Shishupal Vadh Krishna Leela
शिशुपाल चेदि साम्राज्य का चन्द्रवंशी राजा था. उसका जन्म यादव क्षत्रियों के हैहयवंशी चेदी-चन्देलवंश में हुआ था. शिशुपाल को भगवान विष्णु के द्वारपाल जय का तीसरा और अंतिम जन्म बताया जाता है. वह महाभारत में महत्वपूर्ण व श्रीकृष्ण का एक शक्तिशाली विरोधी था. भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त उसे न कोई मार सकता था और न हरा सकता था.
विदर्भ के राजकुमार रुक्मी और शिशुपाल में अच्छी मित्रता थी. रुक्मी अपनी बहन रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से करवाना चाहता था, लेकिन रुक्मिणी भगवान् श्रीकृष्ण से ही विवाह करना चाहती थीं, अतः विवाह के एक दिन पहले श्रीकृष्ण आकर रुक्मिणी जी को ले गए. तब से शिशुपाल श्रीकृष्ण से घृणा करने लगा था.
जब युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया, तब शिशुपाल, जो अपने पिता की मृत्यु के बाद राजा बन गया था, वह भी उस समारोह में उपस्थित हुआ. शिशुपाल ने बिना किसी विरोध के युधिष्ठिर के वर्चस्व को स्वीकार कर लिया. पितामह भीष्म भगवान श्रीकृष्ण के यथार्थ स्वरूप को जान चुके थे.
राजसूय यज्ञ समारोह में भीष्म और पांडवों ने निर्णय लिया कि श्रीकृष्ण समारोह के विशेष सम्मानित अतिथि होंगे और वे ही प्रथम पूजा के अधिकारी होंगे. उन्होंने एकमत से कहा कि ‘इस सभा में वासुदेव श्रीकृष्ण जितना दूसरा अधिकारी और कौन है?’ वे श्रीकृष्ण को सप्रेम खींचकर सभा में ले आये और आसन पर बिठा दिया और उनकी पूजा आरम्भ की.
इस बात पर शिशुपाल इतना क्रोधित हुआ कि अपने अपराधों की गिनती ही भूल बैठा. वह भरी सभा में श्रीकृष्ण का अपमान करने लगा, और जो भी उसे रोकने का प्रयास करता, वह उसका भी अपमान करने लगता. शिशुपाल, जो अपशब्दों को ही हथियार समझता था, ने बोलना आरम्भ किया-
“ठहर जाओ! तुम सब इस अधर्मी ग्वाले के पैर कैसे धो सकते हो? युधिष्ठिर! इतने महान राजाओं ने तुम्हारे प्रति समर्पण प्रकट किया है, तुम एक धूर्त और कपटी ग्वाले को प्रथम अर्घ्य देकर हम सबका अपमान नहीं कर सकते. हमने तुम्हें सम्राट बनाया है, तुम्हें अपने सिर पर बिठाया है, इसका यह अर्थ नहीं कि तुम किसी भी हत्यारे की अग्रपूजा कर उसे हमारे सिर पर बिठा दो. हमारे चक्रवर्ती सम्राट पर एक मूर्ख का अंकुश हो, यह हमें मान्य नहीं महाराज युधिष्ठिर. ये भीष्म तो बूढ़े हो चुके हैं, इनकी स्मरणशक्ति भी जवाब दे चुकी है, इनकी समझ बहुत कम हो गई है, इसीलिए इन्होंने कृष्णपूजा की सम्मति दी है.”
सहदेव का हाथ पूजा के पात्रों को छोड़कर खड्ग की मूठ पर आ गया. शिशुपाल बोलता गया, “यह कैसी सभा है जिसमें राजाओं, ऋषियों के होते हुए एक छिछोरे ग्वाले की अग्रपूजा हो रही है? मैं अपने सम्मुख यह नहीं देख सकता. तुम इस नराधम कृष्ण की अग्रपूजा करके यहाँ उपस्थित सभी राजाओं का अपमान कर रहे हो.”
सहदेव ने अपना खड्ग निकाल लिया और गर्जना करते हुए बोले, “शिशुपाल! पांडवों की राजधानी में श्रीकृष्ण का अपमान सहन नहीं किया जाएगा. जिस-जिसको श्रीकृष्ण की अग्रपूजा से अपमान का अनुभव होता है, मैं उन्हें अपने साथ युद्ध की चुनौती देता हूँ.” तभी श्रीकृष्ण अपनी धीर वाणी में बोले, “शांत हो जाइये भैया सहदेव, आज शिशुपाल को बोलने दीजिये.”
शिशुपाल बोला- “क्या महारथियों के महारथी भीष्म का सम्मान नहीं हो सकता था? क्या आचार्यों में द्रोणाचार्य और उनके पुत्र अश्वत्थामा का सम्मान नहीं हो सकता था? क्या ऋषियों में वेदव्यास का सम्मान नहीं हो सकता था? फिर इस कृष्ण का सम्मान क्यों? भीष्मक, रुक्मी, एकलव्य, शल्य, कर्ण जैसे योद्धाओं के होते हुए यह कृष्ण प्रथमपूजा का अधिकारी कैसे हो गया? न यह कोई ऋषि है, न आचार्य है और न कोई राजा है, तो तुम लोगों ने इस धर्मच्युत कृष्ण की आराधना कैसे की? कायर हो तुम सब.”
भीष्म ने मुस्कुराते हुए शिशुपाल से कहा, “शिशुपाल! श्रीकृष्ण को प्रथम सम्मान प्राप्त होने में जब हमें कोई आपत्ति नहीं, तो आप क्यों व्यर्थ प्रलाप कर रहे हैं?”
“तुम्हें क्यों आपत्ति होगी भीष्म! तुम एक नपुंसक जो ठहरे. तुम्हारा यह ब्रह्मचर्य ढकोसला मात्र है, जिसे तुमने अपनी नपुंसकता को छिपाने के लिए धारण कर रखा है. अपने राजकुमारों के लिए कन्यायें चुराते रहे तुम. यदि तुम्हारा मन दूसरों की स्तुति में ही लगा रहता है तो इस प्रपंची कृष्ण को छोड़कर दूसरे राजाओं की स्तुति कर लो. इन सबके गुण गाओ. ये दुरात्मा कृष्ण तो राजा कंस का सेवक है, गौओं का चरवाहा है, तुम केवल मोहवश इसकी स्तुति करते हो, तुम्हारी बुद्धि ठिकाने पर नहीं आ रही.” शिशुपाल बोलता जा रहा था.
“भीष्म! तुम्हारे ऐसा बार-बार कहने से कि ‘श्रीकृष्ण बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, सम्पूर्ण जगत के ईश्वर हैं…’, ये कृष्ण अपने आप को ऐसा ही समझने लगा है. पर मैं तुम्हारी ऐसी बातों में नहीं आने वाला, मैं सब जानता हूँ कि ये सब मिथ्या है.”
“अरे यदि इसने बचपन में एक पक्षी (बकासुर) को मार भी दिया, एक अश्व (केशी) और वृषभ (अरिष्टासुर) को मार डाला, तो इसमें कौन से आश्चर्य की बात हो गई? छकड़ा क्या होता है, लकड़ियों का ढेर ही न? यदि इसने पैर से उसे उलट दिया तो ऐसी कौन सी बड़ी करामात कर डाली? आक के पौधों के बराबर दो वृक्षों को गिरा दिया या एक नाग को मार डाला, तो कौन से बड़े आश्चर्य का कार्य कर डाला इसने? यदि इसने गोवर्धन पर्वत को सात दिन तक अपनी उंगली पर उठा लिया तो उसमें मुझे तो ऐसी कोई बड़ी बात नजर नहीं आती, गोवर्धन तो दीमकों की खोदी हुई मिट्टी का ढेर है.”
“अरे राजाओं! इस कृष्ण के जीवन को देखोगे तो जान जाओगे कि इसने जीवनभर छल और छद्म ही किये हैं. इसका तो जन्म ही कारावास में हुआ था, और बताओ मुझे कि जिसका जन्म कारावास में होता है, वह कौन होता है, वह अपराधी ही होता है कि नहीं?”
“यह कृष्ण देशद्रोही भी है. यह राजा कंस के विरुद्ध विद्रोह करवाता था. जिन महाबली कंस का अन्न खाकर यह पला था, उसी को मार डाला इसने. जिस दूध और माखन पर राजा कंस का अधिकार होता था, उसे ये बालपन में ही चुरा लेता था, और बाद में इसने राजा कंस की हत्या भी कर डाली, जो इसी का मामा भी था.”
“इसी ने गाँव में सबको भड़काकर इंद्र की पूजा बंद करवाई. महाबली राजा जरासंध मेरे लिए बड़े सम्मानीय थे. उनके वध के लिए इस दुरात्मा कृष्ण ने अर्जुन और भीम को साथ ले जाकर जो छल किया, उसे कौन अच्छा कह सकता है? बताओ मुझे! ये कृष्ण केवल चोर ही नहीं, अधर्मी भी है, झूठा भी है. जो इसके परामर्श से चलेगा, वो आर्यावर्त का क्या लाभ करेगा, बताओ मुझे राजाओं!”
अब तो वेदव्यास जैसे ऋषियों को भी क्रोध आने लगा. नारदजी के हाथों से भी वीणा सरक गई. राजपुरोहित धौम्य भी अपने स्थान से उठ खड़े हुए, पर सब श्रीकृष्ण की शांत मुद्रा देख स्वयं को रोके बैठे थे. बलराम और भीम की भुजाएँ फड़क उठी थीं. अर्जुन का हाथ गांडीव पर कस गया, पर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए सुनते जाते और शिशुपाल के अपशब्दों को गिनते जाते.
अर्जुन ने कहा- “अब बस कर दो चेदिराज! श्रीकृष्ण के विरुद्ध आपका अनर्गल प्रलाप मैं सुन नहीं पाउँगा.” युधिष्ठिर ने कहा- “आप मेरी राजसभा में मर्यादा का त्याग न कीजिये चेदिराज! यदि आपको हमारे राजसूय यज्ञ से कोई विरोध है तो कृपया अपने नगर को लौट जाइये.”
“अच्छा! तो अब तुम मुझे मर्यादा का ज्ञान दोगे, तुम? जिसने एक भगोड़े को प्रथम पूजा का सम्मान दे दिया? सुनो राजाओं! स्वयं को समस्त आर्यावर्त का सबसे शक्तिशाली सिद्ध करने के लिए इस प्रपंची कृष्ण ने छल रचा है. युद्ध से पीठ दिखाकर भागा था यह कायर, तो यह यदुवंशियों का नायक कैसे बन बैठा? और क्या प्रमाण है कि यह यदुवंशी है?” शिशुपाल की विषैली वाणी प्रवाहमान थी.
“चेदिराज शिशुपाल! यदि आपने इसी क्षण मेरी राजसभा का त्याग नहीं किया, तो मुझे आपको मृत्युदंड देना होगा”, युधिष्ठिर ने क्रोधित होते हुए कहा.
“मुझे किसी का भय नहीं. भूमिपालों! मैं तुम सबका सेनापति बनकर खड़ा हुआ हूँ. अब तुम लोगों को किस बात की चिंता? आओ! हम सब मिलकर पांडवों और यादवों की सेना से युद्ध करें. आओ! युधिष्ठिर का अभिषेक और कृष्ण की पूजा का कार्य सफल न हो पाए, हम सबको ऐसा प्रयत्न करना चाहिए.”
और इस प्रकार शिशुपाल ने युधिष्ठिर के यज्ञ में विघ्न डालने के उद्देश्य से राजाओं को उकसाया. यह देखकर पांडव अत्यंत क्रोध में आ गए. युधिष्ठिर को चिंता में देख भीष्म उन्हें समझाते हुए बोले, “वत्स! तुम चिंता न करो. भगवान् श्रीकृष्ण जिसे भी अपने में विलीन कर लेना चाहते हैं, उसी की बुद्धि इसी प्रकार भ्रष्ट कर देते हैं, जैसे शिशुपाल की है.”
भीष्म की यह बात सुनकर शिशुपाल उन्हें और भी कठोर बातें सुनाने लगा. अब तक श्रीकृष्ण की हँसी भी लुप्त हो चुकी थी. गिनती समाप्ति की ओर थी. तब श्रीकृष्ण ने कहा, “अब सावधान हो जाओ शिशुपाल. तुम्हारी माता को तुम्हारे केवल 100 अपराध क्षमा करने का वचन दिया है मैंने, और यहाँ आने से पहले भी तुमने कोई कम अपराध तो किये नहीं.”
“अरे मौन रहो तुम! तुम्हारे कुपित होने या प्रसन्न होने से मेरा कुछ बिगड़ने-बनने वाला नहीं है. शिशुपाल हूँ मैं. चेदि का राजा, दामघोष का पुत्र. और तुम क्या हो? कहीं के राजा हो तुम? गाँव के चरवाहे, स्त्रियों के वस्त्र चुराने वाले छिछोरे, दूसरों की पत्नियों को अपनी पत्नी बनाने वाले लम्पट हो तुम. देखो इस कृष्ण को! एक के बाद एक, आठ स्त्रियों से विवाह करके भी इसका मन नहीं भरा तो इस दुष्ट ने असुर सम्राट नरकासुर की हत्या कर उनकी सोलह हजार एक सौ पत्नियों संग विवाह रचा लिया.”
शिशुपाल चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था. श्रीकृष्ण के प्रति घृणा ने उसे स्वयं का ही शत्रु बना दिया था.
“यहाँ सब जानते हैं तुम्हारे बारे में कि कैसे बांसुरी बजा-बजाकर गाँव की भोली-भाली स्त्रियों को अपने मोहपाश में फंसाकर उनके साथ रासलीला रचाते थे तुम. और तुम पांडवों की पत्नी द्रोपदी को भी सखी कहते हो न? भला परपुरुष और विवाहित स्त्री के बीच कैसी मित्रता? और ऐसी स्त्री को साम्राज्ञी बना दिया गया जिसके पाँच पति हैं? अरे युधिष्ठिर, कहीं अपनी पत्नी के कहने पर ही तो तुम कृष्ण की अग्रपूजा करने नहीं जा रहे?”
ऐसा कहकर शिशुपाल जोर-जोर से अट्टहास करने लगा. सभा में उपस्थित सबकी सहनशक्ति अब जवाब दे चुकी थी, कि तभी शिशुपाल का शीश भूमि पर गिर पड़ा. उसके खड़े धड़ से रक्त उछलकर बाहर निकल पड़ा और कुछ ही क्षणों बाद वह भी भूमि पर गिर पड़ा. वहां उपस्थित सबने देखा कि श्रीकृष्ण की उंगली पर उनका अमोघ शस्त्र सुदर्शन घूम रहा था और श्रीकृष्ण के नेत्रों से क्रोध की लपटें निकल रही थीं.
महारथी भीष्म, द्रोण, भीम और अर्जुन सोचते ही रह गए कि श्रीकृष्ण का चक्र कब उनके हाथों में आ गया और कब वह शिशुपाल का शीश काटकर वापस उनकी उंगली पर घूमने लगा. सभा भयभीत खड़ी थी. सदा मुस्कुराने वाले श्रीकृष्ण का ऐसा क्रोध पहली बार देख रही थी. किसी का साहस नहीं हुआ कि कोई श्रीकृष्ण की ओर बढ़े या उनसे कुछ कहे.
तभी श्रीकृष्ण को पीछे से एक विनम्र आवाज सुनाई दी. “अरे गोविन्द! आपकी उंगली से तो रक्त बह रहा है.” श्रीकृष्ण ने देखा कि साम्राज्ञी द्रौपदी विनयशील नेत्रों से उन्हें निहार रही थीं. उनका सुदर्शन रुक गया और वापस अपने स्थान पर सुशोभित हो गया. द्रौपदी ने अपनी साड़ी का एक किनारा फाड़ा और उसे गोविन्द की उंगली पर बाँध दिया. श्रीकृष्ण मुस्कुरा उठे, जैसे कृष्ण ने कृष्णा को कोई आशीर्वाद और वचन दिया हो.
Written By : Nancy Garg
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