ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग क्या हैं? तीनों में कौन श्रेष्ठ है?

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Gyan Bhakti Karma Marg

जीवन में उन्नति के लिए तीन मार्ग होते हैं- ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग.

तीनों ही मार्ग आवश्यक हैं. ज्ञान में होश है, कर्म में उपलब्धि और भक्ति में समर्पण. अतः तीनों ही जीवन को पूर्णता की ओर ले जाते हैं. किसी का महत्त्व किसी से कम नहीं है. कोई किसी का प्रतिद्वंदी नहीं है. तीनों अलग-अलग नहीं, बल्कि एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. आप समय की मांग के अनुसार, इन तीनों में से किसी को किसी की तुलना में श्रेष्ठ तो बता सकते हैं, लेकिन किसी को किसी की तुलना में कमतर नहीं बता सकते. किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तीनों की ही जरूरत पड़ती है.

माता कौशल्या ज्ञान मार्ग, माता कैकई कर्म मार्ग और माता सुमित्रा भक्ति मार्ग हैं. अग्निदेव ने प्रकट होकर राजा दशरथ जी को पुत्र प्राप्ति के वरदान के साथ प्रसाद दिया तो अग्निदेव ने ही सावधान कर दिया था कि तीनों रानियों में यथा योग्य प्रसाद वितरण होना चाहिए.

ज्ञान-

• ज्ञान संस्कृत के ‘ज्ञ’ धातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है – जानना या बोध होना. ज्ञान के कारण ही मानव दुनिया के सभी अस्तित्वों में सर्वश्रेष्ठ है. ज्ञान अर्जन की यात्रा इस संसार में आने के तुरंत बाद शुरू हो जाती है. ज्ञान किसी भी प्रकार से अर्जित किया जा सकता है, चाहे वह सुनकर हो या देखकर, समझकर हो या अनुभवों से. ज्ञान किसी से भी, कहीं से भी प्राप्त हो सकता है, चाहे सजीवों से या निर्जीवों से. ज्ञान अर्जन में सबसे जरूरी तत्व है, हमारी बुद्धि.

ज्ञान की आवश्यकता

• ज्ञान हमें दिशा दिखाता है. ज्ञान के बिना मनुष्य दिशाहीन हो जाता है. ज्ञान हमें होश में रखता है, किसी भी चीज को या किसी भी विषय को या किसी भी व्यक्ति को समझने में मदद करता है, अच्छे-बुरे और सही-गलत का बोध कराता है, निर्णय लेने की क्षमता देता है, हमें समय के साथ परिपक्व करता है, परिवर्तन करने की शक्ति देता है, जीवन जीने का सलीका सिखाता है. ज्ञान ही हमें बताता है कि हमें कब क्या करना चाहिए और क्या नहीं.

• ज्ञान की खोज सरल नहीं होती. यदि ज्ञान न हो, तो एक समय के बाद कोई भी आपको अपने अनुसार ढाल सकता है. क्योंकि आपको ज्ञान ही नहीं है, तो वह ‘सुन्दर’ भाषा में जो बताएगा, आप उसी को ज्ञान और सच समझ बैठेंगे. अनगिनत पंथों का निर्माण या धर्म परिवर्तन ऐसे ही होता है, जैसे भारत में धर्म परिवर्तन की एक वजह यह है कि –

भारत में वर्तमान में एक नया तबका ऐसा है, जिसे भारतीय धर्म और इतिहास की बिल्कुल भी जानकारी नहीं है. इस वर्ग में 20 से 35 साल के युवा, अशिक्षित और गरीब ज्यादा हैं. ये लोग हिन्दू शास्त्रों में लिखी बातों के अर्थ और भावों को समझ ही नहीं पाते. इतिहास और धर्म की जानकारी से अनभिज्ञ इन लोगों को अंतरराष्ट्रीय संबंधों और षड़यंत्रों के विषय में कोई जानकारी नहीं होती. जब जाति और धर्म की राजनीति करने वाले नेता बड़ी-बड़ी बातें करते हैं तो ये अनभिज्ञ लोग इनके बहकावे में आ जाते हैं. भड़काकर ही धर्मान्तरण या राजनीतिक मकसद को पूरा किया जा सकता है.

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• कुछ लोग शास्त्रों या किताबों के ही अध्ययन को ज्ञान समझ लेते हैं. श्रीरामनारायणदत्त शास्त्री जी कहते हैं कि मेधावी पंडित होने या बहुत से शास्त्रों का अध्ययन कर लेने मात्र से अहंकारवश कोई ज्ञानी नहीं बन जाता, जब तक वह यथार्थ तत्व को पूर्णतया समझ न ले. ‘न मेधया न बहुना श्रुतेन’. आप ज्ञानी हैं, अच्छी बात है. लेकिन यदि आप यह सोचते हैं कि आप ही ज्ञानी हैं तो आपसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं.

उद्धव ईश्वर को ज्ञान से देखते थे, जबकि गोपियाँ भक्ति से. न उद्धव गलत थे और न गोपियाँ… उद्धव तब गलत साबित हुए, जब उन्होंने यह मान लिया कि जो वे सोचते हैं, या जो वे जानते हैं, वही सही है, और जो लोग ईश्वर को समझे बिना ही उन्हें पूजते रहते हैं, वे लोग गलत या अज्ञानी हैं.

• ज्ञान यदि अच्छे काम के लिए कार्य करे, तो वह महान है. यदि ज्ञान का गलत इस्तेमाल हो तो वही ज्ञान विनाश की ओर ले जाता है जैसे रावण का ज्ञान. सही ज्ञान ही सफलता की राह तक ले जाता है.


भक्ति –

भक्ति का महत्त्व तो सब जानते ही हैं. भक्ति सबके अहंकार को तोड़ देती है, जैसे हनुमान जी. हनुमान जी भक्त शिरोमणि हैं, और वे सबका मान-मर्दन करते रहते हैं. ‘हनुमान’ का एक अर्थ है निरहंकारी या अभिमानरहित. ‘हनु’ का अर्थ हनन करना और ‘मान’ का अर्थ अहंकार.

ज्ञान और भक्ति

गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं-

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव संभव खेदा॥

“भक्ति और ज्ञान में कुछ भी अंतर नहीं है. दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों का हरण कर लेते हैं.”

ज्ञान वह है जिससे ज्ञान का भ्रम हट जाए, भक्ति वह है जिससे प्रिय प्राप्त हो जाए. ज्ञान काटता है और भक्ति निर्मलता से जोड़ती है. ज्ञान हमारे अंदर गंदगी को बताता है और भक्ति हमें साफ-सुथरा करती है. ज्ञान के लिए जिज्ञासा चाहिए और प्रेम के लिए पिपासा. ज्ञान चाहिए यह देखने के लिए कि यह वस्तु यहां नहीं मिलेगी, और भक्ति चाहिए इस विश्वास के लिए कि यहाँ नहीं मिलेगी तो कहीं तो मिलेगी. जैसे शरीर में मस्तिष्क और हृदय दोनों की आवश्यकता है, उसी प्रकार जीवन में ज्ञान और भक्ति दोनों की आवश्यकता होती है.

भक्ति की श्रेष्ठता

• ज्ञान के लिए भक्ति का होना आवश्यक है. अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे. भगवान उनकी भक्ति से बहुत प्रसन्न थे. जब अर्जुन मोह-माया के जाल में फंसकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए, तब भगवान ने उन्हें ज्ञान दिया, और तब अर्जुन अपने कर्तव्य पथ पर आरूढ़ हुए. भगवान श्रीराम ने नवधा का उपदेश माता शबरी को दिया था. भगवान किसी भी ज्ञानी को नहीं मिले, क्योंकि भक्ति के बिना ज्ञान अधूरा है या, समर्पण के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती.

भक्ति मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को ज्ञान अनायास प्राप्त हो जाता हैं, जैसे गोपियाँ. भक्ति मार्ग में गोपियों का कृष्ण प्रेम, प्रेम की पराकाष्ठा है और यही कारण है कि भक्ति मार्ग के प्रवर्तक उद्धव-गोपी संवाद की चर्चा जरूर करते हैं. सरल सी गोपियों के आगे उद्धव का सारा ज्ञान धरा का धरा रह गया, निरुत्तर हो गए थे उद्धव गोपियों के प्रेम के आगे.

जिन वाल्मिकी जी को ‘राम’ कहना भी नहीं आता था, उन्होंने रामायण की रचना कर डाली. तुलसीदास जी को रस्सी और सर्प का भेद समझ न आया, लेकिन उन्होंने श्रीरामचरितमानस जैसी महान कृति की रचना कर डाली. उनकी इन सफलताओं का आधार उनकी भक्ति भावना थी.

• केवल ज्ञान का होना कई दोषों का कारण बन जाता है, जिसमें अहंकार प्रमुख है, जैसे कालिदास की पत्नी इसका उदाहरण हैं. ज्ञान की सार्थकता भक्ति के साथ जुड़कर सिद्ध होती है, जिसे हम ‘सोने पे सुहागा’ वाली स्थिति कह सकते हैं. इससे हमारे अंदर कई मानवीय गुणों का समावेश होता है, जिसके मूल में मानव कल्याण निहित होता है.

• ज्ञान और भक्ति दोनों ही समान रूप से आवश्यक हैं, लेकिन भक्ति इसलिए भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वह पूरी तरह से हमारे मन पर ही निर्भर है (जबकि सबको ज्ञान हो, यह संभव नहीं, क्योंकि ज्ञान का होना न होना परिस्थितियों पर भी निर्भर होता है, पर भक्ति या प्रेम तो ज्ञान के बिना भी हो सकता है). मन में भक्ति का होना आवश्यक है. भक्ति या प्रेम आपको हर प्रकार की स्थिति में स्थिर रखता है. जैसे गोपियों को इन बातों से कोई मतलब नहीं था कि श्रीकृष्ण उन्हें क्यों छोड़कर चले गए, श्रीकृष्ण उन्हें भूल जाएँ तो चलेगा…

“लेकिन हे उद्धव जी! कृपया यह मत कहिये कि हम गोपियाँ अपने कृष्ण को भूल जायें… क्योंकि हमारा तो एक ही मन था, जो कृष्ण के साथ ही चला गया… ”

प्रेम या भक्ति करने वालों को इस बात से मतलब नहीं होता कि “राम-कृष्ण” ने क्या किया और क्या नहीं. उन्हें तो “राम-कृष्ण” से प्रेम है, सो है.. अब कोई उन्हें क्या भटका सके, कोई उनका क्या धर्म परिवर्तन कर सके..

यह बात, यह दृढ़ता, यह स्वाभिमान भक्ति में ही होता है.

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• भक्ति के मूल में होती है- अज्ञेय के प्रति श्रद्धा. भक्ति यानी समर्पण, कोई प्रश्न नहीं, किन्तु परन्तु नहीं, जैसे मीराबाई की भक्ति, प्रहलाद की भक्ति. ज्ञानी एक जलते हुए दीपक के समान है जो रोशनी तो करता है, लेकिन अहंकार नाम की आंधी उसे बुझा सकती है, पर भक्ति एक मणि की तरह है, जो रोशनी भी करती है और उसे कोई बुझा भी नहीं सकता.

• भगवान से जुड़ने का मार्ग तो भक्ति से ही होकर जाता है, क्योंकि भक्ति में अहंकार नहीं होता. भक्ति में कोई भेदभाव नहीं होता. भक्ति में सब समान होते हैं. भक्ति की कोई जाति नहीं होती. जैसे रामभक्त तुलसीदास जी कहते थे कि “मेरी कोई जाति नहीं है, और न ही मैं अपनी कोई जाति मानता हूँ. जो राम का गोत्र है, वही मेरा गोत्र है..”

इसलिए भक्ति हमें एकजुट रखती है. ज्ञान में अहंकार होता है. सब अपने-अपने ज्ञान को ही श्रेष्ठ बताने में लगे रहते हैं, इसलिए ज्ञान हमें एकजुट नहीं रहने देता. केवल ज्ञान के सहारे सब सम्भव नहीं, ज्ञान ही ज्ञान होगा तो वही ज्ञान अभिमान से अहंकार में परिणत होकर ज्ञानी को ही अज्ञानता के अंधकार में धकेल देता है.

इसीलिए रामचरितमानस में श्रीराम कहते हैं-

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता॥
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥


कर्म-

मनुष्य योनि कर्म किये बिना नहीं रह सकती. चाहे वह कर्म शारीरिक हो या मानसिक, कर्म की शृंखला चलती ही रहती है.

जब कोई व्यक्ति कर्मवादी हो जाता है, तो उसके मन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाता है. तब ऐसा व्यक्ति परिस्थिति नहीं, अपना कर्म बदलता है. अब उसके मन में यह दृढ़ धारणा बन जाती है कि यदि मैं अपना कर्म ठीक लूँ तो मेरी परिस्थिति अपने आप ठीक हो जाएगी, इसे होना ही है.

‘कर्म करो, फल की चिंता न करो’

यदि किसी व्यक्ति से किसी वस्तु को खोजने के लिए कहा जाए तो यदि वह व्यक्ति यही सोचता रहे कि ‘पता नहीं वह वस्तु मिलेगी या नहीं’, तो वह व्यक्ति उस वस्तु को खोजने ही नहीं निकल पाएगा. आप कोई बिजनेस शुरू करना चाहते हैं और यदि आप यही सोचते रहते हैं कि ‘पता नहीं लाभ होगा या नहीं’, तो आप बिजनेस शुरू ही नहीं कर पाएंगे. जो चीज आपके वश में नहीं, उसकी चिंता करके क्या लाभ?

हमारे मन पर हमारा ही अधिकार होता है, अतः कुछ भी करने से पहले हमें चयन करना चाहिए सही और गलत का. अपने सही कर्म को पहचानना और बिना किसी फल की चिंता किये वह करना जो सही है, क्योंकि जो कार्य सही होगा, उसका फल भी अच्छा होगा और यदि गलत कर्म का चुनाव किया है, तो फल भी गलत ही होगा. अर्जुन ने श्रीकृष्ण का और दुर्योधन ने उनकी सेना का चुनाव किया था. जो कार्य निष्काम भाव से अर्थात अपनी कामना को पीछे रख कर किया गया है, वह सही है. इसीलिए हमारा अधिकार अपना कर्म करने में है, उसके फल की चिंता में नहीं.

फल की चिंता उसे ही ज्यादा सताती है जिसने अपने कर्म निर्वहन में पूर्ण निष्ठा न निभाई हो. जैसे- एक विद्यार्थी जिसने बहुत मेहनत से परीक्षा की तैयारी की है, वह परीक्षा देकर परिणाम की चिंता नहीं करेगा बल्कि परिणाम का इंतजार करेगा, और कोई त्रुटि होगी तो उसका निराकरण कर पुनः प्रयास करेगा. अर्थात कर्म करके फल की चिंता छोड़ देगा. जबकि वह विद्यार्थी जिसने मेहनत नहीं की, वह फल की चिंता नहीं छोड़ सकता. वह सफलता के लिए इधर-उधर के कयास लगाता ही रहेगा.

इसलिए “कर्म करो, फल की चिंता न करो” वाली कहावत वहीं चरितार्थ होती है, जहां पूर्ण निष्ठा और लगन से मेहनत की जाती है, सभी जगह नहीं.

कर्मों का फल मिलता ही है

हमारे हर प्रकार के क्रिया-कलाप का असर किसी न किसी रूप में हमारे जीवन पर दिखता अवश्य है. कर्म का फल तो मिलना ही है, कर्म के पीछे फल तो परछाई के समान पीछे लगा रहता है, आज नहीं तो कल, फल जरूर मिलेगा. इसलिए हमारे कर्मों का सही होना भी अत्यंत आवश्यक है.

स्वयं राजा दशरथ अपनी मृत्यु के समय यह कहकर गए थे कि “कर्म ही सबसे शक्तिशाली है. यदि मैं अपनी शस्त्र-विद्या के अहंकार में निर्दोष जीवों का शिकार न कर रहा होता, तो मुझसे श्रवण कुमार की हत्या जैसा भयंकर पाप भी न होता.”

यदि कर्म अच्छे न हों, तो ज्ञान और भक्ति दोनों ही व्यर्थ हैं. जैसे रावण. ज्ञानी भी था और शिवभक्त भी, लेकिन कर्म सही नहीं थे. हमारी परम्परा में रावण की छवि एक ऐसे शक्तिशाली, बलिष्ठ और ज्ञानी पुरुष की है, जो अपने अधर्म के कारण पतन को प्राप्त हुआ. रावण के रूप में धर्मज्ञान यह है कि यदि आचरण में धर्म न हो तो हमारा ज्ञान, कुलवंश, शक्ति, ऐश्वर्य सब महत्वहीन हैं.

कर्म करना जरूरी है

• आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध में कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर अर्जुन ने हथियार डाल दिए थे. अर्जुन के इस तरह कर्म से विमुख होकर मोह में बंधने को श्रीकृष्ण ने अनुचित ठहराया.

• कुछ गलत होते देखकर सामर्थ्यवान होते हुए भी “मुझे क्या मतलब” या “मैं ही क्यों” कहकर मुंह मोड़ने वाला व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि ‘मैंने कुछ (गलत) किया भी तो नहीं न’?

यदि घर में आग लगी हो, तो द्वारपाल केवल द्वार की रक्षा नहीं कर सकता. जब समाज या मानवता के विरुद्ध कोई अपराध हो रहा हो, तब केवल अपने व्यक्तिगत धर्म को संभालना अनर्थकारी हो सकता है. अर्थात गलत होते हुए देखकर, सक्षम होते हुए भी उसे रोकने का प्रयास न करना भी अधर्म ही है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं भीष्म। अतः ऐसे समय में प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने व्यक्तिगत धर्म के साथ-साथ मानवता और समाज की रक्षा करने का भी प्रयास करे. भले ही वह सफल न हो सके, पर उसका कर्म उसके साथ ही जायेगा.

• “हम जैसा कर्म करते हैं, वैसा ही पाते हैं”, यह केवल प्रत्यक्ष ही नहीं होता. यदि हम वायु प्रदूषण नहीं फैला रहे, तो इसका अर्थ यह नहीं कि सांस लेने में हमें तकलीफ नहीं होगी. मानव समाज की तुलना एक शरीर से इसीलिए की जाती है, क्योंकि शरीर के किसी भी अंग में चोट लगने पर बाकी सभी अंग किसी न किसी तरीके से प्रभावित जरूर होते हैं.

अंतरिक्ष में कुछ भी स्थिर या निरंतर नहीं है, हर एक पिंड एक-दूसरे की आकर्षण शक्ति से बंधा हुआ है. यदि एक भी पिंड अपनी इच्छा से अपनी चाल बदल दे, या अपना काम करना बंद कर दे, तो इसका असर धीरे-धीरे अंतरिक्ष के सभी पिंडों की गति और अवस्था पर पड़ेगा, पूरी व्यवस्था पर पड़ेगा.

भगवद्गीता यह बताती है कि किन परिस्थितियों में, किस समय हमारा क्या धर्म है या हमारा क्या कर्तव्य है. हर इंसान अपने-अपने कर्मों का फल भोगता है, लेकिन भगवान ने किसी भी इंसान को किसी दूसरे इंसान के कर्मों का फल देने के लिए नहीं भेजा है, और इसीलिए किसी को अपना और दूसरों का पिछला जन्म याद भी नहीं रखवाते.

हम किसी भिखारी को देखकर यह नहीं कह सकते कि वह तो अपने कर्मों का फल भोग रहा होगा इसलिए मैं उसकी सहायता क्यों करूं, बल्कि उस समय इंसानियत के नाते हमारा धर्म या हमारा कर्तव्य यही कहता है कि अगर हम सक्षम हैं तो उस कमजोर व्यक्ति की सहायता करें.

छात्र का धर्म कहता है कि वह ठीक से पढ़ाई करे और देश निर्माण के लिए खुद को निर्मित करे. एक गुरु का कर्तव्य कहता है कि वह अपनी पीढ़ियों का सही मार्गदर्शन करे. एक पुलिसकर्मी का धर्म कहता है कि वह समाज को भय रहित बनाने में मदद करे. एक राजा का धर्म कहता है कि वह अपनी प्रजा पालन में कोई चूक न करे, कोई लापरवाही न करे, कोई लालच न करे… आदि.

यदि इनमें से कोई एक भी व्यक्ति अपने कर्तव्य को निभाने से मना कर देता है, या अपना कर्म करने से मुंह मोड़ लेता है, तो उसका असर पूरे समाज पर पड़ना तय है. यदि किसी चोट या बीमारी का सही समय पर इलाज न किया जाए, तो वह आगे चलकर नासूर बन जाता है.

और इसीलिए समाज में आए किसी भी विकार का प्रतिकार करना हर व्यक्ति का धर्म है. पुण्य कमाने की आशा से निभाया गया कर्तव्य या धर्म का कार्य अच्छा है, लेकिन यदि किसी भी परिस्थिति या समय में हमें अनायास ही अपने कर्तव्य या धर्म की याद आ जाती है, तो वह और भी अच्छा है.


ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों ही आवश्यक

मात्र कर्म करना हमें यांत्रिक बना देता है. ऐसे में भक्ति मार्ग का चुनाव कर लेने से मनुष्य में भावुकता आती है. लेकिन मार्ग के अनिवार्य विज्ञान को समझे बिना मात्र भावुक हो जाना भी सही नहीं, तब ऐसे में ज्ञान का मार्ग भी अपना लिया जाता है. यानी किसी एक ही मार्ग का चुनाव करने से मनुष्य उलझता ही है, अतः तीनों ही मार्ग आवश्यक हैं. जीवन में तीनों का सामंजस्य आवश्यक है, तभी रामत्व को प्राप्त किया जा सकता है.

जब कोई बड़े से बड़ा स्पेशलिस्ट डॉक्टर ऑपरेशन के लिए जाता है, तब वह अपने ज्ञान द्वारा कर्म कर ही रहा होता है. रोगी के परिजनों को उनकी विद्वता पर कोई संदेह नहीं होता, फिर भी वे OT के बाहर बैठकर ईश्वर का सुमिरन करते हैं, डॉक्टर का नहीं! यह सामान्य मानव स्वभाव है. उसका विश्वास डॉक्टर के साथ है और आस्था ईश्वर में. और जब ऑपरेशन सफल हो जाता है तो परिजन डॉक्टर का तो धन्यवाद करते ही हैं पर ईश्वर के आगे भी नतमस्तक हो जाते हैं.

वेदों, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, भगवद्गीता और रामचरितमानस में इन तीनों का समन्वय है. अर्थात इन ग्रंथों में लिखी बातों का कोई एक अर्थ नहीं है. इनमें ज्ञान भी है, दर्शन भी है, कर्म भी है और भक्ति भी है. भगवद्गीता में इन तीनों मार्गों को बहुत अच्छे से समझाया गया है.

Written by – Aditi Singhal (working in the media)

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