Hindu Sanatan Time Period
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के अध्यक्ष एस. सोमनाथ (ISRO Chairman S. Somnath) ने हाल ही में कहा था कि विज्ञान के मूल सिद्धांत प्राचीन भारत के वेदों से ही निकले हैं. इसी के साथ उन्होंने ‘सूर्यसिद्धांत’ पुस्तक की भी प्रशंसा की थी. उन्होंने कहा था कि, “एक रॉकेट साइंटिस्ट होने के नाते, मैं संस्कृत में लिखी इस पुस्तक से बहुत प्रभावित और आश्चर्यचकित था. इस पुस्तक में सौर प्रणाली, समय के पैमाने और पृथ्वी के आकार और परिधि के बारे में पहले ही बता दिया गया है.”
पृथ्वी गोल है-
सर्वत्रैय महीगोले स्वस्थामुपरिस्थितम्।
मन्यन्ते खेयतो गोलस्तस्यक्कोर्ध्वंक्ववाप्यध:॥
अल्पकायतया लोका: स्वस्थानात् सर्वतोमुखम्।
पश्यन्ति वृत्तामप्येनां चक्राकारां वसुन्धराम्॥
(सूर्य सिद्धांत अध्याय १२ श्लोक ५४-५५)
अर्थात् “पृथ्वी (भूपृष्ठ) पर सर्वत्र अपना स्थान ऊपर ही प्रतीत होता है (सभी लोग अपने आपको ऊपर तथा अन्य को तिर्यक या अधोमुख मानते हैं). वस्तुत: अनंत आकाश में स्थित गोल का न कहीं ऊर्ध्व है तथा न कहीं अध: है. अर्थात् सर्वत्र समान रूप से पृथ्वी पर ऊपरी भाग में ही स्थिति ज्ञात होती है. अत: अपने स्थान से चारों ओर गोलाकार होते हुये भी मनुष्य पृथ्वी को चक्राकार (चपटा) देखता है.”
युग और चतुर्युग की भारतीय परंपरा के पीछे एक बहुत ही परिष्कृत गणितीय तर्क है. ‘सूर्यसिद्धांत’ में दिनों, महीनों, वर्षों, युग, चतुर्युग, मन्वन्तर और कल्प में समय के अलग-अलग मापों पर विस्तृत चर्चा है. रोचक तथ्य देखें तो सूर्य सिद्धांत ने न केवल पृथ्वी को गोल बताया है, बल्कि ग्रहों के व्यास, कक्षीय अवधि आदि की भी सटीक गणना की है. प्रमाणिकता देखिये-
सूर्यसिद्धांत के अनुसार कालगणना –
10 दीर्घाक्षर उच्चारण काल = 1 प्राण
1 प्राण = 10 विपल
6 प्राण = (10 x 6) = 60 विपल
60 विपल = 1 पल
60 पल = 1 नाडी
60 नाडी = 1 अहोरात्र (एक नक्षत्र)
30 अहोरात्र = 1 मास
12 मास = 1 वर्ष = 1 दिव्य दिन
एक दिव्य वर्ष = 360 सौर वर्ष
12 हजार दिव्य वर्ष = एक चतुर्युग (महायुग)
= 43,20,000 वर्ष
एक चतुर्युग (महायुग) = 12,000 x 360
= 43,20,000 वर्ष (सौरवर्ष)
एक चतुर्युग (महायुग) में चार युग- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग होते हैं. महायुग के मान (12,000 दिव्य वर्ष) के दशमांश को क्रम से 4, 3, 2 और 1 से गुणा करने पर क्रम से कृत (सतयुग), त्रेता, द्वापर और कलियुग का मान निकलता है. अर्थात् सतयुग में चार, त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलियुग में एक पाद धर्म होता है. तो-
सतयुग = 17,28,000 वर्ष (4800 दिव्यवर्ष)
त्रेता युग = 12,96,000 वर्ष (3600 दिव्यवर्ष)
द्वापरयुग = 8,64,000 वर्ष (2400 दिव्यवर्ष)
कलियुग = 4,32,000 वर्ष (1200 दिव्य वर्ष)
♦ महाभारत में ‘वनपर्व’ के अध्याय 188 (श्लोक 22 से 28 तक) में भी चारों युगों का यही मान बताया गया है.
71 महायुग (चतुर्यग) = एक मन्वन्तर
एक मनु के अन्त में मनु की संधि 1 सतयुग के समान (4800 दिव्यवर्ष) होती है. संधिकाल जलप्लव कहलाता है. अर्थात् एक मनु के समाप्ति और द्वितीय मनु के आरम्भ के पूर्व 4800 दिव्य वर्षों तक पृथ्वी पर जलप्लवन रहता है. (श्लोक 18)
71 महायुग = 1 मनु
14 मनु = 1 कल्प
1 कल्प = ब्रह्माजी का एक दिन
1 कल्प में सतयुग के समान 15 संधियां होती हैं.
1 कल्प में संधि सहित पूर्वोक्त 14 मनु होते हैं.
अतः 1 कल्प = 14 मनु + 15 संधि (सतयुग)
1 महायुग (चतुर्यग) = 43,20,000 सौरवर्ष
1 मनु = 30,67,20,000 सौरवर्ष
1 कल्प = 4,32,00,00,000 सौरवर्ष
1 कल्प को ब्रह्माजी का एक दिन कहा गया है (1000 महायुग का सृष्टि संहारकारक). इतनी ही (1 कल्प) ब्रह्माजी की एक रात्रि होती है. ब्रह्माजी का दिन 1 कल्प के समान और रात्रि भी 1 कल्प के समान अर्थात् 2 कल्प का एक अहोरात्र होता है. ब्रह्माजी के दिन का अन्त सृष्टि का नाशक होता है. ब्रह्माजी समस्त सृष्टि को समेटकर एक कल्प तक निद्रा में रहते हैं. इसीलिए कल्पांत में प्रलयकाल होता है. (श्लोक 20)
♦ भगवद्गीता में भी (अध्याय ८) भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं, “सम्पूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में अव्यक्त से अर्थात् ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं, और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेश काल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लीन हो जाते हैं.”
पूर्वोक्त ब्रह्मा के अहोरात्र (2 कल्प) प्रमाण से 100 वर्ष (360 x 2 कल्प x 100) ब्रह्मा की परमायु होती है. ब्रह्माजी की आयु का आधा भाग यानी 50 वर्ष बीत चुके हैं. शेष आयु यानी 51वें वर्ष का यह प्रथम कल्प (दिन) है. इस वर्तमान कल्प में संधियों सहित 6 मनु बीत चुके हैं. सप्तम वैवस्वत मनु के भी 27 महायुग बीत चुके हैं. (श्लोक 21-23)
ग्रह, नक्षत्र, देव, दैत्य आदि चर-अचर की रचना करने में ब्रह्माजी को कल्प के आरंभ से शत गुणित 474 दिव्य वर्ष (47,400 दिव्य वर्ष) बीत गये. अर्थात् कल्प के आरंभ से 47,400 दिव्य वर्ष के बाद सृष्टिकाल का आरंभ हुआ है. (श्लोक 24)
ग्रहों की कक्षीय अवधि (Orbital Period of Planets)-
प्रवह नामक वायु से प्रेरित होकर ग्रह निरंतर अत्यंत वेग से पश्चिम दिशा में जाते हुये दिखाई पड़ते हैं. ग्रह अपनी-अपनी कक्षा में समान गति से पश्चिम से पूर्व दिशा में भ्रमण करते हैं. अत: इन ग्रहों का पूर्वाभिमुख गमन ही प्रमाणित होता है. अपनी-अपनी कक्षा के अनुसार इनकी दैनिक गति अलग-अलग होती है और उसी (दैनिक) गति के अनुसार ग्रह राशिचक्र का भोग करते हुये भगण पूर्ण करते हैं. (श्लोक 25-26)
उन 27 नक्षत्रों का भोग करने में शीघ्र गति वाले ग्रह अल्प काल और मंद गति वाले ग्रह अधिक काल लेते हैं. इस प्रकार नक्षत्रों में भ्रमण करते हुए रेवती नक्षत्र के अन्त में ग्रहों का भगण पूर्ण होता है. (श्लोक 27)
60 विकला की एक कला,
60 कला का 1 अंश,
30 अंश की 1 राशि और
12 राशियों का एक भगण होता है. (श्लोक 28)
एक महायुग में प्रवहवायु वश नक्षत्रों की भगण संख्या (परिक्रमा अवधि) 1,58,22,37,828 होती है. (श्लोक 34)
एक महायुग (चतुर्युग) में –
• सौर भगण = 43,20,000
• चन्द्रमा की भगण संख्या = 5,77,53,336
• मंगल की भगण संख्या = 22,96,832
• बुध की भगण संख्या = 1,79,37,060
• गुरु की भगण संख्या = 3,64,220
• शुक्र की भगण संख्या = 70,22,376
• शनि की भगण संख्या = 1,46,568
• चन्द्रोच्च की भगण संख्या = 4,88,203
• राहु, केतु की विपरीत गति से (पश्चिमाभिमुख) भगणों की संख्या 2,32,238 होती है.
• एक महायुग में सूर्य और चन्द्रमा के भगणों का अंतर = चन्द्रमास
5,77,53,336 – 43,20,000
= 5,34,33,336 चन्द्रमास
• चन्द्रमास – सौरमास = अधिमास
{5,34,33,336 – (43,20,000) 12}
= 15,93,336 अधिमास
• नक्षत्र उदयकाल या नक्षत्र भगण में से ग्रहों के अपने-अपने भगण घटाने पर शेष तत्तद ग्रहों के सावन दिन होते हैं. नक्षत्रों के उदय (भगण) से सौरभगण घटाने से शेष भूमि सावन दिन होते हैं. (श्लोक 34)
नक्षत्र भगण – सौर भगण = सावन दिन (Civil Days)
दूसरे शब्दों में कहें तो-
Number of Asterisms Risings – Number of Sun Revolutions = Number of Civil Days
1,58,22,37,828 – 43,20,000
= 1,57,79,17,828 सावन दिन (एक चतुर्युग में)
सावन दिन क्या है (What is Civil Day)?
तत् त्रिंशता भवेन्मास: सावनोऽर्कोदयैस्तथा॥28॥
उदयादुदयं भानोर्भूमिसावनवासर:॥36॥
सावन दिन का अर्थ है- Civil Day अर्थात् ग्रहों के एक बार उदय होकर पुन: उदय होने तक का काल या, दो सूर्योदय के मध्य का काल सावन दिन होता है या, सूर्य के एक उदय काल से दूसरे उदय काल तक का समय भूमि का सावन दिन होता है. चान्द्र दिवसों से सावन दिवसों को घटाने से शेष तिथि क्षय (अवम) होती है (श्लोक 36-39).
तो एक महायुग (चतुर्युग) में-
• प्रवहवायु वश नक्षत्रों की भगण संख्या = 1,58,22,37,828
• सौर भगण (सूर्य की परिक्रमा की संख्या) = 43,20,000
• सावन दिन = 1,57,79,17,828
• चान्द्र दिन (तिथियाँ) = 1,60,30,00,080
• तिथिक्षय (क्षयदिन) = 2,50,82,252
• सौरमास = 5,18,40,000
• चन्द्रमास = 5,34,33,336
• अधिमास = 15,93,336
ग्रहों की कक्षीय अवधि = सावन दिनों की संख्या/परिक्रमणों की संख्या
(Orbital Period = Number of Civil Days/Number of Revolutions)
तो ग्रहों की कक्षीय अवधि-
• सूर्य की परिक्रमा अवधि-
1,57,79,17,828/ 43,20,000 = 365.25 दिन
(आधुनिक समय के अनुसार – 365.2 दिन)
पृथ्वी पर मौजूद किसी खगोलशास्त्री द्वारा देखी गई सूर्य की परिक्रमाओं की संख्या वास्तव में सूर्य के चारों ओर पृथ्वी ग्रह की परिक्रमाओं की संख्या है, अतः उपर्युक्त गणना से प्राप्त सूर्य की परिक्रमा अवधि को पृथ्वी की परिक्रमा अवधि के रूप में समझा जाना चाहिए. अब इसी प्रकार उपरोक्त गणना का प्रयोग करके आप अन्य ग्रहों की भी सटीक परिक्रमा अवधि की गणना कर सकते हैं, जैसे-
• चंद्रमा की परिक्रमा अवधि-
1,57,79,17,828/ 5,77,53,336 = 27.32 दिन
(आधुनिक समय के अनुसार – 27.3 दिन)
• बुध की परिक्रमा अवधि-
1,57,79,17,828/ 1,79,37,060 = 87.96 दिन
(आधुनिक समय के अनुसार – 88.0 दिन)
• शुक्र की परिक्रमा अवधि-
1,57,79,17,828/ 70,22,376 = 224.69 दिन
(आधुनिक समय के अनुसार – 224.7 दिन)
• मंगल की परिक्रमा अवधि-
1,57,79,17,828/ 22,96,832 = 686.99 दिन
(आधुनिक समय के अनुसार – 687.0 दिन)
• बृहस्पति की परिक्रमा अवधि-
1,57,79,17,828/ 3,64,220 = 4332.32 दिन
(आधुनिक समय के अनुसार – 4332.5 दिन)
• शनि की परिक्रमा अवधि-
1,57,79,17,828/ 1,46,568 = 10765.77 दिन
(आधुनिक समय के अनुसार – 10,759 दिन)
तो आप देख सकते हैं कि सूर्यसिद्धांत में ग्रहों की कक्षीय अवधि की कितनी सटीक गणना की गई है, और वह भी तब जब उस समय आज की तरह इतने बड़े-बड़े उपकरण और दूरबीन आदि नहीं थीं. ग्रहों की परिक्रमा अवधि में जो थोड़ा-बहुत अंतर है, वह समयकाल के साथ ग्रहों की कक्षा में आये परिवर्तन की वजह से हो सकता है.
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि ग्रहों और उनकी परिक्रमा अवधि समय के साथ छोटी और लंबी अवधि में बदलती रहती है और इस प्रकार प्राप्त संख्यायें इस बात पर निर्भर करती हैं कि ये गणनाएं कब की गई थीं.
खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार, समय के साथ हमारे सौरमंडल के दो सबसे बड़े ग्रहों, बृहस्पति और शनि के गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी की कक्षा का आकार लगभग गोलाकार से थोड़ा अण्डाकार तक भिन्न हो जाता है. 90,000 से 1,00,000 वर्षों के चक्र में पृथ्वी की कक्षा का आकार अण्डाकार (उच्च विलक्षणता) से लगभग गोलाकार (कम विलक्षणता) में बदल जाता है. पृथ्वी की कक्षा की विलक्षणता समय के साथ धीरे-धीरे लगभग शून्य से 0.07 तक बदलती रहती है. ऐसा ही अन्य ग्रहों के साथ भी होता है.
तो इस प्रकार, सूर्यसिद्धांत की परिक्रमा अवधि भिन्न नहीं है. वास्तव में वे उस समय के सटीक माप हैं जब उनकी गणना की गई थी. दरअसल, मूल सूर्यसिद्धान्त की रचना कब और किसके द्वारा की गई थी, इसकी सटीक जानकारी फिलहाल किसी के पास नहीं है. मूल सूर्यसिद्धान्त के काल निर्धारण का बहुत प्रयास किया गया, लेकिन निष्कर्षों में एकरूपता नहीं आ सकी.
♦ सूर्यसिद्धान्त के अनुसार, समय-समय पर सूर्य से ऋषियों को ज्ञान प्राप्त होता रहा है. सूर्यसिद्धांत के ‘मङ्गलाचरणम्’ से पता चलता है कि इसमें की गई गणितीय गणनाओं का आधार भी वेद ही हैं-
अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने।
समस्तजगदाधार मूर्तये ब्रह्मणे नम:॥१॥
अर्थात् “अचिन्त्य, अनिर्वचनीय (कल्पना से परे) एवं अव्यक्त (निराकार) स्वरूप वाले, सत्व, रज, तम, गुणत्रय से रहित, प्रकृति स्वरूप (सगुण), समस्त सृष्टि के आधारभूत सृष्टि स्थिति विनाशरूप मूर्तित्रयात्मक उस परब्रह्म को नमस्कार है.”
अल्पावशिष्टे तु कृते मयो नाम महासुर:।
रहस्य परमं पुण्य जिज्ञासुर्ज्ञानमुत्तमम्॥२॥
वेदाङ्गमग्य्रमखिलं ज्योतिषां गतिकारणम्।
आराधयन् विवस्वन्तं तपस्तेपे सुदुश्चरम्॥३॥
अर्थात् “सतयुग के स्वल्पकाल शेष रह जाने पर (सत्ययुग के अन्त में) मय नामक महान् असुर, ने समस्त वेदाङ्गों में श्रेष्ठ ज्योतिष्पिण्डों (ग्रहों) के गति के कारणभूत (प्रतिपादक) परम पवित्र एवं गूढ़ ज्योतिषशास्त्र के उत्तम ज्ञान के प्रति जिज्ञासु होकर भगवान् सूर्य की आराधना करते हुये घोर तपस्या की. उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान रूपी वरदान की अभिलाषा रखने वाले मय दानव को अत्यंत प्रसन्नता के साथ भगवान् सूर्य ने स्वयं ग्रहों के चरित्र (ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान) को प्रदान किया.”
वेदाङ्ग क्या हैं-
वेदाङ्ग शब्द से अभिप्राय है- ‘जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले’. वेदों के अर्थ ज्ञान में सहायक शास्त्र को वेदाङ्ग कहा गया है. वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदाङ्ग सहायक होते हैं. तो इस प्रकार वेदांगों का ज्ञान वेद का उत्तम बोध होने के लिए अत्यंत आवश्यक है. वेदाङ्गों की संख्या ६ है- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त.
ज्योतिष – यहाँ ज्योतिष से अभिप्राय ‘वेदांग ज्योतिष’ से है. यह वेद पुरुष का नेत्र माना जाता है. इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है. वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते हैं तथा जयोतिषशास्त्र से काल का ज्ञान होता है.
Written By : Aditi Singhal (Working in the media)
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