Bhagavad Gita Adhyay 14 : श्रीमद् भगवद्गीता – चौदहवाँ अध्याय (गुणत्रय विभाग योग)

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महाभारत की ऐतिहासिकता

Gita Adhyay 14 Shlok (Sanskrit Hindi)

भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के लक्षणों का निर्देश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इन दोनों के ज्ञान को ही ज्ञान बतलाया और इसके अनुसार क्षेत्र के स्वरूप, स्वभाव, विकार और इसके तत्त्वों की उत्पत्ति के क्रम आदि तथा क्षेत्रज्ञ के स्वरूप और उसके प्रभाव का वर्णन किया. पूर्व के श्लोक १९वें में भगवान ने प्रकृति-पुरुष के नाम से प्रकरण आरम्भ करके गुणों को प्रकृतिजन्य बताया और २१वें श्लोक में यह बात भी कही कि मनुष्य के बार-बार अच्छी-बुरी योनियों में जन्म होने में गुणों का संग ही हेतु है.

अब इससे गुणों के भिन्न-भिन्न स्वरूप क्या हैं, ये जीवात्मा को कैसे शरीर में बांधते हैं, किस गुण के संग से किस योनि में जन्म होता है, गुणों से छूटने के उपाय क्या हैं, गुणों से छूटे हुए मनुष्य के लक्षण तथा आचरण कैसे होते हैं- ये सब बातें बताने के लिये इस चौदहवें अध्याय को प्रारम्भ किया गया है. श्रीकृष्ण तेरहवें अध्याय में वर्णित ज्ञान को ही स्पष्ट करके चौदहवें अध्याय में विस्तारपूर्वक अर्जुन को समझाते हैं-

भगवद्गीता – चतुर्दश अध्याय (Gita 14 Gunatray Vibhag Yoga)

(Bhagwat Geeta Adhyay 14 Shlok in Sanskrit)

श्रीभगवानुवाच

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥१॥
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥२॥

मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥३॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥४॥

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥५॥
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥६॥

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्॥७॥
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत॥८॥

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत॥९॥
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा॥१०॥

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥११॥
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥१२॥

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥१३॥
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥१४॥

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥१५॥
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥१६॥

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥१७॥
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥१८॥

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥१९॥
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥२०॥

अर्जुन उवाच

कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते॥२१॥

श्रीभगवानुवाच

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥२२॥
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येवं योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥२३॥

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥२४॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥२५॥

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥२६॥
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥२७॥


भावार्थ (चौदहवाँ अध्याय) (Gita 14 Gunatray Vibhag Yoga)

(Bhagwat Geeta Adhyay 14 in Hindi)

भगवान श्रीकृष्ण बोले- अर्जुन! ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन (ज्ञानयोग के साधन द्वारा परम गति को प्राप्त ज्ञानीजन) इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि (परब्रह्म की प्राप्ति, आत्यन्तिक सुख) को प्राप्त हो गए हैं॥1॥ इस ज्ञान का आश्रय पाकर अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए मनुष्य सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते (जन्म-मृत्यु के बंधन से छूट जाते हैं)और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते॥2॥

हे अर्जुन! मेरी महत्‌-ब्रह्मरूप मूल-प्रकृति सम्पूर्ण भूतों (समस्त प्राणियों) की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन समुदायरूप गर्भ की स्थापना करता हूँ. उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पति होती है॥3॥ अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात शरीरधारी प्राणी (देव, मनुष्य, राक्षस, पशु, और पक्षी आदि नाना प्रकार के भिन्न-भिन्न वर्ण और आकृति वाले शरीरों से युक्त समस्त प्राणी) उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भधारण करने वाली माता है और मैं बीज का स्थापन करने वाला पिता हूँ॥4॥

मूल प्रकृति, जिसे समस्त जगत का कारणरूप भी कहा जाता है, जिसे ‘अव्यक्त’ और ‘प्रधान’ भी कहते हैं; उस प्रकृति का वाचक ‘महत’ विशेषण सहित ‘ब्रह्मा’ शब्द है. यहाँ उसे ‘योनि’ नाम देकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि समस्त प्राणियों के विभिन्न शरीरों का यही उपादान-कारण है. महाप्रलय के समय अपने अपने संस्कारों के सहित परमेश्वर में स्थित जीवसमुदाय का जो महासर्ग के आदि में प्रकृति के साथ विशेष संबंध कर देना है, वही उस चेतनसमुदायरूप गर्भ को प्रकृति रूप योनि में स्थापना करता है. उपयुक्त जड़-चेतन के संयोग से जो भिन्न-भिन्न आकृतियों में सब प्राणियों का सूक्ष्मरूप से प्रकट होना है, वही उनकी उत्पत्ति है. भगवान यह बताना चाहते हैं कि उन सब मूर्तियों के जो सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं, वे सब प्रकृति के अंश से बने हुए हैं और उन सबमें जो चेतन आत्मा है, वह मेरा अंश है. उन दोनों के संबंध में समस्त मूर्तियां अर्थात शरीरधारी प्राणी प्रकट होते हैं, अतः प्रकृति उनकी माता है और मैं पिता हूँ.

हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं॥ उन तीनों गुणों में सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख के संबंध से और ज्ञान के संबंध से अर्थात उसके अभिमान से बाँधता है॥6॥ अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जानो. वह इस जीवात्मा को कर्मों और उनके फल के संबंध में बाँधता है॥7॥

हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जानो. वह इस जीवात्मा को प्रमाद (इंद्रियों और अंतःकरण की व्यर्थ चेष्टायें), आलस्य (कर्तव्य कर्म में अप्रवृत्तिरूप निरुद्यमता) और निद्रा द्वारा बाँधता है॥8॥ अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढँककर प्रमाद में लगाता है॥9॥

हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, और सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है (अर्थात बढ़ता है)॥10॥ जिस समय इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है॥11॥ अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं॥12॥

वहीं, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रा आदि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ- ये सब ही उत्पन्न होते हैं॥13॥ जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त होता है॥14॥ रजोगुण के बढ़ने पर मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होने के बाद कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है॥15॥

श्रेष्ठ कर्म का तो सात्त्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है॥16॥ सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निःसन्देह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है॥17॥

सत्त्वगुण में स्थित मनुष्य स्वर्ग आदि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस मनुष्य मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्य आदि में स्थित तामस मनुष्य अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं॥18॥ जिस समय दृष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यंत परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥19॥

यह मनुष्य शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप इन तीनों गुणों का उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है (बुद्धि, अहंकार और मन तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पञ्चभूत, पाँच इन्द्रियों के विषय- इस प्रकार इन २३ तत्त्वों का पिण्ड रूप यह स्थूल शरीर प्रकृति से उत्पन्न होने वाले गुणों का ही कार्य है, इसलिए इन तीनों गुणों को इसी की उत्पत्ति का कारण कहा गया है)॥20॥

अर्जुन बोले- हे केशव! इन तीनों गुणों से अतीत मनुष्य किन-किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है तथा हे प्रभो! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है?॥21॥

भगवान श्रीकृष्ण बोले- अर्जुन! जो मनुष्य सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश (अंतःकरण और इन्द्रियादि को आलस्य का अभाव होकर जो एक प्रकार की चेतनता होती है, उसका नाम ‘प्रकाश’ है) को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है. (जो मनुष्य परमात्मा में ही नित्य, एकीभाव से स्थित हुआ इस त्रिगुणमयी माया के प्रपंच रूप संसार से सर्वथा अतीत हो गया है, उस गुणातीत पुरुष के अभिमानरहित अंतःकरण में तीनों गुणों के कार्यरूप प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह आदि वृत्तियों के प्रकट होने और न होने पर किसी काल में भी इच्छा-द्वेष आदि विकार नहीं होते हैं, यही उसके गुणों से अतीत होने के प्रधान लक्षण हैं)॥22॥

जो साक्षी के समान स्थित हुआ गुणों द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते (त्रिगुणमयी माया से उत्पन्न हुए अंतःकरण सहित इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में विचरना ही ‘गुणों का गुणों में बरतना’ है) हैं- ऐसा समझता हुआ जो परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता॥23॥ जो निरंतर आत्मभाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निंदा-स्तुति में भी समान भाव वाला है॥24॥

जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है तथा सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है॥25॥ और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्ति योग (स्वार्थ और अभिमान को त्याग कर श्रद्धा और भाव सहित परम प्रेम से निरंतर चिंतन करने को ‘अव्यभिचारी भक्तियोग’ कहते हैं) द्वारा मुझको निरंतर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भलीभाँति लाँघकर ब्रह्म को प्राप्त होने के योग्य बन जाता है॥26॥ क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एकरस आनंद का आश्रय मैं हूँ (नित्य परमानंद मेरा ही स्वरूप है, मुझसे भिन्न कोई अन्य वस्तु नहीं है अतः उसकी प्राप्ति मेरी ही प्राप्ति है)॥27॥

गुणातीत पुरुष के अंदर ज्ञान, शांति और आनंद नित्य रहते हैं; उनका कभी अभाव नहीं होता. गुणातीत पुरुषों को गुण विचलित नहीं कर सकते, इतनी ही बात नहीं है वह स्वयं भी अपनी स्थिति से कभी किसी भी काल में विचलित नहीं होता. आत्मा वास्तव में असंग है. गुणों के साथ, उसका कुछ भी संबंध नहीं है तथापि जो अनादिसिद्ध अज्ञान से इनके साथ संबंध हुआ है, उस संबंध को ज्ञान के द्वारा तोड़ देना और अपने को सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म से अभिन्न और गुणों से सर्वथा संबंधरहित समझ लेना अर्थात प्रत्यक्ष अनुभव कर लेना ही गुणों से अतीत हो जाना यानी तीनों गुणों का उल्लंघन करना है.

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