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धर्म और अध्यात्म

Bhagavad Gita Chapter 12 : श्रीमद्भगवद्गीता – बारहवाँ अध्याय (भक्ति योग)

‘सब कर्मों के फल का त्‍याग’ करने वाला मनुष्य न तो यह समझता है कि मुझसे भगवान कर्म करवाते हैं और न ही वह यह समझता है कि मैं भगवान के लिये समस्‍त कर्म करता हूँ. वह यह समझता है कि कर्म करने में ही मनुष्‍य का अधिकार है, उसके फल में नहीं. […]

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Bhagavad Gita Adhyay 11 : श्रीमद्भगवद्गीता – ग्यारहवाँ अध्याय (विश्वरूप दर्शन योग)

भगवान श्रीकृष्ण के इस वचन को सुनकर अर्जुन हाथ जोड़कर काँपते हुए नमस्कार करके, फिर भी अत्यन्त भयभीत होकर प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गद्‍गद्‍ वाणी से बोले- […]

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Bhagavad Geeta Adhyay 10 : श्रीमद्भगवद्गीता – दशवाँ अध्याय (विभूति योग)

अर्जुन! मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायुदेवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ॥21॥ मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और भूत प्राणियों की चेतना अर्थात्‌ जीवन-शक्ति हूँ॥22॥ […]

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Bhagavad Gita Adhyay 9 : श्रीमद्भगवद्गीता – नौवाँ अध्याय (राजविद्या राजगुह्य योग)

जहाँ भगवान् ने स्वयं को जगत का रचयिता बतलाया है‚ वहाँ पर बात भी समझ लेनी चाहिये कि वस्तुतः भगवान् स्वयं कुछ नहीं करते‚ वे अपनी शक्ति प्रकृति को स्वीकार करके उसी के द्वारा जगत की रचना करते हैं और जहाँ प्रकृति को सृष्टि की रचना आदि कार्य करने वाली कहा गया है‚ वहाँ …. […]

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Bhagavad Gita Adhyay 8 : श्रीमद्भगवद्गीता – आठवां अध्याय (अक्षर ब्रह्म योग)

“अर्जुन! यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है॥6॥ इसलिए अर्जुन! तुम सब समय में …” […]

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Bhagavad Geeta Adhyay 7 : श्रीमद्भगवद्गीता – सातवां अध्याय (ज्ञान-विज्ञान योग)

जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मों से संस्कारों का संचय होता है और उस संस्कार समूह से जो प्रकृति बनती है, उसे स्वभाव कहा जाता है. प्रत्येक जीव का स्वभाव अलग-अलग होता है. उस स्वभाव के अनुसार जो अन्तःकरण में भिन्न-भिन्न देवताओं का पूजन करने की भिन्न-भिन्न इच्छा उत्पन्न होती है, उसी को उससे प्रेरित होना कहते हैं. […]

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Bhagavad Gita Adhyay 6 : श्रीमद्भगवद्गीता – छठा अध्याय (आत्मसंयम योग)

मनुष्‍य को कभी भी यह नहीं समझना चाहिये कि मेरी प्रारब्‍ध बुरा है, इसलिये मेरी उन्‍नति होगी ही नहीं. मनुष्‍य का उत्‍थान-पतन उसी के हाथ में है. मनुष्‍य अपने स्‍वभाव और कर्मों में जितना ही अधिक सुधार कर लेता है, वह उतना ही उन्‍नत होता है. […]

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Bhagwat Geeta Adhyay 5 : श्रीमद्भगवद्गीता – पांचवा अध्याय (सांख्ययोग एवं कर्मयोग का निर्णय)

हे श्रीकृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इसलिए इन दोनों में से जो एक मेरे लिए भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिए॥ […]

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Bhagavad Gita Adhyay 4 : श्रीमद्भगवद्गीता – चौथा अध्याय – श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद (ज्ञान कर्म संन्यास योग)

हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥ साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥ […]

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Bhagavad Geeta Adhyay 3 : श्रीमद्भगवद्गीता – तीसरा अध्याय – श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद (कर्मयोग)

“हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर आप मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥ मानो आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मोहित कर रहे हैं. इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मेरा कल्याण हो सके॥” […]