Bahubali Movie Review : भल्लालदेव, बाहुबली और कटप्पा (चरित्र-चित्रण या दृष्टिकोण)

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Bahubali Movie Review

Bahubali Movie Characters

एक मित्र ने एक पोस्ट लिखी है जो मुझे अच्छी लगी, जिसमें उन्होंने “बाहुबली” मूवी के लिए लिखा है कि “यह एक महाकाव्य श्रेणी की फिल्म है और इस फिल्म पर जितना विमर्श होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ.”

मैं लेखक की बात से सहमत हूँ और इसी “बाहुबली” फिल्म के एक विषय पर चर्चा करने का मन मेरा भी है, क्योंकि उस विषय ने आजकल मुझे सबसे ज्यादा व्यथित करके रखा है.

इस फिल्म में छोटी-छोटी बातों के माध्यम से बाहुबली के चरित्र में और बाकी सभी के चरित्र में काफी अंतर बताए गए हैं. बाहुबली में एक आदर्श और योग्य राजा के सभी गुण दर्शाए गए हैं.

इस फिल्म में एक सीन आता है, जहाँ युद्ध से पहले बाहुबली और भल्लालदेव को परंपरा के नाम पर एक पशु की बलि देने को कहा जाता है. भल्लालदेव तो बड़ी आसानी से पशु की बलि दे देता है, लेकिन बाहुबली को उस पशु पर दया आ जाती है. अतः वह यह कहकर उसकी बलि देने से मना कर देता है कि-
“देवी मां को इस निर्बल पशु की बलि क्यों? मेरा ही उबलता हुआ रक्त समर्पित है…”

इसके बाद, युद्ध के दौरान भल्लालदेव अपना भयंकर रथ लेकर विरोधी पक्ष की सेना को काटने के लिए निकलता है, लेकिन उस समय वह निर्दोष प्रजा, महिलाओं-बच्चों पर भी उस रथ को चला देता है, जिसमें उसे जरा-सा भी संकोच नहीं होता.

लेकिन यही बात बाहुबली में नहीं है, क्योंकि वह जानता है कि हमें दुश्मनों को मारना है इसी निर्दोष प्रजा को बचाने के लिए, तो भला हम निर्दोष प्रजा को दुश्मनों की ही श्रेणी में रखकर उसे दुश्मनों की तरह ही कैसे काट सकते हैं…?

और तब बाहुबली ऐसा तरीका खोज निकलता है जिसमें निर्दोष लोगों को भी कोई क्षति न पहुंचे और दुश्मन का भी वध हो जाये. जीत अंत में बाहुबली की होती है.

बाहुबली को एक आदर्श राजा बताया जाता है क्योंकि जो दुश्मनों को दंड देने या काटने के साथ साथ अपनी प्रजा के बारे में भी सोचे, निर्दोषों के बारे में भी सोचे, वही एक आदर्श राजा बन सकता है. और ऐसे राजा को सिंहासन की भी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वह तो जहां भी बैठता है, वही स्थान ‘सिंहासन’ बन जाता है.

और वहीं, जब भल्लालदेव राजा बन जाता है तो वह निर्दोष प्रजा पर तो बहुत अत्याचार करता ही है, देवसेना को बिना किसी सुनवाई के तुरंत हथकड़ियां पहना देता है, लेकिन अपने समर्थकों के बारे में सबकुछ जानते हुए भी उन्हें सुनवाई का पूरा अवसर देता है, (क्योंकि स्वार्थी लोगों को केवल अपने समर्थक चाहिए होते हैं, हितैषी नहीं).

जबकि बाहुबली बुद्धिहीन नहीं है, उसके अंदर निर्दोष प्रजा के प्रति या निर्दोष प्राणियों के प्रति तो बहुत दया दिखाई जाती है, लेकिन अपराधियों को दंड देने में वह तनिक भी समय नहीं लगाता. जो बाहुबली परंपरा के नाम पर एक निर्दोष पशु की गर्दन काटने से मना कर देता है, उसी बाहुबली को महिलाओं पर हाथ डालने वाले अपराधी की गर्दन उतारने में बिल्कुल समय नहीं लगता.

होता भी यही है. जिसके रक्त में उबाल नहीं होता, वही निर्बल और निर्दोष प्राणियों को काटकर अपनी बहादुरी का प्रदर्शन करता फिरता है. उसका मकसद होता है केवल अपने खोखले बल का प्रदर्शन करना, और ऐसे में वह किसी के बारे में नहीं सोचता, उसके मन में किसी के लिए प्यार नहीं होता, दया नहीं होती, ऐसे लोग बड़े सेलेक्टिव होते हैं. क्योंकि ऐसा व्यक्ति केवल अपने बारे में सोचता है, और ऐसे इंसान को राक्षस बनने में भी समय नहीं लगता, क्योंकि वह क्रूरता को ही वीरता समझ बैठता है.

वीरता और क्रूरता में अंतर होता है. भल्लाल देव क्रूर है, जबकि बाहुबली वीर है. क्रूरता का दमन करना ही वीरता है.


इस मूवी में किसी को भी अस्त्र-शस्त्रों का जब अभ्यास करते हुए दिखाया जाता है, तो एक बड़े मजबूत काठ को काटने की चुनौती दिखाई जाती है, न कि किसी निर्दोष पशु की गर्दन उड़ाने की.

बाहुबली और देवसेना जब खेतों में हिंसक जंगली सुअरों को मारते हैं, तो वे उन्हें खाने के उद्देश्य से या कोई खेल या परंपरा के लिए नहीं, बल्कि उन जंगली सुअरों के हमलों से किसानों को और उनके खेतों को बचाने के लिए मारते हैं, इसलिए वह दृश्य बुरा नहीं लगता.

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इस फिल्म में बाहुबली से केवल एक गलती हुई, और वह है कटप्पा पर कुछ ज्यादा ही विश्वास करने की. कटप्पा को जस्टिफाई जरूर किया जाता है, जबकि कटप्पा की गलती की सजा पूरी प्रजा भुगतती है 25 सालों तक.

कटप्पा एक ऐसा व्यक्ति दिखाया गया है, जो परंपराओं को अत्यधिक महत्व देता है, इतना अधिक महत्व कि वह परंपराओं को निभाते समय दिल और दिमाग का इस्तेमाल करना भी भूल जाता है.

जबकि कटप्पा से भल्लालदेव की कोई भी सच्चाई छिपी नहीं थी. फिल्म की शुरुआत से ही यह स्पष्ट दर्शाया जाता है कि कटप्पा भल्लालदेव की सच्चाई को अच्छे से जानता था, उसकी हर एक साजिश को जानता था. वह जानता था कि शिवगामी कितनी बड़ी गलती करने जा रही है, जिसमें सुधार की भी कोई गुंजाइश नहीं बचेगी.

अतः कटप्पा के पास पूरा अवसर था शिवगामी की गलती को सुधारने का. लेकिन परंपराओं को निभाने और अपने को एक आदर्श वीर सेवक प्रस्तुत करने के चक्कर में उसने बाहुबली का तो छोड़िये, देवसेना और उसके बच्चे का भी छोड़िये, यहां तक कि अपने ही राज्य की प्रजा तक का ख्याल नहीं किया. वैसे तो सेवक का धर्म यह भी होता है कि वह अपने स्वामी की गलती को सुधारे, जब उसे पता हो कि उसका स्वामी किसी के बहकाने पर गलत रास्ते पर चल रहा है.

यहाँ मेरे कहने का अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि कट्टप्पा को अपने स्वामी के खिलाफ कोई बगावत करनी चाहिए थी, लेकिन सबकुछ जानते हुए भी उचित समय पर अपने स्वामी को सच न बताना कहाँ की समझदारी है? जबकि बाहुबली को मारने के बाद जब वह शिवगामी को सच बताता है, तब शिवगामी उससे कोई सबूत नहीं मांगती है.

लेकिन इन सबकी तुलना में कटप्पा ने एक ऐसा कार्य किया, जिसमें सुधार की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी. जो “मामा मामा” कहकर पूरे विश्वास के साथ कटप्पा को बचाने आया, कटप्पा ने उसी को पीछे से मार दिया. वैसे कटप्पा में इतनी ताकत नहीं थी कि वह बाहुबली को मार सके, उसने बाहुबली को मारने के लिए उसके अति विश्वास का ही फायदा उठाया था.

बाहुबली भूल गया था कि ऐसे रोबोट टाइप के व्यक्ति कभी अतिरिक्त विश्वास योग्य नहीं होते, क्योंकि सबसे बड़ी बात कि आप ऐसे लोगों को कभी दोष भी नहीं दे पाएंगे, क्योंकि ये तर्कों से स्वयं को बचा ले जाएंगे कि “हम तो आज्ञा का पालन कर रहे थे या हम तो धर्म-परंपरा निभा रहे थे….”

हालाँकि बाहुबली को मारने के बाद कटप्पा गुस्से में आकर शिवगामी को राजमाता न कहकर “शिवगामी” संबोधन देता है. तो यदि कटप्पा सेवक होते हुए भी बाद में शिवगामी से इस प्रकार का व्यवहार कर सकता था, तो ऐसा ही वह बाहुबली को मारने से पहले शिवगामी को समझाने के लिए भी तो कर सकता था…?

क्या कटप्पा नहीं जानता था कि बाहुबली निर्दोष है? क्या वह नहीं जानता था कि यदि बाहुबली मारा गया तो राज्य की पूरी प्रजा का क्या होगा? क्या वह नहीं जानता था कि सीधा मार ही देने के बाद शिवगामी बाहुबली को न्याय नहीं दिला पायेगी? क्या वह नहीं जानता था कि बाहुबली के मरने के बाद शिवगामी भी असुरक्षित हो जाएगी?

वह ये सब अच्छे से जानता था, लेकिन चूंकि ऐसे लोगों के दिमाग में जो एक बार फीड कर दिया गया, ये लोग बस वही करते हैं, उससे आगे का उन्हें अपने विवेक से नहीं सोचना है, इसलिए मैंने उसे रोबोट टाइप का कहा, क्योंकि उसने उस दौरान इंसानों की तरह व्यवहार नहीं किया.

दरअसल, परंपराओं का अनुसरण होना चाहिए, अंधानुकरण नहीं. अंधानुकरण करने वाला व्यक्ति परिस्थिति के अनुसार अपने दिल और दिमाग का इस्तेमाल करना भूल जाता है. परंपराएं बनाई जाती हैं सभी को एक अनुशासित जीवन जीने की प्रेरणा देने के लिए, सभी को एकजुट रखने के लिए, सभी को शोषण या पीड़ा से बचाने के लिए.
लेकिन जब कोई परंपरा समय के साथ विकृत रूप लेकर किसी का शोषण करने लगे, किसी को पीड़ा देने लगे, किसी निर्दोष की मृत्यु का कारण बनने लगे, तो समझ जाना चाहिए कि अब उन परंपराओं पर विचार करने की आवश्यकता है.

जैसे कि मान लीजिए कि किसी राज्य में परंपरा है राजा के पुत्र को ही राजा बनाने की, लेकिन यदि किसी राजा का पुत्र अत्यंत निकम्मा निकल आए, तो क्या ऐसे में इस परंपरा को निभाना उचित होगा?

अच्छा, इसी मूवी में एक छोटा सा सीन और दिखाया जाता है, जब बाहुबली को देवसेना से प्यार हो जाता है, तब वह एक पक्षी के जोड़े को देखकर कटप्पा से कहता है कि “देखो! हम इंसानों की तरह ही ये पक्षी भी कैसे प्रेम की परिभाषा बताते हैं…”

और पक्षी के उन्हीं प्रेमी जोड़े को देखकर कटप्पा अपनी लार टपकाते हुए बोलता है कि
“मेरा तो मन कर रहा है कि इन पक्षियों पर नमक-मिर्च मसाले डालकर तलकर खा जाऊं…”

जिन प्राणियों में बाहुबली को प्रेम दिखाई दे रहा था, उन्हीं प्राणियों में कटप्पा को केवल अपना स्वाद दिख रहा था.


Written By : Aditi Singhal (working in the media)
(Guest Author)


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