Bhagwan Shri Vishnu Stuti- Jai Jai Surnayak Jan Sukhdayak
प्रकृति के बनाए नियम के अनुसार, जो भी कर्म करेगा, तप करेगा, कठिन परिश्रम करेगा, उसे शक्तियां मिलेंगी. फिर चाहे वह देवता हो या राक्षस, पुरुष हो या स्त्री, या किसी भी वर्ण का अनुसरण करता हो. प्रकृति के इसी नियम के अनुसार रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद आदि सहित अनेकों राक्षसों ने कठोर तपस्या करके बड़ी शक्तियां अर्जित कर लीं. लेकिन गलत हाथों में शक्तियां आ जाने से बड़े भयंकर परिणाम देखने को मिलते हैं. शक्तियों के मद में चूर रावण का अहंकार और आतंक बढ़ता ही चला गया.
रावण और उसकी राक्षस सेना के आतंक का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी (Goswami Tulsidas) रामचरितमानस (Ramcharitmanas) में लिखते हैं कि, “जिनकी प्रीति हिंसा पर ही होती है, उनके पापों का क्या ठिकाना. राक्षसों ने मनुष्यों, संतों, ब्राह्मणों, स्त्रियों, गौओं और अन्य जीव-जंतुओं का भी जीना मुश्किल कर दिया. अपने अत्याचारों से सबको त्रस्त कर दिया. रावण के बड़े पुत्र मेघनाद के आतंक से तो स्वर्गलोक में अक्सर भगदड़ मची रहती”.
दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदन्त, धूमकेतु और अतिकाय आदि जैसे राक्षस अकेले ही जगत को जीतने की क्षमता रखते थे. रावण का भाई कुम्भकर्ण मदिरा पीकर छह महीने सोता और जागते ही तहलका मचा देता. राक्षसों के अंदर दया-धर्म सपने में भी नहीं था. उन लोगों के आतंक से सभी ऋषि-मुनि, देवी-देवता आदि अत्यंत भयभीत रहते थे.”
तुलसीदास जी लिखते हैं कि, “राक्षस जितने भयंकर, दुष्ट, कुटिल, निर्दयी, हिंसक, पापी, विवेकरहित और संसार भर को दुख देने वाले हुए, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता है. वे मांस खाते थे, स्त्रियों से जबरन विवाह रचाते थे. देवताओं को ललकारकर उन्हें गालियां देते थे. जिस स्थान में वे गो और संतों-ब्राह्मणों को पाते, उसी नगर और गांव में आग लगा देते थे. इस तरह, धर्म की जड़ें काटने और अधर्म का राज फैलाने के लिए वे हर कार्य वेदविरुद्ध ही करते थे”.
लेकिन प्रकृति में हर चीज की एक सीमा जरूर होती है. सभी राक्षस अयोध्या के वीर और प्रतापी राजा दशरथ, मुनि वशिष्ठ, विश्वामित्र जैसे महर्षियों और शक्तिशाली वानरों आदि से दूर ही रहते थे, लेकिन ये सब भी रावण, मेघनाद आदि को मार नहीं सकते थे, अतः धरती पर पाप, अधर्म, अनीति का राज बढ़ता ही जा रहा था.
तुलसीदास जी आगे लिखते हैं कि, “इस प्रकार धर्म के प्रति लोगों की रुचि और आस्था को कम होता देख पृथ्वी माता (जिन देवी के हाथों में पूरी पृथ्वी का कार्यभार है) अत्यंत भयभीत और व्याकुल हो गईं. वह कहने लगीं कि, ‘पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे दूसरों का अनिष्ट करने वाला लगता है.’ यही सोचते-सोचते पृथ्वी मां वहां गईं, जहां सब देवता और संत छिपे हुए थे. फिर सभी मिलकर ब्रह्मा जी के पास गए. तब ब्रह्मा जी ने बताया कि उनके वश में भी कुछ नहीं है.
ब्रह्मा जी ने पृथ्वी माता सहित सभी देवताओं और मुनियों आदि को भगवान विष्णु जी की शरण में जाने के लिए कहा. तब सभी देवताओं ने कहा कि, ‘अब उन्हें कहां ढूंढें? बैकुंठ में या क्षीर सागर में?’
तब ब्रह्मा जी ने बताया कि, “वे सब जगह होते हुए भी सबसे रहित हैं. जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, भगवान उसके लिए उसी रीति से प्रकट होते हैं. जैसे अग्नि को प्रकट करने के लिए उससे संबंधित सभी साधन जुटाने पड़ते हैं, उसी तरह भगवान को प्रकट करने के लिए भी हृदय में उनके लिए प्रेम जुटाना पड़ता है.”
ब्रह्मा जी की बात सुनकर सभी देवी-देवता हाथ जोड़कर प्रेम और पूरे भक्तिभाव से भगवान श्री विष्णु जी का ध्यान और स्तुति करने लगे-
फिर देवों ने कहा, “पृथ्वी पर धर्म और सत्य का नाश हो रहा है. पाप की शक्तियां बढ़ रही हैं. आज अबलाओं की लाज और मानव की मानवता संकट में है. राक्षसों का राजा रावण अहंकार के मद में चूर सबको अपने पैरों तले रौंदने को तैयार है. कोई उसका सामना करने की हिम्मत नहीं करता, क्योंकि कर्म के विधान के अनुसार, स्वयं ब्रह्मा जी और भगवान शिव का उसे वरदान प्राप्त है.”
“आज वो अवस्था आ गई है, जब कोई धर्म और सत्य के रास्ते पर चलने की कोशिश करे, तो वह जीवित ही नहीं रह सकता. आज हर प्राणी पाप और भ्रष्टाचार के रास्ते पर चलने के लिए विवश किया जा रहा है. जब ऐसी अवस्था आ जाए, तब सत्य और विश्वास की रक्षा के लिए किसी महान शक्ति का अवतार लेना आवश्यक हो जाता है.”
तभी आकाशवाणी हुई. सबकी ऐसी करुण पुकार सुन भगवान श्री विष्णु ने सभी देवताओं आदि को भयमुक्त करते हुए कहा कि-
“पापी के पाप में ही उसके नाश का बीज छिपा होता है. जो रावण ये समझता है कि इस संसार में अब उससे बढ़कर कोई शक्ति नहीं रही, उसका नाश भी उसी अहंकार में छिपा हुआ है. उसी अहंकार के कारण उसने वरदान मांगते समय मनुष्य और वानर के हाथों न मरने का वरदान नहीं मांगा था” (क्योंकि रावण को लगता था कि, ‘जब मुझे हराना देवताओं तक के वश की बात नहीं रही, तो भला ये मनुष्य और वानर आदि मेरा क्या बिगाड़ लेंगे’).
“डरो मत. तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करके पवित्र सूर्यवंश में अपनी कलाओं और अपनी पराशक्ति (महालक्ष्मी जी) सहित अवतार लूंगा. कश्यप और अदिति ने भारी तप करके मुझे पुत्र रूप में पाने का वरदान मांगा था. वे दोनों ही दशरथ और कौसल्या के रूप में अयोध्यापुरी में हैं. उन्हीं के घर जाकर मैं श्रेष्ठ चार भाइयों के रूप में अवतार लूंगा और धरती को सभी राक्षसों के आतंक से मुक्त करूंगा. अंत में जीत सदा सत्य की ही होगी.”
यह सुनकर सभी देवी-देवता आदि बहुत प्रसन्न हुए. तब ब्रह्माजी ने देवताओं को भी आज्ञा दी कि वे भी वानरों का शरीर धारण करके पृथ्वी पर जाकर भगवान की सेवा और सहायता करें. और तब देवताओं ने पृथ्वी पर वानरदेह धारण की और पर्वतों और जंगलों में जहां-तहां अपनी-अपनी सेना बनाकर छा गए. वे सभी वानर (देवता) शूरवीर थे और उनमें अपार बल और प्रताप था. पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके शस्त्र थे. वे सभी देवता वानर रूप धारण कर भगवान के आने की राह देखने लगे.
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