Bhagwan Shri Krishna Gita : सबसे प्रधान अथवा सबसे श्रेष्ठ कौन है?

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Bhagwan Shri Krishna

Shri Krishna Geeta Gyan

भगवद्गीता के अध्‍याय 10 में भगवान ने अपने गुण, प्रभाव और तत्त्‍व का रहस्‍य समझाने के लिये जो उपदेश दिया है, उसे ‘परम वचन’ भी कहा गया है. भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- “हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्‍य विभूतियां हैं, उनको तुम्हारे लिये प्रधानता से कहता हूँ, क्‍योंकि मेरे विस्‍तार का अंत नहीं है (मेरी विभूतियाँ अनंत हैं, अतः सबका पूरा वर्णन नहीं हो सकता; उनमें से जो प्रधान-प्रधान हैं, यहाँ मैं उन्‍हीं का वर्णन करूंगा.)”

नदियों में प्रधान – श्रीभागीरथी गंगा जी समस्त नदियों में परम श्रेष्‍ठ हैं. ये श्रीभगवान के चराणोदक से उत्पन्न व परम पवित्र हैं. पुराणों और इतिहास में इनका बड़ा भारी माहात्म्य बतलाया गया है. श्रीमद्भागवत में कहा गया है-

धातु कमण्‍डलुजलं तदुरूक्रमस्य पादावनेजनपवित्रतया नरेन्द्र।
स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्ति॥
(8. 21. 4)

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मंत्रों में प्रधान – वेदों की जितनी भी छन्दोबद्ध ॠचाएं हैं, उन सबमें गायत्री की ही प्रधानता है. श्रुति, स्मृति, इतिहास और पुराण आदि शास्त्रों में जगह-जगह गायत्री की महिमा बताई गई है-

अभीष्‍ट लोकमाप्नोति प्राप्नुयात् काममीप्सितम्।
गायत्री वेदजननी गायत्री पापनाशिनी॥
गायत्र्या: परमं नास्ति दिवि चेह च पावनम्।
हस्तत्राणप्रदा देवी पततां नरकार्णवे॥
(शङ्खस्मृति 12. 24-25)

“(गायत्री की उपासना करने वाला) अपने अभीष्‍ट लोक को पा जाता है, मनोवाञ्छित भोग प्राप्त कर लेता है. गायत्री समस्त वेदों की जननी और सम्पूर्ण पापों को नष्‍ट करने वाली हैं. स्वर्गलोक में तथा पृथ्‍वी पर गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाली दूसरी कोई वस्तु नहीं है. गायत्री देवी नरकसमुद्र में गिरने वालों को हाथ का सहारा देकर बचा लेने वाली हैं.’

नास्ति गङ्गासमं तीर्थे न देव: केशवात् पर:।
गायच्यास्तु परं जप्यं न भूतं न भविष्‍यति॥
(बृहद्योगियाज्ञवल्क्य 10.10)

“गंगा जी के समान तीर्थ नहीं है, श्रीविष्‍णु भगवान से बढ़कर देव नहीं है और गायत्री से बढ़कर जपने योग्य मंत्र न हुआ, न होगा.” गायत्री की इस श्रेष्‍ठता के कारण ही भगवान ने उसे अपना स्वरूप बतलाया है.

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किसी अर्थ का बोध कराने वाले शब्द को ‘गी:’ (वाणी) कहते हैं और ओंकार (प्रणव) को ‘एक अक्षर’ कहते हैं (गीता 8।13). जितने भी अर्थ बोधक शब्द हैं, उन सभी में प्रणव की प्रधानता है; क्योंकि ‘प्रणव’ भगवान का नाम है (गीता 17:23). प्रणव के जप से भगवान की प्राप्ति होती है. नाम और नामी में अभेद माना गया है.

ऋतुओं में प्रधान – वसंत सब ॠतुओं में श्रेष्‍ठ और सबका राजा है. इसमें बिना ही जल के सब वनस्पतियां हरी-भरी और नवीन पत्रों तथा पुष्‍पों से समन्वित हो जाती हैं. इसमें न अधिक गर्मी रहती है और न सर्दी. इस ॠतु में प्राय: सभी प्राणियों को आनन्द होता है.

मासों में प्रधान – महाभारत काल में महीनों की गणना मार्गशीर्ष से ही आरम्भ होती थी (महाभारत अनुशासन पर्व 106 और 109). अत: यह सब मासों में प्रथम मास है तथा इस मास में किये हुए, व्रत-उपवासों का शास्त्रों में महान फल बतलाया गया है. नये अन्न की इष्टि (यज्ञ) का भी इसी महीने में विधान है. वाल्मीकि रामायण में इसे संवत्सर का भूषण बतलाया गया है. इस प्रकार अन्यान्य मासों की अपेक्षा इसमें कई विशेषताएं हैं.

प्रधान यज्ञ – जपयज्ञ को सभी यज्ञों में श्रेष्ठ कहा गया है. जपयज्ञ भगवान का प्रत्यक्ष कराने वाला है. मनुस्मृति में भी जपयज्ञ की बहुत प्रशंसा की गई है-

विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टों दश‍भिर्गुणै:।
उपांशु स्याच्छतगुण: सहस्रों मानस: स्मृत:॥
(2.85)

‘विधि-यज्ञ से जपयज्ञ दसगुना, उपाशुंजप सौगुना और मानसजप हजारगुना श्रेष्‍ठ कहा गया है.’ इसलिये समस्त यज्ञों में जपयज्ञ की प्रधानता है.

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मनुष्यों में प्रधान – महाभारत के शान्तिपर्व के अध्याय 141 में भीष्म पितामह कहते हैं कि, “प्रजा के योग, क्षेम, उत्तम वृष्टि, व्‍याधि, मृत्‍यु और भय-इन सबका मूल कारण राजा ही है. सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- इन सबका मूल कारण राजा ही है.” शास्त्रोक्त लक्षणों से युक्त धर्मपरायण राजा अपनी प्रजा को पापों से हटाकर धर्म में प्रवृत्त करता है और सबकी रक्षा करता है, इस कारण अन्य मनुष्‍यों से राजा श्रेष्‍ठ माना गया है. ऐसे राजा में भगवान की शक्ति साधारण मनुष्‍यों की अपेक्षा अधिक रहती है.

दण्‍ड (दमन करने की शक्ति) धर्म का त्याग करके अधर्म में प्रवृत्त उच्छृङ्खल मनुष्‍यों को पापाचार से रोककर सत्कर्म में प्रवृत्त करता है. मनुष्‍यों के मन और इन्द्रिय आदि भी इस दमन-शक्ति के द्वारा ही वश में होकर भगवान की प्राप्ति में सहायक बन सकते हैं. दमन-शक्ति से समस्तप्राणी अपने-अपने अधिकार का पालन करते हैं. इसलिये जो भी देवता, राजा और शासक आदि न्यायपूर्वक दमन करने वाले हैं, उन सबकी उस दमन-शक्ति को भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है.

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‘नीति’ शब्द न्याय का वाचक है. न्याय से ही मनुष्‍य की सच्ची विजय होती है. जिस राज्य में नीति नहीं रहती, अनीति का बर्ताव होने लगता है, वह राज्य भी शीघ्र नष्‍ट हो जाता है. अतएव नीति अ‍र्थात न्याय विजय का प्रधान उपाय है.

शस्त्रों में प्रधान जितने भी शस्त्र हैं, उन सभी में वज्र अस्त्र अत्यंत श्रेष्‍ठ हैं; क्योंकि वज्र में दधीचि ऋषि के तप का तथा साक्षात भगवान का तेज विराजमान है और उसे अमोघ माना गया है (श्रीमद्भागवत 6.11.19-20).

पर्वतों में प्रधान – स्थिर रहने वालों को स्थावर कहते हैं. संसार में जितने भी पर्वत हैं, सब अचल होने के कारण स्थावर हैं. उनमें हिमालय सर्वोत्तम है. वह परम पवित्र तपोभूमि है और मुक्ति में सहायक है. भगवान नर और नारायण वहीं तपस्या कर चुके हैं, साथ ही हिमालय सब पर्वतों का राजा भी है, इसलिए उसे ‘गिरिराज’ भी कहते हैं.

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पशु व पक्षियों में प्रधान – सिंह सब पशुओं का राजा माना गया है. वह सबसे बलवान, तेजस्वी, शूरवीर और साहसी होता है. विनता के पुत्र गरुड़ जी पक्षियों के राजा और उन सबसे बड़े होने के कारण पक्षियों में श्रेष्‍ठ माने गये हैं. साथ ही ये भगवान के वाहन, उनके परम भक्त और अत्यन्त पराक्रमी हैं. जितने प्रकार की मछलियां होती हैं, उन सबमें मगर बहुत बड़ा और बलवान होता है.

वृक्षों में प्रधान- पीपल का वृक्ष समस्त वनस्पतियों में राजा और पूजनीय माना गया है. पुराणों में अश्वत्थ (पीपल) का बड़ा माहात्म्य मिलता है. स्कन्द पुराण में कहा गया है-

स एव विष्‍णुर्द्रम एवं मूतों महात्मभि: सेवितपुण्‍यमूल:।
यस्याश्रय: पापसहस्रहन्ता भवेन्नृणां कामदुघो गुणाढ़य:॥
(नागर. 247.44)

“यह वृक्ष मूर्तिमान श्रीविष्‍णुस्वरूप है; महात्मा पुरुष इस वृक्ष के पुण्‍यमय मूल की सेवा करते हैं. इसका गुणों से युक्त और कामनादायक आश्रय मनुष्‍यों के हजारों पापों का नाश करने वाला है.”

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देवों में प्रधान – अदिति के बारह पुत्रों को द्वादश आदित्‍य कहते हैं- धाता, मित्र, अर्यमा, शक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्‍वान्, पूषा, सविता, त्‍वष्‍टा और विष्‍णु. इनमें विष्‍णु जी इन सबके राजा हैं तथा अन्‍य सभी पुत्रों से श्रेष्‍ठ हैं.

धाता मित्रोअर्यमा शक्रो वरुणस्‍त्‍वंश एव च।
भगो विवस्‍वान् पूषा च सविता दशमस्‍तथा॥
एकादशस्‍तथा त्‍वष्‍टा द्वादशो विष्‍णुरूच्‍यते।
जघन्‍यजस्‍तु सर्वेषामादित्‍यानां गुणाधिक:॥
(महाभारत आदिपर्व 65.15-16)

दैत्यों में प्रधान – दिति के वंशजों को दैत्य कहते हैं. उन सबमें प्रह्लाद उत्तम माने गये हैं; क्योंकि वे न केवल दैत्यों के राजा हैं, अपितु सर्वसद्गुण सम्पन्न, परम धर्मात्मा और भगवान के परम श्रद्धालु, निष्‍काम, अनन्यप्रेमी हैं.

रुद्रों में प्रधान – हर, बहुरूप, त्र्यम्‍बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्‍भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्‍याध, शर्व और कपाली- ये ग्‍यारह रुद्र कहलाते हैं.

हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्चापराजित:।
वृष‍कपिश्च शम्‍भुश्च कपर्दी रैवतस्‍तथा॥
मृगव्‍याधश्च शर्वश्च कपाली च विशाम्‍पते।
एकादशैते कथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्र्वरा॥
(हरिवंश पुराण 1.3.41,42)

इनमें शम्भु अर्थात भगवान शंकर सबके अधीश्वर (राजा) हैं तथा कल्‍याणप्रदाता व कल्‍याणस्‍वरूप हैं.

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सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बिजली और अग्नि आदि जितने भी प्रकाशमान पदार्थ हैं, उन सबमें सूर्य प्रधान है.

वरुण समस्त जलचरों के और जल देवताओं के अधिपति, लोकपाल, देवता और भगवान के भक्त होने के कारण सबमें श्रेष्‍ठ माने गये हैं.

मर्त्य और देवजगत में, जितने भी नियमन करने वाले अधिकारी हैं, यमराज उन सबमें बढ़कर हैं. इनके सभी दण्‍ड न्याय और धर्म से युक्त, हितपूर्ण और पापनाशक होते हैं. ये भगवान के ज्ञानी भक्त और लोकपाल भी हैं.

27 नक्षत्र हैं-
अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, माघ, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, पूर्वा, आषाढ़, उत्तरा आषाढ़, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषेक, पूर्व भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद, रेवती.
इन सबके स्‍वामी और सम्‍पूर्ण तारा-मण्‍डल के राजा चन्‍द्रमा हैं.

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समस्‍त नक्षत्र सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करते है और सुमेरु पर्वत नक्षत्र और द्वीपों का केन्‍द्र तथा सुवर्ण और रत्‍नों का भण्‍डार माना जाता है तथा उसके शिखर अन्‍य पर्वतों की अपेक्षा ऊंचे हैं.

वसुओं में प्रधान – धर, ध्रुव, सोम, अह:, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास- इन आठों को वसु कहते हैं-

धरो ध्रुवश्च सोमश्च अहश्‍चैवानिलोअनल:।
प्रत्‍यूषश्च प्रभासश्व वसवोअष्‍टौ प्रकीर्तिता:॥
(महाभारत आदिपर्व 66.18)

इनमें अनल (अग्नि) वसुओं के राजा हैं और देवताओं को हवि पहुँचाने वाले हैं. इसके अतिरिक्‍त वे भगवान के मुख भी माने जाते हैं.

उन्‍चास मरुतों (वायु) के नाम हैं-
सत्त्‍वज्‍योति, आदित्‍य, सत्‍यज्‍योति, तिर्यग्ज्‍योति, सज्‍योति, ज्‍योतिष्‍मान, हरित, ॠतजित, सत्‍यजित, सुषेण, सेनजित, सत्‍य‍मित्र, अभिमित्र, हरिमित्र, कृत, सत्‍य, ध्रुव, धर्ता, विधर्ता, विधारय, ध्‍वान्‍त, धुनि, उग्र, भीम, अभियु, साक्षिप, ईध्‍क अन्‍याध्‍क, याध्‍क, प्रतिकृत्, त्रक, समिति, संरम्‍भ, ईध्‍क्ष, पुरुष, अन्‍याध्‍क्ष, चेतस, समिता, समिध्‍क्ष, प्रतिध्‍क्ष, मरूति, सरत, देव, दिश, यजु:, अनुध्‍क, साम, मानुष और विश (वायुपुराण 67.123 से 130).

अन्य पुराणों में मरुतों के नामों में भिन्नता पाए जाती है; लेकिन ‘मरीचि’ नाम कहीं भी नहीं मिला है. इसीलिये ‘मरीचि’ को मरुत न मानकर समस्‍त मरुद्गणों का तेज या किरण माना गया है. दक्षकन्‍या मरुत्वती से उत्पन्न पुत्रों को भी मरुद्गण कहते हैं (हरिवंश पुराण). भिन्‍न-भिन्‍न मन्वंतरों में भिन्‍न-भिन्‍न नामों से तथा विभिन्‍न प्रकार से इनकी उत्‍पत्ति के वर्णन पुराणों में मिलते हैं. दितिपुत्र उन्चास मरुद्गण दिति देवी के भगवद्ध्‍यानरूप व्रत के तेज से उत्पन्न हैं. उस तेज के ही कारण इनका गर्भ में विनाश नहीं हो सका था. इसलिये उनके इस तेज को भगवान ने अपना स्‍वरूप बतलाया है.

बृहस्पति देवराज इन्‍द्र के गुरु, देवताओं के कुलपुरोहित और विद्या-बुद्धि में श्रेष्ठ हैं तथा संसार के समस्‍त पुरोहितों में मुख्‍य और आङ्गिरसों के राजा माने गये हैं.

संसार के समस्‍त सेनापतियों में स्कंद प्रधान हैं, जिनका दूसरा नाम कार्तिकेय है. ये महादेव जी के पुत्र और देवताओं के सेनापति हैं. कहीं-कहीं इन्‍हें अग्नि के तेज से तथा दक्षकन्‍या स्वाहा के द्वारा उत्‍पन्न माना गया है (महाभारत वनपर्व 223).

गंधर्वों में प्रधान – गन्धर्व एक देवयोनिविशेष है. ये देवलोक में गायन, वाद्य और नाट्याभिनय किया करते हैं. स्वर्ग में इन्हें ही सबसे सुन्दर और अत्यंत रूपवान माना जाता है. ‘गुह्यक-लोक’ से ऊपर और ‘विधाधर-लोक’ से नीचे इनका ‘गन्धर्व-लोक’ है. देवता ओर‍ पितरों की तरह गन्धर्व भी दो प्रकार के होते हैं- मत्र्य और दिव्य. जो मनुष्‍य मृत्यु के बाद पुण्‍यबल से गन्धर्वलोक को प्राप्त होते हैं, वे ‘मर्त्य’ कहलाते हैं और जो कल्प के आरम्भ से ही गन्धर्व हैं, उन्हें ‘दिव्य’ कहा जाता है. दिव्य गन्धर्वों की दो श्रेणियां हैं- ‘मौनेय’ और ‘प्राधेय’. महर्षि कश्‍यप की दो पत्नियों के नाम थे- मुनि और प्राधा. इन्हीं से अधिकांश अप्सराओं और गन्धर्वों की उत्पत्ति हुई. सभी गंधर्वों में चित्ररथ दिव्य संगीत-विद्या के पारदर्शी और अत्यंत ही निपुण हैं.

वेदों में प्रधान – ॠक्, यजु:, साम और अथर्व- इन चारों वेदों में सामवेद अत्‍यंत मधुर संगीतमय तथा परमेश्वर की अत्‍यंत रमणीय स्‍तुतियों से युक्‍त है; अत: वेदों में उसकी प्रधानता है. सामवेद में ‘बृहत्साम’ एक गीतिविशेष है. इसके द्वारा ईश्वर की इन्द्ररूप में स्तुति की गई है. ‘अतिरात्र’ याग में यही पृष्‍ठस्तोत्र है तथा सामवेद के ‘रथन्तर’ आदि सामों में बृहत्साम (‘बृहत्’ नामक साम) प्रधान होने के कारण सबमें श्रेष्‍ठ है, इसी कारण भगवान ने ‘बृहत्साम’ को अपना स्वरूप बतलाया है.

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शास्त्रार्थ के तीन स्वरूप होते हैं- जल्प, वितण्‍डा और वाद. उचित-अनुचित का विचार छोड़कर अपने पक्ष के मण्‍डन और दूसरे के पक्ष का खण्‍डन करने के लिये जो विवाद किया जाता है, उसे ‘जल्प’ कहते हैं. केवल दूसरे पक्ष का खण्‍डन करने के लिये किये जाने वाले विवाद को ‘वितण्‍डा’ कहते हैं और जो तत्त्वनिर्णय के उद्देश्‍य से शुद्ध नीयत से किया जाता है, उसे ‘वाद’ कहते हैं.
‘जल्प’ और ‘वितण्‍डा’ से द्वेष, क्रोध, हिंसा और अभिमानादि दोषों की उत्पत्ति होती है तथा ‘वाद’ से सत्य के निर्णय में और कल्याण-साधन में सहायता प्राप्त होती हैं. ‘जल्प’ और ‘वितण्‍डा’ त्याज्य हैं तथा ‘वाद’ आवश्‍यकता होने पर ग्राह्य है. इसी विशेषता के कारण भगवान ने ‘वाद’ को अपनी विभूति बतलाया है.

स्वर और व्यञ्जन आदि जितने भी अक्षर हैं, उन सबमें अकार सबका आदि है और वही सबमें व्याप्त है, इसीलिये भगवान ने उसको अपना स्वरूप बतलाया है.

संस्कृत-‍व्याकरण के अनुसार समास चार हैं- अव्ययीभाव, तत्पुरुष, बहुव्रीहि और द्वन्द्व. कर्मधारय और द्विगु- ये दोनों तत्पुरुष के ही अन्तर्गत हैं. द्वन्द्व समास में दोनों पदों के अर्थ की प्रधानता होने के कारण वह अन्य समासों से श्रेष्‍ठ है; इसलिये भगवान ने उसे अपनी विभूतियों में गिना है.

अध्‍यात्मविद्या या ब्रह्मविद्या उस विद्या को कहते हैं जिसका आत्मा से संबंध है, जो आत्मतत्त्व का प्रकाश करती है और जिसके प्रभाव से अनायास ही ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है. संसार में ज्ञात या अज्ञात जितनी भी विद्याएं हैं, सभी इस ब्रह्मविद्या से निकृष्‍ट हैं; क्योंकि उनसे अज्ञान का बंधन टूटता नहीं, बल्कि और दृढ़ होता है; किन्तु इस ब्रह्मविद्या से अज्ञान की गांठ सदा के लिये खुल जाती है और ईश्वर के स्वरूप का यथार्थ साक्षात्कार हो जाता है.

समस्‍त प्राणियों की ज्ञान-शक्ति है, जिसके द्वारा उनको दु:ख-सुख का और समस्‍त पदार्थों की अनुभव होता है, जो अंत:करण की वृत्ति विशेष है, गीता के १३वें अध्‍याय के छठे श्लोक में जिसकी गणना क्षेत्र के विकारों में की गई है, उस ज्ञानशक्ति का नाम ‘चेतना’ है। यह प्राणियों के समस्‍त अनुभवों की हेतुभूता प्रधान शक्ति है.

देवर्षियों में प्रधान – सभी देवर्षियों में नारद जी सबसे श्रेष्‍ठ हैं. साथ ही वे भगवान के परम अनन्य भक्त, महान ज्ञानी और निपुण मंत्रद्रष्‍टा हैं. देवर्षि नारद, असित, देवल और व्‍यास- ये चारों ही भगवान के यथार्थ तत्त्व को जानने वाले, उनके महान् प्रेमी भक्‍त और परम ज्ञानी महर्षि व सम्मानीय हैं. भगवान की महिमा तो ये नित्‍य ही गाया करते हैं. इनके जीवन का प्रधान कार्य है भगवान की महिमा का ही विस्‍तार करना.

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देवर्षियों के लक्षण बताते हुए वायुपुराण में कहा गया है कि-
“जिनका देवलोक में निवास है, उन्‍हें शुभ देवर्षि समझना चाहिये. भूत, भविष्‍य और वर्तमान का ज्ञान होना तथा सब प्रकार से सत्‍य बोलना-देवर्षि का लक्षण है. जो स्‍वयं भलीभाँति ज्ञान को प्राप्‍त हैं तथा जो स्‍वयं अपनी इच्‍छा से संसार से सम्‍बद्ध हैं, जो अपनी तपस्‍या के कारण इस संसार में विख्‍यात हैं, जिन्होंने (प्रह्लादादि को) गर्भ में ही उपदेश दिया है, जो मंत्रों के वक्‍ता हैं और ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से बिना किसी बाधा के सब लोकों में‍ आ-जा सकते हैं और जो सदा ऋषियों से घिरे रहते हैं, वे देवता, ब्राह्मण और राजा- ये सभी देवर्षि हैं.”

देवर्षि अनेक हैं, जिनमें से कुछ के नाम ये हैं- “धर्म के दोनों पुत्र नर और नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्‍य ऋषि, पुलह के कर्दम, पर्वत और नारद तथा कश्‍यप के दोनों ब्रह्मवादी पुत्र असित और वत्‍सल- ये चूंकि देवताओं को अधीन रख सकते हें, इसलिये इन्‍हें ‘दे‍वर्षि’ कहते हैं.”

प्रधान महर्षि – दस महर्षियों के नाम हैं- भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वसिष्ठ और पुलस्त्य. ये सब ब्रह्मा के मन से स्वयं उत्पन्न हुए हैं और ऐश्वर्यवान हैं. महर्षियों में भृगु जी मुख्‍य हैं. ये भगवान के भक्त, ज्ञानी और बड़े तेजस्वी हैं.

मुनियों में प्रधान – भगवान के स्वरूप का और वेदादि शास्त्रों का मनन करने वालों को ‘मुनि’ कहते हैं. भगवान वेदव्यास समस्त वेदों का भलीभाँति चिंतन करके उनका विभाग करने वाले, महाभारत, पुराण आदि अनेक शास्त्रों के रचयिता, भगवान के अंशावतार और सर्वसद्गुण सम्पन्न हैं.

कवियों में प्रधान- जो पण्डित और बुद्धिमान हो, उसे ‘कवि’ कहते हैं. शुक्राचार्य भार्गवों के अधिपति, सब विद्याओं में विशारद, नीति के रचयिता, संजीवनी विद्या के जानने वाले और कवियों में प्रधान हैं.

सर्पों व नागों में प्रधान- वासुकि समस्त सर्पों के राजा और भगवान के भक्त होने के कारण सर्पों में श्रेष्‍ठ माने गये हैं. शेषनाग समस्त नागों के राजा और हजार फणों से युक्त हैं त‍था भगवान की शय्या बनकर और नित्य उनकी सेवा में लगे रहकर उन्हें सुख पहुँचाने वाले, उनके परम अनन्य भक्त और बहुत बार भगवान के साथ-साथ अवतार लेकर उनकी लीला में सम्मिलित रहने वाले हैं तथा इनकी उत्पत्ति भी भगवान से ही मानी गयी है.

गौओं में प्रधान – कामधेनु समस्त गौओं में श्रेष्‍ठ दिव्य गौ है, यह देवता तथा मनुष्‍य सभी की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली है और इसकी उत्पत्ति भी समुद्रमंथन से हुई है.

हाथियों में प्रधान – बहुत से हाथियों में जो श्रेष्‍ठ हो, उसे गजेन्द्र कहते हैं. ऐसे गजेन्द्रों में भी ऐरावत हाथी, जो इन्द्र का वाहन हैं, सर्वश्रेष्‍ठ और ‘गज’ जाति का राजा माना गया है. इसकी उत्पत्ति भी उच्चै:श्रवा घोडे़ की भाँति समुद्र मंथन से ही हुई थी.

पांडवों में श्रेष्ठ- सभी पांडवों में अर्जुन को श्रेष्‍ठ माना गया है. इसका कारण यह है कि नर-नारायण-अवतार में अर्जुन नर रूप में भगवान के साथ रह चुके हैं. इसके अतिरिक्त वे भगवान के परम प्रिय सखा और उनके अनन्य प्रेमी भक्त हैं. इसलिये भगवान ने अर्जुन को ही अपना स्वरूप बतलाया है. भगवान ने स्वयं कहा है-

नरस्त्वमसि दुर्धर्ष हरिर्नारायणो ह्यहम्।
काले लोकमिमं प्राप्तौ नरनारायणवृषी॥
अनन्य पार्थ मत्तस्त्वं त्वत्तश्र्वाह तथैव च।
(महाभारत वनपर्व 12.46-47)

“हे दुर्धर्ष अर्जुन! तुम भगवान नर हो और मैं स्वयं हरि नारायण हूँ. हम दोनों एक समय नर और नारायण ऋषि होकर इस लोक में आये थे. इसलिये तुम मुझसे अलग नहीं हो और उसी प्रकार मैं तुमसे अलग नहीं हूँ.”

स्त्रियों में प्रधान- स्वायम्भुव मनु की कन्या प्रसुति का विवाह प्रजा‍पति दक्ष से हुआ था. उनसे चौबीस कन्याएं हुईं- कीर्ति, मेधा, धृति, स्मृति और क्षमा उन्हीं में से हैं. इनमें कीर्ति, मेधा और धृति का विवाह धर्म से हुआ; स्मृति का अंगिरा से और क्षमा महर्षि पुलह को ब्याही गईं. महर्षि भृगु की कन्या का नाम श्री है, जो दक्षकन्या ख्‍याति के गर्भ से उत्पन्न हुई थीं. इनका पाणिग्रहण भगवान विष्‍णु ने किया और वाक् ब्रह्मा जी की कन्या थीं. इन सातों के नाम जिन गुणों का निर्देश करते हैं- उन विभिन्न गुणों की ये सातों अधिष्‍ठातृदेवता हैं तथा संसार की समस्त स्त्रियों में श्रेष्‍ठ मानी गई हैं.

कव्यवाह, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निष्‍वात्त और बर्हिषद्- ये सात दिव्य पितृगण हैं. (शिवपुराण धर्म. 63।2) इनमें अर्यमा नामक पितर समस्त पितरों में प्रधान होने से श्रेष्‍ठ माने गये हैं.


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