Bali ka Vadh : भगवान श्रीराम द्वारा बाली का वध (क्यों और कैसे)

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Shri Ram dwara Bali ka Vadh (Ramayan)

सुग्रीव (Sugreev) ने भगवान श्रीराम (Shri Ram) को अपनी व्यथा सुनाते हुए बताया कि बाली (Bali) ने किस प्रकार एक गलतफहमी के चलते उसे पूरे राज्य से निकाल दिया, साथ ही सुग्रीव का सबकुछ छीनकर उसकी पत्नी को भी उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने अधीन ही रख लिया. सुग्रीव ने श्रीराम को बताया कि सब कुछ छोड़कर राज्य से चले जाने के बाद भी बाली उसे मारने का प्रयत्न करता रहता है.

चूंकि एक ऋषि के श्राप के कारण बाली ऋष्यमूक पर्वत पर नहीं आ सकता था, इसीलिए सुग्रीव उसी पर्वत पर हनुमान जी और जामवंत जैसे मंत्रियों के साथ रह रहे थे. लेकिन बाली के भय से सुग्रीव उस पर्वत से बाहर नहीं निकल पा रहे थे.

बाली के बारे में सुनकर श्रीराम को आया क्रोध

जब भगवान श्रीराम ने ये सभी बातें सुनीं, तो उन्हें बाली पर बहुत क्रोध आया. उन्होंने सुग्रीव से कहा कि, “एक मित्र होने के नाते मैं तुम्हारी सहायता करूंगा. मैं बाली को मारकर तुम्हें भय से और तुम्हारी पत्नी को बाली के चंगुल से मुक्त कराऊंगा.”

फिर श्रीराम को बताया गया कि, ‘बाली को यह वरदान प्राप्त है कि जो भी उसके सामने उससे लड़ने या युद्ध करने के उद्देश्य से आएगा, उसका आधा बल बाली में ही समा जाएगा. यही कारण है कि बाली को अब तक युद्ध में कोई नहीं हरा सका है.’

श्रीराम ने लिया यह निर्णय

यह सुनकर श्रीराम ने कुछ विचार किया और फिर बाली को एक वृक्ष की आड़ से मारने का निश्चय किया. श्रीराम ने ऐसा निश्चय इसलिए नहीं किया था कि वो बाली को सामने से हरा नहीं सकते थे. उन्होंने ऐसा ही निश्चय क्यों किया, ये जानने के लिए पहले बाली और हनुमान जी के बीच होने वाली एक घटना को देखना होगा.

दरअसल, अपने बल और वरदान के अहंकार में एक बार बाली ने हनुमान जी को अपने साथ लड़ने की चुनौती दी थी. हनुमान जी ने बाली की चुनौती को स्वीकार कर लिया. लेकिन बाली के पिता देवराज इंद्र घबरा गए. उन्होंने तुरंत जाकर हनुमान जी से प्रार्थना की कि वे बाली के सामने अपने बल का केवल 1/10 भाग ही लेकर जाएं.

हनुमान जी ने इंद्र की प्रार्थना स्वीकार कर ली. वे बाली के सामने अपने बल का मात्र 1/10 भाग ही लेकर गए. अब जैसे ही बाली हनुमान जी के सामने लड़ने के उद्देश्य से आया, हनुमान जी के केवल इतने से बल का भी आधा हिस्सा बाली में समाने लगा.

तभी बाली को ऐसा लगने लगा कि उसके शरीर की नसें फटने वाली हैं. उसकी हालत ऐसी हो गई कि वह ठीक से चल भी नहीं पा रहा था. तभी इंद्र ने बाली से कहा कि “तुम तुरंत हनुमान जी के सामने से चले जाओ, क्योंकि इनके बल की कोई सीमा ही नहीं है. ये अतुलित बल के स्वामी हैं. तुम्हारा शरीर इनका बल नहीं संभाल पाएगा और इनसे युद्ध करने से पहले ही तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी”. बाली तुरंत हनुमान जी के सामने से भाग गया. इसके बाद बाली कभी भी युद्ध की इच्छा से हनुमान जी के सामने नहीं आया.

क्या श्रीराम का बल संभाल पाता बाली?

अब सोचिये, कि जो बाली रामदूत हनुमान जी के ही बल को नहीं संभाल सका था, वह स्वयं भगवान श्रीराम जी के बल को कैसे संभालता. श्रीराम जी जानते थे कि अगर वो बाली के सामने जाकर उससे युद्ध करेंगे, तो श्रीराम के निकट जाने से पहले ही बाली की बड़े भयंकर तरीके से मृत्यु हो जाएगी. और इससे बाली को अपने प्रश्नों के उत्तर भी नहीं मिलते और वह असंतुष्ट होकर मरता, क्योंकि अपने बल के अहंकार में बाली को अब तक अपनी किसी भी भूल का एहसास ही नहीं हो रहा था.

श्रीराम ने इस तरह मारा था बाली को

इसीलिए श्रीराम जी ने बाली को एक वृक्ष की आड़ से मारने का निश्चय किया. जब बाली और सुग्रीव के बीच युद्ध हुआ, तब भगवान श्रीराम ने बाली पर एक साधारण सा ही तीर चलाया, ताकि बाली की तुरंत मृत्यु न हो, और मरने से पहले उसे अपने सभी प्रश्नों के उत्तर भली-भांति प्राप्त हो जाएं, साथ ही जब उसे अपनी सभी भूल का एहसास हो जाए, तब यदि उसकी इच्छा हो तो, उपचार के बाद वह पहले की तरह जीवित भी रह सके.

श्रीराम का बाण लगते ही तत्काल मृत्यु हो जाती है. एकमात्र बाली ही था, जिसने श्रीराम का बाण लगने के बाद अपनी इच्छा से प्राण त्यागे. इसका अर्थ था कि श्रीराम ने बाली को मार डालने के लिए नहीं, बल्कि उसे सबक सिखाने और घायल करने के लिए उस पर तीर चलाया था.

श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं कि, “श्रीराम का तीर लगने के बाद बाली व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़ा, लेकिन प्रभु श्रीराम को आगे देखकर वह फिर उठ बैठा. वह देखता है कि भगवान का श्याम शरीर है, सिर पर जटा बनाए हैं, लाल नेत्र हैं, बाण लिए हैं और धनुष चढ़ाए हैं.”

परा बिकल महि सर के लागें।
पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे॥
स्याम गात सिर जटा बनाएँ।
अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ॥

किसी समय सुग्रीव भी हतोत्साहित हो गिरा हुआ था. उसके हृदय में भी बाली के भय का बाण लगा था, लेकिन श्रीराम से मिलन हुआ तो वह उठ खड़े हुए. ठीक वैसे ही बाली भले ही गिरा पड़ा था, लेकिन श्रीराम को देखते ही वह फिर उठ बैठा.

पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा।
सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा॥
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा।
बोला चितइ राम की ओरा॥

एक तरफ बाली के मन में कई प्रश्न हैं, तो वहीं वह श्रीराम का जी भरकर दर्शन भी कर रहा है और मन ही मन आनंदित हो रहा है. मन ही मन श्रीराम का भेद पता चलने पर, उनके द्वारा बाण लगने पर अपना जन्म सफल जानकर बाली के हृदय में प्रीति आ गई, लेकिन मुख में कठोर वचन थे. उसने श्रीराम से पूछा कि, “आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है. आपने मेरे किस दोष के कारण मुझे मारा?” इसी के साथ, बाली ने क्रोधवश श्रीराम को बड़े कठोर वचन भी कहे और अनेक प्रकार से उन पर आक्षेप भी लगाये.

श्रीराम ने दिया बाली के प्रश्नों का जवाब

तब श्रीराम ने बालि कहा, “बालि! धर्म, अर्थ, काम और लौकिक सदाचार को तो तुम स्वयं ही नहीं जानते हो. किसी भी पुरुष के लिए उसके छोटे भाई की पत्नी, अपनी बहन और पुत्री और पुत्र की पत्नी- ये चारों समान हैं. जो कोई भी इन चारों को बुरी नजर से देखता है, या इनकी इच्छा के विरुद्ध इन्हें अपने अधीन रखता है, उसे मारने में पाप नहीं होता. तुम्हें तुम्हारी पत्नी ने भी समझाया, लेकिन तुम अपने अहंकार में सबकी बातों को अनसुना कर सुग्रीव को मारने चले आए. आज जो तुम इस अवस्था में आकर धर्म की बातें कर रहे हो, यदि सच में तुम्हें पता होता कि धर्म क्या होता है तो तुम सुग्रीव और उसकी पत्नी के साथ अधर्म न करते.”

वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम बालि से कहते हैं कि-

हे बालि! मैंने तुम्हें क्यों मारा है, उसका कारण सुनो और समझो. तुम धर्म का त्याग करके अपने छोटे भाई की पत्नी से उसकी इच्छा के विरुद्ध सहवास करते हो. सुग्रीव के जीते-जी उसकी पत्नी रूमा का, जो तुम्हारी पुत्रवधू के समान है, उसकी इच्छा के बिना कामवश उसका उपभोग करते हो. इस प्रकार तुम भ्रष्ट, पापाचारी और स्वेच्छाचारी हो गए हो और अपने ही भाई की स्त्री को गले लगाते हो. तुम्हारे इसी अपराध के कारण मैंने तुम्हें यह दंड दिया है.”

श्रीराम बालि से आगे कहते हैं कि, “जो पुरुष अपनी बेटी, बहन और भाई की पत्नी के पास कामबुद्धि से जाता है, उसका वध करना उसके लिए उपयुक्त दंड माना गया है. हमारे राजा भरत हैं. राजा भरत की ओर से हमें तथा दूसरे राजाओं को यह आदेश प्राप्त है कि जगत में धर्म के पालन और प्रसार के लिए यत्न किया जाये. हम लोग उन्हीं के आदेश का पालन करते हुए अधर्मियों को दंड देते हैं और इसीलिए हम लोग धनुष-बाण धारण करते हैं. धर्म से गिरकर तुमने अपने जीवन में काम को ही प्रधानता दे रखी थी, ऐसे में तुम्हारी उपेक्षा कैसे की जा सकती थी?”

दरअसल, बाली ने अपनी गलतफहमी को दूर करने के बजाय क्रोध में आकर न केवल अपने भाई सुग्रीव को भरी सभा में अपमानित कर उसे ठोकरें मारकर देश से निकाल दिया था, बल्कि अपनी पुत्रवधू समान रूमा (सुग्रीव की पत्नी) को उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने अधीन ही रखा, जो कि बिल्कुल अनुचित कार्य था. भगवान श्रीराम ने मुख्य रूप से उसे इसी अधर्म का दंड दिया था.

श्रीराम को था बाली को दण्डित करने का अधिकार

चूंकि उस समय पूरी पृथ्वी इक्ष्वाकु वंश के अधीन थी और उस समय श्रीराम के छोटे भाई भरत अयोध्या के राजा थे, जो सिंहासन पर श्रीराम की खड़ाऊँ रखकर राज्य संभाल रहे थे. राजा द्वारा दुष्ट लोगों को दंड देना धर्मपूर्वक कार्य है. इसी के अनुसार, भगवान श्रीराम अपने 14 वर्षों के वनवास में राक्षसों और अधर्मियों का वध कर रहे थे. बाली ने अपने जीवन में कुछ ऐसे अधर्म किए थे, जिनके लिए उसे दंड देना उचित था, क्योंकि उसके आचरण का असर समाज पर भी पड़ रहा था.

जब बाली को हुआ अपनी गलतियों का एहसास

भगवान श्रीराम की बात सुनकर बाली को अपने कर्म याद आने लगे और उसे अपनी गलतियों का एहसास होने लगा. वह जान गया कि श्रीराम के सामने उसकी कोई चतुराई नहीं चलने वाली. श्रीराम का बाण लगने पर बाली के अंदर छिपा शैतान दम तोड़ रहा था और हृदय में भक्ति-सेवा के संस्कार अंकुरित हो रहे थे. बाली समझ गया कि, “मैं भले ही अत्यंत पापी और कठोर हृदय था, लेकिन तब भी भगवान ने मेरा जीवन धन्य कर दिया.”

सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥

वहीं, जब श्रीराम जी ने देखा कि बाली को अपनी भूल का एहसास हो गया है, तब उन्होंने बाली के सिर को अपने हाथ से स्पर्श कर (सिर पर हाथ फेरते हुए) उससे अपने प्राण रखने को कहा.

यानी ऐसा नहीं है कि श्रीराम केवल ‘सुग्रीव’ को ही खड़ा करते हैं. समय आने पर भगवान गिरते हुए ‘बाली’ को भी खड़ा करते हैं. निःसंदेह श्रीराम समदर्शी हैं. यहां श्रीराम बाली की भावना को ही स्वीकार कर रहे हैं.

सुनत राम अति कोमल बानी।
बालि सीस परसेउ निज पानी॥
अचल करौं तनु राखहु प्राना।
बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥

तब बाली ने श्रीराम से की यह प्रार्थना

लेकिन तब बालि ने श्रीराम से कहा, “भगवन! आपने मुझसे कहा कि तुम शरीर रख लो, लेकिन आप ही बताइये कि कौन ऐसा मूर्ख होगा जो कल्पवृक्ष को काटकर उससे बबूर के बाड़ लगाएगा (यानी सभी कार्य बना देने वाले आपको छोड़कर इस नश्वर शरीर की रक्षा चाहेगा)? आज श्रीरामजी स्वयं मेरी आँखों के सामने हैं, क्या ऐसा संयोग फिर कभी बन पड़ेगा?”

अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥

और तब बाली ने श्रीराम से वरदान मांगा कि, “मैं चाहे जिस रूप में भी जन्म लूं, लेकिन हर जन्म में आपके ही चरणों से प्रेम करूं.” इसी के साथ, बाली ने श्रीराम से अपने पुत्र अंगद के लिए भी प्रार्थना की और कहा, “यदि आपने मुझे क्षमा कर दिया है तो मेरे पुत्र अंगद का हाथ पकड़कर इसे अपनी सेवा में स्वीकार कीजिए. मेरा पुत्र अंगद बल और विनय में मेरे ही समान है.”

यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये॥

इसीलिए बाद में जब रावण ने अंगद को श्रीराम के विरुद्ध भड़काकर कहा कि, “तुम राम के विश्वासपात्र होने का फायदा उठाकर उन्हें मारकर अपने पिता की मृत्यु का बदला लो और हमारे साथ मिल जाओ…”
तब वीर अंगद ने रावण से कहा कि, “हे रावण! तुम्हें मुझ पर दया दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं है. तुम अपनी चिंता करो. मेरे पिता जी ने मृत्यु के समय मुझे श्रीराम का भेद (रहस्य) बताकर मुझे उनकी सेवा में रहने की आज्ञा दी थी. इस प्रकार श्रीराम जी के साथ छल करने का अर्थ होगा, अपने पिता के साथ ही छल करना.”

बाली की मृत्यु के बाद

भगवान श्रीराम ने बाली को अपने परम धाम में भेज दिया. उनकी पत्नी तारा को अपनी माया से मुक्त कर उन्हें इस दुख से उबरने की शक्ति दी. किष्किंधा में राजा के रूप में सुग्रीव का राजतिलक हुआ और उन्हें उनकी पत्नी भी मिल गई. वहीं, बाली की पत्नी तारा एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थीं, अतः वो एक वरिष्ठ सलाहकार के रूप में सुग्रीव को राज्य चलाने में उनकी मदद करने लगीं और तारा के पुत्र वीर अंगद को राज्य का उत्तराधिकारी (युवराज) बनाया गया.

श्रीराम ने बाली से मित्रता क्यों नहीं की?

इस विषय पर ‘परत’ पुस्तक के लेखक श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख जी लिखते हैं-

श्रीराम राज्य से निकले थे धर्म की स्थापना के लिए, पुत्रधर्म के निर्वहन के लिए, सीता जी पत्नीधर्म के निर्वहन के लिए, लक्ष्मण जी भ्रातृधर्म के निर्वहन के लिए. श्रीराम ने पिता के वचन की रक्षा के लिए अयोध्या का सारा वैभव छोड़ दिया था, जबकि रावण वह था जिसके पापों से दुखी होकर उसके पिता ने ही लंका छोड़ दी थी.

राम-रावण का युद्ध सत्ता का युद्ध नहीं बल्कि सभ्यता का युद्ध था. वह युद्ध था धर्म और अधर्म का. सत्ता के युद्ध में राजनीति निभाई जाती है, पर सभ्यता के युद्ध में केवल धर्म निभाया जाता है. श्रीराम ‘मातृवत परदारेशु..’ की सभ्यता के प्रतिनिधि थे, और रावण वह था जिसने अनगिनत स्त्रियों का बलात अपहरण किया था. तो फिर इस धर्मयात्रा में श्रीराम अधर्म का साथ कैसे देते?

बाली ने अपने छोटे भाई की पत्नी का बलात हरण किया था. भगवान श्रीराम रावण को ऐसे ही कुकर्म का दण्ड देने के लिए निकले थे, तो फिर वैसे ही अपराध करने वाले अपराधी से मित्रता कैसे कर लेते? जो अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी अधर्मी से सहयोग ले ले, वह मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बन सकता.

इसीलिए श्रीराम ने बाली का परित्याग किया. श्रीराम ने अपने जीवन में न कभी किसी अधर्मी का सहयोग लिया है, न दिया है. उनके जीवन से जुड़ा हर व्यक्ति अपने धर्म पर अडिग रहा है. ऐसी मंडली में बाली के लिए कोई जगह नहीं बनती थी.

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