पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य होंगे. वे नवदुर्गाओं की सिद्धि एवं कृपा से राज्य प्राप्त करेंगे. तदनन्तर तीन हजार से सौ वर्ष और अधिक बीतने पर शक नामक राजा होगा. उसके बाद कलियुग के तीन हजार छः सौ वर्ष बीतने पर मगध देश में हेमसदन से अंजनी के गर्भ से भगवान्‌ विष्णु के अंशावतार स्वयं भगवान्‌ बुद्ध प्रकट होंगे, जो अपने धर्म का पालन करेंगे. महात्मा बुद्ध के अनेक उत्तम चरित्र स्मरणीय होंगे. भक्तजन उन्हें सर्वपापाहारी बुद्ध कहेंगे.”

भागवत पुराण (Buddha in Bhagvat Purana)-

“कलियुग आ जाने पर मगध देश में देवताओं के द्रोही दैत्यों को मोहित करने के लिए अजान के पुत्र के रूप में आपका बुद्धावतार होगा. भगवान् लोगों की बुद्धि में लोभ और मोह को उत्पन्न करने वाला वेश धारण करके बुद्ध के रूप में बहुत से धर्मों का उपदेश करेंगे.”

विष्णु पुराण (Buddha in Vishnu Purana)-

विष्णु पुराण में (तृतीय अंश के १८वें अध्याय में) मायामोह की कथा मिलती है. कथा के अनुसार-
कलियुग की शुरुआत में कश्यप गोत्रीय दैत्यों ने ब्राह्मणों का वेश धारण कर स्वयं को ब्राह्मण घोषित कर दिया तथा अपने अनुसार वैदिक यज्ञ आदि करने लगे. वे असुर वेदों के नाम पर यज्ञ में पशुबलि भी कर रहे थे. तब देवताओं ने भगवान् विष्णु से सहायता मांगी. तब भगवान् विष्णु ने अपने शरीर से महामोह को उत्पन्न किया.”

“जितेन्द्रिय मायामोह ने रक्तवस्त्र धारण कर, असुरों के पास जाकर अति मधुर वाणी में दैत्यों को वेदमार्ग से भ्रष्ट कर दिया और कहा कि ‘यह सम्पूर्ण जगत विज्ञानमय ही है’. इसके बाद उन्होंने दैत्यों को पशुहिंसा आदि को भी बंद करने के महत्वपूर्ण उपदेश दिए. तब कुछ समय बाद उन असुरों ने वेदों की बातचीत करना ही बंद कर दिया. उनमें से कोई वेदों की, कोई यज्ञ की, कोई ब्राह्मणों आदि की निंदा करने लगा. वे कहने लगे- ‘भला अग्नि में हवि जलाने से क्या होगा, यह तो बच्चों वाली बात है. क्या किसी अन्य के भोजन करने से किसी अन्य पुरुष की तृप्ति हो सकती है. यह श्राद्ध आदि लोगों की अंधश्रृद्धा ही है.'”

“मायामोह ने असुरगणों को त्रयीधर्म (वेद धर्म) से विमुख कर दिया और वे मोहग्रस्त हो गये तथा पीछे उन्होंने अन्य दैत्यों को भी इसी धर्म में प्रवृत्त किया. उन्होंने दूसरे दैत्यों को, दूसरों ने तीसरों को, तीसरों ने चौथों को तथा उन्होंने औरों को इसी धर्म में प्रवृत्त किया. इस प्रकार थोड़े ही दिनों में दैत्यगण ने वेदत्रयी का प्राय: त्याग कर दिया.”

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इसी के साथ लिंग पुराण, पद्म पुराण, नारद पुराण, हरिवंश पुराण और गरुड़ पुराण में भी भगवान् विष्णु जी के बुद्ध अवतार का उल्लेख मिलता है, जिमें उन्हें शाक्य भी बताया गया है. और इन सभी में भी बुद्ध के आगमन का उद्देश्य यही बताया गया है कि वे दैत्य बुद्धि वाले लोगों को मोहित करने यानी भटकाने के लिए ही आए थे. ऐसा लगता है कि देव और दैत्य बुद्धि या देवता और असुर, कलियुग के अच्छे और बुरे लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. बस बुद्ध के माता पिता का नाम सब पुराणों में अलग-अलग बताया गया है, इसका कारण समझ नहीं आता. जैसे गरुड़ पुराण (Garuda Purana) का ‘आचारकाण्ड’ कहता है कि-
“इक्कीसवें अवतार में भगवान् विष्णु कलियुग की संधि के अंत में देवद्रोहियों को मोहित करने के लिए कीकट देश में जिनपुत्र बुद्ध के नाम से अवतीर्ण होंगे.”


तो सभी पुराणों के अनुसार तो अनेक बुद्ध नहीं हुए हैं, एक ही बुद्ध हुए हैं. पुराणों के अनुसार, बुद्ध का आगमन इसलिए हुआ था, ताकि जिन मलेच्छों ने सनातन धर्म के अंदर घुसपैठ कर रखी थी, उन्हें सनातन से दूर किया जा सके, ताकि उनके दूषित विचार सबमें घुलने-मिलने से रोका जा सके. निष्ठावान आस्तिकों से ईर्ष्या रखने वालों को भ्रमित कर दूर किया जा सके. उन्हें वैदिक अनुष्ठानों से दूर कर दिया, जिसे करने के लिए वे योग्य नहीं थे. जैसे कभी-कभी किसी व्यक्ति के खराब हो चुके अंग को काट देना पड़ता है ताकि उस अंग के संक्रमण या विष का असर पूरे शरीर में न हो सके. इसके बाद, बुद्ध ने उन अलग हुए लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश दिया.

पुराणों के अनुसार बुद्ध देवद्रोहियों को मोहित करने या दैत्य बुद्धि वाले लोगों को भटकाने के लिए ही आए थे, क्योंकि दैत्य बुद्धि वाले लोग अपनी प्रवृत्ति को छोड़ने को तैयार नहीं होते. वे धार्मिक नहीं होते और न ही ईश्वर को जानने वाले होते हैं, लेकिन वे शास्त्रों की या धर्म की व्याख्या अपने-अपने मन-मुताबिक कर अपने पसंद के कृत्यों को धर्म या ईश्वर के नाम से करने लगते हैं, यानी कि धर्म का चोला पहन लेते हैं, ताकि लोग उनके कृत्यों का विरोध न कर सकें.

ईश्वर यह कभी नहीं चाहते कि उनके नाम से निर्दोष प्राणियों की हत्या की जाये. तो जो लोग वेदों, ब्राह्मणों, पूजा-कर्मकांड आदि के नाम पर हिंसा, पशुबलि, अनाचार आदि कर रहे थे उन्हें वेदों, ब्राह्मणों, पूजा-पाठ आदि का ही निंदक बना दिया, ताकि ये लोग स्वयं ही वेदों आदि से दूर रहें, और इनके नाम से गलत कार्य करके समाज में इन सबके बारे में गलत बातें न फैला सकें, क्योंकि अधिकतर लोगों की आदत अपनी मूल चीजों को पढ़ने की नहीं, केवल देखा-देखी अनुसरण करने की होती है.

अतः बुद्ध ने दैत्य बुद्धि वाले लोगों से कहा कि “जिस ईश्वर के नाम पर तुम यह सब कर रहे हो, वह ईश्वर तो है ही नहीं, यह सारा जगत विज्ञान ही है.” अब वे दैत्य बुद्धि वाले लोग यदि कोई अनैतिक कार्य करेंगे, तो अपने ही नाम से करेंगे (जैसे कि सबसे बड़ा नास्तिक और मांसाहारी देश चीन). यह कहकर नहीं करेंगे कि “यह तो वेदों में लिखा है या शास्त्रों में लिखा है, इसलिए मैं ऐसा कर रहा हूँ.” और इस प्रकार वे शास्त्रों को दूषित नहीं कर पायेंगे. यह कुछ ऐसा ही है कि जब कोई प्रकाश में हत्या कर रहा है, तो प्राण बचाने वाला अंधकार कर देता है.

तो इस प्रकार भगवान् बुद्ध वास्तव में पाखंडवाद को दूर करने के लिए ही आए थे, लेकिन वास्तव में पाखण्ड क्या है? धर्मग्रंथों की भाषा में कहें तो वेदविरुद्ध आचरण पाखण्ड है. साधारण शब्दों में कहें तो ढोंग, आडम्बर को पाखण्ड कहते हैं. इसे दूसरे शब्दों में कहा जाये तो छल, कपट को भी पाखंड कहा जा सकता है. किसी व्यक्ति का ऐसा चरित्र जो उसके पास नहीं है, फिर वह वैसा दिखने या दिखाने का प्रयास करता है, और उसकी आड़ में समाज में गलत बातों का प्रचार करता है.

जैसे यदि कोई व्यक्ति स्वयं को ईश्वरभक्त और बड़ा धार्मिक बताता है, और फिर ईश्वर और धर्म के नाम पर ही पूजा-कर्मकांड आदि के बहाने निर्दोष प्राणियों को काटकर खाने लगता है, प्रकृति को नुकसान पहुंचाता है, साथ ही अपने मत के समर्थन के लिए शास्त्रों की अपने मन-मुताबिक गलत व्याख्या भी करने लगता है और समाज में इन गलत बातों को फैलाता रहता है, तो यह पाखण्ड नहीं तो और क्या है? और पुराणों के अनुसार बुद्ध ऐसे ही पाखंडी लोगों का विरोध करना चाह रहे थे, जिसके लिए उन्होंने उन लोगों को वेदविरुद्ध या धर्मविरुद्ध ही बना दिया, जो वेदों और धर्म के नाम पर अनैतिक कार्य या बेवजह की हिंसा कर रहे थे.

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बुद्ध के संबंध में एक कहानी का उल्लेख मिलता है –

एक दिन सुबह-सुबह गौतम बुद्ध अपने शिष्यों की सभा में बैठे हुए थे. वहां एक व्यक्ति आया. वह ईश्वर का बहुत बड़ा भक्त था. खूब पूजा-पाठ किया करता था. अब वह बूढ़ा हो रहा था. हालांकि वह जानता था कि ईश्वर है, पर उसके मन में एक छोटा सा संदेह आ गया कि वास्तव में ईश्वर है या नहीं. उसने सोचा कि, “यदि कोई ईश्वर नहीं है, तब तो मेरा पूरा जीवन बेकार ही चला गया. एक अलौकिक आदमी यहां उपस्थित है, उससे बात कर मुझे अपना संदेह दूर कर लेना चाहिए.”

लेकिन सबके सामने यह प्रश्न कैसे पूछा जाए? इसलिए वह व्यक्ति सूर्योदय से पहले आया और एक कोने में खड़े होकर उसने बुद्ध से प्रश्न किया, “क्या ईश्वर है या नहीं?”

गौतम बुद्ध ने उसकी ओर देखा और कहा, “नहीं है”.

शिष्यों के बीच से ‘ohhh’ की आवाज निकली, उन्होंने राहत भरी सांस ली. ईश्वर है या नहीं, यह द्वंद उनमें प्रतिदिन चलता रहता था. उन्होंने कई बार गौतम बुद्ध से यह प्रश्न किया था और हर बार गौतम बुद्ध चुप रह जाते थे. यह पहला मौका था, जब उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, “नहीं”.

सच में, ईश्वर के बिना रहना कितना आनंददायक था. एक स्वतंत्रता मिल जाती है कि कोई हमारे कर्मों को नहीं देख रहा, तो जो चाहे मर्जी वह करो. शिष्यों के बीच खुशी की लहर दौड़ गई. वह दिन उन सबके लिए एक खुशी का दिन था.

शाम को, फिर बुद्ध अपने शिष्यों के बीच बैठे हुए थे, उसी समय एक दूसरा व्यक्ति आया. वह भौतिकवादी और नास्तिक था. वह केवल उसी में विश्वास करता था, जिसे वह अपनी आँखों से देख सकता था. उसकी नजर में जो दिखाई नहीं देता, उसका अस्तित्व ही नहीं होता.

वह व्यक्ति भी अब बूढ़ा हो रहा था और उसके मन में एक छोटा सा संदेह आ गया. उसने सोचा कि “मैं पूरे जीवन लोगों को कहता रहा कि ईश्वर नहीं है. लेकिन मान लो अगर ईश्वर है तो जब मैं वहां अपने कर्मों को लेकर जाऊंगा तो क्या वह मुझे छोड़ेगा?” लोगों से वह नरक के बारे में कई बार सुन चुका था.

हालांकि वह जानता था कि ईश्वर नहीं है, पर उसे थोड़ा सा संदेह हो गया. उसने सोचा कि “मान लो अगर ईश्वर है तो संकट क्यों मोल लिया जाए? अब भी समय है, कुछ धर्म-कर्म या अच्छे कर्म कर लूंगा. शहर में एक अलौकिक पुरुष है. उनसे जरा मैं पूछ ही लूं.”

देर शाम को, अंधेरा होने के बाद वह गौतम बुद्ध के पास पहुंचा और उनसे पूछा, “क्या ईश्वर है या नहीं?” बुद्ध ने उसे भी देखा और कहा, ”हां है”.

Hainnn….?? एक बार फिर शिष्यों के बीच बड़ा संघर्ष शुरू हो गया. सुबह से वे बेचारे बहुत खुश थे, क्योंकि गौतम बुद्ध ने कहा था कि ईश्वर नहीं है, लेकिन शाम को वे कह रहे हैं कि ईश्वर है. आखिर ऐसा क्यों?

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यह वंशावली हमें प्राप्त हुई है, हालाँकि हम नहीं जानते कि यह कितनी सही है-

श्रीराम के दो पुत्र हुए- कुश और लव
कुश के पुत्र अतिथि
अतिथि के पुत्र निषध
निषध के पुत्र नल
नल के पुत्र नभस
नभस के पुत्र पुण्डरीक
पुण्डरीक के पुत्र क्षेमधन्वा
क्षेमधन्वा के पुत्र देवानीक
देवानीक के अहीनक
अहीनक के पुत्र रूप
रूप के पुत्र रुरु
रुरु के पारियात्र
पारियात्र के पुत्र दल
दल के पुत्र शल
शल के पुत्र उक्थ
उक्थ के पुत्र वज्रनाभ
वज्रनाभ से शंखनाभ
शंखनाभ के व्यथिताश्च
व्यथिताश्च से विश्वसह
विश्वसह से हिरण्यनाभ
हिरण्यनाभ से पुष्य
पुष्य से ध्रुवसन्धि
ध्रुवसन्धि से सुदर्शन
सुदर्शन से अग्निवर्णा
अग्निवर्णा से शीघ्र
शीघ्र से मुरु
मुरु से प्रसुश्रुत
प्रसुश्रुत से सुगन्धि
सुगन्धि से अमर्ष
अमर्ष से महास्वन
महास्वन से विश्रुतावन्त
विश्रुतावन्त से बृहदबल
बृहदबल से बृहत्क्षण
बृहत्क्षण से गुरुक्षेप
गुरुक्षेप से वत्स
वत्स से वत्सव्यूह
वत्सव्यूह से प्रतिव्योम
प्रतिव्योम से दिवाकर
दिवाकर से सहदेव
सहदेव से बृहदश्व
बृहदश्व से भानुरथ
भानुरथ से सुप्रतीक
सुप्रतीक से मरुदेव
मरुदेव सी सुनक्षत्र
सुनक्षत्र से किन्नर
किन्नर से अंतरिक्ष
अंतरिक्ष से सुवर्ण
सुवर्ण से अमित्रजित
अमित्रजित से वृहद्राज
वृहद्राज से धर्मी
धर्मी से कृतन्जय
कृतन्जय से जयसेन
जयसेन से सिंहहनु
सिंहहनु से शुद्धोधन
शुद्धोधन से सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध)
गौतम बुद्ध से राहुल.

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क्या बुद्ध वेदविरोधी और ईश्वर विरोधी थे?

इस संबंध में बहुत अलग-अलग बातें देखने को मिलती हैं. उनके नाम पर बहुत सी मिथ्या बातें बाद में प्रचलित कर दी गईं, जैसे कि वेदों का या ब्राह्मणों का विरोध. गौतम बुद्ध ने स्वयं कहा था कि पाँच सौ वर्षों के बाद उनके विचार बिगाड़ दिये जायेंगे. जैसे कि अधिकतर स्थानों पर गौतम बुद्ध ने जीवहिंसा का कड़ा विरोध किया है, फिर भी बौद्ध ग्रंथों में कहीं-कहीं के अनुवादों में बुद्ध द्वारा मांसाहार का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन मिलता है. त्रिपिटक साहित्य (Tripitaka) पढ़ें तो गौतम बुद्ध ने यज्ञ, ब्राह्मणों, देवताओं या ईश्वर का कभी विरोध नहीं किया, केवल इनके नाम से होने वाले अनैतिक कार्यों और पशु-हिंसा का विरोध किया.

महाभारत सहित कई पुराणों और अन्य ग्रंथों में भी ऐसे यज्ञों की कड़ी निंदा की गई है जिनमें पशुओं की हत्या की जाती है. महाभारत में वेदव्यास जी का कथन है कि आरम्भ में यज्ञों में हिंसा नहीं होती थी, बाद में रावण जैसे राक्षसों ने शास्त्रों की अपनी मन-मुताबिक व्याख्या करके यज्ञ में हिंसा आरम्भ की थी. शुरुआत में ऐसे यज्ञ दैत्यों के बीच ही होते थे, लेकिन समय के साथ धीरे-धीरे यह आसुरी कुप्रथा मनुष्यों के बीच भी आ गई थी, और गौतम बुद्ध जी के आने तक बड़े स्तर पर होने लगी थी. और गौतम बुद्ध हिंसक आसुरी यज्ञों के ही विरोधी थे.

सुत्त पिटक के तृतीय ग्रन्थ के संयुक्त निकाय के य॒ज्ञं सुत्त में गौतम बुद्ध जी कहते हैं कि-

“सुमार्ग पर आरूढ़ महर्षि ऐसे यज्ञ नहीं बताते हैं जिनमें तरह-तरह के भेड़, बकरे या गौवें मारे जाते हैं. अतः बुद्धिमान पुरुषों को ऐसे यज्ञ ही करने चाहिए जिनमें भेड़, बकरे या गौवें नहीं मारे जाते हैं. इन्हीं यज्ञों का महाफल मिलता है. ऐसे ही यज्ञ करने वाले का कल्याण होता है, अहित नहीं. ऐसा यज्ञ ही महान होता है और देवता प्रसन्न होते हैं.”

तो यहाँ हम देख सकते हैं कि गौतम बुद्ध ने न तो देवताओं के होने का खण्डन किया है और न ही यज्ञों का विरोध किया है, उन्होंने केवल यज्ञ में हिंसा का विरोध किया है.

सुत्त पिटक के खुद्दक निकाय के सुत्तनिपात में गौतम बुद्ध ने प्राचीन समय के ब्राह्मणों और अपने (तात्कालिक) समय के ब्राह्मणों की आपस में तुलना की है, जिससे पता चलता है कि गौतम बुद्ध के समय के ब्राह्मण लोभी और अनैतिक कार्य करने वाले थे, और बुद्ध ऐसे ही ब्राह्मणों और उनके कृत्यों का विरोध कर रहे थे, न कि ब्राह्मणों का. बुद्ध कहते हैं-

“पुराने समय के ब्राह्मण निर्दोषी, अजेय और धर्म से रक्षित थे. कुलों-द्वारों पर कभी कोई उन्हें नहीं रोकता था. पुराने समय के ब्राह्मण पराई स्त्रियों के पास नहीं जाते थे और न ही स्त्रियों को खरीदते थे. वे ब्रह्मचर्य, शील, ऋजुता, मृदुता, तप, सौजन्य, अहिंसा तथा क्षमा की प्रशंसा करते थे. वे धार्मिक रीति से चावल, शयन, वस्त्र, घी तथा तेल लाकर इन्हीं से यज्ञ करते थे. वे यज्ञ में (आज की तरह) गायों का वध नहीं करते थे. माता-पिता, भाई या दूसरे बंधुओं की तरह गायें भी हमारी परम मित्र हैं, जिनसे औषधियां उत्पन्न होती हैं. ये अन्न, बल, वर्ण तथा सुख देने वाली हैं.”

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बुद्ध आगे बताते हैं कि –
“कोमल, विशालकाय, सुंदर तथा यशस्वी ब्राह्मण इन धर्मों से युक्त होकर अपने कर्तव्य में जब तक तत्पर रहे, तब तक प्रजा सुखी रही. समय के साथ धीरे-धीरे राजाओं की संपत्ति, स्त्रियों, अच्छे-अच्छे घोड़े, सुंदर रथों और कोठियों भवनों को देखकर उनका मन विचलित हुआ. तब वे नये मंत्र रचकर ऐसे यज्ञ कराने लगे जिनमें उन्हें ढेर सारा धन मिलता था, जिससे उनका लोभ बढ़ता गया और वे धनसंचय के पीछे भागने लगे.”

“और इसी लोभ-लालच के बढ़ने से ब्राह्मणों ने नये मंत्र रचकर दूसरी वेदविरोधी प्रवृत्तियों को भी आरम्भ कर दिया, जिसके बाद धीरे-धीरे यज्ञों में पशुओं की बलि भी दी जाने लगी, ताकि इस बहाने उस समय के लालची ब्राह्मण उन पशुओं का सेवन कर सकें. गायों की बलि को देखकर तो देव, पितर, इंद्र, असुर और राक्षस भी चिल्ला उठे कि “हाय! अधर्म हुआ, जो गौवों पर अस्त्र पड़ा.”

यहीं पर बुद्ध आगे बताते हैं कि –
“पहले संसार में केवल तीन प्रकार के दुख थे- इच्छा, भूख और जरा (बुढ़ापा), लेकिन पशुवध के आ जाने से संसार में 98 प्रकार के दुख हो गए हैं. पुरोहित लोग गायों का वध करके धर्म से गिर जाते हैं, और जहां लोग इस प्रकार के पुरोहितों को देखते हैं, वहां वे उनकी निंदा करते हैं. इस प्रकार धर्म से पतित होने पर शूद्रों और वैश्यों में भी फूट हो गई, क्षत्रिय भी अलग-अलग हो गए.”

तो इससे पता चलता है कि गौतम बुद्ध के समय के ब्राह्मण लोभ-लालच में आकर न केवल अनैतिक कार्य कर रहे थे, बल्कि अपने मत के समर्थन के लिए शास्त्रों को भी दूषित करने का प्रयास कर रहे थे, जो कि आने वाले समय के लिए बहुत खतरनाक होता, इसलिए उनके ऐसे ही अनैतिक कृत्यों का बुद्ध विरोध कर रहे थे. वे ब्राह्मणों के विरोधी नहीं थे, क्योंकि यदि ऐसा होता तो वे पुराने ब्राह्मणों के कार्यों की इतनी प्रशंसा न करते.

 गौतम बुद्ध के कई ऐसे चित्र और मूर्ति मिलती हैं जिनमें बुद्ध उपनयन धारण किए हैं, तिलक लगाए और कर्ण छेदन किए हुए हैं. कई इतिहासकारों का कहना है कि ‘बुद्ध धर्म कोई नवीन धर्म नहीं, बल्कि सुधारवादी धार्मिक आंदोलन था जिसका उद्देश्य तत्कालीन हिन्दू समाज में उत्पन्न त्रुटियों और बुराइयों को दूर करना था. किन्तु बुद्ध मार्ग में इतनी मिलावट की गई है कि मौलिक बुद्ध मार्ग कहीं खो ही गया और उसका स्थान झूठ और पाखंड ने ले लिया.’

जातक कथाएं (Jataka Stories of Buddha) बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक का सुत्तपिटक अंतर्गत खुद्दकनिकाय का १०वां भाग है. इन कथाओं में भगवान बुद्ध की कथायें हैं. ‘जातक’ भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म सम्बन्धी कथाएँ हैं, जिनके लिए मान्यता है कि स्वयं गौतमबुद्ध जी के द्वारा कही गई हैं. हालांकि कुछ विद्वानों का मानना है कि कुछ जातक कथाएँ, गौतमबुद्ध के निर्वाण के बाद उनके शिष्यों द्वारा कही गयी हैं.

बुद्ध ने स्वयं किसी अन्य धर्म की स्थापना नहीं की थी. बौद्ध धर्म की स्थापना उनके अनुयायियों ने उनके जाने के बाद बहुत वर्षों बाद स्वयं से कर ली थी. बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मध्यम मार्ग (सरल मार्ग) का उपदेश दिया. उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया. उन्होंने कुछ संकल्पनाओं का प्रचार किया, जैसे-

  • अग्निहोत्र तथा गायत्री मंत्र
  • ध्यान तथा अन्तर्दृष्टि
  • मध्यमार्ग का अनुसरण
  • चार आर्य सत्य
  • अष्टांग मार्ग

Edited By : Niharika


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