Goswami Tulsidas : भक्ति, भाव और भाषा के अप्रतिम सम्राट गोस्वामी तुलसीदास

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Goswami Tulsidas Ramcharitmanas

Goswami Tulsidas Ramcharitmanas

अस्थि चर्म मय देह मम, तामैं ऐसी प्रीति!
तैसी जो श्रीराम में होति, न तौ भव भीति।।

इन्हीं शब्दों से तुलसीदास जी की वही यात्रा शुरू हो गई थी, जिसके लिए उनका जन्म हुआ था. इसके बाद तुलसीदास जी ने अपना सारा जीवन भगवान् श्रीरामसीता जी के ही चरणों में समर्पित कर दिया. हनुमान जी को अपना मित्र बना लिया. भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न जी को ही अपना भाई बना लिया. वे अपने को श्रीराम के भरोसे छोड़ देते हैं क्योंकि श्रीराम के अतिरिक्त कोई अन्य आश्रय नहीं है.

एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास।

इसके बाद गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के रूप में ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना की, जो केवल हिन्दुओं का पवित्र ग्रन्थ ही नहीं, संसार का गौरव ग्रन्थ है. यह महाकाव्य धर्म, दर्शन, संस्कृति, भक्ति भाव और काव्य सौष्ठव का अक्षय भण्डार है. भक्ति, ज्ञान और कर्म तीनों का सामंजस्य है. मानव जीवन के विविध पहलुओं और भावनाओं का जितना सुंदर वर्णन इस ग्रन्थ में मिलता है, उतना किसी अन्य महाकाव्य में नहीं मिलता. जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में प्रेरणा देने योग्य युक्तियाँ इसमें विद्यमान हैं.

तुलसी साथी विपत्ति के विद्या, विनय, विवेक।
साहस सुकृति सुसत्याव्रत राम भरोसे एक।।

लोकमान्यता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी को रामचरितमानस का कार्य स्वयं भगवान् शिव ने सौंपा था और इस युगकार्य में उनकी सहायता हनुमान जी ने की थी. तुलसीदास जी को हनुमान जी के कई बार दर्शन हो चुके थे और हनुमान जी ने ही उन्हें श्रीराम के दर्शन करवाए थे. यह भी कहा जाता है कि रामचरितमानस की रचना करते समय तुलसीदास जी कई चौपाइयों और दोहों पर अटक जाते थे. तब उनकी वे चौपाइयां और दोहे हनुमान जी ने पूरे करवाए थे. और शायद यही कारण है कि रामचरितमानस जैसी अद्वितीय रचना आज तक नहीं हुई.

लोकमान्यता के अनुसार, एक बार सूरदासजी से किसी ने पूछा कि ‘सबसे उत्तम कविता किसकी है?’ इस पर सूरदासजी ने कहा—‘मेरी.’

फिर उनसे पूछा गया कि ‘तो फिर गोस्वामी तुलसीदासजी की कविता को आप कैसी समझते हैं?’

इस पर सूरदासजी ने कहा- ‘आप तो कविता के लिए पूछ रहे थे न.. और तुलसीदासजी की रचना कविता नहीं, मन्त्र हैं.’

चित्रकूट के घाट पे, भई संतन की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक करें रघुबीर।।

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गोस्वामी तुलसीदास जी पर वासुदेव शरण अग्रवाल लिखते हैं-

“रामचरितमानस विक्रम की दूसरी सहस्त्राब्दी का सबसे अधिक प्रभावशाली ग्रंथ है.”

एक अज्ञात लेखक ने लिखा है-

“भारतीय वांग्मय के समुद्र से अनेक विचार-मेघ उठे और बरसे. उनके अमृत तुल्य जल की जिस मात्रा में जनता को आवश्यकता थी, उसे समेट कर गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में भर दिया है. जो अन्यत्र था, वह साररूप से यहां आ गया है. मानस में समस्त वेद, पुराण, शास्त्र और काव्यग्रंथों का निचोड़ सरल से सरल रीति से प्रस्तुत किया गया है.”

रामकाज करने वालों में राम की शक्ति समाई।

महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण के रूप में ऐतिहासिक ग्रंथ की रचना की और उसे पूर्णता गोस्वामी तुलसीदास जी ने प्रदान की है, और इसीलिए गोस्वामी जी को वाल्मीकि जी के ही दूसरे अवतार के रूप में सदैव से ही सराहा गया है. जहां वाल्मीकि जी ने रामायण के रूप में तत्कालीन इतिहास की जानकारी दी है, वहीं तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के रूप में सभी के चरित्र का ज्ञान कराया है. रामचरितमानस ने आधुनिक लोगों को वाल्मीकि रामायण को समझने में बहुत मदद की है.

तुलसीदास जी जिस काल में उत्पन्न हुए थे, उस समय हिन्दू वर्ग बहुत अधोगति में पहुँच चुका था. हिन्दुओं का धर्म और आत्म सम्मान विदेशी आतताइयों के अत्याचारों से कुचला जा रहा था. धर्म, समाज, राजनीति, आदि सभी क्षेत्रों में घोर विषमता व्याप्त थी. सब ओर निराशा, वैषम्य और अशांति का वातावरण छाया हुआ था.

ऐसे समय में गोस्वामी तुलसीदास जी ने आमजन की सरल भाषा में ही श्रीराम का संदेश हिंदू जनता तक पहुंचाया. तुलसीदास जी पहले रामचरितमानस की रचना संस्कृत में ही कर रहे थे, पर वे जैसे ही कोई श्लोक लिखते, तभी कुछ न कुछ ऐसा हो जाता कि वे श्लोक मिट जाते. तब तुलसीदास जी ने रुद्राष्टकम सहित कुछ पदों को छोड़कर आम-जन की ही भाषा में रचना की.


विश्व के कलापारखियों का हृदयहार है रामचरितमानस

रामचरितमानस विश्व के कलापारखियों का हृदयहार रहा है, जिसका ज्वलंत प्रमाण यह है कि भगवान श्रीराम के चरित्र पर आज तक जितनी भी रचनाएं हुई हैं, उनमें सबसे ज्यादा अनुवाद रामचरितमानस के ही हैं.

एक ओर अमेरिकी पादरी एटकिंस ने अपनी आयु के श्रेष्ठ 8 वर्ष लगाकर रामचरितमानस का अंग्रेजी में पद्यानुवाद किया था (जबकि उनसे पूर्व भी रामचरितमानस के कई अनुवाद विद्यमान थे), तो दूसरी ओर अनीश्वरवादी रूस के मूर्धन्य विद्वान प्रोफेसर वरान्नीकोव ने अपने अमूल्य जीवन का एक बड़ा भाग लगाकर और द्वितीय विश्वयुद्ध की भीषण परिस्थिति में, कजाकिस्तान में शरणार्थी के रूप में रहकर भी रूसी भाषा में रामचरितमानस का पद्यानुवाद किया. उपर्युक्त मनीषियों के अतिरिक्त गार्सा द तासी (फ्रेंच), ग्राउज, ग्रियर्सन, ग्रीव्ज, कारपेंटर, हिल (सभी अंग्रेज) आदि न जाने कितने ही काव्यमर्मज्ञ तुलसीदास जी की प्रतिभा पर मुग्ध हैं.

हीरे की परख जौहरी को ही होती है. गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरितमानस पर मुग्ध बहुत से श्रेष्ठ कवियों और लेखकों ने उनके लिए अपने-अपने शब्दों में बहुत कुछ कहने का प्रयास किया है, जिनके कुछ अंश यहां प्रस्तुत कर रही हूँ-

“गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरितमानस एक सर्वांगपूर्ण रचना है जो हर दृष्टि से असाधारण है.”

“गोस्वामी जी का चरित्र चित्रण अभूतपूर्व और अतुलनीय है, जो सभी आध्यात्मिक रचनाओं को बहुत पीछे छोड़ जाता है. उनकी भक्ति में छुटपन-बड़प्पन, ऊंच-नीच जैसा कोई भेदभाव नहीं है.”

डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने तुलसीदास जी के सम्बन्ध में लिखा है-

“भावों के महत्व के साथ-साथ उनकी भाषा का माधुर्य हमें आनंद रस से भर देता है. उनकी अवधी और ब्रज भाषा की शब्दावली की झंकार से हमारा चित्त प्रीति-रस-सिक्त हो जाता है. देवभाषा संस्कृत और लोकभाषा दोनों के ताने-बाने से कैसा अपूर्व धूप-छाँही वस्त्र उन्होंने बुना है. उनके काव्य की मिठास कानों के भीतर प्रवेश कर हमारे प्राणों को विह्वल कर देती है.”

डॉक्टर चटर्जी आगे लिखते हैं-

“अपनी भक्ति के साथ-साथ समाज की रक्षा के लिए तुलसीदास जी का अपरिसीम आग्रह था और इसी भक्ति और समाज रक्षा की चेष्टा के फलस्वरूप रामचरितमानस महाग्रंथ रचित हुआ, जिसकी पूतधारा ने आज तक उत्तर भारत की हिंदू जनता के चित्त को सर्वशक्तिमान बनाए रखा है.”

डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-

“गोस्वामी तुलसीदास जी कवि ही नहीं थे, वे पूर्णभक्त भी थे, समाज सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्य के दृष्टा भी थे. इन रूपों में उनका कोई भी रूप किसी से घटकर नहीं था, और इसीलिए वे रामचरितमानस जैसी अद्वितीय रचना कर पाए, जो आज तक भारत का मार्गदर्शक रही है और उस दिन भी रहेगी, जिस दिन नवीन भारत का जन्म हो गया होगा.”

गोस्वामी जी के संबंध में हरिऔध जी के हृदय से स्वयं ही फूट पड़ी निम्नलिखित प्रशस्ति अपनी समीचीनता में बेजोड़ है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि-

बन राम रसायन की रसिका,
रसना रसिकों की हुई सुफला!
अवगाहन मानस में करके,
मन मंदिर का मल सारा टला!!
भई भाव ते पावन भूमि भली,
हुआ भावुक भावुकता का भला!
कविता करके तुलसी न लसे,
कविता लसी पा तुलसी की कला!!

“कविता तुलसी से नहीं, बल्कि तुलसी से कविता गौरवान्वित हुई है. तुलसीदास जी को पाकर वाणी धन्य हो उठी है.”

“तुलसीदास जी भाव और भाषा के अप्रतिम सम्राट हैं”

यद्यपि नम्रतावश और भक्तिवश तुलसीदास जी ने स्वयं को कभी कवि नहीं माना, और हम भी तुलसीदास जी को मात्र एक कवि नहीं मानते. तुलसीदास जी ने जो किया, वह भगवान् श्रीराम के प्रेम में और जगत कल्याण के लिए किया. पर यहां हम तुलसीदास जी पर एक चर्चा एक कवि के रूप में भी करना चाहते हैं. काव्यशास्त्र के सभी लक्षणों से युक्त उनकी रचनाएँ हिंदी का गौरव हैं. प्रबंधकाव्य और मुक्त काव्य दोनों की रचना में उन्हें अद्वितीय सफलता मिली है. श्रृंगार का जैसा मर्यादित वर्णन तुलसीदास जी ने किया, वैसा आज तक किसी दूसरे कवि से न बन पड़ा.

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा।
सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल।
मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥

किसी विद्वान ने लिखा है-

“गोस्वामी तुलसीदास जी रससिद्ध के कवीश्वर और भाव और भाषा के अप्रतिम सम्राट हैं. उन्होंने रामचरितमानस में शास्त्रोक्त नवरसों को तो साकार किया ही है, साथ ही अपनी अलौकिक प्रतिभा से एक नूतन रस की भी सृष्टि कर डाली. गोस्वामी जी ने रस-परिपाक के अतिरिक्त संचारी भावों और अनुभावों की अलग से भी ऐसी कुशल योजना की है कि उनकी प्रतिभा पर दंग रह जाना पड़ता है. मणिकांचन योग द्वारा नई शैली को जन्म देकर एक ही ग्रंथ को श्रव्य-काव्य और दृश्य-काव्य दोनों बना दिया.”

उठे रामु सुनि पेम अधीरा.
कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥

शब्दों की ध्वनिमात्र से तुलसीदास जी कठोर से कठोर और मृदुल से मृदुल भावों और दृश्यों का साक्षात्कार कराने में पूरी तरह सफल रहे हैं-

कुस कंटक काँकरी कुराई।
कटुक कठोर कुवस्तु दुराई।।
महि मंजुल मृदु मारण कीन्हे।
बहत समीर त्रिबिध मुख लीन्हे।।

गोस्वामी जी का अलंकार विधान बड़ा ही सहज और हृदयग्राही बन पड़ा है, जो रूप, गुण और क्रिया का प्रभाव तीव्र करता है-

झलका झलकत पायन्ह कैसें।
पंकज कोस ओस कन जैसें॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी।
छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी।।

संपूर्ण लंका में विभीषण ही संत स्वभाव के थे. शेष सारा समाज दुर्जन और परपीड़क था. ऐसों के बीच में रहकर जीने के लिए विवश विभीषण अपनी दशा का वर्णन करते हुए हनुमान जी से कहते हैं-

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥

“हे पवनपुत्र! लंका में मैं वैसा ही जीवन जी रहा हूं, जैसे 32 दांतों के बीच में जीभ रहती है. न दांतों का संग छोड़ सकती है और न उनसे निश्चिंत हो सकती है.”

गोस्वामी जी का सांसारिक अनुभव बहुत व्यापक और गंभीर था. जैसे-

ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥

“संगति का प्रभाव बड़ा गहरा पड़ता है. सत्संग पाकर बुरा व्यक्ति भी भला बन जाता है और कुसंगति से भला व्यक्ति भी बुरा हो जाता है. संसार में कोई वस्तु अच्छी या बुरी नहीं होती. कुयोग और सुयोग पाकर ही वस्तुएं अच्छी या बुरी हो जाती हैं.”

“उपदेसिबो जगाइबो, तुलसी उचित न होइ” (जो व्यक्ति जानबूझकर अनीति के मार्ग पर चलता है, उसे उपदेश देना कदापि उचित नहीं है).

काल दंड गहि काहु न मारा।
हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥


तुलसीदास जी की विनयपत्रिका (Vinaypatrika)

गोस्वामी जी के 37 ग्रन्थ माने जाते हैं. अपने दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास जी ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ की हैं- गीतावली, कृष्ण-गीतावली, रामचरितमानस, पार्वती-मंगल, विनयपत्रिका, जानकी-मंगल, पार्वती मंगल, रामललानहछू, दोहावली, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, सतसई, बरवै रामायण, कवितावली, हनुमान बाहुक।

गोस्वामी तुलसीदास जी भगवान् श्रीराम के परम भक्त और उपासक थे. विनयपत्रिका में उन्होंने अपनी भक्ति भावना का सांगोपांग वर्णन किया है. यह भक्तिरस का असाधारण ग्रन्थ है. गोस्वामी जी ने इसमें अपनी पत्रिका (अर्जी) राजा श्रीराम के दरबार में भेजी है. भक्त के दैन्य और आत्मसमर्पण की भावना का जैसा उत्कट रूप इस ग्रन्थ में मिलता है, वैसा अन्यत्र विरल है. इसी कारण आचार्य शुक्ल ने कहा है कि भक्ति का जैसा परिपाक विनयपत्रिका में हुआ है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता. भक्ति और काव्य दोनों ही दृष्टि से यह अनुपम है.

जब भक्त भगवान् और उनके महत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है, तब उसे अपने लघुत्व की अनुभूति होने लगती है और इस अनुभूति के होने पर भक्त में दैन्य भाव का आविर्भाव होने लगता है. जब भक्त भगवान् के शील की अनुभूति करता है, तो वह अपने कर्मों के लिए पश्चाताप करता है. और जब उनकी अनन्य शक्ति की झलक पा लेता है, तो आश्चर्यचकित होता हुआ उत्साह से भर जाता है.

और जब वह प्रभु की अनंत सौंदर्य राशि का सन्धान पा लेता है तो पुलकित हो उठता है. इस प्रकार भगवान् की इन तीनों शक्तियों- शील, शक्ति और सौंदर्य का दर्शन करके उनके महत्त्व के सम्मुख नतमस्तक हो जाता है. तुलसीदास जी ने इस महत्त्व की अनुभूति की थी और उनकी इस अनुभूति की अभिव्यक्ति विनयपत्रिका में हुई है.

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सभी भेदभावों को मिटाती है रामचरितमानस

रामचरितमानस की रचना कर तुलसीदास जी ने निर्गुण-सगुण, शैव-वैष्णव, जाति-पाँति, छुआछूत आदि को लेकर सभी लकीरों, भेदभाव, शंकाओं और भ्रांतियों को दूर कर दिया है. उन्होंने अद्वैतवाद, द्वैतवाद, ज्ञान, भक्ति, सगुण और निर्गुण में भी समन्वय स्थापित करके पारस्परिक विद्वेष के लिए कोई गुंजाइश न छोड़ी-

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव संभव खेदा।। (उत्तरकाण्ड 7.115)

अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥ (बालकाण्ड 1.116)

“भक्ति और ज्ञान में कुछ भी अंतर नहीं है. दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों का हरण कर लेते हैं. सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है. वेद भी ऐसा ही कहते हैं. जो निर्गुण, निराकार, अव्यक्त और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण और साकार रूप धारण कर लेता है.”

राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा।
कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥ (अयोध्याकाण्ड 2.93)

गुर पितु मातु महेस भवानी।
प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के।
हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥ (बालकाण्ड 1.1.15)

लिंग थापि बिधिवत करि पूजा।
सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥
सिव द्रोही मम भगत कहावा।
सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥ (लंकाकाण्ड 1.6.2)

न जानामि योगं जपं नैव पूजां।
नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥ (उत्तरकाण्ड 7.108 – रुद्राष्टकम)

“हे प्रभु! मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न ही पूजा. हे शम्भु! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ. हे प्रभु! बुढ़ापा तथा जन्म-मृत्यु के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखी की रक्षा कीजिए. हे शम्भु! मैं आपको नमस्कार करता हूँ.”

राजघाट सब बिधि सुंदर बर।
मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर।। (उत्तरकाण्ड 7.29)

“राजघाट सब प्रकार से सुंदर और श्रेष्ठ है, जहाँ चारों वर्णों के पुरुष स्नान करते हैं.”

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता॥
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥ (अरण्यकाण्ड 3.35)

जिस घर में रामचरितमानस को आदर के साथ रखा जाता है, भक्तिभाव के साथ पढ़ा या सुना जाता है, उस घर पर श्रीराम और सीता जी की कृपा सदैव रहती है और घर में शांति का वातावरण रहता है.

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अब अंत में, रामचरितमानस के बालकाण्ड के कुछ अंशों की सहायता से हम एक नजर गोस्वामी तुलसीदास जी की हर एक के प्रति भक्ति और विनम्रता पर डालते हैं-

तुलसीदास जी की भक्ति और वंदना

“अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली माता सरस्वती जी और श्री गणेश जी की मैं वंदना करता हूँ. श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वती जी और श्री शंकर जी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते, और जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं.”

“श्री सीतारामजी के गुणसमूह रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कवीश्वर श्री वाल्मीकि जी और कपीश्वर श्री हनुमान जी की मैं वन्दना करता हूँ. उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्रीराम जी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ.”

“मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जिन्होंने रामायण की रचना की है. मैं श्री ब्रह्मा जी के चरण रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है. मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो संसार समुद्र के पार होने के लिए जहाज के समान हैं. देवता, विप्र, पंडित, ग्रह- इन सबके चरणों की वंदना करके मैं हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप सब मुझ पर प्रसन्न होकर मेरे सभी सुंदर मनोरथों को पूरा करें.”

तुलसीदास जी की विनम्रता और विनती

“मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ. मैं तो सब कलाओं और सब विद्याओं से रहित हूँ. काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है. मेरी रचना सब गुणों से रहित है. इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है कि इसमें श्री रघुनाथ जी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है.”

“मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्री रामजी का प्रताप प्रकट है. मेरे मन में यही एक भरोसा है. पार्वतीजी और शिवजी दोनों का स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चाव भरे चित्त से श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ. यदि श्री शिवजी और पार्वती जी मुझ पर स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्न हों, तो मैंने इस भाषा कविता का जो प्रभाव कहा है, वह सब सच हो.”

“जो श्री रामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो लोभ, क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करने वाले, धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है. मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ, बस अपनी बुद्धि के अनुसार श्री रामजी के गुण गाता हूँ. कहाँ तो श्री रघुनाथ जी का अपार चरित्र, और कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि!”

“मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ. मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्री रामजी का चरित्र अथाह है. मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है. मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है. मेरी बुद्धि तो अत्यंत नीची है और चाह अमृत पाने की है. सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को प्रेमपूर्वक सुनेंगे. जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें भी प्रसन्न मन से सुनते हैं.”

संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।

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