जब नारद जी ने भगवान को कहा ‘धोखेबाज और मतलबी’

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रामचरितमानस में अलग-अलग त्रेतायुग की कथाएं बताई गई हैं. रामचरितमानस के रूप में चार लोग कथा सुना रहे हैं- भगवान शिव पार्वती जी को, काकभुशुण्ड जी गरुड़ जी को, याज्ञवल्क्य मुनि भरद्वाज को और तुलसीदास जी हम सभी को.

रामचरितमानस में बताया गया है कि भगवान श्रीराम ने पृथ्वीलोक पर कब-कब अवतार लिए हैं. उनके हर अवतार का हेतु और कारण बताया गया है. इस दौरान अलग-अलग त्रेतायुग में अलग-अलग रावण के जन्म का क्या कारण रहा, ये बताते हुए जय-विजय, जलंधर, राजा प्रतापभानु, मनु-शतरूपा आदि की कथाओं की चर्चा की गई है. इन्हीं में से एक कथा है नारद जी के अभिमान (अहंकार) की कथा, जिसके बारे में भगवान शिव माता पार्वती जी को बताते हैं.

भगवान शिव माता पार्वती जी से कहते हैं, “एक कल्प में जब नारद ने श्रीहरि को शाप दे दिया था, तब उस त्रेता में भी भगवान ने मनुष्य रूप में अवतार लिया था.”

यह बात सुनकर पार्वतीजी बड़ी आश्चर्यचकित हुईं और बोलीं कि ‘नारदजी तो विष्णु भक्त और ज्ञानी हैं, फिर उन्हें अहंकार कैसे, और अहंकार भी इतना कि श्रीहरि को ही शाप दे दिया? यह तो बड़े आश्चर्य की बात है. हे पुरारि! यह कथा मुझसे कहिए न कि नारद मुनि ने भगवान को किस कारण से शाप दिया.”

तब भगवान शिव हँसते हुए कथा कहते हैं-

हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा के समीप सुंदर गंगाजी बहती थीं. वह सुंदर स्थान नारद के मन को बड़ा भाया. पर्वत, नदी और वन की सुंदरता को देखकर नादरजी का भगवान के चरणों में प्रेम और भी बढ़ गया. और तब नारद उसी स्थान पर बैठकर श्रीहरि का स्मरण करते हुए समाधि लगाकर बैठ गए (तप करने लगे).

नारद जी की तपस्या को देखकर देवताओं के राजा इंद्र घबरा गए, क्योंकि अपने स्वभाव के ही अनुसार उन्हें लगा कि कहीं नारद जी भी मेरा राज्य पाने के लिए ही तो तप नहीं कर रहे हैं…

 दरअसल, स्वर्गलोक का राज्य इतना वैभवशाली है कि इंद्र से उसका मद संभाला नहीं जाता. इसी मद में वे अहंकारी और लोभी भी हो जाते हैं. और लोभी व्यक्ति को हर किसी की मेहनत और तपस्या देखकर डर ही लगता है और इसी डर में वह कई गलतियां कर बैठता है.

तब इंद्र ने कामदेव और कई अप्सराओं को नारद जी की तपस्या भंग करने के लिए भेज दिया. कामदेव और अप्सराओं ने नारद मुनि के सामने हर प्रकार के मायाजाल बिछाए, लेकिन उनकी कोई भी कला नारद पर असर न कर सकी.

यह देखकर कामदेव अत्यंत भयभीत हो गए. उन्हें अपने ही नाश का डर सताने लगा. तब उन्होंने और सभी अप्सराओं ने नारद जी के चरणों में प्रणाम किया, क्षमा मांगी और वहां से लौट गए. यह देखकर नारदजी के मन में भी कोई क्रोध नहीं आया. यह सब देख-सुनकर इंद्र ने भी नारद जी की बहुत प्रशंसा की.

तब नारदजी भगवान शिवजी के पास गए. उन्होंने अपने साथ घटी इस घटना को शिवजी को कह सुनाया और स्वयं ही अपनी प्रशंसा कर बोले, “आपके ही समान मैंने भी कामदेव को जीत लिया है प्रभु.”

♦ याज्ञवल्क्य कहते हैं कि किसी भी प्राणी के मन में पांच प्रकार के दोष होते हैं- काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार. इनमें से पहले चार दोष अर्थात काम, क्रोध, मोह और लोभ ऐसे दोष हैं, जो छिपाए नहीं छिपते. जिस क्षण मन में आते हैं, उसी क्षण प्रकट हो जाते हैं. लेकिन अहंकार एक ऐसा दोष है, जो कब मन में प्रवेश कर जाता है, प्राणी को स्वयं ही इसका पता नहीं चलता.” किसी को तो इसी बात का अहंकार होता है कि उसे कोई अहंकार ही नहीं है.

नारद की ऐसी बात सुनकर शिवजी ने नारद के भले के लिए ही कहा कि, “नारद! मैं तुमसे विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, उस तरह भगवान श्रीहरि को कभी मत सुनाना. चर्चा भी चले तब भी छिपा जाना.”

लेकिन शिवजी की यह बात नारद को अच्छी न लगी. उन्हें लगा कि उनके यश को छिपाने का प्रयास किया जा रहा है. और तब नारद जी वहां से ब्रह्मलोक को चल दिए. वहां भी उन्होंने अपनी यही कथा कह सुनाई, और तब ब्रह्मा जी ने भी नारद को वही सलाह दी जो शिवजी ने दी थी. लेकिन नारद को उनकी भी सलाह अच्छी न लगी.

और तब नारद हाथ में सुंदर वीणा लिए, हरिगुण गाते हुए क्षीरसागर को गए, जहां लक्ष्मीकांत निवास कर रहे थे. नारद ने अपनी पूरी कथा श्रीविष्णु जी को कह सुनाई और कहा कि, “काम को जीतने में मैं शिवजी के ही समान हो गया हूं.”

इस पर भगवान विष्णु जी ने नारद से कहा, “हाँ मुनि! आपका स्मरण करने से तो दूसरों के मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं, फिर आपके लिए तो कहना ही क्या है. आप तो ब्रह्मचर्यव्रत में तत्पर और बड़े धीर बुद्धि हैं. भला आपको भी कामदेव सता सकता है?”

श्रीहरि के ऐसा कहने पर तो नारद का अभिमान और भी बढ़ गया. उन्होंने बड़े अभिमान के साथ कहा, “भगवन! यह सब आपकी ही कृपा है.” और नारद वहां से चल दिये.

तब भगवान ने अपनी प्रिया लक्ष्मी जी से कहा, “नारद के मन में गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है. मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा, जिससे मुनि का कल्याण हो.”

तब जिस रास्ते से नारद जी जा रहे थे, उसी रास्ते पर श्रीहरि ने सौ योजन (चार सौ कोस) का एक मायावी नगर रचा. उस नगर की रचना भगवान विष्णु के नगर वैकुण्ठ से भी ज्यादा सुंदर थी. उस नगर में कामदेव और उनकी पत्नी रति के समान ही सुंदर शरीर धारण किए मनुष्य बसते थे. नगर के राजा का नाम शीलनिधि था, जिसके पास असंख्य घोड़े, हाथी और सेना की टुकड़ियाँ थीं. उसका वैभव और विलास सौ इन्द्रों के समान था.

शीलनिधि की एक बेटी थी, जिसका नाम विश्वमोहिनी था. वह इतनी रूपवती थी कि जिसे देखकर स्वयं माता लक्ष्मीजी भी मोहित हो जाएं.

जब भगवान विष्णु मोहिनी अवतार धारण करते हैं, तब सिवाय मोहिनी के बाकी सब कुछ फीका नजर आता है.

विश्वमोहिनी का स्वयंवर होने वाला था, जिसके लिए बहुत सारे राजा उस राज्य में आए हुए थे. जब नारद ने ऐसा अद्भुत नगर देखा तो उन्होंने बड़े आश्चर्य से उस नगर में प्रवेश किया.

सभी नगरवासियों से सब प्रकार की जानकारी लेकर नारद जी राजा के महल में गए. राजा ने नारद जी का आदर-सत्कार किया और अपनी पुत्री के गुण-दोषों के बारे में पूछा.

विश्वमोहिनी को अपनी तरफ आते देख नारद जी अपना पूरा वैराग्य भूल गए और उसकी तरफ देखते ही रह गए, लेकिन उन्होंने किसी के सामने अपनी मन की बात को प्रकट नहीं किया.

विश्वमोहिनी के रूप को देखकर नारद जी अपने-आप को ही भूल गए और कुछ भी कह सकने में असमर्थ थे. अतः नारद ने विश्वमोहिनी की बड़ी प्रशंसा की और अपनी तरफ से कुछ लक्षण बनाकर राजा से कह दिए और वहां से चल दिए.

लेकिन अब नारद के मन में यह बड़ी चिंता थी कि, “ऐसा क्या उपाय करें जिससे विश्वमोहिनी स्वयंवर में मुझे ही वरमाला पहनाए. इस समय जप-तप से तो कुछ हो नहीं सकता, इतना समय ही नहीं है. इस समय तो मुझे तत्काल ही ऐसा सुंदर रूप चाहिए, जिसे देखकर राजकुमारी विश्वमोहिनी मेरे ही गले में जयमाला डाल दे.”

तब नारद जी ने सोचा कि, “एक काम करता हूं कि भगवान जी से सुंदरता ही मांग आता हूं. हालांकि उनके पास जाने में भी काफी देर हो जाएगी, लेकिन श्रीहरि के समान मेरा कोई दूसरा हितैषी भी तो नहीं, अतः इस समय वही मेरी सहायता कर सकते हैं.”

नारद जी ने भगवान विष्णु से हर प्रकार से प्रार्थना की और कहा कि, “हे प्रभु! मुझे ऐसा रूप दे दीजिए, जिसे जो भी देखे तो बस देखता ही रह जाए. हे प्रभु जिस तरह से भी मेरा हित हो कृपया वही कार्य शीघ्र कीजिए.”

तब भगवान श्री विष्णु जी ने कहा, “हाँ नारद! मैं वही करूंगा जिसमें आपका परम हित होगा.”

नारद जी भगवान की बात को समझ न सके. उन्हें मन में बड़ा हर्ष हुआ कि ‘अब तो काम बन ही जाएगा’. वे तुरंत वहां से सीधे विश्वमोहिनी के स्वयंवर में जा पहुंचे.

सभी राजा लोग खूब सज-धज कर अपने-अपने आसन पर बैठे थे. वहीं पर शिवजी के दो गण भी बैठे हुए थे जो सारा भेद जानते थे, इसलिए ब्राह्मण का वेश बनाकर इस पूरी लीला का आनंद उठाने के लिए घूम रहे थे.

नारद मन ही मन बहुत प्रसन्न हो रहे थे कि ‘मेरा रूप तो बड़ा ही सुंदर है. विश्वमोहिनी मेरे ही गले में वरमाला डालेगी’. बड़े अभिमान के साथ नारद उन्हीं राजाओं की पंक्ति में जा बैठे. तब शिवजी के उन दोनों गणों ने हंसते हुए नारद जी पर व्यंग्य कसते हुए कहा, “अरे देखो तो, भगवान ने तो इनको कितनी अच्छी सुंदरता दी है. इनकी शोभा देखकर तो राजकुमारी रीझ ही जाएगी, ‘हरि’ जानकर इन्हीं के गले में वरमाला डालेगी.”

शिवजी के उन दोनों गणों के व्यंग्य को नारद जी समझ न सके.

वहीं, विश्वमोहिनी अपनी सखियों के साथ आई और हाथों में जयमाला लिए एक-एक करके सभी राजाओं की ओर देखने लगी. नारद जी को देखकर उसे कुछ क्रोध आया लेकिन बिना कुछ जताए वह अन्य राजाओं की तरफ देखने लगी.

इस पर नारद मुनि बार-बार उचकते और छटपटाते हैं, कि तभी भगवान विष्णु भी राजा का शरीर धारण कर वहां जा पहुंचे. राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल दी.

यह देखकर नारद जी बहुत ही विकल हो गए. मानो गाँठ से छूटकर मणि गिर गई हो. तब शिवजी के गणों ने हंसते हुए कहा, ‘जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिए!’ और ऐसा कहकर वे दोनों गण वहां से भाग गए.’

नारद जी ने वहीं एक पात्र में रखे जल में झाँककर अपना मुँह देखा. उनका रूप बंदर के समान था. अपना ऐसा रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ़ गया. तब उन्होंने सबसे पहले शिवजी के उन गणों को अत्यन्त कठोर शाप दे दिया, “राक्षसों की तरह किसी मुनि की हंसी करने वाले, तुम दोनों राक्षस ही हो जाओ.”

फिर नारद ने फिर से जल में देखा, तो उन्हें अपना असली रूप प्राप्त हो गया. लेकिन उनके होंठ फड़क रहे थे और मन में अत्यंत क्रोध भरा हुआ था. वे सीधे भगवान विष्णु जी के पास गए. रास्ते में मन में सोचते जाते कि ‘जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा.’

तब भगवान विष्णु उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गए. साथ में लक्ष्मीजी और वही राजकुमारी विश्वमोहिनी भी थीं. भगवान ने बड़ी ही मीठी वाणी में कहा, ‘हे मुनि! इतने व्याकुल होकर कहाँ चले?’

ये शब्द सुनते ही नारद को बड़ा क्रोध आया. माया के वश में उनकी बुद्धि उनके साथ ही न रही. वे बड़े क्रोध से चिलाते हुए भगवान श्रीहरि से बोले-

“तुमसे दूसरों का सुख नहीं देखा जाता. तुम्हारे मन में बड़ी ईर्ष्या और कपट है. समुद्र मंथन के समय देवताओं को प्रेरित करके शिवजी को विष पिला दिया, असुरों को मदिरा पिला दी और स्वयं लक्ष्मी और सुंदर कौस्तुभ मणि ले ली. तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो. सदा कपट का व्यवहार करते हो. भले को बुरा और बुरे को भला बना देते हो. सबको ठग-ठगकर इतने निडर हो गए हो कि शुभ-अशुभ कर्म जैसा तुम्हें कुछ नहीं सूझता. तुम तो स्वतंत्र हो, तुम्हारे ऊपर तो कोई है नहीं, इसलिए जब जो मन में आता है, वही करते हो.”

“अब तक तुम्हें किसी ने ठीक नहीं किया था. लेकिन अबकी बार तुमने मेरे जैसे जबर्दस्त मुनि से छेड़खानी की है. अतः अपने किए का फल अवश्य पाओगे. तुमने संसार में मेरी हंसी कराई है, अतः तुम्हें भी मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ेगा. मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराके तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी अपनी पत्नी वियोग में दुःखी होंगे और जिस बंदर का रूप देकर तुमने मेरी हंसी उड़वाई है, उन्हीं बंदरों की सहायता तुम्हें लेनी पड़ेगी. यह मेरा शाप है.”

भगवान विष्णु ने नारद के शाप को स्वीकार कर लिया और अपनी माया की प्रबलता भी खींच ली. जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहां न लक्ष्मी थीं और न ही राजकुमारी विश्वमोहिनी. यह देखकर नारद जी अत्यंत भयभीत हो गए.

तब भगवान श्रीहरि ने नारद जी से कहा, “नारद! आप तो कह रहे थे कि आपने काम को जीत लिया है और आप भगवान शिव जी के समान हो गए हैं, लेकिन विश्वमोहिनी को देखकर तो आप अपना आपा ही खो बैठे.”

फिर श्रीहरि ने आगे कहा, “देवर्षि! जब किसी प्राणी के मन में अहंकार अपना डेरा जमा लेता है, तब उसका अच्छा-भला रूप भी बिगड़ जाता है. जब अहंकारी व्यक्ति अपनी छाती फुलाए चलने लगता है, तब उसकी चाल को देखकर बुद्धिमान लोगों को हंसी आने लगती है. जिस प्रकार दीपक की लौ अपनी ही बाती को धीरे-धीरे जलाकर राख कर देती है, उसी प्रकार प्राणी का अहंकार उसके तेज और तप का नाश कर देता है और उसी नाश से मैं आपको बचाना चाहता था.”

तब नारद जी को मन में बड़ा पश्चाताप हुआ. वे श्रीहरि के चरण पकड़ लेते हैं और कहते हैं, “हे शरणागत के दुःखों को हरने वाले! मेरी रक्षा कीजिए. हे कृपालु! मेरा शाप मिथ्या हो जाए. मैंने आपको अनेक खोटे वचन कहे हैं. मेरे पाप कैसे मिटेंगे प्रभु? हे दीनदयाल! मुझे क्षमा कीजिये.” और पश्चाताप से जल रहे नारद जी रोने लगते हैं.

तब भगवान विष्णु ने कहा, “आप जाकर भगवान शिव के शतनाम का जप कीजिये, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी. शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है. शिवजी जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पा सकता. इसलिए अब आप आराम से विचरिये. अब मेरी माया आपके निकट नहीं आएगी.” और इतना कहकर प्रभु अंतर्धान हो गए.

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