Bhagavad Gita Chapter 13 : श्रीमद् भगवद् गीता – तेरहवाँ अध्याय (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग)

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महाभारत की ऐतिहासिकता

Bhagavad Gita Chapter 13 (Kshetra Kshetragya Vibhaga Yoga)

गीता के १२वें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने सगुण और निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठता के विषय में प्रश्न किया था. उनका उत्तर देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने दूसरे श्लोक में संक्षेप में सगुण उपासकों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करके तीसरे से पांचवे श्लोक तक निर्गुण उपासना का स्वरूप, उसका फल और देहाभिमानियों के लिये उनके अनुष्ठान में कठिनता का निरूपण किया.

उसके बाद छठे से बीसवें श्लोक तक सगुण उपासना महत्त्व, फल, प्रकार और भगवद्भक्तों के लक्षणों का वर्णन करते करते ही अध्याय की समाप्ति हो गयी. निर्गुण का तत्त्व, महिमा और उसकी प्राप्ति के साधनों को विस्तारपूर्वक नहीं समझाया गया. अतः निर्गुण निराकार का तत्त्व अर्थात ज्ञानयोग विषय भलीभाँति समझने के लिये तेरहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है. इसमें पहले भगवान क्षेत्र (शरीर) तथा क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के लक्षण बतलाते हैं-

भगवद्गीता – त्रयोदश अध्याय (Gita 13 Kshetra Kshetragya Vibhaga Yoga)

(Bhagwat Geeta Adhyay 13 Shlok in Sanskrit)

अर्जुन उवाच

प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव॥१॥

श्रीभगवानुवाच

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥२॥
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥३॥

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श‍ृणु॥४॥
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः॥५॥

महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः॥६॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥७॥

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥८॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥९॥

असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥१०॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥११॥

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥१२॥
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥१३॥

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥१४॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥१५॥

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥१६॥
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥१७॥

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥१८॥
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥१९॥

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्॥२०॥
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥२१॥

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥२२॥
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥२३॥

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥२४॥
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥२५॥

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥२६॥
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥२७॥

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥२८॥
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥२९॥

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति॥३०॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥३१॥

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥३२॥
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥३३॥

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥३४॥
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥३५॥


भावार्थ (तेरहवाँ अध्याय) (Gita 13 Kshetra Kshetragya Vibhaga Yoga)

(Bhagwat Geeta Adhyay 13 in Hindi)

अर्जुन ने कहा- हे केशव! मैं प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान और ज्ञेय को जानना चाहता हूँ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हे अर्जुन! इस शरीर को ‘क्षेत्र’ कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं॥ (जैसे खेत में बोये हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इस शरीर में बोये हुए कर्म-संस्कार रूपी बीजों का फल भी समय पर प्रकट होता है. इसके अतिरिक्त इसका प्रतिक्षण क्षय होता रहता है, इसलिये भी इसे ‘क्षेत्र’ कहते हैं.)

हे अर्जुन! तुम सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जानो (गीता अध्याय 15 श्लोक 7 और उसकी टिप्पणी को देखें) और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से जानना है (गीता अध्याय 13 श्लोक 23 और उसकी टिप्पणी देखें) वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है॥2॥ वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाव वाला है- वह सब संक्षेप में तुम मुझसे सुनो॥3॥

यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेदमंत्रों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है॥4॥

पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध॥5॥ तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देह का पिण्ड, चेतना (शरीर और अन्तःकरण की एक प्रकार की चेतन-शक्ति) और धृति (गीता अध्याय 18 श्लोक 34 व 35 तक देखें) इस प्रकार विकारों (पाँचवें श्लोक में कहे हुए को क्षेत्र का स्वरूप समझना चाहिए और इस श्लोक में कहे हुए इच्छादि को क्षेत्र के विकार समझने चाहिए) के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया॥6॥

(वाक्, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा पाँच कर्मेन्द्रियाँ है. तथा श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, और घ्राण यह पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है. ये सब मिलकर दस इन्द्रियाँ हैं).

मनुष्य जिन पदार्थाें को सुख का हेतु या दुःखनाशक समझता है, उन पदार्थों को प्राप्त करने की आप्तियुक्त जो कामना है जिसके वासना, तृणा, आशा, लालसा, और स्पृहा आदि अनेक भेद हैं, उसी का वाचन यहाँ इच्छा शब्द है. जिन पदार्थों को मनुष्य दुख का हेतु या सुख में बाधक समझता है, उनमें जो विरोध बुद्धि होती है, उसका नाम द्वेष है. इसके स्थूल रूप वैर, ईर्ष्या, घृणा, क्रोध आदि हैं. अनुकूल की प्राप्ति और प्रतिकूल की निवृति से अन्तःकरण में जो प्रसन्नता की वृति होती है, उसका नाम ‘सुख’ है. प्रतिकूल प्राप्ति और अनुकूल के विनाश से जो अन्तःकरण में जो व्याकुलता होती है, जिसे व्यथा भी कहते हैं, उसका वाचन ‘दुख’ है.

जब मनुष्य यह जान लेता है कि उसका शरीर भूमि का एक टुकड़ा अर्थात एक क्षेत्र है, और वह मनुष्य उस शरीर में रहने वाला, उस शरीर को समझने वाला अर्थात क्षेत्रज्ञ है, तब वह मनुष्य अपने शरीर के माध्यम से अपनी प्रगति को साध पाता है.

श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता (जिस साधक में मन, वाणी और शरीर की सरलता का भाव पूर्ण रूप से आ जाता है, वह सबके साथ सरलता का व्यवहार करता है; उसमें कुटिलता का सर्वथा अभाव हो जाता है. अर्थात उसके व्यवहार में दाव-पेंच, कपट या टेढ़ापन जरा भी नहींं रहता; वह बाहर और भीतर ने समान और सरल रहता है), श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि (सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिका आदि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं

तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अंतःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है. शरीर और मन, दोनों ही प्रकार की शुद्धि को ‘शौच’ कहा जाता है) अंतःकरण की स्थिरता (बड़े-से-बड़े कष्ट, विपत्ति या दुःख के आ पड़ने पर भी विचलित न होना एवं काम, क्रोध, भय, लोभ, आदि से किसी भी प्रकार अपने धर्म और कर्तव्य से न डिगना तथा मन और बुद्धि में किसी तरह की चंचलता का न रहना अन्तःकरण की स्थिरता है) और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह (अपने अंतःकरण व इन्द्रियों को भली-भाँति अपने वश में कर लेना निग्रह करना है)॥7॥

इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना॥8॥ पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना॥9॥

मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति (केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परमप्रेम से भगवान का निरंतर चिंतन करना ‘अव्यभिचारिणी’ भक्ति है) तथा एकांत और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना॥10॥

अध्यात्म ज्ञान में (जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम ‘अध्यात्म ज्ञान’ है) नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान (इस अध्याय के श्लोक 7 से लेकर यहाँ तक जो साधन कहे हैं, वे सब तत्वज्ञान की प्राप्ति में हेतु होने से ‘ज्ञान’ नाम से कहे गए हैं) है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान (ऊपर कहे हुए ज्ञान के साधनों से विपरीत तो मान, दम्भ, हिंसा आदि हैं, वे अज्ञान की वृद्धि में हेतु होने से ‘अज्ञान’ नाम से कहे गए हैं) है॥11॥

अर्जुन! जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परम आनंद को प्राप्त होता है, उसको मैं भलीभाँति कहूँगा. वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत्‌ ही कहा जाता है, न असत्‌ ही॥12॥ वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है. (आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण रूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारण रूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है)॥13॥

वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, किन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है॥14॥ वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है. और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय (जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है) है तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यंत समीप है) और दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है॥15॥

वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है (जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है॥16॥

वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति (गीता अध्याय 15 श्लोक 12 में देखें) एवं माया से अत्यंत परे कहा जाता है. वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है॥17॥ इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप में कहा गया. मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥18॥ प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तुम अनादि जानो और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जानो॥19॥

क्षेत्र को प्रकृति कार्य, जड़, विकारी, अनित्य और नाशवान् समझना, ज्ञान के साधनों को भलीभाँति धारण करना और उसके द्वारा भगवान के निर्गुण-सगुण रूप को भलीभाँति समझ लेना- यही क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को जानना है तथा उस ज्ञेयस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाना ही भगवान के स्वरूपों को प्राप्त हो जाना है.

कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध- इनका नाम ‘कार्य’ है) और करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्‌, हस्त, पाद (पैर), उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम ‘करण’ है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःख को भोगने में हेतु कहा जाता है॥20॥

प्रकृति में (प्रकृति शब्द का अर्थ गीता अध्याय 7 श्लोक 14 में कही हुई भगवान की त्रिगुणमयी माया समझना चाहिए) स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है. (सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और तमो गुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है)॥21॥

मनुष्य से लेकर ऊँची जितनी भी देव आदि योनियाँ हैं, सब सत्-योनियाँ हैं और मनुष्य से नीची जितनी भी पशु, पक्षी, वृक्ष, लता आदि योनियाँ हैं, वे असत् हैं. सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के साथ जो जीव का अनादिसिद्ध संबंध है एवं उनके कार्य रूप सांसारिक पदार्थों में जो आसक्ति होगी, उसकी वैसी ही वासना होगी, वासना के अनुसार ही अंतकाल में स्मृति होगी और उसी के अनुसार उसे पुनर्जन्म प्राप्त होगा. इसीलिये यहाँ अच्छी-बुरी योनियों की प्राप्ति में गुणों के संग को कारण बतलाया गया है.

इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है. वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता (अनुमति देने वाला), सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है॥22॥

इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है (दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान, जड़ और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध, बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों (माया से बना हुआ) के संग का सर्वथा त्याग करके परम पुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको ‘तत्व से जानना’ है) वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता॥23॥

उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान (गीता अध्याय 6 में श्लोक 11 से 32 तक) द्वारा हृदय में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोग (गीता अध्याय 2 में श्लोक 11 से 30) द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग (गीता अध्याय 2 में श्लोक 40) द्वारा देखते हैं अर्थात प्राप्त करते हैं॥24॥ किन्तु इनसे दूसरे अर्थात जो मंदबुद्धि वाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निःसंदेह तर जाते हैं॥25॥

हे अर्जुन! जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जानो॥26॥ जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है वही यथार्थ देखता है॥27॥ क्योंकि जो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है॥28॥ और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है॥29॥

जिस क्षण यह पुरुष भूतों (सब प्रकार के प्राणी) के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥30॥ हे अर्जुन! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है॥31॥ जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होती॥32॥

हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है॥33॥ इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को (क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही ‘उनके भेद को जानना’ है) तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं॥34॥

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