Draupadi Cheer Haran : द्रौपदी का चीरहरण और उनके युग-प्रश्न, महाभारत में श्रीकृष्ण का न्याय

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Draupadi Cheer Haran (Mahabharat)

द्यूत सभा में जो हुआ, उसे सहना तो दूर, कहना भी कठिन है. पांडव जिसे खेल समझकर खेल रहे थे, असल में वह कौरवों की तरफ से कपट भरा युद्ध हो रहा था. युधिष्ठिर उस समय ऐसे लोगों की संगत से घिर गए थे, जो स्वयं दुष्ट थे और आपकी संगत जैसी होती है, आप वैसे ही हो जाते हैं.

उस खेल में युधिष्ठिर अपना पूरा राजपाट, अपनी संपत्ति, अपने चारों भाई और अंत में अपने आप को भी हार गए. खेल यहीं रुक जाता, तो भी ठीक था. लेकिन उसी समय कर्ण ने ऐसी बात कह दी, जिसने मानवता और अस्मिता को लज्जित कर दिया.

कर्ण ने कहा, “अभी वो मृगनयनी द्रौपदी बाकी है युधिष्ठिर. उसे दांव पर लगाओ.”

नीतिवान विदुर से यह घृणित विचार सहन नहीं हुआ. वो तड़पकर बोले, “महाराज धृतराष्ट्र! इस सभा में आपकी ही पुत्रवधू का नाम इतने अनादर से लिया गया, इतिहास में ऐसा घृणित कार्य कभी नहीं हुआ, और आप अपने पुत्रों से कुछ कहते भी नहीं?”

लेकिन तब भी धृतराष्ट्र ने कुछ नहीं कहा. पर उनका मौन, उनकी वो चुप्पी कह गई कि जब पुत्र प्रेम सचमुच अंधा हो जाता है, तो पतन की सीमायें पाताल को भी लज्जित कर देती हैं. दुर्योधन ने संकेत दिया और सभा में बैठा उसका नीच भाई दुःशासन लपककर द्रौपदी के कक्ष की ओर चल पड़ा. उसने द्रौपदी को सभा में चलने का आदेश दिया.

द्रौपदी ने दुशासन से की विनती

तब द्रौपदी ने एक नजर अपने आप को देखा. उस समय वो रजस्वला थीं और इसीलिए एक साड़ी में लिपटी हुई थीं. न कोई श्रृंगार और न कोई आभूषण. उन्होंने हाथ जोड़कर दुःशासन से कहा-

“मुझे इस दशा में वहां उस भरी सभा में मत ले चलो दुःशासन. मैं कुरुवंश की मर्यादा हूँ. मेरी व्यथा को समझो. मैं तुम्हारी भाभी हूँ अतः तुम्हारी माता समान भी हूँ. “

दुशासन ने निष्ठुर आँखों से द्रौपदी को देखा और लपककर उनके बाल पकड़ लिए और घसीटता हुआ राजसभा की ओर चल पड़ा. द्रौपदी पीड़ा से कराह उठीं, हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाईं, पर सत्ता के अहंकार और कामी दुःशासन ने एक न सुनी और खींचकर ले आया वह द्रौपदी को भरी सभा में और अहंकार से अपनी छाती ठोकी.

द्रौपदी को देखते ही दुर्योधन ने अपनी जंघा ठोकते हुए कहा, “आ दासी! मेरी गोद में बैठ जा.”

कर्ण ने द्रौपदी का मजाक उड़ाया और दुःशासन को उन्हें निर्वस्त्र करने के लिए कहा. दुःशासन द्रौपदी की तरफ बढ़ने लगा तो द्रौपदी दौड़कर पितामह भीष्म के पास जा पहुंचीं और आस भरी नजरों से उन्हें देखने लगीं.

द्रौपदी को इस दशा में देखकर भीष्म पितामह की आँखें झुक गईं.

द्रौपदी ने भीष्म से पूछे ये प्रश्न

द्रौपदी ने पितामह भीष्म की जब वो झुकी हुई आँखें देखीं तो क्रोध से बोल पड़ीं-

“आँखें झुका लेने से क्या होगा पितामह? मैं आपकी कुलवधू द्रौपदी एक वस्त्र में लिपटी हुई इस भरी हुई सभा में आपको प्रणाम करती हूँ और यह जानना चाहती हूँ कि आज आप मुझे क्या आशीर्वाद देंगे? आप तो ज्येष्ठ कुरु हैं, महावीर हैं, महा विद्वान हैं. बताइये! क्या आपने केवल कुरु सिंहासन की रक्षा का वचन लिया था, क्या कुरु मर्यादा का कोई महत्त्व नहीं है? आप जैसे महापुरुष, शूरवीर को मुंह छिपाना शोभा नहीं देता पितामह. मेरी ओर देखिये, देखिये मेरी ओर… मैं कुरु मर्यादा के आगे लगा हुआ एक प्रश्न चिन्ह हूँ. देखिए कि आपकी कुलवधू किस दशा में घसीटकर लाई गई है और बताइये कि क्या इस वंश की यही परम्परा है? कुछ तो कहिये पितामह… “

द्रौपदी एक मासूम बच्ची की तरह अपने पितामह के आगे बिलख उठीं और बोलीं-

“जब मैंने पहली बार आपके चरण छुये थे, तब आपने मुझे सौभायवती होने का आशीर्वाद दिया था. अपने उस आशीर्वाद की दशा देखिये पितामह. आपके सामने यह अधर्म हो रहा है और आप सहन कर रहे हैं? इसका क्या अर्थ लगाया जाए पितामह? इस प्रकार क्या आप भी मेरे इस अपमान के भागीदार नहीं हैं? और यदि नहीं हैं तो उठाइये अपना धनुष और छेद दीजिये उस जिह्वा को, जिसने आपकी कुलवधू को दासी कहने का अपराध किया. उठ जाइये पितामह. मैं अपने प्रश्न का उत्तर मांग रही हूँ पितामह. आपका यह लज्जित मौन मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है, क्योंकि यह प्रश्न केवल द्रौपदी नहीं, पूरी नारी जाति कर रही है. इस देश का भविष्य यह प्रश्न कर रहा है.”

तब भीष्म भरी हुई आँखों से बोले, “क्या उत्तर दूँ पुत्री…”

भीष्म के मुंह से “पुत्री” शब्द सुनते ही द्रौपदी चीखकर बोलीं-

“पुत्री? पुत्री मत कहिये पितामह! यदि मैं आपकी पुत्री होती तो आप मेरा यह अपमान सहन न करते. मैं सम्बन्धों की बात नहीं कर रहीं. उस अपमान की बात कर रहीं, जो पिघलकर आंसू बन गया और मेरी आँखों से बह निकला. जो स्वयं जुए में हार गया हो, उसे क्या अधिकार था किसी की स्वतंत्रता छीनने और किसी को दांव पर लगाने का? मुझे दांव पर कैसे लगाया गया? कुरुवंश की मर्यादा इस विषय में क्या कहती है पितामह?”

पर पितामह भीष्म आँखों में पानी भरकर लज्जा से सिर झुकाये बैठे रहे.

द्रौपदी ने धृतराष्ट्र से मांगी सहायता

भीष्म से कोई उत्तर न पाकर द्रौपदी दौड़कर अपने ससुर और हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र की ओर मुड़ीं और बोलीं-

“आपके अनुज पांडु की पुत्रवधू द्रौपदी आपको प्रणाम करती है ज्येष्ठ पिताश्री! आप बड़े भाग्यवान हैं, जो नेत्रहीन जन्में हैं, नहीं तो आज अपनी ही सभा में अपनी पुत्रवधू की यह दशा देखकर अवश्य ही नेत्रहीन हो गए होते. आज आपके ही पुत्र ऐसा अधर्म कर रहे हैं और आप पिता और राजा होकर भी इन्हें नहीं रोकते?”

पर नेत्रहीन धृतराष्ट्र अब शब्दहीन भी हो गए थे. एक निर्लज्ज मौन के सिवाय और कुछ नहीं था उनके पास (और इसीलिए धृतराष्ट्र को महाभारत के सबसे बड़े खलनायकों में से एक माना जाता है, जो सब रोकने की ताकत और अधिकार रखता था, लेकिन सत्ता के लालच, कुंठा और पुत्र प्रेम ने उसे ऐसा अंधा किया, कि उसने कुछ भी होने से नहीं रोका).

द्रौपदी ने गुरु द्रोण से की विनती

असहाय द्रौपदी ने घबराते हुए भरी आँखों से सभा में चारों ओर देखा. तब उन्हें गुरु द्रोण दिखाई दिए. उनके मन में फिर एक आस जगी कि शायद वो इस अन्याय को होने से रोक लें, क्योंकि वो कभी उनके पिता के परम मित्र हुआ करते थे.

द्रौपदी ने रोते हुए गुरु द्रोण को याद दिलाया कि, “आपने तो विदुर से यही सन्देश भेजा था न कि आपके बचपन के मित्र द्रुपद की बेटी होने के नाते मैं आपकी भी बेटी हूँ और पांडु की बहू होने के नाते मैं आपकी भी बहू हूँ. तो आज किस सम्बन्ध से आपके चरण स्पर्श करूँ? बेटी या बहू?”

पर द्रोणाचार्य की तरफ से भी वही उत्तर मिला जो पितामह भीष्म की तरफ से मिला. द्रोणाचार्य ने भी अपने मुंह पर ताला लगाकर अपना सिर झुका लिया.

द्रौपदी ने पांडवों से पूछे सवाल

तब विवशता से जो हाथ द्रौपदी ने सबके सामने जोड़ रखे थे, उन हाथों को खोलकर वे सिंहनी की तरह दहाड़ उठीं और अब उनसे ही प्रश्न किया जिन्होंने जीवनभर उसकी मर्यादा की रक्षा करने का वचन दिया था. वे गुस्से से बोल उठीं युधिष्ठिर से-

“धर्मराज! आपको मुझे दाँव पर लगाने का क्या अधिकार था? आखिर किसकी आज्ञा से आपने मुझे दांव पर लगाया? मछली की आँख भेदकर मेरा स्वयंवर जीतने वाले वीर अर्जुन! क्या आज आपको मेरी रोती हुई आँखें नहीं दिख रहीं? क्या इसीलिए जीता था आपने मेरा स्वयंवर कि एक दिन मैं दांव पर लगा दी जाऊं और आपका धनुष एक लकड़ी के टुकड़े की तरह धरती पर धरा रह जाए? कुछ तो बोलिये आप लोग… धिक्कार है आप सब पर..धिक्कार है इस सभा में बैठे सभी पुरुषों पर… धिक्कार है आप लोगों के आत्मबल पर…”

द्रौपदी के सभी मान-मनुहार, सभी उलाहने, सभी प्रश्न, सभी प्रार्थनाएं व्यर्थ चली गईं. दुर्योधन एक निरंकुश और पागल हाथी की तरह चिंघाड़ उठा, “देख क्या रहे हो दुःशासन! निर्वस्त्र कर दो इसे.”

तब द्रौपदी को हुआ यह आभास

दुःशासन तो जैसे इसी आदेश की प्रतीक्षा कर रहा था. उसके हाथ द्रौपदी के चीर की ओर ऐसे बढ़े जैसे कोई जहरीला नाग अपने शिकार की ओर झपटता है. भरी सभा के सामने वह द्रौपदी की साड़ी खींचने लगा.

अब द्रौपदी को समझ आ चुका था कि किसी से भी आस लगाना व्यर्थ है. वे मानव समाज की असलियत को जान चुकी थीं. द्रौपदी को यह समझ आ गया था कि प्रार्थनाएं किसी मनुष्य के मरे हुए स्वाभिमान को जीवित नहीं कर सकतीं. अब उनकी एकमात्र आस श्रीकृष्ण से रह गई थी. द्रौपदी मन ही मन पुकार उठीं…

“हे गोविन्द! हे मुरारी! हे गिरिधारी! हे द्वारकाधीश श्रीकृष्ण! इस संसार में अब तुम्हारे अतिरिक्त और कोई मेरी लाज बचाने वाला दृष्टिगत नहीं हो रहा है. अब तुम्हीं इस कृष्णा की लाज रखो. मेरी रक्षा करो श्रीकृष्ण. मेरी रक्षा करो…”

द्रौपदी के पुकारते ही श्रीकृष्ण ने जरा भी देरी नहीं की. वे समस्त कार्य त्यागकर तत्काल अदृश्यरूप में वहाँ आ गए और द्रौपदी के चीर में अपने विराट स्वरूप के धागे जोड़ दिए. दुःशासन के हाथ थक गए खींचते-खींचते, लेकिन वह द्रौपदी का एक अंश भी निर्वस्त्र न कर सका. दुःशासन खींचते जाता था और साड़ी थी कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती थी. दुःशासन शिथिल होकर पसीने-पसीने हो गया पर अपने कार्य में सफल न हो सका. अन्त में लज्जित होकर उसे चुपचाप बैठ जाना पड़ा.

उस दिन हस्तिनापुर में जो कुछ भी हुआ, उसका परिणाम यह हुआ कि सौ पुत्रों के होते हुए भी गांधारी निःसंतान मरी. द्रौपदी के इस अपमान को देखकर भीम का सारा शरीर क्रोध से जला जा रहा था. उन्होंने उसी समय भरी सभा में दो भयंकर प्रतिज्ञा कर दीं.

द्रौपदी ने कभी कोई पाप नहीं किया था. वे एक पतिव्रता और सती नारी थीं. और इसीलिए द्रौपदी को पंच महाकन्यायों में स्थान दिया गया है.


भगवान श्रीकृष्ण का न्याय

इस प्रसङ्ग के बाद की पूरी कथा इस घिनौने अपराध के अपराधियों को मिले दण्ड की कथा है. वह दण्ड, जिसे निर्धारित किया भगवान श्रीकृष्ण ने, और किसी को नहीं छोड़ा… किसी को भी नहीं. कोई यह न कह सका कि ‘मेरी क्या गलती थी?’

दुर्योधन ने स्त्री को दिखाकर अपनी जंघा ठोकी थी, तो उसकी जंघा तोड़ी गई. दुशासन ने छाती ठोकी तो उसकी छाती फाड़ दी गई. महारथी कर्ण ने एक असहाय स्त्री के अपमान का समर्थन किया, उसे निर्वस्त्र करने के लिए उकसाया, तो श्रीकृष्ण ने भी असहाय दशा में ही उसका वध कराया.

पितामह भीष्म ने प्रतिज्ञा में बंधकर एक स्त्री के अपमान को देखने और सहन करने का पाप किया, तो सैंकड़ो तीरों में बिंधकर अपने पूरे कुल को एक-एक कर मरते हुए भी देखा. भारत का कोई बुजुर्ग अपने सामने अपने बच्चों को मरते हुए देखना नहीं चाहता, पर भीष्म अपने सामने चार पीढ़ियों को मरते देखते रहे, और जब तक सब देख नहीं लिया, तब तक मर भी न सके.

धृतराष्ट्र ने पुत्रमोह में किसी अपराध को होने से नहीं रोका, तो सौ पुत्रों के शव को कंधा देने का दण्ड मिला. सौ हाथियों के बराबर बल वाला धृतराष्ट्र सिवाय रोने के और कुछ नहीं कर सका.

पांडवों को भी मिली सजा

दण्ड केवल कौरवों को ही नहीं, पांडवों को भी मिला. द्रौपदी का स्वयंवर अर्जुन ने ही जीता था, अतः उनकी सबसे अधिक जिम्मेदारी थी द्रौपदी की रक्षा करने की. सब कुछ कर सकने में समर्थ अर्जुन यदि चुपचाप रोते हुए द्रौपदी का अपमान देखते रहे, तो कठोर दण्ड उन्हें भी मिला.

अर्जुन पितामह भीष्म को सबसे अधिक प्रेम करते थे, तो श्रीकृष्ण ने उन्हीं के हाथों पितामह को मृत्यु दिलाई. अर्जुन उसी प्रकार रोते रहे, पर तीर चलाते रहे.. ग्लानि से अर्जुन कभी मुक्त हुए होंगे क्या? नहीं! वे जीवन भर तड़पे होंगे. उनका यही दण्ड था.

युधिष्ठिर ने स्त्री को दांव पर लगाया, तो उन्हें भी दण्ड मिला. सदा धर्म का पालन करने वाले युधिष्ठिर ने क्या द्रौपदी के अपमान को कभी भुलाया होगा? कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धर्म और सत्य का साथ नहीं छोड़ने वाले युधिष्ठिर ने युद्धभूमि में झूठ बोला, और उसी झूठ के कारण उनके गुरु की हत्या हुई. यह एक झूठ उनके सभी सत्यों पर भारी रहा. ‘धर्मराज’ कहलाने वाले के लिए इससे बड़ा दण्ड क्या होगा?

दुर्योधन जैसे अधर्मी और निर्लज्ज को गदायुद्ध की शिक्षा देने का दण्ड बलराम जी को भी मिला. उनके सामने उनके प्रिय शिष्य दुर्योधन का वध हुआ और वे चाहकर भी कुछ न कर सके.

तुलसीदास जी ने दुर्योधन जैसे लोगों के लिए ही यह चौपाई कही है कि-
‘अधम जाति में विद्या पाए, भयहु यथा अहि दूध पिलाए।’

तुलसीदास जी ने यह चौपाई किसी जाति या वर्ण के लिए नहीं, बल्कि दुर्योधन, रावण, भस्मासुर जैसे दुष्ट प्रजाति के लोगों के लिए कही है. ऐसे दुष्ट कोई भी शक्ति या विद्या पाकर और भी अधिक खतरनाक हो जाते हैं. इसीलिए व्यक्ति की पहचान करके ही उसे कोई विद्या या सिद्धि देनी चाहिए.

बर्बरीक का वध क्यों हुआ?

उस युग में दो योद्धा ऐसे थे जो अकेले सबको दण्ड दे सकते थे, श्रीकृष्ण और बर्बरीक. पर कृष्ण ने ऐसे कुकर्मियों के विरुद्ध शस्त्र उठाने तक से इनकार कर दिया, और बर्बरीक को युद्ध में उतरने से ही रोक दिया. लोग पूछते हैं कि बर्बरीक का वध क्यों हुआ?

यदि बर्बरीक का वध न हुआ होता तो द्रौपदी के अपराधियों को यथोचित दण्ड नहीं मिल पाता. श्रीकृष्ण युद्धभूमि में जय-पराजय तय करने के लिए नहीं उतरे थे, कृष्ण कृष्णा के अपराधियों को दण्ड दिलाने के लिए उतरे थे.

आज कुछ लोगों ने कर्ण का भी बड़ा महिमामण्डन करते हैं. पर ध्यान रखिये! कर्ण कितना भी बड़ा योद्धा और दानी क्यों न रहा हो, एक स्त्री के वस्त्र-हरण में सहयोग का पाप इतना बड़ा है कि उसके सामने सारे पुण्य छोटे पड़ जाएंगे. द्रौपदी के अपमान में किए गए उसके सहयोग ने यह सिद्ध कर दिया कि वह महा कुंठित व्यक्ति था, और उसका वध ही धर्म था.

श्रीकृष्ण के युग में दो स्त्रियों को बालों से पकड़ कर घसीटा गया. माता देवकी के बाल पकड़े कंस ने, और द्रौपदी के दुःशासन ने. श्रीकृष्ण ने दोनों के अपराधियों का समूल नाश किया. और यही कार्य उन्होंने श्रीराम के रूप में भी किया. भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि “पुरुष होने की पहली शर्त है, नारी का सम्मान”.

किसी स्त्री के अपमान का दण्ड अपराधी के समूल नाश से ही पूरा होता है, भले ही वह अपराधी विश्व का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति ही क्यों न हो. यही न्याय है, यही धर्म है. और इस धर्म को स्थापित करने वाला भारत है.

By Radhika Agarwal

(भगवान श्रीकृष्ण का न्याय) आंशिक परिवर्तन सहित साभार : सर्वेश तिवारी श्रीमुख (‘परत’ पुस्तक के लेखक)

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