Ramcharitmanas of Tulsidas ji : रामचरितमानस पढ़ते समय क्या आपने इन बातों पर ध्यान दिया है?

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Tulsidas ji Ramcharitmanas ki Chaupaiyan

जब मैंने पहली बार तुलसीदास जी की रामचरितमानस पढ़ी थी, तब मेरे मन में बहुत सारे सवाल आ गए थे. तब मैंने अपनी मम्मी से पहला सवाल पूछा था कि “मम्मी! जब पुष्पवाटिका में सीताजी ने श्रीराम को देखने के बाद उनसे विवाह के लिए मां गौरी जी यानी पार्वती जी से प्रार्थना की थी, तो फिर सीता-हरण के समय माता सती भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने कैसे पहुंची, क्योंकि सती जी तो पार्वती जी से पहले थीं..?”

तब मम्मी ने मुझसे कहा कि “जाकर एक बार फिर से पूरी रामचरितमानस पढ़ो और इस बार चौपाइयों के साथ पढ़ना, केवल हिंदी अर्थ मत पढ़ना, क्योंकि हिंदी अर्थ तुलसीदास जी लिखकर नहीं गए हैं, ये आज के लोगों ने ही लिखे हैं, तो जिसे जो-जितना समझ आया, वैसा अर्थ लिखा गया है…”

मैंने ऐसा ही किया, एक बार फिर से रामचरितमानस का पाठ किया, आराम से किया, कई दिन लगे.. और तब मुझे कुछ बातें समझ आ पाईं..

अरे हां! साफ-साफ तो लिखा है कि-
एक बार त्रेता जुग माहीं।
संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।

मुदरी और मुद्रिका

अच्छा, यदि आपने रामचरितमानस पढ़ी होगी तो आपने कभी ध्यान दिया है कि केवट प्रसंग में सीताजी श्रीराम को अपनी जो मुद्रिका देती हैं, वह मुद्रिका जब तक सीता जी के हाथों में रहती है, तब तक तुलसीदास जी उसे “मुद्रिका” नहीं, “मुदरी” लिखते हैं, और श्रीराम के हाथों में आते ही तुलसीदास जी उसे “मुद्रिका” लिखते हैं..

तुलसीदास जी ने यही प्रयोग किष्किन्धाकाण्ड और सुन्दरकाण्ड में भी किया है. जब हनुमान जी पहली बार अशोक वाटिका में सीता जी से मिलते हैं, ध्यान दीजियेगा कि वह मुद्रिका जब तक श्रीराम और हनुमान जी के हाथों में रही, तब तक तुलसीदास जी ने उसे “मुद्रिका” ही लिखा है, लेकिन सीता जी के हाथों में आते ही उसे फिर से “मुदरी” ही बना दिया गया… (आप रामचरितमानस की चौपाइयों में पढ़ सकते हैं).

क्या आप बता सकते हैं कि तुलसीदास जी ने ऐसा क्यों किया??

करुनानिधान

अच्छा, अब रामचरितमानस में “करुनानिधान” शब्द पर ध्यान दीजिए

पुष्पवाटिका में श्रीराम को देखने के बाद सीता जी पार्वती जी से कहती हैं-

मोर मनोरथु जानहु नीके।
बसहु सदा उर पुर सबही के।।
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं।

और तब पार्वती जी सीता जी से कहती हैं-

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुनानिधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥

अब “करुनानिधान” शब्द का प्रयोग अशोक वाटिका में देखिए..

सीता जी हनुमान जी जैसा वानर देखकर बहुत डर जाती हैं. हनुमान जी सीताजी को पूरी रामकथा सुना देते हैं और यह भी बता देते हैं कि उन्हें श्रीराम ने ही भेजा है, तो भी सीताजी हनुमान जी पर विश्वास नहीं करती. हनुमान जी सीता जी को मुद्रिका भी दिखाते हैं, तो भी सीता जी के मन में विचार चलते रहते हैं, कि कहीं यह माया की तो बनी नहीं है.. आदि.

तब हनुमान जी केवल एक वाक्य बोलते हैं और सीताजी को तुरंत उन पर विश्वास हो जाता है. हनुमान जी कहते हैं-

राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की।।

जहां इतनी बातों से भी सीता जी को विश्वास नहीं होता, वहीं यह “करुनानिधान” शब्द सुनते ही सीता जी को हनुमान जी पर पूरा विश्वास हो जाता है कि हां! वे श्रीराम जी के ही पास से आए हैं. क्या आप बता सकते हैं कि इसका क्या रहस्य है?

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ऐसे ही और भी बहुत रहस्य भरे पड़े हैं रामचरितमानस में. यहां एक बार में सबकी चर्चा करना संभव नहीं है. दरअसल, रामचरितमानस की चौपाइयां पढ़ने में जितनी आसान दिखाई देती हैं, उतनी आसान हैं नहीं. तुलसीदास जी ने एक-एक शब्द में कई रहस्यों को समेट दिया है.

ये सब बातें उन लोगों के लिए है जो रामचरितमानस उठाते ही “ढोल गंवार शुद्र पशु नारी…” जैसी चौपाइयों का सही अर्थ जाने बिना ही सिर्फ इन्हीं चौपाइयों पर अटक जाते हैं, और शुरू हो जाते हैं उल्टे-सीधे आरोप लगाना कि रामचरितमानस में ‘जातिवाद’ है, ‘नारी का अपमान’ है या नफरत या भेदभाव की बातें हैं..

यदि आप ऊपर लिखी बातों और शब्दों के रहस्य नहीं समझ सकते, तो फिर आपके द्वारा रामचरितमानस पर ‘जातिवाद’ या ‘नारी के अपमान’ जैसे सभी आरोप निराधार हो जाते हैं. ‘रुद्राष्टकम’ से तुलसीदास जी की भाषा विद्वता का अच्छी तरह पता चलता है. यदि आप बिना अनुवाद पढ़े रामचरितमानस में लिखे ‘रुद्राष्टक’ का अर्थ नहीं बता सकते, तो आपके सभी आरोप निराधार हैं.

सूर सूर तुलसी शशि, उडुगन केशवदास।


‘विप्र पूजनीय है’

तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में “विप्र” को पूजनीय बताया है. लेकिन यह भी ध्यान दीजिए कि तुलसीदास जी ने श्रीराम का साथ देने वाले वानरों और नारी की रक्षा के लिए लड़ने वाले पक्षी जटायु को भी “विप्र” बताया है..

‘विप्र’ का अर्थ केवल ‘ब्राह्मण’ के अर्थ में नहीं लिखा गया है. विप्र का एक अर्थ ब्राह्मण भी होता है, लेकिन विप्र एक व्यापक शब्द है. तुलसीदास जी ने चौपाइयों में “द्विज” और “विप्र” में अंतर रखा है. लेकिन हिंदी अनुवादों में सबको ‘ब्राह्मण’ ही बना दिया गया. और लोग ग्रंथों का केवल हिंदी अनुवाद ही तो पढ़ते-दिखाते रहते हैं. चौपाइयों, श्लोकों, दोहों आदि में लिखे शब्दों का एनालिसिस नहीं करना चाहते.

और आपको यह भी पता होगा कि ‘द्विज’ का अर्थ भी केवल ‘ब्राह्मण’ नहीं होता. इसे आप ‘उपनयन संस्कार’ से समझ सकते हैं.

उपनयन संस्कार हिन्दुओं के 16 मुख्य संस्कारों में से एक है. उपनयन संस्कार के बाद हिन्दू ‘द्विज’ कहलाता है, यानी दो बार जन्म लेने वाला. और एक बात कि उपनयन संस्कार केवल ब्राह्मणों का नहीं होता, यह समाज के सभी वर्गों का होता है. यानी इसका किसी वर्ण से कोई लेना-देना नहीं है.

इसी प्रकार तुलसीदास जी ने रावण जैसे अधर्मी और अत्याचारी को भी ‘शूद्र’ और ‘अधम’ कहा है, जबकि वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत सभी को समान रखा है-

राजघाट सब बिधि सुंदर बर।
मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर।।

नारी का अपमान? शिवजी का अपमान?

कुछ लोगों ने जो यह लिखा है कि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में नारी का अपमान किया है, साथ ही उन्होंने रामचरितमानस में भगवान शिव के बारे में कुछ उल्टा-सीधा लिखा है, इसलिए उस समय के शैव भक्त, संत और ब्राह्मण तुलसीदास जी और रामचरितमानस के पीछे पड़े हुए थे. लेकिन हमें ऐसी उड़ाई गई कहानियों पर यकीन नहीं है, क्योंकि मानस पर ऐसे आरोप केवल वही लगा सकता है, जिसने मानस को थोड़ा सा भी नहीं पढ़ा होगा. यदि कोई व्यक्ति मानस का केवल बालकाण्ड ही पढ़ ले, तो वह इस तरह के आरोप लगा ही नहीं सकता.

यदि आपने रामचरितमानस पढ़ी होगी तो आपने ध्यान दिया होगा कि रामभक्त तुलसीदास जी ने-
रामचरितमानस की पहली चौपाई में माता सरस्वती और गणेशजी की,
दूसरी और तीसरी चौपाई में भगवान शिव और पार्वती जी की,
चौथी चौपाई में वाल्मीकि जी और हनुमान जी की, और
पांचवी चौपाई में सीता जी की वंदना की है,
और फिर अगली छठी चौपाई में उन्होंने श्रीराम या श्रीहरि की वंदना की है.

यानी तुलसीदास जी ने श्रीराम से भी पहले सीता जी की और गणेश जी से भी पहले माता सरस्वती जी की वंदना की है.

इसी रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने यह भी लिखा है-

नृप सब भाँति सबहि सनमानी।
कहि मृदु बचन बोलाईं रानी॥
बधू लरिकनीं पर घर आईं।
राखेहु नयन पलक की नाई॥

“राजा (दशरथ) ने सबका सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर रानियों को बुलाया और कहा- बहुएँ पराए घर आई हैं. इनको इस तरह से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रों की रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुँचाती हैं, वैसे ही इन बहुओं को सुख पहुँचाना).”

भगवान शिव की स्तुति में ‘रुद्राष्टकम‘ (Rudrashtakam) की रचना तुलसीदास जी ने ही की है. मानस में रामेश्वरम के समय का प्रसंग भी पढ़िए. यदि आप रामचरितमानस को ठीक से पढ़ेंगे तो पाएंगे कि तुलसीदास जी ने भगवान शिव और हनुमान जी की वंदना अपने गुरु के रूप में की है, क्योंकि इन्हीं की सहायता से उन्हें श्रीराम के दर्शन हो पाए थे और इन्हीं की सहायता से वे रामचरितमानस की रचना कर पाए थे.

जो भी व्यक्ति एक बार ठीक से रामचरितमानस के बालकाण्ड में ‘मंगलाचरण’ से लेकर ‘मानस निर्माण की तिथि’ तक ही पढ़ ले, तो उसके सारे संदेह और सवाल मिट जायेंगे.

वाल्मीकि जी ने तो रामायण के श्लोकों में भाषा और शब्द सम्बन्धी बड़े विचित्र प्रयोग किए हैं. उनके लिखे श्लोकों को ठीक से समझना आज शायद किसी के वश की बात नहीं.

कहने का मतलब यह है कि अगर वैदिक-सनातन ग्रंथों की लिखी बातें हमें समझ नहीं आ रहीं, या उनके भाव समझ में नहीं आ रहे, या उनमें अनेकों कमियां या भेदभाव या असमानता आदि नजर आ रही है, तो इसमें गलती या कमी उन ग्रंथों या उन्हें लिखने वालों में नहीं, कमी हमारी बुद्धि, शिक्षा और मन में है.

‘मांग के खाईबो मसीत में सोईबो’

‘मांग के खाईबो मसीत में सोईबो’ में आज कुछ लोग ‘मसीत’ का अर्थ ‘मस्जिद’ से लगाते हैं. लेकिन एक बहुत पुरानी किताब में यहां ‘मसीत’ शब्द का अर्थ ‘मजे से’ मिला है. लेकिन अब जिसकी कॉपी-पेस्टिंग ज्यादा हो गई, वही सत्य माना जाने लगा.

ध्यान दीजिये कि इन चौपाइयों में तुलसीदास जी जो बात कहना चाह रहे हैं, उसमें ‘मस्जिद’ शब्द का कोई काम भी नहीं है. वे सीधा-सीधा यह कहना चाह रहे हैं कि “मुझे किसी की जाति वगैरह से कोई लेना-देना नहीं है और न ही मेरी कोई जाति है. जो गोत्र श्रीराम का है, वही गोत्र मेरा है. मांगकर खाता हूँ और मजे से सोता हूँ. न किसी से लेना एक न देना दो.”

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भेदभाव और असमानता मिटाती है रामचरितमानस

रामचरितमानस का नाम “रामचरितमानस” रखा ही इसलिए गया है, क्योंकि यह ऐतिहासिक ग्रंथ इतिहास से ज्यादा सभी के चरित्र के बारे में जानकारी देता है. इस ग्रंथ में व्यक्ति के जीवन के आदर्श को विविध रूपों में चित्रित किया गया है. इसीलिए यदि रावण ने श्रीराम के लिए कुछ अपशब्द बोले, तो गोस्वामी जी ने उन्हें भी लिखा है. इसका मतलब यह नहीं कि वह सब तुलसीदास जी के विचार हैं.

अब रावण ने नारियों के लिए जो कुछ भी कहा है, तो उसकी सोच को तो फॉलो नहीं करना है न हमें.. तुलसीदास जी तो यही बताना चाह रहे हैं कि स्त्रियों के प्रति दुष्टों, राक्षसों की सोच कैसी होती है, और इसीलिए वे वध योग्य होते हैं.

समुद्र ने जो बोला, वह उसी का वक्तव्य है न कि तुलसीदास जी का. तुलसीदास जी ने तो उसे ‘जलधि जड़’ बोला है. रावण ने श्रीराम और सीता जी के लिए अपशब्द कहे, तो तुलसीदास जी ने वो भी लिख दिए. पार्वती जी की परीक्षा लेने गए सप्तऋषि भगवान शिव की निंदा करते हैं, तो वह सब भी तुलसीदास जी ने लिख दिया है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि तुलसीदास जी भगवान शिव की निंदा कर रहे हैं.

तुलसीदास जी भगवान शिव के भी उतने ही बड़े भक्त थे, जितने कि श्रीराम के. उन्होंने हर जगह भगवान शिव और माता पार्वती जी की वंदना अपने माता-पिता के रूप में की है. तुलसीदास जी कितने बड़े विद्वान और सरल हृदय महापुरुष थे, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता.

गुर पितु मातु महेस भवानी।
प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥

कुछ चौपाइयों को षड्यंत्रकारियों ने फूट डालने के लिए गलत तरीके से प्रचारित करना शुरू किया. और वह षड़यंत्र आज भी जारी है. लेकिन समस्या यही है कि कुछ लोग खुद ही अपने ग्रन्थों को न तो पढ़ते हैं और न ही उन्हें समझने की कोशिश करते हैं. किसी ने जो बोल दिया वही सच मान लिया, इसलिए इन कुचक्रों में फंस जाते हैं. विषैले नरेटिव्स से परे सत्य देखने की न तो इच्छा है और न समझ.

सत्य ही कहा गया है-

बंदौ श्री तुलसी चरण जिन कीन्हो यह काज।
कलि समुद्र बूढ़त लखत प्रगटयो सत्य जहाज।।

 

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