ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी…

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पर्यायवाची शब्द किसे कहते हैं (What are Synonyms)-

ऐसे शब्द जिनके अर्थ में समानता हो, पर्यायवाची शब्द या समानार्थी शब्द (Synonyms) कहलाते हैं. किसी भी सुदृढ़ भाषा में पर्यायवाची शब्दों की संख्या बहुत ज्यादा होती है, जैसे संस्कृत (Sanskrit) में पर्यायवाची शब्द संख्या बहुत ज्यादा है. हिंदी में संस्कृत की तुलना में पर्यायवाची शब्द कम हैं, इसका कारण है- समय-स्थान के साथ आए भाषायी बदलाव में शब्दों के अर्थों का संकुचन.

प्राचीन भारत में, जब संस्कृत आम बोलचाल की भाषा थी, तब बहुत से शब्दों का प्रयोग बहुत विस्तृत अर्थों में किया जाता था, जैसे मृग, बीज, मांस आदि. लेकिन वर्तमान में इन शब्दों का अर्थ बहुत संकुचित हो गया है.

इसे अच्छे से समझने के लिए देखिए- ‘वाल्मीकि रामायण में मांसाहार’

हिंदी में भी शब्दों के पर्यायवाची शब्द में संस्कृत के तत्सम शब्द ही अधिक है, जिसे उसी रूप में स्थान दिया गया है. पर्यायवाची शब्द सामान्य रूप से अर्थ समानता रखते हैं, लेकिन प्रत्येक शब्द का महत्व विषय और स्थान के अनुसार होता है.

जैसे- एक शब्द है ‘सारंग’ जिसके अनेक पर्यायवाची शब्द हैं-
आँचल, दीपक, स्त्री, साड़ी, वायु, फूल, चंद्रमा, जल, हाथी, हिरण, सांप… आदि.

सारंग लै सारंग चली, कर सारंग की ओट
सारंग झीनी जानिकै, सारंग कर गई चोट.

अब इन पक्तियों में किस ‘सारंग’ का क्या अर्थ है, यह आपको देखना है.

यहां रामचरितमानस की कई विवादित चौपाइयों पर चर्चा की गई है-

ढोल गंवार शूद्र पशु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।

श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी की इस चौपाई का अर्थ गलत तरीके से लगाया जाता है. इसका कारण है- वर्तमान में शब्दों के संकुचित अर्थ और शब्द ज्ञान की कमी.

पहली बात कि तुलसीदास जी ने जिस प्रकार अपनी सभी रचनाओं में सीता जी, सती नारियों की, देवियों की आराधना की है, उनकी प्रशंसा की है, उसे देखकर यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि तुलसीदास जी किसी नारी का अपमान कर सकते हैं. रामचरितमानस की शुरुआत की चौपाइयों में उन्होंने श्रीराम से भी पहले सीता जी की वंदना की है. इसी प्रकार, तुलसीदास जी ने अपनी अनेकों रचनाओं में यही बताया है कि उन्हें जातियों से कोई मतलब ही नहीं है और न ही वे अपनी कोई जाति मानते हैं.

तुलसीदास जी ने इसी रामचरितमानस में यह भी लिखा है-

नृप सब भाँति सबहि सनमानी।
कहि मृदु बचन बोलाईं रानी॥
बधू लरिकनीं पर घर आईं।
राखेहु नयन पलक की नाई॥

“राजा (दशरथ) ने सबका सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर रानियों को बुलाया और कहा- बहुएँ पराए घर आई हैं. इन चारों को इस प्रकार से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रों की रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुँचाती हैं, वैसे ही इनको सुख पहुँचाना).

तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना जन-सामान्य की भाषा में की है और इसलिए इसमें उस समय के प्रचलित शब्द ज्यादा आए हैं. तो सबसे पहले हम देखते हैं ‘ताड़ना’ शब्द के समानार्थी शब्द-

ताड़ना के पर्यायवाची शब्द

‘ताड़ना’ शब्द के तीन तरह के अर्थ हैं-
(1) मारना, पीटना, दंड देना, प्रताड़ित करना
(2) देखना, पहचान करना, परखना, भाँपना, अंदाज से मालूम करना, लख लेना (जैसे- ‘मैंने तुम्हें देखते ही ताड़ लिया’)
(3) शिक्षा देना, ध्यान रखना, उबारना, तारना

जैसा कि हमें मालूम है कि पर्यायवाची शब्दों में प्रत्येक शब्द का महत्व, विषय और स्थान के अनुसार होता है. इस चौपाई में आप ध्यान दीजिये- लास्ट में ‘अधिकारी’ शब्द आया है. तो निश्चित सी बात है कि ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ को कोई अधिकार देने की बात कही जा रही है, न कि कोई दंड देने या पीटने की.

इस चौपाई में अगर हम ‘ताड़ना’ का अर्थ “मारना, पीटना, दंड देना, प्रताड़ित करना” आदि से लगाएंगे, तो लास्ट में आए ‘अधिकारी’ शब्द का तो मतलब ही गलत हो जाएगा, क्योंकि कभी ये नहीं कहा जाता है “यह व्यक्ति दंड का या पिटने का अधिकारी है”.

तो इसका अर्थ है कि यहां ‘ताड़ना’ का अर्थ ‘शिक्षा देना’ या ‘उबारना’ से है, यानी- ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी.. ये सभी शिक्षा के या समझने के अधिकारी हैं.

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पहली बात कि इस चौपाई में तुलसीदास जी खुद ये बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि वे समुद्र देव के द्वारा कही हुई बात को लिख रहे हैं. जिसने जो कहा, तुलसीदास जी ने सब लिख दिया. रावण ने श्रीराम और सीता जी के लिए अपशब्द कहे तो तुलसीदास जी ने वह सब भी लिख दिया. तुलसीदास जी ने तो कई जगहों पर खुद को भी ‘मूर्ख’, ‘नीच’ कहा है.

समुद्र देव के अहंकार के कारण श्रीराम भी अत्यंत क्रोधित हैं और उनका क्रोध देखकर समुद्र देव बहुत डरे हुए हैं. ऐसे में डर के कारण समुद्र देव जो मन में आए, बोले जा रहे हैं. यहाँ समुद्र देव खुद को ‘गंवार’ यानी ‘अज्ञानी’ कह रहे हैं.

निश्चित सी बात है कि भयभीत समुद्र देव श्रीराम से यह तो कहेंगे नहीं कि “भगवान्! मुझे पीटो, मुझे दंड दो, मैं पिटने का अधिकारी हूँ.”

भयभीत समुद्र देव श्रीराम से कहना चाह रहे हैं कि- “हे नाथ! मेरे सब दोष क्षमा कीजिए. आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इनका स्वभाव वैसा ही होगा, जैसा आपने बनाया है. ये मर्यादा (जीवों का स्वभाव) आपकी ही बनाई हुई है. ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री आदि सभी शिक्षा के अधिकारी हैं. इसलिए मेरे दोषों को क्षमा करके मुझे सही शिक्षा दीजिये कि मुझे क्या करना चाहिए.”

याअच्छा हुआ प्रभु जो आपने मुझे शिक्षा दी. लेकिन मर्यादा यानी जीवों का स्वभाव भी आपने ही बनाया है. इसलिए ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी के स्वभाव को ताड़ना यानी समझना और पहचानना चाहिए और उनकी किसी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए. उन्हें बताना चाहिए (शिक्षा देनी चाहिए, समझाना चाहिए) कि उन्हें क्या करना चाहिए.”

श्रीराम समुद्र देव की स्थिति और मन की दशा को समझ रहे हैं, इसलिए उन्होंने कुछ नहीं कहा, केवल लंका तक जाने का रास्ता या उपाय बताने को कहा.

यहां समुद्र देव यह कहना चाह रहे हैं कि कोई गंवार (अज्ञानी व्यक्ति), शूद्र, नारी, पशु आदि से अगर कोई गलती हो भी जाती है, तो भी ये सब दंड के पात्र नहीं, बल्कि शिक्षा के अधिकारी हैं. यानी इन सभी को दंड देने की बजाय सही शिक्षा देनी चाहिए. शिक्षा इन सभी का अधिकार है. इन सभी का खास ध्यान रखना चाहिए. यदि ढोलक के सुर को नहीं पहचान पाएंगे तो वह बेसुरा बजेगा, गंवार यानी अज्ञानी व्यक्ति को पहचानकर उससे उसी हिसाब से बात करनी चाहिए.

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इस चौपाई में ‘ढोल’ शब्द को बाकी पदों के एक उदाहरण के तौर पर पेश किया गया है. जैसे- ढोल अगर गलत आवाज निकाल रहा है, तो इसमें उसकी गलती है क्या? वह तो बजाने वाले की गलती है कि वह कैसा बजा रहा है. ढोल को सही थाप दी जाएगी, तो वह सही और अच्छी आवाज भी निकालेगा.

शूद्र का अर्थ यहां जाति नहीं बल्कि कर्मचारी से है, यानी कर्मचारियों की पहचान करनी चाहिए और उसकी क्षमता और काबिलियत के अनुसार ही उन्हें कोई कार्य देना चाहिए. इसी तरह से पशु के व्यवहार का बुरा नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वह एक नासमझ जीव है. इसी प्रकार नारी के स्वभाव को भी पहचानना और समझना चाहिए, तभी उसके साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर पाएंगे. क्योंकि जिस समाज में नारी का सम्मान नहीं होता या उसके अधिकारों का ध्यान नहीं रखा जाता, वहां हमेशा तनाव का माहौल रहता है.

रामचरितमानस की रचना इस तरह की गई है, जिसे कभी भी गाया जा सके. बहुत सी बातों के अर्थ को ‘एक ही’ चौपाई में समेट देने की कोशिश की गई है. सभी नाम एक-दूसरे के लिए उदाहरण का काम कर रहे हैं.

पूरी रामचरितमानस ठीक से पढ़ी जाए, तो पता चलता है कि तुलसीदास जी की नजर में वह व्यक्ति ‘छोटा’ है, जो बिना वजह दूसरों को दुःख देता है, जैसे कि रावण, मेघनाद आदि, फिर चाहे वे ब्राह्मण हों या वीर. और तुलसीदास जी की नजर में वह पशु-पक्षी भी महान है, जो दूसरों की सहायता करते हैं, जैसे वानर, गिलहरी, जटायु आदि.

‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ के नाम पर तुलसीदास जी पर आरोप लगाने वालों को ये क्यों नहीं दिखाई देता कि रामचरितमानस में तुलसीदास जी जब रामराज्य की बात करते हैं तो वे सरयू नदी के तट पर चारों वर्णों के एक साथ स्नान करने का वर्णन करते हैं. तुलसीदास जी ने वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत सभी को समान रखा है-

राजघाट सब बिधि सुन्दर बर
मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर

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कोई भी ऋषि अपने ग्रंथों का अनुवाद करके नहीं गए हैं और न ही कोई स्पष्टीकरण देकर गए हैं. हिंदी अनुवाद केवल मदद के लिए होते हैं, ये थोड़ी न है कि पूरी तरह उन्हीं पर आश्रित होकर बैठ जाओ. क्या आधुनिक अनुवादक हजारों साल पहले लिखे गए ग्रंथों के भावों को समझ सकते हैं? नहीं! वे केवल अपनी-अपनी समझ के अनुसार शब्दार्थ ही लिख सकते हैं, भावार्थ, तत्वार्थ या गूढ़ार्थ नहीं.. और इस बात को तो हमेशा याद रखिए कि भगवान ने यह संसार किसी के भी प्रति भेदभाव करने के लिए नहीं बनाया.


सापत ताड़त परुष कहंता।
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥
पुन्य एक जग महुं नहिं दूजा।
मन क्रम बचन बिप्र करि पूजा॥

ध्यान दें- तुलसीदास जी ने “विप्र” को पूजनीय बताया है. लेकिन यह भी ध्यान दीजिए कि उन्होंने श्रीराम का साथ देने वाले वानरों और नारी की रक्षा के लिए लड़ने वाले पक्षी जटायु को भी “विप्र” बताया है.

‘विप्र’ का अर्थ केवल ‘ब्राह्मण’ के अर्थ में नहीं लिखा गया है. विप्र का एक अर्थ ब्राह्मण भी होता है, लेकिन विप्र एक व्यापक शब्द है.

हर ब्राह्मण विप्र नहीं होता, लेकिन किसी भी वर्ण का व्यक्ति या कोई जानवर-पक्षी भी अपनी परोपकारिता और सदाचार से विप्र बन सकता है. इसी प्रकार, तुलसीदास जी ने नारी पर अत्याचार करने और मांस-भक्षण करने वाले रावण को अहंकारी, अविवेकी, अशिष्ट, असभ्य, दुराचारी, शूद्र और अधम कहा है.

इस चौपाई में तुलसीदास जी कहना चाह रहे हैं कि दुष्ट व्यक्ति अगर रावण की तरह शक्तिशाली और ज्ञानी भी हो, तो भी वह पूजनीय नहीं है, वहीं विप्र (परोपकारी व्यक्ति) अगर ज्ञानी या शक्तिहीन या गुणहीन भी हो, तो भी वह पूजनीय है.

जो व्यक्ति हमारा हित चाहता है, वह डांटता-मारता हुआ भी अच्छा है. हमारे माता-पिता और शिक्षक की डांट और फटकार भी हमारे हित में ही होती है. जहाँ माता-पिता या शिक्षक अपने बच्चों को डांटने-फटकारने से डरते हैं, वहाँ केवल बच्चों का ही नहीं, पूरे समाज का हाल देख लीजिए. इसी प्रकार, जिस व्यक्ति के अंदर दूसरों के लिए छल-कपट नहीं होता, परोपकारी होता है, उसका दिया श्राप भी फलदाई होता है.

रामायण में ही देखिए, हनुमान जी और नल-नील को बचपन में ऋषियों ने श्राप दे दिया था, लेकिन उनके वही श्राप हनुमान जी और नल-नील के लिए बाद में वरदान साबित हुए.

वहीं, दुष्ट और छली व्यक्ति की मीठी-मीठी बातें भी बड़ी घातक हैं. यदि दुष्ट और छली व्यक्ति को शक्तियां या सिद्धियां प्राप्त हो जाएं, तो और भी ज्यादा खतरनाक है, जैसे कि रावण और दुर्योधन आदि.

अधम जाति में विद्या पाए।
भयहु यथा अहि दूध पिलाए।।

बलराम जी ने दुर्योधन जैसे अधर्मी को गदायुद्ध सिखाकर बहुत बड़ी गलती कर दी थी. ऐसे लोग अपनी शक्तियों, सिद्धियों और विद्याओं का प्रयोग दूसरों का अनिष्ट करने में ही करते हैं. तुलसीदास जी ने ऐसे ही नीच प्रजाति के लोगों के लिए यह चौपाई कही है, न कि किसी जाति या वर्ण के लिए. दुर्योधन, रावण, भस्मासुर जैसे दुष्ट प्रजाति के लोग कोई भी शक्ति या विद्या पाकर और भी अधिक खतरनाक हो जाते हैं. इसीलिए व्यक्ति की पहचान करके ही उसे कोई विद्या या सिद्धि देनी चाहिए.

यहां अधम का अर्थ दुष्ट के अर्थ में ही है, इसका प्रमाण आप उत्तरकाण्ड की ही इस चौपाई में देखिये-

बुध नहिं करहिं अधम कर संगा।

“बुद्धिमान व्यक्ति दुष्टों की संगति नहीं करते हैं.”

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रामचरितमानस को ध्यान से पढ़ने से यह पता चलता है कि तुलसीदास जी ने ‘विप्र’ और ‘शूद्र’ को किसी जाति के अर्थ में नहीं लिखा. उन्होंने इन दोनों को अच्छे और बुरे लोगों के अर्थ में रखा है. उन्होंने हर बात का उदाहरण राम और रावण यानी अच्छाई और बुराई से दिया है, न कि किसी जाति वगैरह से. ‘शूद्र’ का अर्थ किसी जाति से नहीं, बल्कि व्यक्ति की चेतना के स्तर और विकास से भी लगाया जाता है.

जो लोग इन चौपाइयों के माध्यम से तुलसीदास जी और रामचरितमानस पर अनर्गल आरोप लगाते हैं, उन्हें एक बार तो विचार करना चाहिए कि अगर तुलसीदास जी को इस हद तक ही ब्राह्मणों का पक्ष लेना होता, तो वे रावण को ‘नीच’ और माता शबरी को ‘महान तपस्विनी’ न कहते. अगर रामायण काल में इस हद तक जाति व्यवस्था होती तो निषादराज भगवान श्रीराम के मित्र न होते, तपस्वियों के बीच माता शबरी का सम्मान न होता, और रावण का वध ही न होता. वाल्मीकि को ‘महर्षि’ या ‘भगवान’ न कहा जाता.

भगवान श्रीराम के समय जाति व्यवस्था थी ही नहीं. वर्ण व्यवस्था थी, जिसका अर्थ होता है- वरण करना या स्वीकार करना या धारण करना.


सोशल मीडिया पर नए-नए “विद्वान” रोज प्रकट हो रहे हैं. ये हिंदी अनुवाद में जैसे ही ‘ब्राह्मण’ शब्द देखते हैं, पता नहीं इन्हें क्या हो जाता है. इन विद्वानों की कुछ और आपत्तियां देखिये-

बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥

यहां भी अनुवाद को देखते ही चीख-पुकार शुरू हो गई कि भगवान ने ब्राह्मणों के लिए अवतार लिया था. मतलब इन लोगों को रामकथा में शबरी, निषादराज, केवट आदि नहीं दिखाई दिए, जिनका इंतजार खत्म करने के लिए भगवान महलों को छोड़कर वनवास को चले गए.

एक बार बसिष्ट मुनि आए।
जहाँ राम सुखधाम सुहाए॥
अति आदर रघुनायक कीन्हा।
पद पखारि पादोदक लीन्हा॥

कुछ तथाकथित विद्वानों ने यहां पर भी विवाद शुरू कर दिया है कि श्रीराम ने वशिष्ठ जी का चरणामृत लिया. मतलब “गुरु-शिष्य” के पवित्र रिश्ते को अब ये लोग “ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय” बनाने में जुटे हुए हैं. यानी ऐसे लोगों को भारत की संस्कृति के बारे में भी कुछ नहीं पता.

अरे भई, हमारी भारतीय संस्कृति में एक राजा भी अपने गुरु का सम्मान करता ही है, शिष्य ही गुरु के पैर छूता है, भले ही गुरु कोई भी हो..

और श्रीराम ने किसके चरण नहीं छुए… उन्होंने अपने माता-पिता के भी चरण छुए, अपनी सौतेली माता की दासी मंथरा के भी चरण छुए, अरण्यकाण्ड में उन्हें जितने भी ऋषि-मुनि मिले, उनका वर्ण जाने बिना उन सबके चरण छुए. और कृष्ण अवतार में अपनी राधा जी के भी चरणों की सेवा की.

अब ‘विप्र’ के भी पर्यायवाची देख लीजिये-

ज्ञानी, बुध (ज्ञान-संपन्न), विद्वान्, विज्ञ, मर्मज्ञ, धीमान्, धीर (शांत स्वभाव वाला, नम्र, विनीत), द्विज (दो बार जन्म लेने वाला), वेदज्ञ, प्रज्ञ, बुद्धिमान, पंडित, पुरोहित, ब्राह्मण…

ब्राह्मण का अर्थ होता था- ब्रह्म को जानने वाला (न कि ब्रह्मा जी के मुंह से पैदा होने वाला)

तुलसीदास जी जब लोगों को श्रीराम की कथा सुनाते थे, और जिस समय उन्होंने रामचरितमानस लिखी थी, उस समय तो श्रीराम, रामचरितमानस और तुलसीदास जी पर कोई आरोप नहीं था.. रामकथा समाज के हर वर्ग को प्रिय थी, और सभी को यह पूरी तरह न्यायसंगत और समानता पर आधारित लगती थी. लेकिन जैसे-जैसे भारत में अंग्रेज आए, भारत के सभी प्राचीन धार्मिक और ऐतिहासिक ग्रंथों में गलतियां, भेदभाव, असमानता आदि नजर आने लगी. इसका क्या मतलब है??

इस तरह के विवादों को देखकर यही कहा जा सकता है कि यह सब कुछ और नहीं, बस मृत हो रही ‘जाति व्यवस्था’ को देखकर कुछ लोगों की बौखलाहट है और कुछ नहीं..

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