What did Shri Ram Ate : वनवास में श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मण जी क्या खाते थे?

meat eating in valmiki ramayana, shri ram sita lakshman, ramayan panchvati, ramayan aranya kand, shri ram sita in panchvati, shri ram food vanvas

Shri Ram Food Vanvas (What Did Shri Ram Ate)

भगवान श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मण जी वनवास के दौरान कैसे रहते थे, क्या खाते-पीते थे, इसका उत्तर वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट रूप से मिलता है. आइये कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं-

वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड के सर्ग २८ में श्रीराम बताते हैं कि वन में जाने वाले मनुष्य किस प्रकार रहते हैं. वे सीताजी से कहते हैं-

सुप्यते पर्णशय्यासु स्वयंभग्नासु भूतले।
अहोरात्रं च संतोषः कर्तव्यो नियतात्मना।
फलैर्वृक्षावपतितैः सीते दुःखमतो वनम्‌॥
उपवासश्च कर्तव्यो यथा प्राणेन मैथिलि।
जटाभारश्च कर्तव्यो वल्कलाम्बरधारणम्‌॥

“दिनभर के परिश्रम से थके-माँदे मनुष्य को रात में जमीन पर अपने-आप गिरे हुए सूखे पत्तों के बिछौने पर सोना पड़ता है. वहाँ मन को वश में रखकर वृक्षों से स्वतः गिरे हुए फलों के आहार पर ही दिन-रात संतोष करना पड़ता है॥ अपनी शक्ति के अनुसार उपवास करना, सिर पर जटा का भार ढोना और वल्कल वस्त्र धारण करना- यही वहाँ की जीवनशैली है॥ देवताओं का, पितरों का तथा आये हुए अतिथियों का प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पूजन करना-यह वनवासी का प्रधान कर्तव्य है॥ वनवासी को प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों समय स्नान करना होता है. वहाँ स्वयं चुनकर लाये हुए फूलों द्वारा वेदोक्त विधि से वेदी पर देवताओं की पूजा करनी होती है॥”

आध्यात्म रामायण के अयोध्याकाण्ड के सर्ग ४ में भी श्रीराम सीताजी से कहते हैं-
“सीते! वन में भोजन के लिए कड़वे और खट्टे फल-मूल आदि ही मिलते हैं. किसी प्रकार के पुये आदि व्यंजन वहां कभी नहीं मिलते. वे फल भी सदा नहीं मिलते, किसी-किसी समय कहीं नहीं मिलते.”

वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड के सर्ग 20 में श्रीराम प्रतिज्ञा करते हुए कहते हैं-

सषद्चाष्टौ च वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने।
आसेवमानो वन्यानि फलमूलैश्च वर्तयन्‌॥

“मैं चौदह वर्षों तक निर्जन वन में रहूँगा और वन में सुलभ होने वाले वल्कल आदि को धारण करके फल-मूल के आहार से ही जीवन-निर्वाह करता रहूँगा॥”

चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने।
कन्दमूलफलैरजीवन्‌ हित्वा मुनिवदामिषम्‌॥

“मैं राजभोग्य वस्तु का त्याग करके मुनि की भाँति कन्द, मूल और फलों से जीवन-निर्वाह करता हुआ चौदह वर्षों तक निर्जन वन में निवास करूँगा॥”

वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड के सर्ग 19 में शूर्पणखा अपने भाई खर-दूषण को श्रीराम और लक्ष्मण जी का परिचय देते हुए कहती है-

तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ।
फलमूलाशनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ।
पुत्रौ दशरथस्यास्तां भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥

“भैया! वन में दो तरुण पुरुष आये हैं, जो देखने में बड़े ही सुकुमार, रूपवान्‌ और महान्‌ बलवान्‌ हैं. फल और मूल ही उनका भोजन है. वे जितेन्द्रिय, तपस्वी और ब्रह्मचारी हैं. दोनों ही राजा दशरथ के पुत्र और आपस में भाई-भाई हैं. उनके नाम राम और लक्ष्मण हैं॥”

इन सब श्लोकों से पता चलता है कि श्रीराम शुद्ध शकाहारी थे और वे पशु-पक्षियों को खाने योग्य वस्तु मानते ही नहीं थे, इसीलिए उन्होंने ऐसा कहा है कि “वन में भोजन के लिए फल-मूल ही मिलते हैं”. उन्होंने वन में “कन्द-मूल-फलों के आहार पर ही दिन-रात संतोष करने” की बात कही है. यानी घर में या महल में रोज-रोज अच्छे-अच्छे पकवान आदि बनते रहते हैं, उन्हें त्यागकर 14 वर्षों तक केवल फल-मूल से ही संतोष करने की बात कही गई है.

सनातन धर्म में मांस को ‘अभक्ष्य’ ही कहा गया है. इसे भोजन की श्रेणी में रखा ही नहीं गया है. इसे राक्षसों का भोजन कहा गया है. यह आगे के श्लोकों से स्पष्ट होता है.
युद्धकाण्ड के सर्ग १९ में विभीषण ने राक्षसों का परिचय इस प्रकार दिया है-

दशकोटिसहस्राणिरक्षसांकामरूपिणाम्।
मांसशोणितभक्ष्याणांलङ्कापुरनिवासिनाम्॥

“लंकापुरी में 10 कोटि सहस्त्र राक्षस बसते हैं. ये कामरूपी राक्षस मांस खाते और रक्त पीया करते हैं.”

आज कुछ अलग ही टाइप के लोग यह प्रचार करते रहते हैं कि श्रीराम मांस खाते थे, जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम तो मांसभक्षियों का वध करते थे.
बालकाण्ड के सर्ग ३० में श्रीराम राक्षसों को देखते ही लक्ष्मण जी से कहते हैं-

“लक्ष्मण! देखो, मांसभक्षण करने वाले दुराचारी राक्षस आ पहुँचे. मैं मानवास्त्र से इन सबको उसी प्रकार मार भगाऊँगा, जैसे वायु के वेग से बादल छिन्नभिन्न हो जाते हैं”॥ १५॥
“अब मैं यज्ञ में विघ्न डालने वाले इन दूसरे दुराचारी, पापकर्मी एवं रक्तभोजी राक्षसों को भी मार गिराता हूँ”॥२१॥

सनातन धर्म में मांस खाने को स्पष्ट तौर पर अधर्म बताया गया है. महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण ने शिकार का विरोध किया है. भगवान शिव ने मांसाहार और जीवहत्या का कड़े शब्दों में विरोध किया है. जो-जो राजा अपने मनोरंजन के लिए शिकार पर गए और बेवजह जीवहत्या की, उन राजाओं को शाप भी भोगने पड़े. फिर चाहे वे राजा दशरथ हों या राजा पाण्डु.

श्रीराम ने भी वन में शिकार किये थे, लेकिन वे अपनी या सीताजी आदि की रक्षा में या अन्य निर्बल प्राणियों की रक्षा में हिंसक पशुओं का शिकार करते थे, न कि अपने मनोरंजन के लिए या खाने के लिए. श्रीराम स्वर्ण हिरण का शिकार करने इसलिए गए थे क्योंकि वे और सीताजी उसमें मारीच को पहचान गए थे और अब वे रावण-वध की लीला शुरू करने जा रहे थे. उससे पहले उनके द्वारा ऐसे शिकार करने की बात कहीं नहीं लिखी है.

श्रीराम तो जिसका नाम लेकर बाण का अनुसन्धान कर दे देते थे, वह वहीं बैठे-बैठे मर जाता था. भला श्रीराम को एक मृग के पीछे इतनी दूर तक भागने की क्या आवश्यकता थी? यह सब इसीलिए किया गया था क्योंकि श्रीराम ने अब तक देश में घुसपैठ करने वाले असुरों का वध कर दिया था, और अब वे उस सोर्स को ही खत्म कर देना चाहते थे, जहाँ से घुसपैठ लगातार होती रहती थी, साथ ही रावण की कैद में रह रहे देवताओं, ऋषि-मुनियों, स्त्रियों आदि को मुक्त कराना था. और इसके लिए उन्हें कोई न कोई कारण चाहिए था (क्योंकि रावण दूसरे देश का एक राजा था). वह कारण बनी थीं सीताजी. रावण सीताजी का तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता था, इसलिए सीताजी (की छाया) एक कारण बनकर लंका में तब तक बंदी बनकर बैठी रहीं, जब तक एक-एक राक्षस सहित रावण का भी वध नहीं हो गया.

अरण्यकाण्ड के सर्ग ९ से पता चलता है कि सीताजी और श्रीराम निरपराध प्राणियों को मारने के विरोधी थे. सीताजी श्रीराम से कहती हैं कि-
“क्षत्रिय वीरों के लिये वन में धनुष धारण करने का इतना ही प्रयोजन है कि वे संकट में पड़े हुए प्राणियों की रक्षा करें. क्षत्रिय लोग इसलिये धनुष धारण करते हैं कि किसी को दुःखी होकर हाहाकार न करना पड़े॥२६॥

दरअसल, इस सर्ग के अनुसार सीताजी को डर था कि दंडकारण्य में राक्षसों का वध करते-करते श्रीराम को कहीं शस्त्र-प्रयोग की ऐसी आदत न लग जाये कि वे निरपराध प्राणियों का भी वध करने लगें. अपने इस भय को बताते हुए सीताजी श्रीराम को एक मुनि की कथा भी सुनाती हैं. तब श्रीराम सीताजी को प्रेम से समझाते हुए इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि वे केवल सबकी रक्षा के लिए ही शस्त्रों का प्रयोग करते हैं और करते रहेंगे.


ऋषि-महर्षि वनों में पूर्ण सात्विकता से रहकर कठिन साधना में लगे रहते थे और सिद्धियाँ व शक्तियां अर्जित करते रहते थे. वे अपनी शक्तियों को योग्य क्षत्रियों को दे देते थे, जैसे रामायण में ऋषियों ने अपनी शक्तियां श्रीराम को दे दी थीं, क्योंकि ऋषियों को मालूम था कि श्रीराम उनकी दी हुई शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करेंगे, सदुपयोग करेंगे, किसी निर्बल को नहीं सताएंगे, बल्कि असुरों का और अधर्मियों का वध करके सबकी रक्षा करेंगे.
और फिर उन्हीं शक्तियों से श्रीराम असुरों का वध करके ऋषियों की और उनके यज्ञों की रक्षा करते. श्रीराम का रक्षण पाकर ऋषि और अधिक शक्तियां अर्जित करते और धर्म की शक्ति को बढ़ाते रहते.
यह क्रम चलता रहता.

जब शूर्पनखा श्रीराम और लक्ष्मण जी का वर्णन करते हुए कहती है कि
“फलमूल खाने वाले दो शस्त्रधारी वनवासियों ने दंडकारण्य को राक्षसों से विहीन कर दिया…”
तो सुनकर राक्षसों को विश्वास नहीं होता कि फलमूल खाने वाले साधारण वनवासियों ने इतने बड़े-बड़े राक्षसों को मार गिराया? उन राक्षसों को, जो रोज कितने ही बड़े-बड़े हाथी खाकर अपनी बॉडी बनाते थे और स्वयं को बड़ा बलवान समझते थे, जो अत्यंत क्रूर थे, छिपकर वार करने में भी माहिर थे.

श्रीराम ने उन सब राक्षसों को यह दिखा दिया था कि वास्तविक शक्ति किसमें निहित होती है.
श्रीराम की जीत केवल बाहुबल की जीत नहीं, सही दिशा में पुरुषार्थ की जीत थी, मांसलोलुपता पर सात्विकता की जीत थी, राक्षसपन पर मानवता की जीत थी, असभ्यता पर सभ्यता की जीत थी, तपस्या की जीत थी, सतत प्रयास की जीत थी (देवताओं में सतत प्रयास की कमी होती है. सुख आते ही वे लापरवाह हो जाते हैं), कठिन साधना की जीत थी, ब्राह्मणत्व और क्षत्रियत्व की एकता की जीत थी, बल-बुद्धि की एकता की जीत थी. सही मायने में यह हिंदुत्व की जीत थी, धर्म की जीत थी, सनातन धर्म की जीत थी.


ऋषि-मुनि अपने आश्रम में किसी भी पशु-पक्षी का रक्त-मांस गिरना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे. वाल्मीकि रामायण में मतङ्ग मुनि के बारे में पढ़ सकते हैं. कोई भी ऋषि अपने सामने किसी निरपराध प्राणी की हत्या को बर्दाश्त नहीं करते थे. वाल्मीकि रामायण की शुरुआत ही उस प्रसंग से होती है, जब वाल्मीकि जी एक निरपराध प्राणी की हत्या के अपराध में एक व्याध को शाप देते हैं-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

“तुमने बिना किसी अपराध के ही प्रेम में मग्न पक्षी की हत्या की है. तुम्हें नित्य-निरंतर कभी शान्ति न मिले.” (बालकाण्ड २|१५)

वाल्मीकि रामायण और योगवासिष्ठ में महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ जी को बताते हैं-

“राजन्! मैं सिद्धि के लिये एक नियम का अनुष्ठान कर रहा हूँ. उसमें इच्छानुसार रूप धारण करने वाले दो राक्षस विघ्न डाल रहे हैं॥ मेरे इस नियम का अधिकांश कार्य पूर्ण हो चुका है. अब उसकी समाप्ति के समय वे दो राक्षस आ धमके हैं. उन्होंने मेरी यज्ञ वेदी पर रक्त और मांस की वर्षा कर दी है. इस प्रकार उस समाप्तप्राय नियम में विघ्न पड़ जाने के कारण मेरा परिश्रम व्यर्थ गया और मैं उत्साहहीन होकर उस स्थान से चला आया॥ पृथ्वीनाथ! वह नियम ऐसा है, जिसको आरम्भ कर देने पर किसी को शाप भी नहीं दिया जाता; अतः नृपश्रेष्ठ! आप अपने सत्यपराक्रमी, शूरवीर ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को मुझे दे दें॥८३॥”

“राजन्! जब-जब मैं यज्ञ के द्वारा देव-समूहों का पूजन करता हूँ, तब-तब कुछ निशाचर आकर मेरे उस यज्ञ को भ्रष्ट कर देते हैं. मैंने अनेक बार यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया, किंतु राक्षसनायक उस यज्ञ-मण्डप की भूमि में रक्त और मांस के टुकड़े बिखेर देते हैं, जिससे यज्ञ के लिये परिश्रम करके भी उसमें सफल नहीं हो पा रहा हूँ.”

देवीभागवत पुराण में सुमेधा मुनि राजा सुरथ से कहते हैं-
“महाराज! आप निर्भीक होकर यहाँ विराजें. यहाँ तपस्या का ऐसा प्रभाव है कि आपके अत्यन्त पराक्रमी शत्रु भी यहाँ कभी नहीं आ सकेंगे. राजेन्द्र! आपको वनवासी जीवन व्यतीत करना चाहिये. तीनी के चावल, फल और मूल खाकर आप जीवननिर्वाह करें.”

वनवास के दौरान श्रीराम एक स्थान पर कुटिया बनाकर नहीं रहे, निरंतर चलते रहे, आगे बढ़ते रहे और असुरों का वध करते रहे. अरण्यकाण्ड के सर्ग ११ के अनुसार-

“विदेहनन्दिनी सीता तथा लक्ष्मण के साथ ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजी बारी-बारी से उन सभी तपस्वी मुनियों के आश्रमों पर गये, जिनके यहाँ वे पहले रह चुके थे. उनके पास भी (उनकी भक्ति देख) दुबारा जाकर रहे॥ कहीं दस महीने, कहीं साल भर, कहीं चार महीने, कहीं पाँच या छः महीने, कहीं सात महीने, कहीं आठ महीने, कहीं आधे मास अधिक अर्थात्‌ साढ़े आठ महीने, कहीं तीन महीने और कहीं आठ और तीन अर्थात्‌ ग्यारह महीने तक श्रीरामचन्द्रजी ने निवास किया॥ इस प्रकार मुनियों के आश्रमों पर रहते और अनुकूलता पाकर आनन्द का अनुभव करते हुए उनके दस वर्ष बीत गये॥ वहाँ के महर्षियों ने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया॥”

prinsli.com


Tags : shri ram food, did shri rama ate non veg, what did shri ram ate during vanvas, did shri rama ate meat, shri ram kya khate the, shri ram mansahari hai ya shakahari, shri ram favourite food, kya shri ram mans khate the, rishi muni kya khate the, rishi muni ashram, क्या ऋषि मुनि मांस खाते थे, क्या श्रीराम मांस खाते थे 



Copyrighted Material © 2019 - 2024 Prinsli.com - All rights reserved

All content on this website is copyrighted. It is prohibited to copy, publish or distribute the content and images of this website through any website, book, newspaper, software, videos, YouTube Channel or any other medium without written permission. You are not authorized to alter, obscure or remove any proprietary information, copyright or logo from this Website in any way. If any of these rules are violated, it will be strongly protested and legal action will be taken.



About Niharika 268 Articles
Interested in Research, Reading & Writing... Contact me at niharika.agarwal77771@gmail.com

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*