ऋषियों को भी सिद्धि तभी तप से मिलती है
जब पहरे पर स्वयं धनुर्धर राम खड़े होते हैं…
वनवास के दौरान श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मण जी ऋषि शरभंग के आश्रम से निकलकर आगे चले तो उन्हें जगह-जगह अस्थियों-हड्डियों के बड़े-बड़े ढेर दिखाई पड़े, मानो कोई श्मशान भूमि हो. श्रीराम को आते हुए देखकर वहां रहने वाले सभी ऋषि-मुनि उनके साथ हो लिये.
जब श्रीराम ने उनसे अस्थियों के ढेर के बारे में पूछा तो सभी ऋषि रो पड़े, जैसे युगों-युगों से पीड़ा के अथाह सागर में डूब-उतरा रहा कोई प्राणी अपने उद्धारक को देखकर रो पड़ता है. आँखों से बहती तरल पीड़ा के साथ भर्राए स्वर में बोले ऋषि, “उबारो राम… अब सहन नहीं होता. उबारो…”
“आप बताइये तो ऋषिवर, राम प्राण देकर भी आपकी पीड़ा को समाप्त करने का वचन देता है.” क्रोध और पीड़ा से काँप उठे थे राम…
“इस वन में चारों ओर बिखरे अस्थियों के ढेर देख रहे हो श्रीराम? ये उन ऋषियों की अस्थियाँ हैं, जिन्हें वे मारकर खा गए हैं. जाने कितने समय से यह धरा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी राम! अब सहन नहीं होता… रक्षा करो राम, रक्षा करो…”
ऋषियों के जुड़े हुए हाथ अलग नहीं हो रहे थे.
श्रीराम के नेत्रों में जल छा गया. वे गरजकर बोले, “कौन है? कौन कर रहा है ये निर्मम अत्याचार? बताइये ऋषिवर! उनसे इस सृष्टि को मुक्त करने का वचन देता हूँ मैं…”
“वे मनुष्य नहीं हैं. उनके नाम मनुष्य जैसे हैं, पर वे मनुष्य नहीं हैं. अपना धर्म बेच चुके, विदेशों से आयातित क्रूर विचारधारा के दास वे दुष्ट राक्षस हैं राक्षस. वे ऋषि-मुनियों, तपस्वियों, जनसेवा में जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेकर आये हुए संतों आदि को मारकर खा जाते हैं. यह वनक्षेत्र पूर्णतः उनके अधीन हो चुका है. वे नहीं चाहते कि धर्म का नाम लेने वाला कोई व्यक्ति इस वन में प्रवेश भी करे… देश के भीतर बन चुके इस विदेशी उपनिवेश को मुक्त कराओ राम! यह देश आपका है, आप वीर और शरणागतवत्सल हैं. आप नगर में रहें या वन में, हमारी रक्षा करना ही आपका धर्म है, इसीलिए हम आपकी शरण में आए हैं, हमारी रक्षा कीजिये श्रीराम, हमें इन राक्षसों से बचाइए…”
श्रीराम ने दाहिने हाथ से अपने धनुष को हवा में लहराया और प्रतिज्ञा के स्वरों में बोले, “आप निश्चिन्त होइये ऋषिवर! राम इस धरा को राक्षसी अत्याचारों से मुक्त कराने का प्रण लेता है. आप सब लोगों को कष्टों से मुक्ति दिलाने के लिए ही मैं यहां आया हूँ. मेरे वनवास का शेष समूचा समय इन राक्षसों के संहार में ही कटेगा.”
राक्षसों के वध के लिए श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी दण्डकारण्य की ओर प्रस्थान करते हैं.
श्रीराम को सीता जी का उपदेश
श्रीराम की प्रतिज्ञा को सुनकर सीता जी चिंता में पड़ जाती हैं. वे श्रीराम को अपनी चिंता का कारण भी बताती हैं. सीता जी की चिंता इस बात को लेकर थी कि दण्डकारण्य के राक्षसों से हमारी तो कोई शत्रुता नहीं है, तो क्या उन राक्षसों के वध के लिए ही श्रीराम का दण्डकारण्य में जाना उचित होगा? अभी श्रीराम राजा नहीं हैं, एक साधारण वीर नागरिक ही हैं, तो क्या बिना किसी वैर के दण्डकारण्य में जाकर सभी राक्षसों का वध करने पर संसार श्रीराम को गलत तो नहीं कहेगा?
और दण्डकारण्य में अनगिनत राक्षस हैं. उन सभी का वध करते-करते कहीं श्रीराम को शस्त्र प्रयोग की ही आदत न लग जाये और कहीं श्रीराम अधर्म की ओर आकृष्ट न हो जायें, क्योंकि शस्त्र प्रयोग की आदत लग जाने या उसमें कुशलता प्राप्त हो जाने से एक साधारण मनुष्य के हृदय में विकार उत्पन्न हो जाता है, उसकी बुद्धि क्रूर और कलुषित हो जाती है.
इसे लेकर सीता जी श्रीराम को एक ऐसे मुनि की कथा सुनाती हैं जो शस्त्र-प्रयोग की आदत लग जाने से अधर्म करने लगे थे और क्रूर बन गए थे, जिससे उन्हें नरक भोगना पड़ा था.
सीता जी स्नेहभरी सुन्दर वाणी में श्रीराम से कहती हैं कि-
“आर्य! संसार में कामनाओं से उत्पन्न होने वाले तीन ही व्यसन होते हैं- मिथ्याभाषण, परस्त्रीगमन और बिना शत्रुता के ही दूसरों के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार. इन तीनों में से मिथ्याभाषण व्यसन और परस्त्रीविषयक अभिलाषा जैसी कुत्सित इच्छा न आपके मन में कभी हुई थी और न आगे ही कभी होगी. आपकी जितेन्द्रियता को मैं अच्छी तरह जानती हूं. आप सदा ही अपनी धर्मपत्नी में अनुरक्त रहने वाले, धर्मनिष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ तथा पिता की आज्ञा का पालन करने वाले हैं. आपमें धर्म और सत्य दोनों ही हैं.”
“लेकिन दूसरों के प्राणों की हिंसारूप जो तीसरा भयंकर दोष है, उसे लोग मोहवश बिना वैर-विरोध के भी किया करते हैं, और आज वही दोष आपके सामने भी उपस्थित हो रहा है. वीर! आपने दण्डकारण्य के सभी राक्षसों का वध करने की प्रतिज्ञा कर ली है. इससे मेरा मन चिंता से व्याकुल हो उठा है. वीर! मैं सदैव आपके कल्याण की ही बात सोचती रहती हूँ, इसलिए इस समय आपका दंडकारण्य में जाना मुझे ठीक नहीं लग रहा.”
“रघुनन्दन! उन राक्षसों ने हमारे साथ तो कोई अपराध नहीं किया, फिर भी आप दण्डकारण्य में जाकर उनका वध करेंगे तो संसार के लोग इसे अच्छा नहीं समझेंगे. हम तीनों तो पिता की आज्ञा से तपोवन में आए हैं, इसलिए यहां हमें अहिंसा धर्म का ही पालन करना चाहिए. कहाँ शस्त्र धारण और कहाँ वनवास, कहाँ क्षत्रियों का कठोर कर्म और कहाँ हर प्राणी के प्रति दया और तपस्या… ये सब परस्पर विरोधी व्यवहार जान पड़ते हैं.”
“अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले क्षत्रिय वीरों के लिए धनुष धारण करने का उद्देश्य यह होता है कि संकट में पड़े हुए प्राणियों की रक्षा करें. अतः आप अयोध्या में जाकर ही क्षत्रिय धर्म का अनुष्ठान कीजियेगा. यहां तो आप प्रतिदिन शुद्धचित्त होकर तपोवन में धर्म का अनुष्ठान कीजिये.”
इसके बाद सीता जी श्रीराम से यह भी कहती हैं कि-
“स्वामी! मैंने नारी जाति की स्वाभाविक चपलता के कारण भी आपसे यह सब बातें कह दी हैं. वास्तव में आपको धर्म का उपदेश करने में कौन समर्थ है? (आपमें धर्म और सत्य दोनों ही हैं, और आप धर्म को पूर्ण रूप से जानने वाले हैं). अतः इस विषय में आप अपने छोटे भाई लक्ष्मण जी के साथ अच्छे से विचार कर लें और फिर आप दोनों को जो उचित लगे, वही करें.”
श्रीराम का उत्तर
सीता जी की बातें सुनकर श्रीराम ने इस प्रकार उत्तर दिया-
“प्रिये! तुम धर्म को जानने वाली हो. तुम्हारा मेरे ऊपर स्नेह है, इसलिए तुमने मेरे हित की बात कही है. तुमने जो कुछ भी कहा है, वह (पत्नी होने के नाते) तुम्हारे योग्य है. सीते! तुमने स्नेह और सौहार्दवश मुझसे ये बातें कही हैं. इससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ, क्योंकि जो अपना प्रिय न हो, उसे कोई हितकर उपदेश नहीं देता. तुम्हारा यह कथन तुम्हारे योग्य तो है ही, तुम्हारे कुल के भी सर्वथा अनुरूप है. तुम मेरी सहधर्मिणी हो और मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हो.”
पर सीते! मैं तुम्हें क्या उत्तर दूँ? तुमने स्वयं ही यह बात कह दी है कि क्षत्रिय इसलिए धनुष धारण करते हैं ताकि किसी को दुःखी होकर हाहाकार न करना पड़े.” (सीता जी ने यह बात भी कह दी थी कि ‘क्षत्रिय वीरों के लिए धनुष धारण करने का उद्देश्य यही होता है कि संकट में पड़े हुए प्राणियों की रक्षा करें’).
[श्रीराम सीता जी को समझाते हैं कि वे राक्षस निरपराध नहीं हैं. वे अत्यंत क्रूर हैं. वे आज हमें नहीं, पर दूसरों को बहुत कष्ट दे रहे हैं. निर्दोष प्राणियों का रक्त बहा रहे हैं. धीरे-धीरे उनकी क्रूरता बढ़नी ही है. राजा न होते हुए भी श्रीराम अपने वनवास के दौरान अधर्मियों, आतताइयों को किस अधिकार से दण्ड दे रहे थे, इसका कारण उन्होंने (किष्किन्धाकाण्ड में) बालि को भी स्पष्ट किया था.
दण्डकारण्य में रहने वाले ऋषियों ने भला उन राक्षसों का क्या बिगाड़ा था, फिर भी वे राक्षस उन ऋषियों को बड़ी निर्ममता से मार डालते थे, ताकि राक्षसों का साम्राज्य फैलाया जा सके. ऐसे दुष्टों के कारण शस्त्र उठाना ही पड़ता है. उन राक्षसों को दंड देने और उनसे ऋषि-मुनियों की रक्षा के लिए किसी वीर योद्धा का आना बहुत आवश्यक था.
यह जरूरी नहीं कि संकट जब तक हम पर न आये, या जब तक हमारे कटने की बारी न आये, तब तक हम शांति से दाना ही चुगते रहें कि ‘भला इससे हमें क्या लेना-देना’. हर परिस्थिति में अधर्म का विरोध करना और उसका दमन करना बहुत आवश्यक है, तभी देश, धर्म और मानवजाति की रक्षा हो सकती है.
देश और मानवजाति की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है. इन सबके लिए निमंत्रण नहीं दिया जाता, स्वयं उपस्थित हो जाया जाता है. देश, धर्म और मानवजाति की रक्षा के लिए, अधर्मियों और आतताइयों का नाश करने के लिए देश का हर वीर नागरिक सैनिक के समान है.]
श्रीराम सीता जी से कहते हैं-
“सीते! दण्डकारण्य में कठोर व्रत का पालन करने वाले सभी ऋषि-मुनि बहुत दुःखी हैं. वे सभी क्रूर राक्षसों के अत्याचारों से पीड़ित हैं. वे राक्षस इन ऋषियों को मारकर खा जाते हैं. इसीलिए मुझे शरणागतवत्सल जानकर वे स्वयं ही मेरे पास सहायता मांगने के लिए आए हैं और मुझसे कहा है कि “प्रभु! मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिये.”
“उनके मुख से निकली हुई रक्षा की पुकार सुनकर और उनकी आज्ञा-पालन की सेवा का विचार मन में लेकर मैंने पूर्ण रूप से उनकी रक्षा करने की प्रतिज्ञा ली है. मुनियों के सामने यह प्रतिज्ञा करके अब मैं जीते जी इस प्रतिज्ञा को मिथ्या नहीं करूंगा, क्योंकि सत्य का पालन मुझे सदा ही प्रिय है.”
ऋषियों की रक्षा करना मेरा आवश्यक कर्तव्य है. ऋषियों के बिना कहे ही मुझे उनकी रक्षा करनी चाहिए थी. वे अपनी रक्षा के लिए मेरे पास आये, यह मेरे लिए लज्जा की बात है. मुझे तो स्वयं ही उनकी सेवा में उपस्थित हो जाना चाहिए था. फिर भी जब उन्होंने स्वयं कहा और मैंने प्रतिज्ञा भी कर ली, तो अब मैं उनकी रक्षा से मुंह कैसे मोड़ सकता हूँ?”
और इस प्रकार श्रीराम सीता जी को प्रेम से सब कुछ समझाते हैं, और सीता जी भी श्रीराम के विचारों से पूर्ण संतुष्ट हो जाती हैं. तब तीनों दण्डकारण्य के लिए निकल पड़ते हैं.
♦ हालाँकि सीता जी यह मानती और जानती हैं कि संकट में पड़े हुए प्राणियों की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करना चाहिए, वे यह भी अच्छी तरह जानती हैं कि श्रीराम शस्त्रों का प्रयोग अधर्म करने और निरपराध प्राणियों के वध के लिए कभी नहीं करेंगे, लेकिन फिर भी वे श्रीराम को दण्डकारण्य में राक्षसों का वध करने से मना क्यों करती हैं?
ऐसा इसलिए क्योंकि यदि सीताजी ऐसा नहीं करतीं तो हमें इस विषय में श्रीराम के महत्वपूर्ण विचार और उनका मार्गदर्शन जानने को नहीं मिलता. चूंकि वाल्मीकि जी वही सब लिख रहे थे, जो वे ऊपर से देख रहे थे. श्रीराम और सीता जी कौन सी लीला किस प्रयोजन से कर रहे थे, यह सब वाल्मीकि जी ने नहीं लिखा है.
जैसे पार्वती जी शिवजी से प्रश्न पूछती रहती हैं और भगवान् शिव उन्हें उत्तर देते रहते हैं. पार्वती जी ‘जिज्ञासा’ हैं और भगवान् शिव ‘गुरु’. पार्वती जी की जिज्ञासा को शांत करने के लिए शिवजी उन्हें अनेकों कथाएं सुनाते रहते हैं. इस बहाने वे सभी कथाएं और उनसे जुड़ीं शिक्षायें हम सब तक पहुँच पाती हैं. वही कार्य यहां श्रीराम और सीता जी कर रहे हैं.
यद्यपि सीता जी स्वयं ही शक्ति स्वरूपा हैं और दुर्गा का रूप धारण कर दैत्यों का संहार करती रहती हैं. लेकिन इस प्रसंग में सीता जी का श्रीराम को इस प्रकार का उपदेश देना और उस पर श्रीराम का उत्तर देना आदि सब कुछ मानवजाति के मार्गदर्शन के लिए हैं.
पहली बात कि यदि आपमें सामर्थ्य है तो किसी के साथ यदि अत्याचार हो रहा है तो चुप मत रहो बल्कि प्रतिरोध करो, चलो ठीक है प्रतिरोध नहीं कर सकते, मगर अत्याचारी का सहयोग भी न करो, नहीं तो आप सर्वनाश की ओर बढ़ते चले जाते हैं.
अहिंसा परमो धर्म
धर्म हिंसा तथैव च:
सीमा पर खड़े होने वाले भारतीय जवान अपने लिए शस्त्र नहीं उठाते. वे वहां अपने लिए नहीं जाते. वे देशवासियों, मानवजाति की रक्षा के लिए ही शस्त्र धारण करते हैं. नहीं तो हम सब न तो चैन से भोजन कर सकते हैं, न सो सकते हैं. इतिहास में हमारे देश के जितने भी वीरों ने क्रूर आतताइयों से लड़ाई लड़ी है, वे उन्होंने अपने लिए नहीं लड़ी, देश और मानवजाति की रक्षा के लिए ही लड़ी है.
दूसरी बात कि प्रतिज्ञा के बंधन में ऐसे न बंध जाओ कि बाद में पश्चाताप करना पड़े. जैसे भीष्म को प्रतिज्ञा करके बाद में पछताना पड़ा था. प्रतिज्ञाएं मनुष्य को बांधकर अक्सर मार्ग से भटका देती हैं.
♦ यहां सीता जी की बातों का एक अर्थ यह है कि- “अति सर्वत्र वर्जयेत”. विज्ञान हो या शस्त्र प्रयोग, सभी के साथ धर्म, सत्य, ज्ञान, न्याय और विवेक का होना अति आवश्यक है, तब ही विज्ञान और शस्त्र प्रयोग कल्याणकारी हो सकते हैं.
सीता जी की इस बात से श्रीराम पहले से ही सहमत हैं. निश्चय ही शस्त्र का प्रयोग देश, सत्य-धर्म और मानवजाति की रक्षा के लिए ही होना चाहिए न कि निरपराध प्राणियों के वध के लिए. और श्रीराम भी यही कर रहे थे.
जैसे महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, पुष्यमित्र शुंग आदि वीरों ने शस्त्र का प्रयोग धर्म कार्यों में, देशहित में, मानवजाति की रक्षा में ही किया. ये सभी वीर धर्म, सत्य, ज्ञान, न्याय और विवेक को भी अपने साथ रखते थे.
♦ इसी के साथ, इस प्रसंग में आप श्रीराम और सीता जी का एक-दूसरे से बात करने का तरीका भी देखिये. उनका एक-दूसरे के प्रति सम्मान, प्रेम, विश्वास, आपसी समझ को देखिये.
वैसे तो हमें श्रीराम और रावण की आपस में कभी कोई तुलना नहीं करनी चाहिए, पर ‘राम-रावण’ की तुलना अच्छाई और बुराई के विभेद को स्पष्ट करती है.
रामायण में मंदोदरी रावण को अनेक बार समझाती हैं, पर रावण हर बार “स्त्रियों को डरपोक” बताकर मंदोदरी की सभी बातों को अनसुना कर देता है.
वहीं, श्रीराम ने सीता जी को कुछ भी कहने या कोई भी सलाह देने से कभी नहीं रोका. सीता जी श्रीराम को बहुत देर तक उपदेश देती हैं, और श्रीराम बड़े ही प्रेम और ध्यान से सीता जी की बातों को सुनते हैं. हालाँकि श्रीराम सीता जी की सभी बातों से सहमत नहीं होते, लेकिन फिर भी वे सीता जी को ‘डरपोक’ आदि बताकर चुप नहीं करा देते, बल्कि उनकी चिंता का निवारण करते हैं. उपदेश देने के लिए वे सीता जी की प्रशंसा भी करते हैं और उसके बाद वे सीता जी को उचित आश्वासन देकर अपने विचारों से संतुष्ट करते हैं.
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