Valmiki Ramayana and Ramcharitmanas of Tulsidas
महर्षि वाल्मीकि द्वारा रामायण की रचना का काल आज से लगभग 9 लाख वर्ष पहले के आसपास का बताया जाता है. हालाँकि, इस तथ्य को लेकर विद्वानों में मतभेद है. वाल्मीकि जी भगवान श्रीराम के समय उपस्थित थे. ये रामायण उस समय की वैदिक संस्कृत में लिखी गई थी. तब की भाषा और आज की भाषा में जमीन-आसमान का अंतर है. वाल्मीकि रामायण ही मूल रामायण है, जिसके आधार पर अन्य सैकड़ों रामायण की रचना की गई. मूल वाल्मीकि रामायण एक प्रमाणिक ऐतिहासक ग्रंथ है.
रामचरितमानस की रचना- इसके बाद आज से लगभग 500 साल पहले गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की. ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास जी को रामचरितमानस की रचना का कार्यभार स्वयं भगवान शिव और हनुमान जी की तरफ से दिया गया था. अतः रामचरितमानस को भी प्रामाणिक ग्रंथ माना गया है.
अन्य ‘रामायण’- इसी के साथ, आज तक कई सैंकड़ों लोगों या कवियों ने भी अपनी-अपनी सोच और बुद्धि के हिसाब से ‘रामायण’ लिखी हैं, जो श्रीराम के जीवन के कई अनछुए पहलुओं की जानकारी देने का दावा भी करती हैं, हालांकि इनमें से तो कई लेखक या कवियों ने रामायण लिखने की बजाय उसके नाम से अपना एजेंडा सेट करने का प्रयास ज्यादा किया है (हम सभी लोक रामायणों की बात नहीं कर रहे) और इसीलिए अन्य रामायणों को प्रामाणिक भी नहीं माना जाता है, लेकिन कुछ प्रसंगों के भावार्थों को समझने के लिए अन्य रामायणों की भी मदद ली जाती है.
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास जी की रामचरितमानस में क्या अंतर है?
आज की उपलब्ध वाल्मीकि रामायण के हिंदी अनुवादों से देखा जाए, तो उसमें श्रीराम की शिक्षा, सीता स्वयंवर, अहिल्या और केवट प्रसंग, सीता-हरण आदि कई प्रसंगों में रामचरितमानस से कुछ भिन्नता देखने को मिलती है. अब ये भिन्नता प्रसंगों में है या हमारी समझ में, फिलहाल ये कहना तो मुश्किल ही है. प्रसंग अलग-अलग नहीं हैं, केवल उन्हें कहने का तरीका अलग-अलग है, जो समय और भाषा के अंतर को भी दर्शाती है. इसी के साथ, रामचरितमानस में कई त्रेतायुग की कथाएं ली गई हैं, जबकि वाल्मीकि रामायण में इसी चतुर्युग के त्रेतायुग की कथा लिखी गई है.
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास जी की रामचरितमानस में अंतर
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास जी की रामचरितमानस में कोई अंतर नहीं है, बल्कि दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं.
ये अंतर है आधुनिक लोगों की समझ का, शब्दों के अर्थ संकुचन का, लाखों सालों पहले की और आज की भाषा के अंतर का और मिलावट-छेड़छाड़ का. लेकिन अगर मूल वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस के बीच के मुख्य अंतर की बात की जाए तो-
पहला अंतर-
वाल्मीकि जी ने रामायण के रूप में एक ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना की है. इसलिए उन्होंने रामायण में उस समय का इतिहास बताने पर ज्यादा जोर दिया है, और इसीलिए वाल्मीकि रामायण से उस समय के इतिहास की विस्तृत जानकारी मिलती है. उन्होंने पात्रों के चरित्र की विशेषताओं की बजाय सभी पात्रों के बल-पराक्रम, शारीरिक विशेषताओं, आदर्शों आदि पर ज्यादा जोर दिया है.
जैसे- जब हनुमान जी सीता जी की खोज में लंका जाते हैं, तब वे वहां क्या-क्या देखते हैं, इसका बहुत विस्तृत वर्णन वाल्मीकि रामायण में मिलता है. जैसे- चार दांतों वाले हाथियों का मिलना, तारों के साथ-साथ ग्रहों से भी आकाश का प्रकाशित होना, लंका में अनेक विमानों का खड़ा होना, नगर की व्यवस्था का वर्णन, मकानों की संरचना, बिजली व्यवस्था… आदि का विस्तृत वर्णन वाल्मीकि रामायण में ही मिलता है.
ध्यान दें- आधुनिक वैज्ञानिकों ने चार दांतों वाले हाथियों (गोम्फोथेरियम) के जो जीवाश्म खोजे हैं, उनके अनुसार ये हाथी आज से 11 हजार वर्षों पहले तक पृथ्वी पर पाए जाते थे. इसी प्रकार, उस समय आकाश में ग्रह भी स्पष्ट रूप से दिखाई देते थे (जैसे आज तो कहीं-कहीं तारे भी दिखना बंद हो गए हैं). भास्कराचार्य के समय भी ग्रह आकाश में नजर आते थे, जिनकी सहायता से भास्कराचार्य खगोल विज्ञान का अध्ययन करते थे.
♦ वहीं, तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के रूप में चरित्र, भक्ति और भाव प्रधान ग्रन्थ की रचना की है. तुलसीदास जी ने सभी पात्रों के चरित्र पर विशेष ध्यान देकर ये बताने की कोशिश की है कि किस पात्र ने किस परिस्थिति में क्या, कैसे और क्यों किया. उनका जोर उस समय के इतिहास पर नहीं रहा.
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रामायण का इतिहास तो लगभग सभी जानते ही हैं. लेकिन आधुनिक लोगों के सवाल ज्यादातर इसी को लेकर रहते हैं कि “भगवान ने ऐसा क्यों किया, या वैसा क्यों नहीं किया..” तुलसीदास जी ऐसे ही सवालों का उत्तर रामचरितमानस में दिए हैं.
तुलसीदास जी ने सभी पात्रों की शारीरिक विशेषताओं और उस समय के इतिहास की बजाय चरित्र विशेषताओं पर ज्यादा जोर दिया है और इसीलिए उन्होंने अपनी रामायण का नाम भी “राम चरित मानस” ही रखा है. और इसीलिए सुंदरकांड का पाठ रामचरितमानस से ही किया जाता है, न कि वाल्मीकि रामायण से. क्योंकि रामचरितमानस से ही हनुमान जी के चरित्र की सुंदरता का पूरा ज्ञान मिलता है.
पात्रों के वर्णन में अंतर
♦ वाल्मीकि जी ने एक पूर्ण कवि के रूप में जगह-जगह सभी की शारीरिक दशा, सुंदरता, हाव-भाव, क्रियाकलाप, किसी नगर की व्यवस्था आदि का इतना अच्छे से वर्णन किया है कि पढ़ते समय उस समय का पूरा चित्र आँखों के सामने उभरकर आ जाता है. वहीं, रामचरितमानस पढ़ने से पात्रों के हृदय के भाव उभरकर सामने आ जाते हैं.
♦ जहां वाल्मीकि रामायण पढ़ने से श्रीराम के बल-पराक्रम, अच्छाइयों, आदर्शों आदि की ज्यादा जानकारी मिलती है, तो वहीं रामचरितमानस पढ़ने से श्रीराम का अपने भक्तों के प्रति प्रेम और उन्हें पाने के तरीकों की भी स्पष्ट जानकारी मिलती है.
♦ जहां वाल्मीकि रामायण से ये पता चलता है कि ‘क्या-क्या हुआ’, वहीं तुलसीदास जी की रामचरितमानस से ये भी पता चलता है कि ‘क्या-क्या किस भाव से हुआ’. तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में सभी पात्रों के मन में राम-सीता जी के प्रति जो भक्तिभाव है, उसे दिखाने की कोशिश की है. फिर चाहे वो केवट हों या अहिल्या, निषादराज हों या शबरी आदि.
दूसरा अंतर-
वाल्मीकि जी ने श्रीराम को एक महामानव के रूप में प्रस्तुत किया है. हालांकि श्रीराम जन्म, परशुराम के प्रसंग, अग्नि परीक्षा के साथ-साथ कई और प्रसंगों में उन्होंने यह स्पष्ट रूप से बता दिया है कि श्रीराम भगवान विष्णु जी के ही पूर्णावतार हैं.
जबकि तुलसीदास जी ने इस बात का स्पष्ट खुलासा तो किया ही है कि कौन किसका अवतार है, साथ ही तुलसीदास जी ने श्रीराम और सीता जी के कुछ गूढ़ रहस्यों का भी खुलासा किया है. जैसे-
• जब सुग्रीव की पूरी वानर सेना अलग-अलग दिशाओं में सीता जी की खोज में निकल जाती है, तब श्रीराम अपने नाम की अंकित अंगूठी केवल हनुमान जी को ही देते हैं, तो इसका मतलब कि श्रीराम को आगे की घटनाओं का पहले से ही ज्ञान था.
निश्चित सी बात है कि श्रीराम को सीता-हरण का भी पहले से ही पूरा ज्ञान रहा होगा. और ध्यान दीजिये कि वाल्मीकि रामायण में ही, जो सीता जी दण्डकारण्य में श्रीराम जी से किसी भी राक्षस तक का वध करने से मना कर रही हैं, कि कहीं इन सबके बीच किसी निरपराध प्राणी का वध न हो जाए और श्रीराम पर किसी प्रकार का कोई पाप न लगे… वही सीता जी अचानक पंचवटी में स्वर्ण हिरण के पीछे श्रीराम को भेजने के लिए जिद पकड़ लेती हैं. सीता जी के स्वभाव में आए अचानक इस बदलाव का कारण आज की उपलब्ध वाल्मीकि रामायण में प्रत्यक्ष रूप से नहीं मिलता है,
जबकि तुलसीदास जी ने इसका स्पष्ट कारण बताया है कि “वो असली सीता जी नहीं, बल्कि माया की बनी सीता थीं, जो राक्षसों के संहार का कारण बनने के लिए आई थीं… और श्रीराम और सीता जी दोनों ही, स्वर्ण हिरण में मारीच को पहले ही पहचान चुके थे.”
• इसी प्रकार, श्रीराम ने सीता जी को बचाने के लिए हर परिस्थिति में पूरा युद्ध लड़ा. पूरे युद्धभर उन्हें सीता जी की चिंता लगी रही. और युद्ध के बाद अचानक उनसे अग्निपरीक्षा देने के लिए कह देते हैं. ये सब-कुछ एक रहस्य की तरफ इशारा करता है, और यही रहस्य रामचरितमानस में बताया गया है (कि अग्निपरीक्षा के बहाने श्रीराम अपनी असली सीता जी को बुला रहे थे).
• अरण्यकाण्ड के सर्ग 54 श्लोक 13 में वाल्मीकि जी ने अप्रत्यक्ष रूप से इस बात का संकेत दिया है कि “लंका में मायामयी सीता ही आयी थीं, इसीलिए रावण उन्हें ला सका था. मायारूपिणी होने के कारण ही रावण को सीता जी के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न हो सका था.”
• इसी प्रकार, अग्नि परीक्षा के समय जब लक्ष्मण जी श्रीराम की तरफ रोष से देखते हैं, तब श्रीराम उन्हें संकेत में अपना अभिप्राय समझा देते हैं और तब लक्ष्मण जी सीता जी की परीक्षा के लिए अग्नि का प्रबंध कर देते हैं. अब श्रीराम ने लक्ष्मण जी को संकेत में अपना क्या अभिप्राय बताया, वह वाल्मीकि जी ने स्पष्ट नहीं किया.
• वाल्मीकि रामायण में सुंदरकांड के सर्ग-22 का यह श्लोक देखिये, जिसमें सीताजी रावण से कहती हैं, “मैं अपने तेज से तुझे अभी भस्म कर सकती हूँ, लेकिन केवल श्रीराम की आज्ञा न होने के कारण मैं तुझे भस्म नहीं कर रही हूँ. मुझे हर लाने की शक्ति तेरे अंदर नहीं थी. तेरे वध के लिए ही विधाता ने यह विधान रचा है.”
अब यह एक रहस्य की बात है कि श्रीराम ने सीता जी को रावण का वध न करने की आज्ञा कब दी. यानी श्रीराम और सीता जी केवल संसार के लिए एक-दूसरे से अलग हैं, लेकिन दोनों साथ ही हैं, और रावण सहित सभी राक्षसों के वध की पूरी योजना बनाकर बैठे हैं. और इसी रहस्य का स्पष्ट खुलासा तुलसीदास जी ने किया है.
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आज की उपलब्ध (आधुनिक) वाल्मीकि रामायण की कमियां
मूल वाल्मीकि रामायण में तो कोई भ्रम या कमी हो ही नहीं सकती. लेकिन आज जो वाल्मीकि रामायण हमारे बीच उपलब्ध है, उसमें सालों से चल रही छेड़छाड़ का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है-
जैसे- उपलब्ध वाल्मीकि रामायण के हिंदी अर्थ में, सीता-हरण के समय सीता जी रावण को बताती हैं कि “विवाह के बाद मैं बारह वर्षों तक अयोध्या में रहीं. वन गमन के समय मेरी आयु अठारह वर्ष और मेरे पति श्रीराम की आयु पच्चीस वर्ष थी.”
अगर इस प्रसंग के इन श्लोकों और उनके उपलब्ध हिंदी अर्थों को सच माना जाए, या इन श्लोकों के शब्द-मात्राओं को पूरा माना जाए, तो विवाह के समय सीता जी की उम्र निकलती है 6 वर्ष और श्रीराम की उम्र 12 वर्ष.
लेकिन अगर श्रीराम और सीता जी विवाह के बाद 12 वर्षों तक सुखपूर्वक अयोध्या में ही रहे थे, तो फिर अयोध्याकाण्ड के सर्ग 12-श्लोक 84 में राजा दशरथ जी ऐसा क्यों कहते कि, “हाय! अब तक तो श्रीराम वेदों का अध्ययन करने, ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने और अनेकों गुरुजनों की सेवा में संलग्न रहने के कारण दुबले होते चले आए हैं. और अब जब इनके लिए सुखभोग का समय आया है, तब ये वन में जाकर महान कष्ट में पड़ेंगे.”
अयोध्याकाण्ड के सर्ग 20-श्लोक 45 में कौशल्या जी श्रीराम की आयु 27 वर्ष बता रही हैं. इससे भी सिद्ध होता है कि वनगमन के समय श्रीराम 25 वर्ष के नहीं थे.
(दरअसल, श्रीराम-सीता जी और लक्ष्मण जी विवाह के बाद दो वर्षों तक ही अयोध्या में रहे थे, लेकिन आज के अनुवादों में दो वर्षों को बारह वर्ष बना दिया गया).
अगर विवाह के समय सीता जी की ही उम्र मात्र 6 वर्ष रही होगी, तो क्या उनकी छोटी बहनों का विवाह गोद में बिठाकर करवाया गया होगा??
बालकाण्ड के सर्ग-18 के श्लोक-28 में लिखा हुआ है, “लक्ष्मण बाल्यावस्था से ही श्रीराम के प्रति अत्यंत अनुराग (प्रेम) रखते थे. वे अपने बड़े भाई श्रीराम का सदा ही प्रिय करते थे और शरीर से उनकी सेवा में जुटे रहते थे.”
इस श्लोक से स्पष्ट हो रहा है कि भाईयों की बाल्यावस्था बीत चुकी है. और यह श्लोक वहां का है, जब श्रीराम-लक्ष्मण जी विश्वामित्र के आश्रम में भी नहीं गए थे.
तो इसका मतलब कि श्रीराम और सीता जी के विवाह को बाल-विवाह साबित करने के लिए जानबूझकर सीता-हरण के प्रसंग में अच्छी-खासी छेड़छाड़ की गई है, या उनके उपलब्ध हिंदी अर्थ सही नहीं हैं, या श्लोकों के शब्द-मात्रा पूरे नहीं है, जिनसे भ्रम पैदा होता है.
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आज की उपलब्ध वाल्मीकि रामायण में बहुत सारे श्लोकों में इसी प्रकार की भिन्नता या विरोधाभास देखने को मिलते हैं.
♦ एक स्थान पर एक श्लोक के हिंदी अर्थ में लिखा है कि, “वह स्थान तपस्या से सिद्ध अग्नि और ब्रह्मा जी के समान तेजस्वी महात्माओं से भरा रहता था. उनमें से कोई जल पीकर रहता था कोई साधना में लीन रहकर हवा खाकर. कितने ही महात्मा केवल फल-कंद-मूल खाकर या सूखे पत्ते चबाकर ही रहते थे. मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखने वाले बहुत से महात्मा जप-होम में लगे रहते थे”.
लेकिन इसके तुरंत ऊपर वाले श्लोक के हिंदी अर्थ में लिखा है कि, “वह स्थान तपस्या से सिद्ध तेजस्वी महात्माओं और मृगों से भरा रहता था. वे सभी महात्मा उन मृगों को खाते थे.”
साफ पता चल रहा है कि ऊपर वाला ऐसा विचित्र सा श्लोक या हिंदी अर्थ जबरन ठूंस दिया गया है.
खैर, आपको बता दें कि उस समय के भारत में राक्षसों की एक परिभाषा ये भी थी कि वे मांस-भक्षण करते थे. जैसे कि इसी वाल्मीकि रामायण के एक हिंदी अर्थ में लिखा है-
“लक्ष्मण! वह देखो, मांसभक्षण करने वाले दुराचारी राक्षस आ पहुंचे. मैं मानवास्त्र से इन सबको उसी प्रकार मार भगाऊंगा, जैसे वायु के वेग से बादल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं…. अब यज्ञ में विघ्न डालने वाले इन दूसरे निर्दय, दुराचारी, पापकर्मी एवं रक्तभोजी राक्षसों को भी मार गिराता हूं.” (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग ३० श्लोक १५ व २१)
इसी प्रकार, वाल्मीकि रामायण में सुंदरकांड के सर्ग-36 का यह श्लोक देखिये, जिसमें लिखा है, “कोई भी रघुवंशी न तो मांस खाता है और न ही मधु का सेवन करता है. श्रीराम सदा चार समय उपवास करके पांचवे समय शास्त्रविहित जंगली फल-फूल और नीवार आदि भोजन करते हैं.”
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बहुत कठिन है..
मूल वाल्मीकि रामायण की संस्कृत को पढ़ना ही बहुत कठिन है और उसे समझना तो और भी कठिन. उपलब्ध वाल्मीकि रामायण के 80 प्रतिशत श्लोकों के अर्थ बिल्कुल समझ नहीं आते. अगर उनका एक भी जगह संधि-विच्छेद गलत हो जाए, या एक भी मात्रा कम या ज्यादा हो जाए, तो श्लोक का पूरा अर्थ ही बदल जाता है.
जैसे- “मां समान” को जोड़कर “मांसमान” लिखे जाने पर अगर इसका पुनः संधि-विच्छेद “मांस मान” कर दिया जाए… और ऐसा बहुत जगहों पर किया भी गया है.
इसी के साथ, आप ध्यान दे सकते हैं कि उपलब्ध वाल्मीकि रामायण के 20 प्रतिशत श्लोकों का अर्थ सामान्य संस्कृत की तरह ही word-to-word समझ आते हैं, जिनसे पता चलता है कि ये श्लोक बीच में ठूंस दिए गए, ये वाल्मीकि जी के लिखे हुए नहीं हैं, क्योंकि वाल्मीकि जी ने Simple संस्कृत लिखी ही नहीं.
खैर, आज तो इंटरनेट पर कई लोग कुछ चौपाइयां बना देते हैं और कहते हैं कि ये तुलसीदास जी की लिखी चौपाइयां हैं. कोई भी कविता लिख देते हैं और कहते हैं कि ये महादेवी वर्मा की लिखी कविता है.
फिलहाल तुलसीदास जी की रामचरितमानस आज भी काफी हद तक मूल रूप में उपलब्ध है और आज भी काफी हद तक समझ आती है. हालांकि भारतीय संस्कृति पर टारगेट करने वाले जमाने में मूल कुछ भी नहीं रह जाता.
कौन सी रामायण है श्रेष्ठ?
दोनों ही रामायण श्रेष्ठ हैं, दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं, एक-दूसरे से पूरी तरह मिलती हैं. लेकिन ऐसा तभी है अगर-
हमें आज की वाल्मीकि रामायण की जगह मूल वाल्मीकि रामायण ही पढ़ने को मिल जाए, साथ ही कोई उसके श्लोकों का बिल्कुल सही अर्थ बताने वाला भी मिल जाए तो.
♦ सही मायने में, तुलसीदास जी की रामचरितमानस ने आधुनिक लोगों को वाल्मीकि रामायण को समझने में बड़ी मदद की है. और इसीलिए तुलसीदास जी को आम-जन की भाषा में ही रामचरितमानस की रचना करने के लिए कहा गया था. नहीं तो तुलसीदास जी पहले संस्कृत में ही रामायण की रचना कर रहे थे. लेकिन फिर उन्होंने ‘रुद्राष्टक’ और कुछ अन्य पदों की ही रचना संस्कृत में की.
संस्कृत के सभी ग्रन्थों में समय-समय पर मिलावट की जाती रही है. आज रामायण के 4-5 अलग-अलग संस्करण मिलते हैं, जिनमें कुल श्लोकों की संख्या और शब्द-मात्रा अलग-अलग है. इससे भी पता चलता है कि स्वार्थी लोग समय-समय पर इन पुस्तकों में से श्लोक हटाते रहे और मिलाते भी रहे. इन मिलावटी श्लोकों के कारण ही सनातन धर्म की पुस्तकों और महापुरुषों का अपमान ही होता रहा है.
उदाहरण के तौर पर, एक कम्युनिष्ट लेखिका ने एक बार एक अखबार में एक लेख लिखा था, जिसमें उसने माता सीता द्वारा (पूजा के तौर पर) गंगा नदी में शराब के घड़े डालने की बात लिखी थी. बाद में ढूँढने पर पाया गया कि यह श्लोक केवल एक संस्करण में है जो किसी शराब पीने वाले ने मिलाया था.
अब कुछ लोग, जो यह कहते हैं कि श्रीराम के समय में बोलने-उड़ने वाले बंदर होते थे. दरअसल, उस समय सब जगह बोलने-उड़ने वाले बंदर नहीं होते थे और न ही ये पूरे त्रेतायुग में थे. उस समय के सभी वानर देवताओं के ही स्वरूप थे, जो श्रीराम की सेवा के लिए वानर रूप में पृथ्वी पर आ गए थे (रामचरितमानस में इस बात का स्पष्ट जिक्र है). और इसीलिए जब अशोक वाटिका में सीता जी हनुमान जी को पहली बार देखती हैं, तब वे सोचती हैं, कि “ऐसा वानर? अवश्य ही कोई मायावी राक्षस होगा.” तब हनुमान जी सीता जी को अपना परिचय देते हुए सब कुछ बताते हैं.
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नमस्कार Abhi जी, कृपया वाक्य को पूरा पढ़ें-
“महर्षि वाल्मीकि द्वारा रामायण की रचना का काल आज से लगभग 9 लाख वर्ष पहले के आसपास का बताया जाता है. हालाँकि, इस तथ्य को लेकर विद्वानों में मतभेद है.”
हमने वह तथ्य लिखा है जो अब तक बताया गया है. चूंकि यह गहन शोध का विषय है, अतः यह तथ्य हमने पुष्टि के तौर पर नहीं लिखा है.