Aditya Hridaya Stotra : अत्यंत शक्तिशाली है आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ

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सूर्य को जल चढ़ाने के नियम और फायदे

Aditya Hridaya Stotra Path

आदित्यहृदयम् स्तोत्र (Aditya Hridaya Stotra) का उल्लेख श्री वाल्मीकि जी ने रामायण के युद्धकांड (६|१०५) में किया है. यह भगवान सूर्य की सबसे शक्तिशाली स्तुति है. यह एक प्रार्थना है जिसे भगवान् श्रीराम ने रावण के साथ हो रहे युद्ध से पहले की थी. यह स्तोत्र उन्हें महर्षि अगस्त्य ने दिया था.

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इस स्तोत्र के अनगिनत लाभ हैं. इस स्तोत्र के पाठ से जीवन की सभी बाधाएँ दूर हो जाती हैं जिनमें रोग और नेत्र संबंधी समस्यायें, शत्रुओं से समस्या और सभी चिंताएँ और तनाव शामिल हैं एवं शांति, आत्मविश्वास और समृद्धि की प्राप्ति होती है. प्रतिदिन सूर्योदय से पहले उठने वाले, उदित हो रहे सूर्य को प्रणाम करने एवं उसकी स्तुति करने वाले व्यक्ति के जीवन में धन, संपत्ति, उन्नति, यश, बल एवं आरोग्य की वृद्धि होती है.

वेदों में सूर्य के प्रमुख गुण बताये गये हैं-

अंधकार का नाश,
राक्षसों का नाश,
दुःखों और रोगों का नाश,
नेत्र ज्योति की वृद्धि,
चराचर की आत्मा,
आयु की वृद्धि,
लोकों को धारण.

वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड के अनुसार-

अगस्त्य मुनि देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे. वे भगवान् श्रीराम के पास जाकर बोले- “सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो! वत्स! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लोगे. इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है ‘आदित्यहृदयम्’.”

महर्षि अगस्त्य ने कहा- “राम! यह स्तोत्र परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है. इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है. यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है. सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है. इससे सब पापों का नाश हो जाता है. यह स्तोत्र चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु का बढ़ाने वाला उत्तम साधन है. इस स्तोत्र का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय प्राप्त करोगे. वत्स! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे.”

तब श्रीराम ने प्रसन्न होकर शुद्धमन से आदित्यहृदय स्तोत्र को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध होकर भगवान् सूर्य की ओर देखते हुए तीन बार उसका जप किया. इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ. फिर परमपराक्रमी श्री रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की तरफ देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए आगे बढ़े. उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया. उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुये भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की और देखा और निशाचरराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा- ‘रघुनन्दन! अब शीघ्र कीजिये.’

आदित्य हृदय स्तोत्र

विनियोग

ॐ अस्य आदित्य हृदयस्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुप छन्दः, आदित्यहृदयभूतो
भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः।

ऋष्यादिन्यास

ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि।
अनुष्टुपछन्दसे नमः, मुखे।
आदित्य-हृदयभूत-ब्रह्मदेवतायै नमः, हृदि।
ॐ बीजाय नमः, गुह्ये।
रश्मिमते शक्तये नमः, पादयोः।
ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः, नाभौ।

करन्यास

ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

हृदयान्यास

ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः।
ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा।
ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्।
ॐ विवस्वते कवचाय हुम्।
ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।

इस प्रकार न्यास करके निम्नांकित मंत्र से भगवान सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिए-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

इस प्रकार से विनियोग आदि का पाठ करने के बाद निम्नलिखित स्तोत्र का पाठ करना चाहिए-

ततो युद्धपरिश्रान्तम् समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणम् चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम्॥१॥
दैवतैश्च समागम्य दृष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपागम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा॥२॥

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन वत्स समरे विजयिष्यसे॥३॥
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रु विनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्॥४॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्‌।
चिन्ताशोकप्रशमन मायुर्वर्धनमुत्तमम्‌॥५॥
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुर नमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करम् भुवनेश्वरम्॥६॥

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥७॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥८॥

पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वह्निः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥९॥
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥१०॥

हरिदश्वः सहस्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान्‌।
तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्‌॥११॥
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहस्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशन:॥१२॥

व्योम नाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसामपारगः।
धनवृष्टिरपां मित्रो विंध्यवीथीप्लवंगम:॥१३॥
आतपी मंडली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भव:॥१४॥

नक्षत्रग्रहताराणा मधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोस्तु ते॥१५॥
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥१६॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः॥१७॥
नमः उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते॥१८॥

ब्रह्मेशानाच्युतेषाय सूरायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥१९॥
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः॥२०॥

तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे॥२१॥
नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥२२॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्‌॥२३॥
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः॥२४॥

॥फलश्रुति॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव॥२५॥
पूज्यस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्‌।
एतत् त्रिगुणितम् जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यति॥२६॥

अस्मिन क्षणे महाबाहो रावणम् त्वं जहिष्यसि।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम च यथागतम्॥२७॥
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्‌ तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्‌॥२८॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्॥२९॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागमत्‌।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्‌॥३०॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाण:।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥३१॥

॥सम्पूर्ण॥


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