Why Sita Went to Vanvas
भगवान श्रीराम ने अपने तीनों भाईयों को बुलाया और लक्ष्मण जी को अपने चरणों और जीवन की शपथ देकर यह आज्ञा दी कि वे सीताजी को गंगा के पार तमसा नदी के तट पर महात्मा वाल्मीकि जी के दिव्य आश्रम के पास छोड़ आयें. तीनों भाईयों ने देखा कि उस समय श्रीराम के नेत्रों से आंसुओं की धारा बह रही थी, उनके मुखारविन्द की शोभा छिन गयी थी, लेकिन वे स्वयं को कठोर बनाये हुए थे.
तब लक्ष्मण जी ने मन-ही-मन दुःखी हो सूखे मुख से सुमन्त से कहा-
“सारथे! एक उत्तम रथ में शीघ्रगामी घोड़ों को जोतो और उस रथ में सीता देवी के लिये सुन्दर आसन बिछा दो.”
सीताजी के साथ भागीरथी की जलधारा तक पहुंचकर लक्ष्मण जी उसकी ओर देखते हुए दुःखी हो उच्च स्वर से फूट-फूटकर रोने लगे. लक्ष्मणजी को शोक से आतुर देख धर्मज्ञा सीताजी अत्यंत चिंतित हो उनसे बोलीं–
“लक्ष्मण! यह क्या? तुम रो क्यों रहे हो? गंगा के तट पर आकर तो मेरी अभिलाषा पूर्ण हुई है. इस हर्ष के समय तुम रोकर मुझे दुखी क्यों कर रहे हो? इस प्रकार नादान मत बनो. मुझे गंगा के उस पार ले चलो और तपस्वी मुनियों के दर्शन कराओ. मैं उन्हें वस्त्र और आभूषण दूँगी. हम महर्षियों का अभिवादन करके और वहां एक रात ठहरकर पुनः अयोध्यापुरी को लौट चलेंगे. तुम्हारे ही समान मेरा भी मन महाराज (श्रीराम) के दर्शन के लिए उतावला हो रहा है.”
लक्ष्मण जी ने की मृत्यु की इच्छा
तब लक्ष्मण जी ने अपने आंसू पोंछ लिए और भारी मन से नाविकों को बुलाया. भागीरथी के उस पार पहुंचकर लक्ष्मणजी फिर रोने लगे और हाथ जोड़कर सीताजी से बोले-
“माता! आज रघुनाथजी ने बुद्धिमान् होकर भी मुझे वह कार्य सौंपा है, जिसके कारण लोक में मेरी बड़ी निंदा होगी. इस दशा में यदि मुझे मृत्यु के समान यंत्रणा प्राप्त होती अथवा मेरी साक्षात् मृत्यु ही हो जाती तो वह मेरे लिये परम कल्याणकारक होती.”
ऐसा कहकर हाथ जोड़े हुए लक्ष्मणजी पृथ्वी पर गिर पड़े. लक्ष्मण जी हाथ जोड़कर रो रहे हैं और अपनी मृत्यु चाह रहे हैं, यह देखकर सीतजी अत्यंत चिंतित हो उठीं और लक्ष्मणजी से बोलीं-
“लक्ष्मण! क्या बात है? मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ. ठीक-ठीक बताओ. महाराज कुशल से तो हैं न? तुम्हें महाराज की शपथ है, जिस बात से तुम्हें इतना संताप हो रहा है, वह मुझे बताओ.”
सीताजी ने लक्ष्मण जी को दी यह आज्ञा
तब लक्ष्मण जी ने दुखी मन से मुख नीचे किये सीताजी को सारी बात बता दी, जिसे सुनकर सीताजी मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं. फिर थोड़ी देर बार वे स्वयं को संभालती हैं और रोते हुए लक्ष्मण जी को यह आज्ञा देती हैं कि-
“सुमित्रानन्दन! तुम तो वही करो, जैसी महाराज ने तुम्हें आज्ञा दी है. मेरी सब सासुओं को समान रूप से हाथ जोड़कर मेरी ओर से उनके चरणों में प्रणाम करना, साथ ही महाराज के भी चरणों में मस्तक नवाकर मेरी ओर से उनकी कुशल पूछना और उनसे कहना कि लोगों में आपकी जो निंदा हो रही है अथवा मेरे कारण जो अपवाद फैल रहा है, उसे दूर करना मेरा भी कर्तव्य है. लक्ष्मण! तुम महाराज से कहना कि आप धर्मपूर्वक बड़ी सावधानी से रहकर पुरवासियों के साथ वैसा ही बर्ताव करें, जैसा अपने भाईयों के साथ करते हैं. यही आपका परम धर्म है. जिस प्रकार से भी पुरवासियों के अपवाद से बचकर रहा जा सके, आप उसी प्रकार रहें. लक्ष्मण! मेरी ओर से सारी बातें तुम श्रीरघुनाथजी से कहना और आज तुम भी मुझे (अंतिम बार) देख जाओ.”
सीताजी के इस प्रकार कहने पर लक्ष्मणजी का मन बहुत दुःखी हो गया. उन्होंने धरती पर माथा टेककर प्रणाम किया. उस समय उनके मुख से कोई भी बात नहीं निकल सकी. उन्होंने रोते हुए ही सीता माता की परिक्रमा की, सीताजी को पुनः प्रणाम किया और फिर वे नाव पर चढ़ गये. शोक के भार से दबे हुए लक्ष्मणजी गङ्गाजी के उत्तरी तट पर पहुंचकर दुःख के कारण अचेत-से हो गये.
वहीं, सीताजी अत्यंत दुखी होकर जोर-जोर से रोने लगीं. कुछ देर बाद ही महर्षि वाल्मीकि जी वहां आये और सीताजी को अपनी पुत्री बनाकर अपने आश्रम में ले गए. उन्होंने आश्रम की सभी स्त्रियों को यह आज्ञा दी कि वे सीता जी पर स्नेह की दृष्टि रखें और उनका विशेष ध्यान रखें.
लक्ष्मण जी ने श्रीराम के लिए कही यह बात
दूसरी ओर, लक्ष्मण जी दुखी होकर सारथि सुमन्त से बोले–
“सूत! देखो तो सही, श्रीराम को अभी से सीताजी के विरहजनित संताप का कष्ट भोगना पड़ रहा है. भला श्रीरघुनाथजी को इससे बढ़कर दुःख क्या होगा कि उन्हें अपनी पवित्र आचरण वाली सीता का परित्याग करना पड़ा. सारथे! रघुनाथजी को सीताजी का जो यह नित्य वियोग प्राप्त हुआ है, इसमें मैं दैव (प्रारब्ध) को ही कारण मानता हूँ. परंतु पुरवासियों की बात सुनकर (श्रीराम के द्वारा) ऐसा कर बैठना मुझे अत्यंत निर्दयतापूर्ण कर्म जान पड़ता है. सूत! सीताजी के विषय में अन्यायपूर्ण बात कहने वाले इन पुरवासियों के कारण ऐसे कीर्तिनाशक कर्म में प्रवृत्त होकर श्रीरामचन्द्रजी ने किस धर्मराशि का उपार्जन कर लिया है?”
लक्ष्मण जी के मुख से ऐसी बातें सुनकर सुमंत ने उन्हें बताया-
“सुमित्रानन्दन! सीताजी के लिए आपको इस प्रकार दुखी नहीं होना चाहिए. दैव के विधान को लांघना बहुत कठिन है. राजकुमार लक्ष्मण! यह बात ब्राह्मणों ने आपके पिताजी के सामने ही जान ली थी. ऋषि दुर्वासा जी ने आपके पिताजी से कहा था कि श्रीराम निश्चय ही अधिक दुःख उठाएंगे. प्रायः उनका सुख छिन जायेगा. श्रीराम को शीघ्र ही अपने प्रियजनों से वियोग प्राप्त होगा. सुमित्रानन्दन! दीर्घकाल के बाद महाराज श्रीराम भरत को, आपको और शत्रुघ्न को भी त्याग देंगे. राजकुमार लक्ष्मण! यद्यपि महाराज दशरथ ने इस रहस्य को दूसरों के सामने प्रकट न करने का मुझे आदेश दिया था, फिर भी आज मैं आपको वह बात बताता हूँ. भैया! आप भरत और शत्रुघ्न के सामने यह बात मत कहना.”
सुमंत ने लक्ष्मण को बताया सत्य
“सुमित्रानन्दन! महर्षि दुर्वासा ने आपके पिता महाराज दशरथ को बताया था कि
राजन्! सुनिये, प्राचीन काल की बात है, एक बार देवासुर संग्राम में देवताओं से पराजित हुए दैत्यों ने महर्षि भृगु की पत्नी से शरण मांगी. भृगु की पत्नी ने दैत्यों को शरण दे दी. उनकी शरण में दैत्य निर्भय होकर रहने लगे. यह देखकर कुपित हुए देवेश्वर भगवान् विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उनका सिर काट दिया. अपनी पत्नी का वध हुआ देख भृगु ऋषि ने सहसा कुपित होकर भगवान् विष्णु को शाप दे दिया.”
“हे जनार्दन! मेरी पत्नी वध के योग्य नहीं थी. परंतु आपने क्रोध में आकर उसका वध किया है, इसलिए आपको भी मनुष्यलोक में जन्म लेना पड़ेगा और वहाँ बहुत वर्षों तक आपको भी पत्नी-वियोग का कष्ट सहना पड़ेगा.”
“परन्तु इस प्रकार शाप देकर उनके मन को बड़ा पश्चात्ताप हुआ. तब भृगु ऋषि ने तपस्या द्वारा भगवान् विष्णु की आराधना की. तपस्या द्वारा उनकी आराधना करने पर भक्तवत्सल भगवान् विष्णु ने संतुष्ट होकर कहा–
“‘महर्षि! सम्पूर्ण जगत् का प्रिय करने के लिए मैं आपके उस शाप को ग्रहण कर लूँगा.’ महाराज दशरथ! वे भगवान् विष्णु ही भूतल पर आकर (आपके पुत्र) राम नाम से विख्यात हुए हैं. भृगु ऋषि का शाप भी उन्हें भोगना ही पड़ेगा. श्रीराम दीर्घकाल तक अयोध्या के राजा होकर रहेंगे, बहुत-से राजवंशों की स्थापना करेंगे. श्रीराम से प्रेम करने वाले लोग बहुत सुखी और धन-धान्य से संपन्न होंगे. श्रीरघुनाथजी को सीता के गर्भ से दो पुत्र प्राप्त होंगे. श्रीरघुनाथजी अपने दोनों पुत्रों का अभिषेक अयोध्या से बाहर करेंगे. श्रीराम ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करके अंत में वैकुण्ठ धाम को पधारेंगे. अतः लक्ष्मण भैया! आपको सीताजी तथा रघुनाथजी के लिये संताप नहीं करना चाहिये. आप धैर्य धारण करें.”
सूत सुमंत के मुख से यह रहस्य जानकर लक्ष्मणजी को अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ.
(स्रोत : वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड)
Read Also :
श्रीराम ने सीताजी को वनवास क्यों दिया?
श्रीराम ने शम्बूक का वध क्यों किया?
वाल्मीकि रामायण : श्रीराम ने क्यों ली थी सीताजी की अग्नि परीक्षा?
क्या श्रीराम भगवान् हैं?
दुनियाभर में रामायण और श्रीराम के निशान
Tags : why did sita go to vanvas again, why ram left sita in forest, why did rama leave sita when she was pregnant, why sita did not return to ayodhya, why sita went to vanvas, ram ne sita ko kyon chhoda
Copyrighted Material © 2019 - 2024 Prinsli.com - All rights reserved
All content on this website is copyrighted. It is prohibited to copy, publish or distribute the content and images of this website through any website, book, newspaper, software, videos, YouTube Channel or any other medium without written permission. You are not authorized to alter, obscure or remove any proprietary information, copyright or logo from this Website in any way. If any of these rules are violated, it will be strongly protested and legal action will be taken.
Be the first to comment