Bhagwan Vishnu and Shiva
हमारे देश में शिवभक्त श्रीकृष्ण के भजन का आनंद लेते हैं, और विष्णुभक्त शिवरात्रि का उपवास रखते हैं. दोनों मिलकर नवरात्रि मनाते हैं. गर्मी बहुत सताती है तो इंद्रदेव को याद करते हैं, और मानसून में कपड़े सुखाने हों तो सूर्यदेव को! यह हमारे लिए बहुत आम बात है. ऐसा सुन्दर समन्वय और कहाँ?
ब्रह्म या मूल शक्ति तो एक ही है, उसके अलग-अलग रूपों की हम पूजा करते हैं. एक ही निर्गुण और निराकार ब्रह्म के अलग-अलग सगुण और साकार रूप हैं. हिन्दू धर्म प्रकृति के हर रूप को पूजता है. पूजा किसी की भी करें, लक्ष्य एक ही होता है. सनातन धर्म में हमारी सभी प्रकार की पूजा पद्धतियां या किसी भी देवी-देवता की पूजा या उपासना हमें उस ब्रह्म से ही जोड़ती हैं. इसलिए किसी में कोई भेद नहीं है. कोई किसी से छोटा या बड़ा नहीं है.
जो भगवान् शिव और विष्णु जी में भेद करता है-
जो मनुष्य एक की उपासना या भक्ति करके दूसरे की निंदा करता है, तो उसे दोनों में से किसी की कृपा नहीं मिल पाती.
जो कोई भी भगवान् शिव का भक्त है पर भगवान् विष्णु या उनके अवतारों की निंदा करते है, उसे शिवजी की भी कृपा प्राप्त नहीं होती, जैसे रावण.
जो कोई भी भगवान् विष्णु का तो सम्मान करता है पर भगवान् शिव की निंदा करता है, उससे कोई प्रसन्न नहीं होता, जैसे दक्ष प्रजापति.
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काकभुशुण्ड जी, जो अपने पहले जन्म में केवल भगवान् शिव जी के उपासक थे, विष्णु जी के नहीं. यदि केवल इतना होता तो कोई बात नहीं थी. बात यह भी थी कि काकभुशुण्ड जी श्रीराम या विष्णु जी से द्रोह करते थे, उनकी निंदा करते थे और इसी बात पर, श्रीराम की उपासना करने वाले अपने परम दयालु गुरु तक का अपमान कर देते थे. तब किसी और को नहीं, स्वयं भगवान् शिव को ही काकभुशुण्ड जी पर अत्यंत क्रोध आ गया था, लेकिन परम दयालु गुरु ने उन्हें बचा लिया था.
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका।।
अविवेकी या अज्ञानी लोग ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव को अलग-अलग देखते हैं. प्रणवाक्षर में ये तीनों एक हैं. वस्तुतः ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की एक साथ परिकल्पना ही त्रिमूर्ति है. भगवान शिव की पूरी आरती ही त्रिदेवों की आरती है, क्योंकि त्रिदेव (ॐ) एक हैं. ब्रह्मा, विष्णु और महेश एक ही हैं. बस सृष्टिकार्य के संचालन के लिए ये हमें अलग-अलग रूपों में जान पड़ते हैं.
गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
गुर पितु मातु महेस भवानी।
प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के।
हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥
“श्री महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैं, जो सीतापति श्री रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मेरा सब प्रकार से सच्चा हित करने वाले हैं.”
अतः दोनों में से कोई बड़ा और छोटा नहीं है. दोनों किसी भी प्रकार से अलग नहीं हैं, एक ही ब्रह्म के अलग-अलग रूप हैं.
कुछ लोग निर्गुण और सगुण पर भी विवाद करते हैं. इस प्रकार के विवादों में फंसने वालों को गोपियों और उद्धव जी का प्रसंग अवश्य समझना चाहिए.
भक्ति का तो कोई भी रूप हो सकता है. जैसे उद्धव ईश्वर को निर्गुण रूप में पूजते थे जबकि गोपियाँ सगुण रूप में. उद्धव ईश्वर को ज्ञान से देखते थे, जबकि गोपियाँ भक्ति से. न उद्धव गलत थे और न गोपियाँ. उद्धव तब गलत साबित हुए, जब उन्होंने यह मान लिया कि जो वे सोचते हैं, या जो वे जानते हैं, केवल वही सही है, और बाकी सब अज्ञानी.
और तब श्रीकृष्ण ने उद्धव के अहंकार को दूर करने और उनके ज्ञान को पूर्ण करने के लिए उन्हें गोपियों के पास भेजा था. भक्ति ही ज्ञान के अहंकार को तोड़ती है.
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जो लोग शैव और वैष्णव सम्प्रदाय में बंटे होते हैं, तो क्या उन्होंने भगवान् को भी अपनी तरह ही समझ रखा है, जिन्हें अपनी ही प्रशंसा या गुणगान सुनना अच्छा लगता है?
शिवजी के रुद्रावतार हनुमान जी ‘श्रीराम’ नाम से ही तृप्त होते हैं. हनुमान जी शैव और वैष्णव के मध्य सेतु हैं. वे एकादश रूद्र हैं जो विष्णु अवतार भगवान राम के अनन्य भक्त हैं. हनुमान जी की पूजा के बिना भगवान श्रीराम की पूजा पूर्ण फलदाई नहीं होती है. शिवजी के रुद्रावतार हनुमानजी ऐसा कोई पराक्रम प्रकट नहीं करते हैं, जिससे प्रभु श्रीराम की यश-कीर्ति का क्षय हो, क्योंकि हनुमान जी जानते हैं अपने सगुण रूप में श्रीराम मर्यादा से बंधे हुए हैं.
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया॥
तुम्हरे भजन राम को पावे।
जन्म जन्म के दुख बिसरावे॥
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥
भगवान् शिव पर ‘राम’ नाम लिखे बेलपत्र चढ़ाये जाते हैं. भगवान् विष्णु के सामने बैठकर भगवान् शिव का गुणगान करने से हरिकृपा मिलती है. विष्णु जी की भक्ति से लक्ष्मी जी की कृपा मिलती है और शिवजी की भक्ति से पार्वती जी और गणेश जी की कृपा मिल जाती है… आदि.
एक दृष्टि हम भगवान् शिव और विष्णु जी की आपसी भक्ति पर डालते हैं-
भगवान् शिव की भक्ति
देवताओं और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया. सबसे पहले हलाहल विष निकला. समस्त प्राणी उस विष की अग्नि से तड़पने लगे. उस विष को रोकने की शक्ति केवल भगवान् शिव में ही थी. अतः सभी देवता और राक्षस मिलकर भगवान् शिव की शरण में जाकर उनसे प्रार्थना की. सबकी करुण पुकार से द्रवित होकर भगवान् शिव ने उस विष को स्वयं पी जाने का निर्णय ले लिया. वे सारा विष पी गए, पर विष को अपने गले से नीचे नहीं उतरने दिया, क्योंकि भगवान् शिव के हृदय में भगवान् विष्णु जी का वास है. भगवान् विष्णु को कोई कष्ट न हो, इसके लिए शिवजी विष को कंठ से नीचे नहीं उतारते.
जब भागीरथी की तपस्या के माध्यम से गंगा जी पृथ्वी पर उतरने को हुईं, तो उनके वेग को सहन करने की शक्ति केवल भगवान् शिव में ही थी. ‘विष्णुपदी’ गंगा को भगवान शिव अपनी जटाओं में धारण करते हैं.
शिव जी स्वयंभू हैं. उन्हें संहारकर्ता भी कहा जाता है. भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्र रूप दोनों के लिए विख्यात हैं. शिव का अर्थ कल्याणकारी और शुभ भी है. वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं.
आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर:।
तथा लिखितवान् प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक:॥
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥
भगवान् शिव ने बुध कौशिक ऋषि को स्वप्न में दर्शन देकर उन्हें रामरक्षास्तोत्र का पाठ बताया था. ऋषि ने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया. भगवान शिवजी माता पार्वती जी से बोले कि “हे सुमुखी! ‘राम’ नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान है. मैं सदा राम का स्तवन करता हूं और राम नाम में ही रमण करता हूं.”
जय राम रमारमनं समनं।
भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो।
सरनागत मागत पाहि प्रभो॥
(भगवान शिव द्वारा श्रीराम की स्तुति)
भगवान् विष्णु की भक्ति
जब नारद कहते हैं कि “मैंने तो काम को जीत लिया है और मैं शिव के समान हो गया हूँ”, तब भगवान् विष्णु नारद की परीक्षा लेकर सबको यह समझा देते हैं कि भगवान् शिव के समान कोई नहीं है और न ही हो सकता है. इसी के साथ, जब नारद भगवान् विष्णु को शाप दे देते हैं, और फिर माया का असर समाप्त होते ही गिड़गिड़ाकर क्षमा याचना करने लगते हैं, तब विष्णु जी नारद जी से कहते हैं कि-
जपहु जाइ संकर सत नामा।
होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें।
असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी।
सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
“जाकर शंकरजी के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी. शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना. शिवजी जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पा सकता.”
अपनी पत्नी सीता जी को दुष्ट रावण के चंगुल से छुड़ाने एवं देवताओं सहित पूरी मानवजाति को सुरक्षित करने के लिए जब भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई की, तो इसकी शुरुआत उन्होंने भगवान शिव की पूजा-उपासना से की थी और उनसे अपनी विजय का आशीर्वाद मांगा था. श्रीराम की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें विजयश्री का आशीर्वाद दिया था.
पुष्पकविमान में श्रीराम ने सीता जी से कहा- “देखो सीते! यहां से लंका तक जाने के लिए पुल बांधा गया था और यहीं मैंने सुखधाम श्री शिवजी की स्थापना की थी.” इसके बाद श्रीरामजी और सीताजी ने श्रीरामेश्वर महादेव को प्रणाम किया.
ठीक यही बात वाल्मीकि रामायण में कही गई है कि श्रीराम पुष्पक विमान में सीता जी को बताते हैं कि सेतु निर्माण से पहले उन्होंने ‘यहां शिवलिंग की स्थापना कर अपने आराध्य भगवान शिव की उपासना की थी.’
शिवलिंग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन करके श्रीराम ने कहा-
“शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है.जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता. शंकरजी से विमुख होकर जो मेरी भक्ति चाहता है, वह मूर्ख और अल्पबुद्धि है. जो मनुष्य रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे मृत्यु के बाद मेरे ही लोक को जायेंगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ाएगा, वह मनुष्य मेरे साथ एक हो जाएगा.”
चूंकि भगवान शिव और भगवान श्रीराम, दोनों ही एक-दूसरे के परम भक्त हैं, इसलिए दोनों ही ‘रामेश्वरम’ शब्द का अर्थ “मेरे ईश्वर” के रूप में लगाते हैं. अर्थात-
• श्रीराम कहते हैं कि “श्रीराम के स्वामी, जो कि भगवान शिव हैं”,
• और भगवान शिव कहते हैं कि “भगवान शिव के स्वामी, जो कि श्रीराम हैं”.
Written By – Nancy Garg
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