Bhagavad Gita Adhyay 8 : श्रीमद्भगवद्गीता – आठवां अध्याय (अक्षर ब्रह्म योग)

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महाभारत की ऐतिहासिकता

Bhagavad Gita Chapter 8 (ब्रह्म, अध्यात्म और कर्म आदि के विषय में अर्जुन के प्रश्न और उनके उत्तर)

गीता के 7वें अध्‍याय में पहले से तीसरे श्‍लोक तक भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने समग्र रूप का तत्त्व सुनने के लिये अर्जुन को सावधान करते हुए, उसके कहने की प्रतिज्ञा और जानने वालों की प्रशंसा की। फिर 27वें श्‍लोक तक अनेक प्रकार से उस तत्त्व को समझाकर न जानने के कारण को भी भली-भाँति समझाया और अंत में ब्र‍ह्म, अध्‍यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के सहित भगवान् के समग्र रूप को जानने वाले भक्त की महिमा का वर्णन करते हुए उस अध्‍यात्म का उपसंहार किया; किंतु 29वें और 30वें श्‍लोकों में वर्णित ब्रह्म, अध्‍यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ- इन छहों का तथा प्रयाणकाल में भगवान् को जानने की बात का रहस्य भली-भाँति न समझने के कारण इस आठवें अध्‍याय के आरम्भ में पहले दो श्लोकों में अर्जुन उपर्युक्त सातों विषयों को समझने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण से सात प्रश्‍न करते हैं-

भगवद्गीता – अष्टम अध्याय (Gita 8 Akshar Brahm Yog)

(Bhagwat Geeta Adhyay 8 Shlok in Sanskrit)

अर्जुन उवाच

किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥१॥
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥२॥

श्रीभगवानुवाच

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥३॥
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥४॥

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥५॥
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥६॥

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः॥७॥
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८॥

कविं पुराणमनुशासितार-
मणोरणीयंसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-
मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥९॥
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥१०॥

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये॥११॥
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥१२॥

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥१३॥
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥१४॥

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥१५॥
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥१६॥

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥१७॥
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥१८॥

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥१९॥
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥२०॥

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥२१॥
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥२२॥

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥२३॥
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥२४॥

धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥२५॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥२६॥

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥२७॥
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥२८॥


भावार्थ (आठवाँ अध्याय) (Gita 8 Akshar Brahm Yog)

(Bhagwat Geeta Adhyay 8 in Hindi)

अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं?॥1॥ हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस शरीर में कैसे है? तथा युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं॥2॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! परम अक्षर ‘ब्रह्म’ है (7वें अध्‍याय के 29वें श्‍लोक में प्रयुक्त ‘ब्र‍ह्म’ शब्द निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन परमात्मा का वाचक है; वेद, ब्रह्मा और प्रकृति आदि का नहीं), अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा ‘अध्यात्म’ नाम से कहा जाता है तथा भूतों (समस्त प्राणी) के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह ‘कर्म’ नाम से कहा गया है (समस्त प्राणियों के भाव का उद्भव और अभ्‍युदय जिस त्याग से होता है, जो सृष्टि-स्थिति का आधार है, उस ‘त्याग’ का नाम ही कर्म है)॥3॥

महाप्रलय में विश्‍व के समस्त प्राणी अपने-अपने कर्म-संस्कारों के साथ भगवान् में विलीन हो जाते हैं. फिर सृष्टि के आदि में भगवान् के संकल्प से पुन: उनकी उत्पत्ति होती हैं. भगवान् का यह ‘आदि सं‍कल्प’ ही चेतनरूप बीज की स्थापना करना है. यही महान् विसर्जन है और इसी विसर्जन (त्याग) का नाम ‘विसर्ग’ है.

अर्जुन! उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत (समस्त प्राणियों से सम्बंधित, ब्रह्म या उसकी माया, जड़ जगत्) हैं, हिरण्यमय पुरुष (जिसे शास्त्रों में सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा इत्यादि कहा गया है. जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण विश्‍व का यही प्राण पुरुष है, समस्त देवता इसी के अंग हैं, यही सबका अधिष्‍ठाता, अधिपति और उत्पादक है, इसी से इसका नाम ‘अधिदैव’ है) अधिदैव है, और इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से अधियज्ञ हूँ॥4॥जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥5॥

अर्जुन दो बातें पूछी थीं- ‘अधियज्ञ’ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे हैं? भगवान् ने दोनों प्रश्‍नों का एक ही साथ उत्तर दे दिया है. भगवान् ही सब यज्ञों के भोक्ता और प्रभु हैं और समस्त फलों का विधान वे ही करते हैं तथा वे ही अन्तर्यामीरूप से सबके अंदर व्याप्त हैं. यहाँ अंतकाल का विशेष महत्त्व प्रकट किया गया है. भगवान् कहते हैं कि ‘जो सदा-सर्वदा मेरा अनन्यचिंतन करते हैं उनकी तो बात ही क्या है, जो इस मनुष्‍य-जन्म के अंतिम क्षण तक भी मेरा चिंतन करते हुए शरीर त्याग करते हैं, उन्हें भी मेरी प्राप्ति हो जाती है.’

यहाँ यह बात कही गई है कि भगवान् का स्मरण करते हुए मरने वाला भगवान् को ही प्राप्त होता है. इस पर यह जिज्ञासा होती है कि यह विशेष नियम केवल भगवान् के स्मरण के संबंध में ही है या सभी के संबंध में है? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं-

अर्जुन! यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है॥6॥ इसलिए अर्जुन! तुम सब समय में निरंतर मेरा स्मरण करो और युद्ध भी करो. इस प्रकार मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर तुम निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगे॥7॥

ईश्‍वर, देवता, मनुष्‍य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष, मकान, जमीन आदि जितने भी चेतन और जड़ पदार्थ हैं, उन सबका नाम ‘भाव’ है. अंतकाल में किसी भी पदार्थ का चिंतन करना, उस भाव का स्मरण करना है. अंतकाल में प्राय: उसी भाव का स्मरण होता है जिस भाव से चित्त सदा भावित होता है (जिसमें हमारा मन प्रायः लगा रहता है). पूर्व संस्कार, संग, वातावरण, आसक्ति, कामना, भय और अध्‍ययन आदि के प्रभाव से मनुष्‍य जिस भाव का बार-बार चिंतन करता है, वह उसी से भावित हो जाता है और मरने के बाद सूक्ष्‍म रूप से अन्त:करण में अंकित हुए उस भाव से भावित होता-होता वह समय पर उस भाव को पूर्णतया प्राप्त हो जाता है.

किसी व्यक्ति की फोटो लेते समय जिस क्षण फोटो ली जाती है, उस क्षण में वह मनुष्‍य जिस प्रकार से स्थित होता है, उसका वैसा ही चित्र उतर जाता है; उसी प्रकार अंतकाल में मनुष्‍य जैसा चिंतन करता है, वैसे ही रूप का फोटो उसके अन्त:करण में अंकित हो जाता है. अतः जैसे चित्र लेने वाला सबको सावधान करता है और उसकी बात न मानकर इधर-उधर हिलने-डुलने से चित्र बिगड़ जाता है, वैसे ही सम्पूर्ण प्राणियों का चित्र उतारने वाले भगवान् मनुष्‍य को सावधान करते हैं कि ‘तुम्हारी फोटो उतरने का समय अत्यंत समीप है, पता नहीं वह अंतिम क्षण कब आ जाए; इसलिये अब तुम सावधान हो जाओ, नहीं तो तुम्हारा चित्र बिगड़ जायेगा.’

हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त (मन) से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाश रूप दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है (भगवान् के सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाले सगुण निराकार सर्वव्यापी अव्यक्त ज्ञानस्वरूप को ‘दिव्य परम पुरुष’ कहा गया है)॥8॥

यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्‍यान के अभ्‍यास का नाम ‘अभ्‍यासयोग’ है. ऐसे अभ्‍यास-योग के द्वारा जो मन भलीभाँति वश में होकर लगातार अभ्‍यास में लगा रहता है, उसे ‘अभ्‍यासयोगयुक्त’ कहते हैं.

जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता (अंतर्यामी रूप से सब प्राणियों के शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार शासन करने वाला) सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले अचिंत्य-स्वरूप, सूर्य के समान नित्य चेतन प्रकाश रूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वर का स्मरण करता है॥9॥ वह भक्ति युक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है॥10॥

वेद के जानने वाले विद्वान जिस सच्चिदानन्दघनरूप परम पद को अविनाशी (जिसका नाश न हो, नित्य) कहते हैं, आसक्ति रहित यत्नशील (प्रयत्न में लगा हुआ) संन्यासी महात्माजन, जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप में कहूँगा॥11॥

‘ब्रह्मचर्य’ का अर्थ है, ब्रह्म में अथवा ब्रह्म के मार्ग में संचरण करना. जिन साधनों से ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर हुआ जा सकता है, उनका आचरण करना. ऐसे साधन ही ब्रह्मचारी के व्रत कहलाते हैं.

सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश (नाभि और कण्‍ठ- इन दोनों स्थानों के बीच का स्थान, जिसे हृदयकाल भी कहते हैं. यह मन तथा प्राणों का निवास स्थान माना गया है) में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष ‘ॐ’ (इस एक) अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है॥12-13॥

हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्य-चित्त होकर सदा ही निरंतर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य-निरंतर मुझमें युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ, अर्थात उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥14॥ परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझको प्राप्त होकर दुःखों के घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते (जिसके प्राप्त होने के बाद फिर कुछ भी साधन करना शेष नहीं रह जाता और तुरंत ही उसे भगवान् का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो जाता है- उस पराकाष्‍ठा की स्थिति को ‘परम सिद्धि’ कहते हैं)॥15॥

मरने के बाद कर्मपरवश होकर देवता, मनुष्‍य, पशु, पक्षी आदि योनियों में से किसी भी योनि में जन्म लेना ही पुनर्जन्म कहलाता है और ऐसी कोई भी योनि नहीं है, जो दु:खपूर्ण और अनित्य (नश्वर) न हो.

हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं (ब्रह्मलोक सहित उससे नीचे के जितने भी अलग-अलग लोक हैं, उन सबको पुनरावर्ती समझना चाहिये), किन्तु मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत (काल से परे) हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य (नश्वर) हैं॥16॥ ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसे एक हजार चतुर्युगी तक की अवधि वाला और रात्रि को भी एक हजार चतुर्युगी तक की अवधि वाला जो पुरुष तत्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्व को जानने वाले हैं॥17॥

संपूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लीन हो जाते हैं॥18॥ हे पार्थ! वही यह भूत-समुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति वश में हुआ रात्रि के प्रवेश काल में लीन होता है और दिन के प्रवेश काल में फिर उत्पन्न होता है (अव्यक्त में लीन हो जाने से समस्त प्राणी न तो मुक्त होते हैं और न उनकी भिन्न सत्ता ही मिटती है. इसीलिये ब्रह्मा की रात्रि का समय समाप्त होते ही वे सब पुन: अपने-अपने गुण और कर्मों के अनुसार यथायोग्य स्थूल शरीरों को प्राप्त करके प्रकट हो जाते हैं)॥19॥

उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण जो सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता॥20॥ जो अव्यक्त ‘अक्षर’ इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परमगति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है॥21॥ हे पार्थ! जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत है और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है (गीता के अध्याय 9 के श्लोक 4 में देखना चाहिए), वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्य (गीता के अध्याय 11 के श्लोक 55 में इसका विस्तार देखना चाहिए) भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है॥22॥

हे अर्जुन! जिस काल में (यहाँ काल शब्द से मार्ग समझना चाहिए, क्योंकि आगे के श्लोकों में भगवान ने इसका नाम ‘सृति’, ‘गति’ ऐसा कहा है) शरीर त्याग कर गए हुए योगीजन तो वापस न लौटने वाली गति को, और जिस काल में गए हुए (प्राणी) वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात दोनों मार्गों को कहूँगा॥23॥

अर्जुन! जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं॥24॥

जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता है, रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्ण पक्ष का अभिमानी देवता है और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्म करने वाला योगी उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चंद्रमा की ज्योत को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है॥25॥ क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं.

इनमें एक द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 24 के अनुसार अर्चिमार्ग से गया हुआ योगी), जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 25 के अनुसार धूममार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी) फिर वापस आता है अर्थात्‌ जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है॥26॥

हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्त्व से जानकर कोई भी योगी मोहित नहीं होता. इस कारण हे अर्जुन! तुम सब काल में समबुद्धि रूप से योग से युक्त रहो अर्थात निरंतर मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाले बनो॥27॥ योगी पुरुष इस रहस्य को तत्त्व से जानकर वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ, तप और दानादि के करने में जो पुण्यफल कहा है, उन सबको निःसंदेह उल्लंघन कर जाता है और सनातन परम पद को प्राप्त होता है॥28॥g

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