समन मामला और वारंट मामला (Summon case and Warrant case in Hindi) –
अपराध (Offense) दो तरह के होते हैं- सामान्य और गंभीर. सामान्य अपराध कम गंभीर प्रकृति के होते हैं और उनमें सजा भी कम होती है, जबकि गंभीर अपराध संगीन प्रकृति के या जघन्य होते हैं और उनमें सजा भी ज्यादा होती है.
दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) में समन मामलों और वारंट मामलों (Summons and Warrant Cases) की कोई शाब्दिक परिभाषा नहीं दी गई है, केवल दोनों मामलों में मिलने वाले दंड की अधिकतम सीमा बताई गई है. उसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिन अपराधों के लिए लंबी और कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है, वे वारंट केसों में आते हैं, यानी ऐसे मामलों का संबंध गंभीर और जघन्य अपराधों से होता है, जबकि समन मामलों में वे वाद आते हैं, जो वारंट मामले नहीं हैं यानी कम दंडनीय होते हैं.
CrPC की धारा 2 (भ) के अनुसार, जो अपराध मृत्युदंड या आजीवन कारावास या 2 साल या उससे ज्यादा के कारावास से दंडनीय हैं, वे वारंट मामले (Warrant Cases) हैं.
CrPC की धारा 2 (ब) के अनुसार, समन मामले (Summons Cases) वे हैं जो मामले वारंट मामले नहीं हैं.
वारंट मामलों की प्रक्रिया का संचालन CrPC के अध्याय 19 द्वारा और समन मामलों की प्रक्रिया का संचालन अध्याय 20 द्वारा होता है.
CrPC की धारा 259 के तहत, मजिस्ट्रेट को इस बात की शक्ति दी गई है कि वह समन मामले को वारंट मामलों में बदल सकता है, बशर्ते कि वह मामला 6 महीने से ज्यादा की अवधि के कारावास से दंडनीय हो और मजिस्ट्रेट की राय में ऐसे मामले का विचारण वारंट मामलों के लिए की गई प्रक्रिया के तहत किया जाना जरूरी हो.
समन मामलों और वारंट मामलों में अंतर (Difference between Summon case and Warrant case in Hindi)-
(1) समन केस में अभियुक्त को 2 साल तक के कारावास का दंड दिया जा सकता है, जबकि वारंट केस में अभियुक्त (Accused) को 2 साल या उससे ज्यादा की अवधि के कारावास, या मृत्युदंड, या आजीवन कारावास से दंडित किया जा सकता है.
(2) समन मामलों (Summon case) में औपचारिक आरोप बनाए जाने की जरूरत नहीं होती, जबकि वारंट केसों (Warrant case) में औपचारिक आरोप बनाए जाने की जरूरत होती है.
(3) समन मामलों की शुरुआत अभियुक्त के कथन को लिपिबद्ध (लिखे जाने या रिकॉर्ड किए जाने) किए जाने से होती है. अभियुक्त की तरफ से कथन से इंकार कर दिए जाने पर अभियोजन पक्ष (Prosecution) का साक्ष्य लिया जाता है, जबकि वारंट केस की शुरुआत अभियोजन के साक्ष्य से होती है और इसके बाद अभियुक्त के कथनों को लिपिबद्ध किया जा सकता है.
(4) समन मामलों में अभियुक्त को दोषी ठहराए जाने या उसे दोषमुक्त किए जाने के लिए संक्षिप्त प्रक्रिया को अपनाया जा सकता है, जबकि वारंट मामलों में संक्षिप्त प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती. किसी अभियुक्त के खिलाफ प्रथम दृष्टया कोई मामला बनता है या नहीं, उसके लिए साक्षियों (Witnesses) को बुलाया जाना जरूरी है.
(5) समन मामलों में अभियुक्त को अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों से प्रतिपरीक्षा (Cross Examination) करने का एक मौका मिलता है, जबकि वारंट केसों में अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों से प्रतिपरीक्षा करने के दो मौके मिलते हैं- एक आरोप से पहले और दूसरा आरोप के बाद.
(6) समन मामलों में परिवादी या शिकायतकर्ता न्यायालय की अनुमति से अपनी शिकायत वापस ले सकता है और ऐसी स्थिति में अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया जाता है, जबकि वारंट मामलों में सामान्य तौर पर शिकायत को वापस लेने की अनुमति नहीं दी जाती है. कुछ विशेष मामलों में जो राज्य से संबंधित हों, शिकायत की वापसी विधि परामर्शदाता (Legal Counsel) द्वारा ही हो सकती है.
(7) समन मामलों में अभियुक्त को दोषी ठहराया जा सकता है या फिर दोषमुक्त किया जा सकता है, जबकि वारंट मामलों में अभियुक्त को दोषसिद्ध या दोषमुक्त के अलावा उन्मोचन (अपराध से मुक्त करना) का एक और भी आदेश दिया जा सकता है.
(8) समन मामले एक बार समाप्त हो जाने पर फिर से पुनर्जीवित नहीं किए जा सकते हैं यानी उन मामलों को फिर से नहीं उठाया जा सकता है, जबकि वारंट मामलों में अभियुक्त को उन्मोचित किए जाने के बाद ऐसे मामलों को फिर से उठाया जा सकता है.
(9) समन मामलों में अभियुक्त का विचारण ऐसे किसी अपराध के लिए भी किया जा सकता है, जिसका जिक्र परिवाद या शिकायत में तो नहीं किया गया था, लेकिन जो सिद्ध किए गए या स्वीकार किए गए तथ्यों (Facts) से स्थापित हो जाता है, जबकि वारंट मामलों में ऐसी स्थिति में एक अलग आरोप बनाया जाता है और उसके बारे में अभियुक्त को कथन करने के लिए पूछा जाता है.
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