Maharaja Agrasen ki kahani
उत्तर प्रदेश (UP) के प्रसिद्ध शहर आगरा (Agra) में मुगल रोड (Mughal Road) का नाम बदलकर अब ‘महाराजा अग्रसेन रोड (Maharaja Agrasen Road)’ कर दिया गया है. यह बदलाव रोड के पास वाले इलाके ‘कमला नगर’ में रहने वाले महाराजा अग्रसेन के अनुयायियों की मांग पर किया गया है. इस बदलाव पर स्थानीय लोगों ने खुशी जताते हुए कहा कि, “अब युग प्रवर्तक महाराजा अग्रसेन जी और उनके जनहित कार्यों को आने वाली पीढ़ियां भी याद रखेंगी और उनसे प्रेरणा लेंगी.”
कौन थे महाराजा अग्रसेन
(Maharaja Agrasen ki kahani)
संक्षिप्त परिचय- वैश्य समाज के जनक माने जाने वाले महाराजा अग्रसेन भगवान श्रीराम के वंशज, भगवान श्रीकृष्ण के समकालीन, युग प्रवर्तक, महादानी और समाजवाद के प्रथम प्रणेता थे. उन्होंने महाभारत (Mahabharata) के युद्ध में पांडवों की तरफ से युद्ध किया था और उनके पिता पांडवों की तरफ से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे. अग्रसेन जी के घर में महालक्ष्मी जी निवास करती थीं, जिस वजह से अग्रवाल समाज की कुलदेवी महालक्ष्मी हैं. महाराजा अग्रसेन जी के वंशज आज ‘अग्रवाल (Agarwal)’ के नाम से पूरी दुनिया में जाने जाते हैं.
परमप्रतापी महाराजा अग्रसेन क्षमता, दया, ममता और वीरता की मूर्ति थे. उन्होंने अपने जीवन में जितने भी कार्य किए, सभी सफल हुए और आज का समाज भी उनके कार्यों से प्रेरणा लेता है. महाराजा अग्रसेन जी के राज्य में कोई गरीब या दुखी या लाचार नहीं था. वे अपनी प्रजा के साथ-साथ हर एक जीव मात्र से प्रेम और दया का भाव रखते थे, इसीलिए वे अपनी प्रजा में बेहद लोकप्रिय थे और यही कारण है कि आज लगभग 5200 सालों बाद भी वे पूजनीय हैं.
महाराजा अग्रसेन का जीवन परिचय
(जन्म, विवाह, राज्य की स्थापना और जनहित कार्य)
महाराजा अग्रसेन का जन्म- महाराजा अग्रसेन वल्लभगढ़ और आगरा के राजा बल्लभसेन और रानी भगवती देवी के बड़े पुत्र और शूरसेन के बड़े भाई थे. उनका जन्म आज से लगभग 5200 साल पहले द्वापर युग के अंत में सूर्यवंशी भगवान श्रीराम जी (Shri Ram) की पीढ़ी में हुआ था. महाराजा अग्रसेन जी की जयंती हर साल शारदीय नवरात्रि (Navratri) के पहले दिन मनाई जाती है. अग्रसेन को शिक्षा के लिए ऋषि तांडेय के आश्रम में भेजा गया था, जहां उन्हें एक अच्छा शासक बनने के सभी गुण दिए गए.
जब अग्रसेन की उम्र 15 वर्ष थी, तब उन्होंने महाभारत के युद्ध में पांडवों की तरफ से युद्ध लड़ा. उनके पिता महाराजा वल्लभसेन युद्ध के दसवें दिन भीष्म पितामह के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए. तब भगवान श्रीकृष्ण ने अग्रसेन को शोक से उबरने का दिव्य ज्ञान दिया और पिता का राजकाज संभालने और उसे आगे बढ़ाने का आदेश दिया. वहीं, इनके छोटे भाई शूरसेन प्रतापनगर के राजा बने.
महाराजा अग्रसेन का विवाह- महाराजा अग्रसेन का विवाह नागराज कुमुद की पुत्री माधवी जी से हुआ था. माधवी के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया गया था. माधवी ने अग्रसेन जी की सुंदरता और वीरता से प्रभावित होकर उनके गले में वरमाला डाल दी.
यहां इस संबंध में एक और कथा का जिक्र किया जाता है कि इंद्र नाम के एक राजा को हराने के लिए अग्रसेन ने कोलापुर के राजा नागराज महीरथ की पुत्री राजकुमारी सुंदरावती से भी विवाह कर लिया था, जिससे उनकी सभी शक्तियां अग्रसेन को मिल गई थीं… और इस पर इंद्र ने राजा अग्रसेन से सुलह कर ली. महाराजा अग्रसेन का संबंध नागवंश से होने के कारण उनके राज्य में धन-संपत्ति और अपार वैभव की वृद्धि हुई… और इसीलिए नाग अग्रवालों के ‘मामा’ कहे जाते हैं.
राज्य की स्थापना- नए राज्य की स्थापना के लिए महाराजा अग्रसेन ने रानी माधवी के साथ पूरे देश की यात्रा की. यात्रा के दौरान ही एक स्थान पर उन्हें एक शेरनी एक शावक को जन्म देते हुए दिखाई दी. राजा के हाथी को देखकर शावक को लगा कि कहीं वह हाथी उसकी मां को कोई नुकसान न पहुंचा दे. ये सोचकर शावक ने राजा के हाथी पर छलांग लगा दी. राजा अग्रसेन के साथ उपस्थित ऋषि-मुनियों ने इसे दैवीय इशारा समझा और उन्होंने अग्रसेन को उसी स्थान पर अपना राज्य स्थापित करने की सलाह दी.
नए राज्य की स्थापना की गई, जिसका नाम अग्रेयगण या अग्रोदय रखा गया. वहीं, जिस जगह शावक का जन्म हुआ था, उस जगह को अग्रोहा (Agroha) नाम से राज्य की राजधानी बनाया गया. आज के समय में यह जगह हरियाणा के हिसार के पास है, जिसे आज भी अग्रवाल समाज का पांचवा धाम माना जाता है.
अग्रवाल समाज की स्थापना- महाराजा अग्रसेन ने महर्षि गर्ग की सलाह पर अपने राज्य को 18 गणों में बांटकर एक विशाल राज्य की स्थापना की. इसी के साथ, महर्षि गर्ग ने अग्रसेन जी को 18 गणाधिपतियों के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प भी करवाया. पहला यज्ञ स्वयं महर्षि गर्ग ने ही करवाया. उन्होंने अग्रसेन जी के सबसे बड़े पुत्र विभु को शिक्षा-दीक्षा देकर उन्हें गर्ग गोत्र दिया. आगे जिन-जिन ऋषियों ने यज्ञ करवाया, उन सभी ने अपना-अपना गोत्र इन 18 गणाधिपतियों को दिया और इन 18 गणाधिपतियों के नाम पर ही अग्रवंश के गोत्रों (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई-
जैसे- महर्षि गर्ग से गर्ग, गोभिल से गोयल, गौतम से गोयन, वत्स से बंसल, कौशिक से कंसल, शांडिल्य से सिंघल, मुद्रगल से मंगल, जैमिनी से जिंदल, तांड्य से तिंगल, और्वा से ऐरण, धौम्य से धारण, भरद्वाज से भंदल, वशिष्ठ से बिंदल, मैत्रेय/विश्वामित्र से मित्तल, कश्यप से कुच्छल, तैतिरेय से तायल, मुद्गल से मधुकुल.
पशुबलि प्रथा का अंत- जब 17 यज्ञ पूरे हो चुके थे और 18वां यज्ञ चल रहा था, तब बीच में ही एक जीवित घोड़े की बलि दी जाने लगी. घोड़े को डर से तड़पता देखकर अग्रसेन को बेहद दया आई और बहुत क्रोध भी आया. उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रुकवा दिया और घोड़े की बलि रुकवा दी. फिर उन्होंने सख्त आदेश देते हुए कहा कि–
“वेदों में कहीं भी किसी भी यज्ञ में किसी प्राणी की बलि या हत्या का विधान नहीं है. मेरे राज्य में कोई भी पशुओं की बलि नहीं देगा और न ही किसी भी प्राणी या जीव-जंतु की हत्या करेगा. मेरे राज्य में कोई भी व्यक्ति मांस नहीं खाएगा. हर एक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह सभी प्राणियों की रक्षा करे“. इसी के साथ, अग्रसेन महाराज ने यज्ञ में भी नारियल फोड़ने की प्रथा की शुरुआत की.
हालांकि, पशुबलि प्रथा न सतयुग में थी और न त्रेतायुग में. वेदों, मनुस्मृति या किसी भी पुराण में पशुओं की हत्या या बलि या मांसाहार से सम्बंधित कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन फिर भी यह बुराई बीच में कब-कहां से आ गई, इस प्रश्न का उत्तर महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय ११५ में मिलता है.
महाराजा अग्रसेन जी ने भगवान शिव की कठिन उपासना कर उन्हें प्रसन्न कर लिया था. इसी के साथ, उन्होंने देवी महालक्ष्मी जी की भी आराधना करके उन्हें अपने ही राज्य में रहने का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया था… और इसीलिए अग्रवालों या वैश्य समाज की कुलदेवी महालक्ष्मी जी हैं.
‘एक ईंट और एक सिक्का’ का सिद्धांत- महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का प्रणेता कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने ही एक सही समाजवाद की स्थापना के लिए यह नियम बनाया था कि अगर उनके राज्य में बाहर से कोई भी व्यक्ति बसने के लिए आता है, तो राज्य का हर एक परिवार नए व्यक्ति को एक ईंट और एक सिक्का देगा, जिससे वह व्यक्ति अपना मकान बना सके और अपना व्यापार शुरू कर सके. महाराजा अग्रसेन के इस सिद्धांत की वजह से उनके राज्य में न गरीबी थी और ना लाचारी.
इस संबंध में एक कथा भी कही जाती है कि एक बार अग्रोहा में भयंकर अकाल पड़ा. तब महाराजा अग्रसेन ने समस्या का समाधान ढूंढने के लिए वेश बदलकर पूरे राज्य का भ्रमण किया. उस दौरान उन्होंने देखा कि एक परिवार, जिसमें 4 सदस्य थे, उसमें 4 सदस्यों के लिए ही भोजन बन पाया था, लेकिन उसी समय वहां एक मेहमान आ गया, जिससे खाने की समस्या उठ खड़ी हुई.
तब परिवार के चारों सदस्यों ने अपनी-अपनी थाली में से थोड़ा-थोड़ा भोजन निकालकर मेहमान के लिए भोजन की व्यवस्था की और इस तरह समस्या का समाधान हो गया. यही देखकर महाराजा अग्रसेन के मन में ख्याल आया कि हर व्यक्ति अगर अपनी-अपनी संपत्ति का बहुत थोड़ा सा भाग भी किसी गरीब को दे तो गरीब, गरीब नहीं रह जाएगा और किसी व्यक्ति पर भी विशेष असर या बोझ नहीं पड़ेगा.
महाराजा अग्रसेन ने अनेक आदर्श स्थापित किए और 108 सालों तक शासन किया. फिर अपनी कुलदेवी महालक्ष्मी जी की सलाह पर अपने राज्य का शासन अपने बड़े पुत्र विधु (गर्ग) के हाथों में सौंपकर अपनी रानी के साथ तपस्या करने वन में चले गए. आज भी कई शहरों में अग्रवाल समाज की तरफ से महाराजा अग्रसेन जी की जयंती पर भव्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं.
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