सम्भवामि युगे युगे… : भगवान कब अवतार लेते हैं?

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Bhagwan Shri Krishna

Bhagwan Kab Avatar Lete Hain

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

“हे भारत! जब-जब धर्म का लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयं की रचना करता हूं. साधुओं (भले लोगों) की रक्षा करने के लिये, पापकर्म करने वालों का विनाश करने के लिये तथा धर्म संस्थापना के लिये मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ.”

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श्रीराम दिन के 12 बजे आए
तो श्रीकृष्ण रात के 12 बजे…

श्रीराम शुक्लपक्ष में आए
तो श्रीकृष्ण कृष्णपक्ष में…

जिस समय श्रीराम आए, सूर्य उच्च स्थान पर था
और जिस समय श्रीकृष्ण आए, घनघोर वर्षा..

श्रीराम ने सूर्यपुत्र सुग्रीव से मित्रता की
और इंद्रपुत्र बाली का त्याग किया…

श्रीकृष्ण ने इंद्रपुत्र अर्जुन से मित्रता की
और सूर्यपुत्र कर्ण का त्याग किया…

मर्यादा में कैसे रहते हैं, यह श्रीराम सिखाते हैं
और मर्यादा में रखते कैसे हैं, यह श्रीकृष्ण सिखाते हैं…

श्रीराम ने अपने कार्यों से शिक्षा दी
तो श्रीकृष्ण ने अपने मार्गदर्शन से…

श्रीराम ने एकपत्नी व्रत धारण किया
तो श्रीकृष्ण के हजारों विवाह,
महारासलीला भी रचाई…

देखा जाए तो भगवान का जीवन भगवान से ज्यादा उनके सच्चे भक्तों की मर्जी से चलता है…
“उस जन्म में आप उनके थे, अब इस जन्म में आपको हमारा होना पड़ेगा…”

जितनी भक्त स्त्रियां श्रीराम की माता, पत्नी, प्रेमिका इत्यादि बनना चाहती थीं, उन सबकी इच्छा मर्यादापुरुषोत्तम ने लीलापुरुषोत्तम बनकर पूरी की.

घर-घर जाकर माखन चुराया, गोपियों से डांट खाई, उनकी गोद में बैठकर उनके हाथों से माखन खाया, उनका मातृत्व का स्नेह और प्रेम पाया और सबको अपनी माता बनने का सुख दे दिया…

आज कुछ लोग कहते हैं कि “हमें तो राजनीति वाले श्रीकृष्ण अच्छे लगते हैं, रासलीला वाले नहीं…” जबकि यदि कोई मुझसे पूछे तो मुझे तो महारासलीला वाले श्रीकृष्ण और भी अच्छे लगते हैं, जिसमें वे हर एक गोपी को यानी अपने हर एक भक्त को इस बात का एहसास कराते हैं, इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि…
“देखो! मैं तो तुम्हारे भी साथ हूं, मैं तुम्हारा भी हूं…
तुम्हारा मुझ पर पूरा अधिकार है…”

Written By : Aditi Singhal  (working in the media)

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भगवान पृथ्वी पर कब आते हैं, इस विषय पर ‘परत’ पुस्तक के लेखक श्री सर्वेश कुमार तिवारी ‘श्रीमुख’ जी ने बहुत सुन्दर लेखन किया है-

(1) अधर्म जैसे अपने चरम पर पहुँच चुका था. मथुरा में बैठा कंस स्वयं को ईश्वर बताता था, तो उधर मगध नरेश जरासन्ध भी ईश्वरत्व का दर्प लिए जी रहा था. कहीं नरकासुर स्वयं को ईश्वर बताकर मानवजाति की प्रतिष्ठा को अपने पैरों तले रौंद रहा था. अब तो उन्हें ही ईश्वर मानकर पूजने वालों की संख्या भी अधिक हो गई थी.

धर्म को अपशब्द बोलने वालों की संख्या रोज ही बढ़ती जाती थी और उनमें से जो भी शक्तिशाली होता, वह स्वयं को ईश्वर घोषित कर लेता था. आर्यावर्त की सीमाओं के पार यवनों का आतंक चरम पर था. भारतवर्ष के भीतर भी ऐसी अनगिनत राजनैतिक शक्तियां थीं, जो यवनों से मित्रता रखती थीं, उनकी परम्पराओं का पालन करती थीं, उनका सहयोग करती थीं.

और इन सब के मध्य हृदय में धर्म धारण कर जीने वाले सामान्य जन की क्या दशा थी? तो उनके ऊपर न जाने कितने कर थोप दिए गए थे. गायें ग्वालों की, पर दूध कंस का. खेत किसानों के, पर अन्न कंस का. ऋषियों के हवनकुंड में हड्डियां डालकर खिलखिला उठने वाले दैत्य विधर्मी सत्ता से सम्मान पाते थे, तो कहीं जगत कल्याण की प्रार्थना करते घूमते वैरागी संतों को पीट-पीटकर मार देने वाले दैत्य क्षत्रप बने बैठे थे.

देवस्थलों की गरिमा धूमिल की जाती थी, मंदिर तोड़ दिए जाते थे, यज्ञ रोक दिए जाते थे, ईश्वर की आराधना करने वालों को दण्ड दिया जाता था… सामान्य जन के जीवन के क्षण-क्षण पर आतंकियों का अधिकार था. उग्रसेन या वसुदेव जैसे प्रजा के धर्मनिष्ठ नायक आतंकियों की कैद में पड़े थे. बेड़ियां केवल धर्मिक जन के हाथों में ही नहीं लगी थीं, अब जैसे समूची सभ्यता ही बेड़ियों में जकड़ गई थी.

यह सब केवल कुछ दिनों से ही नहीं हो रहा था, ऐसा सैकड़ों-हजारों वर्षों से हो रहा था. प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी थी. धर्म के उत्थान का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था. अधिकांश जन तो अब मान ही चुके थे कि सभ्यता मर जाएगी, धर्म समाप्त हो जाएगा. वे बस किसी प्रकार अपना जीवन काट लेना चाहते थे. उनका कोई दोष नहीं था, लंबे समय की पीड़ा मनुष्य की देह ही नहीं तोड़ती, उसके विश्वास को भी तोड़ देती है.

और एक रात! मध्यरात्रि में एकाएक सारे पक्षी चहचहा उठे. गौवें रम्भाने लगीं, बछड़े उछलने-कूदने लगे, नदियों का वेग सौगुना हो गया, अधर्म की आंखों पर निद्रा छा गई, सारी जंजीरें टूट गईं, किवाड़ स्वतः खुल गए, और नकारात्मकता से भरे उस क्रूर कालखंड की उस काली अंधेरी रात में, बंदीगृह के सीलन भरे भयावह कमरे में, उस चिर दुखिया स्त्री की गोद में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का तेज एकत्र होकर बालक रूप में प्रकट हो गया.

सारी हवाएं उस बालक के चरण छू लेने को व्यग्र हो उठी थीं. उस बालक के ऊपर बरसकर उसका अभिषेक करने को आतुर मेघों के आपसी टकराव से उत्पन्न विद्युत की गरज में जैसे प्रकृति का उद्घोष था, कि धर्म कभी समाप्त नहीं होता. जब-जब अधर्म चरम पर पहुँचता है, ईश्वर तभी आते हैं.

परित्राणाय साधूनाम्… साधुओं के त्राण के लिए!
विनाशाय च दुष्कृताम… दुष्टों के विनाश के लिए!
धर्मसंस्थापनार्थाय… धर्म की स्थापना के लिए…
वे आ गए थे. वे ऐसे ही आते हैं…

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(2) माँ कौशल्या के आंगन में एक प्रकाश पुंज उभरा, और कुछ ही समय में पूरी अयोध्या उसके अद्भुत प्रकाश में नहा उठी… गोस्वामी जी ने लिखा है, “भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी…”

उधर सुदूर दक्षिण के वन में न जाने क्यों खिलखिलाकर हँसने लगी भीलनी शबरी… पड़ोसियों ने कहा, “बुढ़िया सनक तो नहीं गई?” बुढ़िया ने मन ही मन सोचा, “वे आ गए क्या…”

नदी के तट पर उस परित्यक्त कुटिया में पत्थर की तरह भावशून्य होकर जीवन काटती अहिल्या के सूखे अधरों पर युगों बाद अनायास ही एक मुस्कान तैर उठी.
पत्थर हृदय ने जैसे धीरे से कहा, “उद्धारक आ गया…”

युगों से राक्षसी अत्याचारों से त्रस्त विश्वामित्र और शरभंग जैसे अनगिनत ऋषियों की भुजाएँ अचानक ही फड़क उठीं. हवनकुण्ड से निकलती लपटों में निहार ली उन्होंने वह मनोहर छवि, मन के किसी शांत कोने ने कहा, “रक्षक आ गया…”

जाने क्यों एकाएक जनकपुर राजमहल की पुष्पवाटिका में सुगंधित पवन बहने लगी. अपने कक्ष में अन्यमनस्क पड़ीं माता सुनयना का मन हुआ कि सोहर गायें. उन्होंने दासी से कहा, “क्यों सखी! तनिक सोहर कढ़ा तो, देखूँ गला सधा हुआ है या बैठ गया.”

दासी ने झूमकर उठाया, “गउरी गनेस महादेव चरन मनाइलें हो… ललना अंगना में खेलस कुमार त मन मोर बिंहसित हो…”
महल की दीवारें बिंहस उठीं. कहा, “लगता है जैसे बेटा आ गया…”

उधर समुद्र पार की स्वर्णिम नगरी में रावण के बंदीगृह में वर्षों से बंदी और प्रताड़ित देवों के सूने हृदय ने आवाज दी, “कष्टों के अंत का समय आ गया, लगता है तारणहार आ गया… ”

इधर अयोध्या के राजमहल में महाराज दशरथ से कुलगुरु वशिष्ठ ने कहा, “युगों की तपस्या पूर्ण हुई राजन! आपके कुल के समस्त महान पूर्वजों की सेवा फलीभूत हुई!

अयोध्या के हर दरिद्र का आँचल अन्न-धन से भरवा दो, नगर को फूलों से सजवा दो, जगत का तारणहार आया है! राम आया है…”
खुशी से भावुक हो उठे उस प्रौढ़ सम्राट ने पूछा, “गुरदेव! मेरा राम तारणहार?”

गुरु ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “नहीं! इस सृष्टि का राम… जाने कितनी माताओं के साथ-साथ स्वयं समय की भी प्रतीक्षा पूर्ण हुई है. राम एक व्यक्ति, एक परिवार या एक देश के लिए नहीं आते, राम समूची सृष्टि के लिए आते हैं, राम युग-युगांतर के लिए आते हैं…”

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Edited By : Aditi Singhal (working in the media)


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