“तुम्हारा गॉड भगवान कैसे हो सकता है?”

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“The Kerala Story” के ट्रेलर में एक हिंदू लड़की से पूछा जाता है कि, “कैसा है तुम्हारा गॉड शिवा जो पत्नी के मर जाने पर आम इंसानों की तरह रोता है? क्या आम इंसानों की तरह रोने वाला भगवान हो सकता है…?”

कुछ समय पहले जब प्रोफेसर विकास दिव्यकीर्ति जी के भगवान श्रीराम पर दिये बयान वाला प्रकरण चल रहा था (हमने नीचे इस विषय पर भी चर्चा की है), तब एक व्यक्ति द्वारा मुझसे भी ऐसा ही सवाल पूछा गया था कि “यदि तुम्हारे शिव भगवान ही हैं तो वे भस्मासुर से डरकर क्यों भागे?”

मैं निम्न पोस्ट को पढ़ चुकी थीं, तो मैंने उसे यही जवाब दे दिया था. तब के बाद से उस व्यक्ति ने मुझसे ऐसा कोई फालतू सवाल नहीं पूछा.

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मैंने कई हिंदुओं को ऐसे प्रश्नों से दुष्प्रभावित होते हुये देखा है. लेकिन क्या कोई भी व्यक्ति आपसे भी इस प्रकार का अतार्किक सवाल करे, तो क्या आप भी वाकई में कोई ऐसा जवाब नहीं दे पाएंगे, जो उस व्यक्ति का हमेशा के लिए मुंह बंद कर दे? क्या आप भी वाकई में इस प्रकार के बिना सिर-पैर के सवालों के सामने उस लड़की की तरह निरुत्तर हो जायेंगे?

आज का हिन्दू अपने ग्रंथों को ठीक से पढ़ता नहीं हैं. केवल शब्दार्थों में उलझकर अपने ही शास्त्रों की खिल्ली उड़ाना और वैज्ञानिकता के नाम पर देखा-देखी सब बातों को काल्पनिक साबित करने की होड़ में लग जाता है. आज कुप्रचारों की भीड़ का ही नतीजा है कि लोग शास्त्रों में लिखी बातों का अर्थ या भाव या उनमें दिए जाने वाले ज्ञान को ग्रहण नहीं कर पा रहे.

यदि आप लोग अपने ग्रंथों का अध्ययन ठीक से करते हैं तो पाते हैं कि हम सब पहले इंसान नहीं हैं, जिनके मन में ईश्वर को लेकर भ्रम या संदेह आते रहते हैं.

द्वापरयुग में शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के लिए ठीक वही बातें कही थीं, जो आज के विधर्मी उनके बारे में कहते हैं.

और चलो शिशुपाल तो अधर्मी था, वो क्या भगवान को पहचान पाता, लेकिन-

माता सती तक को संदेह हो गया था कि ‘यदि श्रीराम भगवान ही हैं तो इनकी पत्नी का हरण कैसे हो गया? रो-रोकर अज्ञानियों की तरह अपनी पत्नी को खोजने वाला भगवान कैसे हो सकता है? और यदि भगवान ही हैं तो ये क्या अपने बैकुंठ में बैठकर ही राक्षसों का वध नहीं कर सकते थे, अवतार लेने की क्या आवश्यकता थी?’

गरुड़ जी को संदेह हो गया था कि यदि श्रीराम भगवान हैं तो एक तुच्छ राक्षस द्वारा नागपाश में कैसे बंध गए?

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जब भगवान शिव भस्मासुर से बचकर भागे थे, तब माता लक्ष्मी जी को भ्रम हो गया था कि जो शिवजी पूरी सृष्टि को जलाने की क्षमता रखने वाले विष को बड़ी सहजता से अपने कंठ में धारण करते हैं, जो शिव जी अग्नि का ही स्वरूप हैं, वो भस्मासुर जैसे तुच्छ राक्षस से बचकर क्यों भाग रहे हैं? तब माता लक्ष्मी जी के इस संदेह पर भगवान विष्णु जी को हंसी आ गई थी, क्योंकि वे तो जानते ही थे कि शिवजी वास्तव में क्या कर रहे हैं..

अब सोचिये, कि यदि इन देवी-देवताओं के मन में भी ईश्वर को लेकर संदेह आ सकता है तो हम साधारण इंसान क्या चीज हैं. और क्या वाकई में यह इन सब देवी-देवताओं का भ्रम या संदेह ही था? नहीं! इन सब कथाओं के माध्यम से हमें जीवन की महत्वपूर्ण सीख देने का प्रयास किया जाता है.

सनातन धर्म में हमारे पास मुख्य रूप से तीन मार्ग होते हैं- ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग. वेदों, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, भगवद्गीता और रामचरितमानस आदि में इन तीनों का समन्वय है. अर्थात इन ग्रंथों में लिखी बातों का कोई एक अर्थ नहीं है, कई अर्थ हैं. इनमें ज्ञान भी है, दर्शन भी है, कर्म भी है और भक्ति भी है.

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सनातन धर्म में शिवभक्त श्रीकृष्ण के भजन का आनंद लेते हैं, और विष्णुभक्त शिवरात्रि का उपवास रखते हैं. दोनों मिलकर नवरात्रि मनाते हैं और स्त्री की उपासना करते हैं. गर्मी बहुत सताती है तो इंद्रदेव को याद करते हैं, और मानसून में कपड़े सुखाने हों तो सूर्यदेव को! भय लगता है तो अपने आराध्य के सेवक हनुमान जी को याद करने लगते हैं. यह हमारे लिए बहुत आम बात है. ऐसा सुन्दर समन्वय और कहाँ?

भक्ति, मूर्तिपूजा और बहुदेववाद आपके अंदर की कुंठा, जलन, ईर्ष्या, उन्माद और अशांति को खत्म करता है. बहुलवाद, बहुदेववाद, प्रकृति पूजन, मूर्ति-पूजा मानवजाति का मूल स्वभाव है, जिसे लेकर मानव जन्मता है, जिसे सहजता से स्वीकार करता है. जबकि एकोपास्यवाद का विचार उस पर जबरन थोपा जाता है, या भ्रमित कर समझाया जाता है. मानवजाति की स्वाभाविक चेतना बहुदेववादी है. प्रकृति विविधता और सहजता को पसंद करती है, एकरूपता और जड़ता को नहीं.

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अब हम विकास दिव्यकीर्ति जी के बयान पर भी कुछ चर्चा करते हैं-

पहला यह, कि उन्होंने कहा था कि युद्ध जीतने के बाद श्रीराम ने सीता जी से अभद्र बातें कहीं थीं (उनके अनुसार श्रीराम ने सीता जी की तुलना कुत्ते द्वारा चाटे गए हविष्ट से की थी). और दूसरा, उन्होंने उत्तर रामायण के शम्बूक वध प्रसंग का उल्लेख किया था. ये बातें तुलसीदास जी की रचनाओं के विश्लेषण के समय कही गई बातें थीं.

दोनों ही बातें उनकी अपनी नहीं थीं, उन्होंने किसी अन्य पुस्तक से लेकर वे बातें कही थीं, और उनका आशय भी भगवान श्रीराम के अपमान का प्रतीत नहीं होता. लेकिन इन बातों से यह स्पष्ट पता चलता है कि उनका झुकाव किस ओर है. एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वयं कहा था कि जब उन्होंने ये बातें कही थीं, तब तक उन्होंने मूल संदर्भ नहीं देखा था.

ऐसी बातें उन्होंने मात्र कुछ आधुनिक लेखकों द्वारा लिखी गई पुस्तकों के आधार पर कह दी थीं, सन्दर्भ देखने का भी प्रयास नहीं किया. इसी के साथ, उनका यह भी कहना था कि UPSC ऐसे प्रश्न पूछता है, इसलिए पढ़ाना पड़ता है, नहीं तो छात्रों को नंबर नहीं मिलेंगे. लेकिन पिछले दस सालों में ऐसा कोई प्रश्न नहीं पूछा गया.

1. युद्ध जीतने के बाद श्रीराम का सीता जी से अभद्र बातें कहना-

स्वयं उन्हीं के अनुसार यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण का नहीं है, बल्कि महाभारत में वर्णित रामायण से है. अब जो प्रसंग रामायण में नहीं है, तो इसका अर्थ ही यह है कि यह बात अन्य स्थानों पर त्रुटिवश ही आयी है. लेकिन उन्होंने जब इस प्रसंग को कक्षा में पढ़ाया था, तब उन्हें इस विषय की जानकारी नहीं थी कि यह प्रसंग रामायण से न होकर महाभारत के रामोपाख्यान से है. महाभारत में भी रामोपाख्यान प्रसंग ऋषि मार्कण्डेय द्वारा सुनाया गया है. अर्थात यह न तो वेदव्यास जी का है और न ही वाल्मीकि जी का.

तो रामायण के विषय में की गई टिप्पणी का प्रमाण वो महाभारत से दे रहे थे. सवाल रामायण का और जवाब महाभारत से. विवाद से पहले तक वे इसे रामायण का कहकर ही पढ़ाते रहे थे.

वाल्मीकि रामायण में भी अग्नि परीक्षा से पहले इस प्रकार का प्रसंग है, लेकिन रामायण की बात कड़वी है, पर इतनी अभद्र नहीं है. और उसमें यह भी चर्चा है कि केवल समाज के सामने सीता जी की पवित्रता सिद्ध करने के लिए श्रीराम ने ऐसी बात कही थी, ताकि बाद में साधारण समाज सीता जी के विरुद्ध कुछ न कह सके. अग्निपरीक्षा होते ही श्रीराम ने सीता जी को प्रेम से यह कारण बताया भी.

लेकिन दिव्यकीर्ति जी ने यह प्रसंग न लेकर रामायण का प्रसंग भी महाभारत से उठाया, जिसे सामान्यतः लोग पढ़ते ही नहीं हैं, क्योंकि यह मौलिक नहीं माना जाता है.

2. उत्तर रामायण और शम्बूक वध प्रसंग-

यह श्रीराम द्वारा शम्बूक के वध का प्रसंग है, जो गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में मिलता है. लेकिन कई अन्य प्रकाशन उत्तरकाण्ड को रामायण के साथ छापते ही नहीं हैं, विशेषकर शम्बूक प्रसंग को तो हर पुस्तक में ‘प्रक्षिप्त प्रसंग’ ही लिखा जाता है, क्योंकि कई शोधों के बाद इसे बाद में जोड़ा गया प्रसंग ही माना जाता है, क्योंकि उत्तरकाण्ड लिखने वाले लोगों की श्लोक-रचना की क्षमता वाल्मीकि जी जैसी नहीं थी कि सभी श्लोक त्रुटि-रहित लिख दें.

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उत्तरकाण्ड पर विवाद आज का नहीं है, सैंकड़ों वर्ष पुराना है. जिन बातों को तुलसीदास जी ने और कई शोधकर्ताओं ने भी प्रक्षिप्त बता दिया है, उन पर या महाभारत से ही रामायण का प्रसंग उठाकर चर्चा करने का क्या लाभ? जो रामकथा इतने वर्षों से चली आ रही है, उसमें कई बदलाव हुए ही हैं, यह सबको पता है.

दिव्यकीर्ति जी ने साक्षात्कार में कहा था कि वायरल वीडियो में पूरा सन्दर्भ नहीं दिया गया था. फिर थोड़ी देर बाद उन्होंने बताया था कि जब वे कक्षा में उस विषय को पढ़ा रहे थे, तब तक उन्होंने मूल संदर्भ नहीं देखा था. अजीब विरोधाभास है. यानी उन्हें अन्य से तो अपेक्षा थी कि उन पर टिप्पणी पूरे संदर्भ के बाद ही हो, लेकिन भगवान श्रीराम पर टिप्पणी के लिए उन्हें मूल संदर्भ की ही आवश्यकता नहीं.

कुल मिलाकर उनका कोई अपना शोध नहीं, सभी कथन कुछ लेखकों पर आधारित थे, जो आपस में ही एक-दूसरे का संदर्भ देकर इतिहासकार बन जाते हैं. विवाद हुआ, तब वे संदर्भ देखने लगे. इतनी बड़ी टिप्पणियों से पहले वे यदि थोड़ा भी शोध करते, तो पता चल जाता कि तुलसीदास जी ने क्यों इन दोनों प्रसंगों को ही स्थान नहीं दिया. यदि उन्होंने पहले ही संदर्भ देखे होते, तो वे अपने छात्रों को पूरी बात बता सकते थे कि महाभारत के रामोपाख्यान के अनुसार श्रीराम ने ऐसा कहा है, वाल्मीकि रामायण के अनुसार नहीं.

– Aditi Singhal (working in the media)

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