Shambuk Vadh Valmiki Ramayana
इस लेख में हम शम्बूक वध (Shambuk Vadh) की कथा पर विस्तृत चर्चा करने जा रहे हैं, जिसके लिए हम कई तथ्य और प्रमाण भी सामने रख रहे हैं. आशा है कि इस लेख को पढ़कर आपको कई प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे.
शम्बूक वध का उल्लेख वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के सर्ग ७३-७६ में किया गया है. “शूद्र की हत्या” के नाम पर शम्बूक वध को लेकर श्रीराम के खिलाफ इतना दुष्प्रचार फैलाया जा चुका है कि अब इस कथा को समझने का सामर्थ्य भी लगभग किसी के पास न रहा. और यह दुष्प्रचार बहुत पुराना नहीं है. यह भारत में अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति का परिणाम है.
नहीं तो वाल्मीकि रामायण के आधार पर ही शम्बूक वध का उल्लेख तो कालिदास ने भी अपने “रघुवंशम” में किया है, लेकिन उस समय भी इस कथा को लेकर कोई विवाद नहीं था. तुलसीदास जी की रामचरितमानस की रचना से पहले सब लोग वाल्मीकि रामायण ही पढ़ते थे और पढ़ाते थे. तुलसीदास जी के गुरु ने भी तुलसीदास जी को वाल्मीकि रामायण ही पढ़ाई थी. यानी देश-दुनिया में श्रीराम के भक्तों की संख्या में कोई कमी नहीं थी.
दरअसल, आज लोगों को शम्बूक वध की कथा इसलिए समझ नहीं आती, क्योंकि आज लोग सबकुछ पढ़ते ही नहीं हैं. बस अपनी पसंद का आधा-अधूरा ही पढ़ते रहते हैं. और आधा सत्य या आधा ज्ञान तो खतरनाक होता ही है. आज लोग अपने मूल ग्रंथों का ठीक से अध्ययन नहीं करते, बल्कि मूल ग्रंथों पर लिखे लेखकों और इतिहासकारों की टीकाएँ या विचार पढ़ते रहते हैं, और इसीलिए भ्रमित होते रहते हैं.
क्या वास्तव में श्रीराम ने शम्बूक का वध केवल इसलिए किया था क्योंकि वह एक शूद्र होकर तप कर रहा था? क्या और कोई कारण नहीं था? और क्या श्रीराम के राज्य में शंबूक ही एकमात्र शूद्र था? आज कुछ लोग शम्बूक के लिए न्याय मांगते फिरते हैं लेकिन उस समय किसी ने भी श्रीराम के इस एक्शन के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाई? क्या अंग्रेजों के भारत में आने से पहले सारे भारतीय दयाहीन और मूर्ख थे?
शंबूक वध की कथा में हम केवल इतना ही देख पाते हैं कि श्रीराम क्षत्रिय थे और शंबूक शूद्र, क्योंकि आज जातिवाद से ऊपर उठकर कुछ और सोचने का सामर्थ्य बचा ही नहीं हम लोगों में. शूद्रों की तुलना कर देते हैं आज के दलितों से, और बता देते हैं सवर्णों का दलितों पर अत्याचार. हिन्दुओं में जातिगत फूट डालने का षड्यंत्र ऐसे ही किया जाता है.
जबकि वाल्मीकि रामायण में ही श्रीराम के बारे में बताया गया है कि-
रामो भामिनि लोकस्य चातुर्वण्यस्य रक्षिता।
धनुवेदि च वेदे च वेदाङ्गेषु च निष्ठितः॥
रक्षिता जीवलोकस्य स्वजनस्य च रक्षिता।
रक्षिता स्वस्य वृत्तस्य धर्मस्य च परंतपः॥
“हे भामिनि! श्रीरामचन्द्रजी जगत् के चारों वर्णों की रक्षा करते हैं. वे चारों वेद, धनुर्वेद और छह वेदाङ्गों के भी परिनिष्ठित विद्धान् हैं॥ वे सम्पूर्ण जीव-जगत् के तथा स्वजनों के भी रक्षक हैं. शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम अपने सदाचार और धर्म की रक्षा करते हैं॥”
अब आते हैं शम्बूक वध की कथा पर-
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के अनुसार, एक ब्राह्मण के १३ वर्षीय बालक की अकाल मृत्यु हो जाती है. वह ब्राह्मण श्रीराम के दरबार में आकर श्रीराम को दोष देता है और कहता है कि जब राजा धर्मपूर्वक शासन नहीं करता, या जब राज्य में हो रहे अधर्म को रोकने का प्रयास नहीं करता, तब प्रजा में अकाल मृत्यु का भय व्याप्त हो जाता है.
इसके बाद नारद मुनि के समझाने पर श्रीराम पुष्पक विमान पर बैठकर अपने राज्य का भ्रमण कर यह पता लगाने का प्रयास करते हैं कि उनके राज्य में कोई व्यक्ति किसी प्रकार का अधर्म करने या कोई तामस तप करने का प्रयास तो नहीं कर रहा है.
इसी दौरान श्रीराम एक स्थान पर एक ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो अपने पैरों को पेड़ की डाली से बांधकर उल्टा लटककर कठोर तप कर रहा था. यह व्यक्ति शम्बूक था. (वाल्मीकि जी ने शम्बूक को “तथाकथित तपस्वी” कहा है – उत्तरकाण्ड सर्ग ७६ श्लोक १. और भगवद्गीता में भी इस प्रकार की तपस्या को ‘दुराग्रह’ कहा गया है).
• प्रत्येक कार्य की एक विधि होती है, फिर चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो. अलग-अलग उद्देश्य से किये जा रहे यज्ञ, कर्मकांड, पूजा आदि की विधि अलग-अलग होती है. हम विधि को देखकर जान सकते हैं कि कोई व्यक्ति अमुक कार्य किस उद्देश्य से कर रहा होगा.
वाल्मीकि रामायण में श्रीराम को सभी वेदों और शास्त्रों का यथार्थ ज्ञाता बताया गया है, तो क्या श्रीराम शम्बूक के तपस्या करने के ढंग को देखकर समझ नहीं गए होंगे कि यह तपस्या किस उद्देश्य से की जा रही है? लेकिन फिर भी वे अपने संदेह को कन्फर्म करने के लिए उसके पास गए और उसी से उसकी तपस्या का उद्देश्य पूछा. तब शम्बूक ने स्वयं ही बताया कि वह सशरीर स्वर्गलोक में जाने और देवलोक पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से तप कर रहा है.
शम्बूक किस प्रकार की तपस्या कर रहा था?
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने सत्व, रज और तम के गुण व प्रभाव को विस्तार से बताया है. भगवद्गीता के अध्याय १७ के श्लोक १९ के स्पष्टीकरण में बताया गया है कि-
“जो अशास्त्रीय, मनःकल्पित, घोर और स्वभाव से ही तामस हैं, जिसमें दम्भ की प्रेरणा से या अज्ञान से पैरों को पेड़ की डाली में बांधकर सिर नीचा करके लटकना, लोहे के कांटों पर बैठना तथा इसी प्रकार की अन्यान्य घोर क्रियाएं करके बुरी भावना से अर्थात् दूसरों की सम्पत्ति का हरण करने, उसका नाश करने, उनके वंश का उच्छेद करने अथवा उसका किसी प्रकार कुछ भी अनिष्ट करने के लिये जो अपने मन, वाणी और शरीर को ताप पहुँचाना है- उसे “तामस तप” कहते हैं.”
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥
(भगवद्गीता 17.19)
तत्तामसमुदाहृतम् —
तामस मनुष्य का उद्देश्य ही दूसरों को कष्ट देने का, उनका अनिष्ट करने का रहता है. अतः ऐसे उद्देश्य से किया गया तप तामस कहलाता है (जबकि सात्त्विक मनुष्य फल की इच्छा न रखकर परमश्रद्धा से तप करता है, इसलिये वास्तव में वही मनुष्य कहलाने योग्य है. राजस मनुष्य सत्कार, मान, पूजा तथा दम्भ के लिये तप करता है. किन्तु तामस मनुष्य तो स्वयं दुःख पाकर दूसरों को भी दुःख देता है.)
परस्योत्सादनार्थं वा —
तामसी मनुष्य दूसरों को दुःख देने के लिये तप करते हैं, उनका भाव रहता है कि शक्ति प्राप्त करने के लिये तप करने में मुझे भले ही कष्ट सहना पड़े, पर दूसरों को नष्ट-भ्रष्ट तो करना ही है. तामसी मनुष्यों में मूढ़ता, दूसरों को कष्ट देना आदि दोष रहते हैं. तामस तप का फल भी कुरूप व्यक्तित्व, विकृत भावनाएं और हीन आदर्श ही हो सकता है.
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• शम्बूक तामस तप कर रहा था जो दूसरों का अनिष्ट करने के उद्देश्य से ही किये जाते हैं. और यदि शंबूक को कोई बड़ी सिद्धि प्राप्त हो जाती, तो यह समाज के हित में नहीं होता. शंबूक के तप का प्रभाव अयोध्या पर पड़ना शुरू हो गया था. अकाल मृत्यु द्वारा ब्राह्मण-पुत्र की मृत्यु यह बताती है कि तमस के बढ़ने से सत्व का प्रभाव कम होने लगता है. पहला प्रहार ब्राह्मणत्व पर अर्थात सदाचार पर ही होता है. जब-जब अधर्म को बल या शक्ति प्राप्त होने लगती है, तब पहला असर समाज के कमजोर वर्ग पर ही पड़ता है, जैसे बच्चे और महिलाएं.
चूंकि शम्बूक भी जो कुछ कर रहा था, वह मन को साधकर कर रहा था, अतः उसे कारागार में डालने का भी कोई मतलब नहीं था. उसका तत्काल वध ही एकमात्र उपाय था प्रजा को बचाने का. यदि कोई राजा सबकुछ जान-समझकर भी समाज में एक बड़ी क्षति हो जाने के बाद एक्शन ले तो वह राजा मूर्ख और लापरवाह कहलायेगा. इसलिए यहाँ श्रीराम के एक्शन की प्रशंसा की गई है.
• पाप तीन प्रकार से किये जा सकते हैं- कायिक, वाचिक और मानसिक. जब किसी तपस्वी को कोई सिद्धि प्राप्त हो जाती है, तब यदि वह किसी का अनिष्ट चिंतन करता है, तो उसका प्रभाव पड़ता है. जैसे महाभारत में वर्णित व्याध गीता में कौशिक ब्राह्मण एक बगुली को देखकर उसका अनिष्ट चिंतन करते हैं, तो वह बगुली जल जाती है.
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तो यदि ऐसी ही सिद्धि किसी तामसी बुद्धि वाले व्यक्ति को या किसी दुष्ट को प्राप्त हो जाती है, तो उसका प्रभाव अच्छे लोगों पर ही पड़ेगा. सीधी सी बात है कि जो लोग दूसरों के बारे में अच्छा नहीं सोचते, या जिनका मन हीन भावना या कुंठा से भरा रहता है, या जो लोग केवल अपने बारे में ही सोचते हैं, यदि उन लोगों को कोई सिद्धि प्राप्त हो जाती है, या कोई बड़ा अधिकार प्राप्त हो जाता है, या कोई बड़ी विद्या प्राप्त हो जाती है, या कोई शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र या मंत्र प्राप्त हो जाता है, तो वह समाज के हित में कभी नहीं होता.
शूद्र कौन हैं? क्या दलितों की तुलना शूद्रों से करनी चाहिए?
प्राचीन समय की वर्ण व्यवस्था और आज के समय की जाति व्यवस्था में जमीन-आसमान का अंतर है. आज के दलितों का शूद्र वर्ण से कोई लेना-देना है ही नहीं.
महाभारत (12.188) में भृगु ऋषि बताते हैं-
“पहले वर्णों में कोई अंतर नहीं था. ब्रह्माजी से उत्पन्न होने के कारण यह सारा जगत ब्राह्मण ही था. पीछे विभिन्न कर्मों के कारण उनमें वर्णभेद हो गया. जो विषयभोग के प्रेमी, तीखे स्वभाव वाले, क्रोधी और साहस का काम पसंद करने वाले हो गये, वे ब्राह्मण क्षत्रिय भाव को प्राप्त हुए (वे क्षत्रिय कहलाने लगे). जिन्होंने पशुपालन तथा कृषि आदि कर्मों के द्वारा जीविका चलाने की वृत्ति अपना ली, वे ही ब्राह्मण वैश्यभाव को प्राप्त हुए. जो शौच और सदाचार से भ्रष्ट होकर हिंसा और असत्य के प्रेमी हो गये, लोभवश व्याधों के समान सभी तरह के निन्ध कर्म करके जीविका चलाने लगे, वे ब्राह्मण शूद्रभाव को प्राप्त हो गये. इन्हीं कर्मों के कारण ब्राह्मणत्त्व से अलग होकर वे सभी ब्राह्मण दूसरे-दूसरे वर्ण के हो गये, किंतु उनके लिये नित्यधर्मानुष्ठान और यज्ञ कर्म का कभी निषेध नहीं किया गया है. परंतु लोभविशेष के कारण शूद्र अज्ञानभाव को प्राप्त हुए, अतः वे वेदाध्ययन के अनधिकारी हो गये.”
• निश्चित सी बात है कि जो लोग केवल अपना स्वार्थ देखते हैं, और किसी भी प्रकार के निंदनीय या अनैतिक कर्म करके जीविका चलाने या धन कमाने को तैयार हो जाते हैं, यदि ऐसे लोगों को कोई सिद्धि प्राप्त हो जाती है, तो वह समाज के हित में कभी नहीं होगा.
श्रीमद्भगवद्गीताशाङ्करभाष्यम् में कहा गया है कि “ब्राह्मण उस व्यक्ति को दिया गया एक पद है जिसमें सत्त्व की प्रधानता होती है, और शूद्र वह है जिसमें तमस की प्रधानता है. ये गुण व्यक्ति के प्राकृतिक स्वभाव और व्यवहार से प्रकट होते हैं.”
महाभारत (3.177) में-
सर्प (नहुष) ने पूछा- “राजा युधिष्ठिर! यह बताओ कि ब्राह्मण कौन है?”
युधिष्ठिर ने कहा- “नागराज! जिसमें सत्य, दान, क्षमा, सुशीलता, क्रूरता का अभाव, तपस्या और दया- ये सद्गुण दिखाई देते हैं, उसी को ब्राह्मण कहा गया है.”
तब सर्प बोला- “युधिष्ठिर! सत्य, दान, अक्रोध, क्रूरता का अभाव, अहिंसा और दया आदि सद्गुण तो शूद्रों में भी हो सकते हैं.”
तब युधिष्ठिर ने कहा- “यदि शूद्र में सत्य आदि उपर्युक्त लक्षण हैं तो वह शूद्र शूद्र नहीं है, और यदि ये लक्षण ब्राह्मण में नहीं हैं तो वह ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है. जिसमें ये सत्य आदि लक्षण मौजूद हों, उसी को ब्राह्मण माना गया है और जिसमें इन लक्षणों का अभाव हो, उसे शूद्र कहना चाहिये.”
महाभारत के अनुशासन पर्व 143 में भगवान शिव ने कहा है, “हे गिरिराजकुमारी! ब्राह्मणत्व की प्राप्ति में न तो केवल योनि, न संस्कार, न शास्त्रज्ञान और न संतति ही कारण है. ब्राह्मणत्व का प्रधान हेतु तो सदाचार ही है. लोक में यह सारा ब्राह्मण समुदाय सदाचार से ही अपने पद पर बना हुआ है. सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता है.”
महाभारत के वनपर्व 313 में युधिष्ठिर कहते हैं, “न तो कुल ब्राह्मणत्व में कारण है न स्वाध्याय और न शास्त्रश्रवण. ब्राह्मणत्व का हेतु आचार ही है. इसलिये प्रयत्नपूर्वक सदाचार की ही रक्षा करनी चाहिये.”
महाभारत आदि के अनुसार किसी किसान, सफाईकर्मी, मजदूर या शिल्पकार आदि को शूद्र वर्ग में नहीं रखा गया है. व्याध जैसे कर्मों को या चमड़ा बेचने या मांस बेचने और खाने वालों आदि को शूद्र वर्ग में रखा गया है. भला किसानी, शिल्पकारी या मजदूरी या साफ-सफाई करना शूद्रता की निशानी हो भी कैसे सकता है? ऐसे कार्यों को छोटा मानने की मानसिकता तो कलियुगी लोगों की है.
महाभारत के अनुशासन पर्व अध्याय १४३ में भगवान शिव ने शूद्रों के लिए वो नियम बताये हैं, जिनका पालन करके शूद्र ब्राह्मणतत्व को प्राप्त कर सकते हैं, उनमें से एक नियम यह भी बताया है कि “जो शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त करना चाहता है, उसे मांसाहार का त्याग कर देना चाहिए.”
• यदि ब्राह्मणत्व और शूद्रत्व में अंतर समझना हो तो सुदामा को देखिये जो गरीबी की चरम सीमा को देखकर भी कोई अनैतिक कार्य करने को तैयार नहीं होते. इसी के साथ, आपको व्याध गीता भी पढ़नी चाहिए.
यदि महाभारत आदि के अनुसार देखा जाये तो आज जितने भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलित अपने स्वार्थ के लिए या धर्म के नाम पर जीवहत्या का समर्थन करते हैं, मांसाहार करते हैं व मांसाहार का समर्थन करते हैं, वे सब के सब शूद्र ही हैं.
आज कितने ही धूर्त “पंडित” मांसाहार करते हैं, किसी न किसी बहाने मांसाहार व पशुबलि का समर्थन करते रहते हैं और लोगों को ज्ञान व उपदेश भी दे रहे हैं, और आज ऐसे ही लोग संत व ज्ञानी भी कहला रहे हैं.
और ऐसे लोग किस प्रकार के उपदेश और ज्ञान देते हैं, यह बताने की आवश्यकता तो है नहीं. जैसे आज लगभग हर मांसलोभी व्यक्ति भगवान को, प्राचीन ऋषियों को या महान पूर्वजों को मांसाहारी साबित करने में जुटा हुआ है. आज लोग प्रवचन देते हैं तो अपने मतों और स्वार्थ के समर्थन हेतु, जिसके लिए वे शास्त्रों में अर्थ का अनर्थ करते रहते हैं. ऐसे लोग शास्त्र पढ़ते ही इसलिए हैं ताकि उनके शब्दों को खींचतान कर अपने मतलब का अर्थ निकाल सकें, और इसीलिए ऐसे लोगों को वेदों से दूर रखने को कहा गया है, क्योंकि ऐसे लोग अपने मनमाने अर्थ से शास्त्रों-ग्रंथों को दूषित कर देते हैं.
ये कलियुग के ही तो लक्षण हैं.
महाभारत के वनपर्व के अध्याय १९० में कलयुग का वर्णन बताते हुए लिखा है कि-
“युगान्तकाल में सारा विश्व एक वर्ण, एक जाति का हो जायेगा. शूद्र धर्मोंपदेश करेंगे ओर ब्राह्मण लोग उनकी सेवा में रहकर उसे सुनेंगे तथा उसी को प्रामाणिक मानकर उसका पालन करेंगे. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये आपस में संतानोत्पादन करके वर्णसंकर हो जायेंगे. वे सभी तपस्या और सत्य से रहित हो शूद्रों के समान हो जायेंगे. मनुष्य मलेच्छों-जैसे आचार वाले और सर्वभक्षी यानि अभक्ष्य का भी भक्षण करने वाले हो जायेंगे. वे प्रत्येक कर्म में अपनी क्रूरता का परिचय देंगे, इसमें संशय नहीं है. चाण्डाल आदि क्षत्रिय-वैश्य आदि के कर्म करेंगे और क्षत्रिय-वैश्य आदि चाण्डालों के कर्म अपना लेंगे. कितने ही लोग मछली के मांस से जीविका चलायेंगे.
सब लोग लोभ और मोह में फंसकर भक्ष्याभक्ष्य का विचार किये बिना ही एक साथ सम्मिलित होकर भोजन करने लगेंगे. कोरे तर्कवाद से मोहित होकर वे यज्ञ और होम छोड़ बैठेंगे. वे केवल तर्कवाद से मोहित होकर नीच-से-नीच कर्म करने के लिये प्रयत्नशील रहेंगे. सारा संसार म्लेच्छों की भाँति शुभ कर्म और यज्ञ-यागादि छोड़ देगा. अपने को पण्डित मानने वाले मनुष्य संसार में सत्य को मिटा देंगे. युगान्तकाल उपस्थित होने पर कायर अपने को शूर-वीर मानेंगे और शूर-वीर कायरों की भाँति विषाद में डूबे रहेंगे.
युगान्तकाल के मनुष्य जपरहित, नास्तिक और चोरी करने वाले होंगे. जब दूसरों के जीवन का विनाश करने वाले क्रूर, भयंकर तथा जीवहिंसक मनुष्य पैदा होने लगें, तब समझ लेना चाहिये कि युगान्तकाल उपस्थित हो गया. जब सब मानव सदा भयंकर स्वभाव वाले, धर्महीन, मांसखोर और शराबी हो जायेंगे, उस समय युग का संहार होगा.”
Written By : Aditi Singhal (Working in the media)
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