Panchakanya ke Naam : इन पांच स्त्रियों को क्यों कहा गया है पंचकन्या?

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पंचकन्या

Who is Panchakanya

पुराणों में प्राचीन समय की पवित्र पंचकन्याओं के नाम बताये गए हैं और इन पंचकन्याओं का नाम लेना अच्छा माना गया है. ये पंचकन्याएँ हैं-

अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेतन्नित्यं महापातकनाशम्॥

इन पाँच स्त्रियों का हमारे इतिहास पर गहरा प्रभाव है. अहल्या, तारा और मंदोदरी रामायण काल की हैं और द्रौपदी एवं कुंती महाभारत काल की. उपरोक्त पाँचों नाम कन्याओं के नहीं, बल्कि विवाहित स्त्रियों के हैं, फिर भी इन्हें कन्या कहा गया है. ऐसा क्यों कहा गया है, इसके पीछे कई कारण दिए जाते हैं.

यहाँ एक सवाल यह उठ सकता है कि माता सीता, अनुसूया, सावित्री, अरुंधति, गार्गी आदि अन्य नारियों को छोड़ इन पांचों को ही क्यों इतना मान दिया गया. हालांकि इन पांचों को मान देने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि यह अन्य पूजनीय नारियों की उपेक्षा है. दरअसल, यहाँ हमें कई बातें देखने को मिलती हैं जो रुचिकर तो हैं ही, साथ ही कई प्रकार की प्रचारित भ्रांतियों का भी खण्डन करती हैं. तो आइये, इन पंचकन्याओं के बारे में जानते हैं-

अहल्या (Ahalya)

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या परपुरुष (इंद्र) पर मोहित हो जाती हैं और उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लेती हैं. गौतम ऋषि को जब इस बात का पता चलता है, तब उन्हें क्रोध तो आता ही है, निराशा भी होती है. तब वे अहल्या को यह शाप देते हैं कि-
“तुम इसी आश्रम में समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर कई हजार वर्षों तक तप करोगी. और जब भगवान् श्रीराम इस वन में आएंगे, तब तुम पवित्र हो जाओगी. उनका आतिथ्य-सत्कार करने से तुम्हारे सभी दोष दूर हो जायेंगे और तब तुम प्रसन्नतापूर्वक अपना पूर्व शरीर धारण कर मेरे पास पहुँच जाओगी.”

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ऐसा कहकर गौतम ऋषि स्वयं भी कठिन तप करने के लिए हिमालय पर चले जाते हैं. गौतम ऋषि किसी अन्य स्त्री से विवाह नहीं करते और तपस्या में लीन रहकर अहल्या के शापमुक्त होने की प्रतीक्षा करते हैं. और तब अहल्या भी भगवान् श्रीराम के आने तक वहीं अटल रहकर तपस्या करती रहती हैं और पश्चाताप करती हैं.

भगवान् श्रीराम का दर्शन करने से जब उनके शाप का अंत हो जाता है, तब वे सबको दिखाई देने लगती हैं. तब श्रीराम और लक्ष्मण जी अहल्या के चरण स्पर्श करते हैं. अहल्या अपनी तपशक्ति और प्रायश्चित से अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त हुईं और गौतम ऋषि भी अपनी अहल्या को पाकर प्रसन्न हुए और श्रीराम का धन्यवाद किया.

द्रौपदी (Draupadi)

पांचाल देश के राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी एक यज्ञ से प्रकट हुई थीं, इसलिए उनका एक नाम ‘अग्निसुता’ भी है. महाभारत के अनुसार, द्रौपदी ऐसी जान पड़ती थीं मानो दुर्गा ही मानव शरीर धारण कर प्रकट हुई हों. वे अत्यंत सुन्दर और गुणी थीं तथा अधर्म का नाश करने के लिए ही आयी थीं. एक कारण से द्रौपदी एक साथ पांच पुरुषों की (पांच पांडव भाईयों की) पत्नी बनीं. यह उस समय का कोई प्रचलन नहीं था. महाभारत के अनुसार, पांडव और द्रौपदी एक विशेष उद्देश्य के लिए पृथ्वी पर आये थे और वे पहले से ही जानते थे कि उनका विवाह इसी प्रकार होगा. विवाह के बाद पाँचों पांडव तथा द्रौपदी ने अपने जीवन को तपस्या बना लिया था.

पाँचों पांडव द्रौपदी के साथ नियम बनाकर रहते थे. पांडवों के धर्मानुसार बर्ताव करने के कारण कुरुवंश निर्दोष व सुखी होकर उन्नति करने लगा था (महाभारत अर्जुनवनवासपर्व). महाभारत में इसका एक उदाहरण भी देखने को मिलता है, जैसे- अर्जुन को जब गौओं की रक्षा के लिए शीघ्रता में अपना धनुष उठाने के लिए युधिष्ठिर व द्रौपदी के कक्ष में प्रवेश करना पड़ता है, तब अर्जुन अपना कार्य पूरा करने (ब्राह्मण तथा गौओं की रक्षा करने) के पश्चात् 12 वर्षों के लिए वनवास को चले जाते हैं.

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दुर्योधन, शकुनि, कर्ण आदि द्रौपदी के चरित्र पर लांछन लगाते हैं. द्रौपदी और पांडवों ने अपनी पीड़ा में सारे समाज की पीड़ा को देखा. जिन लोगों ने द्रौपदी जैसी याज्ञसेनी और साम्राज्ञी के साथ ऐसा अपराध करने का प्रयास किया, तो उनके राज में या ऐसे लोगों के रहते सामान्य स्त्रियों की कैसी दशा होती? अतः ऐसे ही दुष्टों से आम समाज और स्त्रियों को सुरक्षित करने के लिए लड़ा गया था महाभारत का युद्ध, और इस युद्ध में उन सभी को दंड मिला, जो कोई न कोई कारण बताकर अधर्म के पक्ष में खड़े हुए थे. इंद्रप्रस्थ, राजसूय यज्ञ और महाभारत युद्ध के बाद पूरे साम्राज्य के सम्राट के रूप में जब युधिष्ठिर सिंहासन पर बैठे तो उनके साथ साम्राज्ञी के रूप में द्रौपदी ही सिंहासन पर बैठीं.

कुंती (Kunti)

कुन्ती पांच पांडवों और कर्ण की माता थीं. महाभारत में उन्हें सुंदर, दयालु और बुद्धिमान बताया गया है. जन्म के समय उनका नाम पृथा था. राजा शूरसेन ने अपनी बेटी पृथा को अपने निःसंतान फुफेरे भाई कुंतीभोज को दे दिया था, जिन्होंने नाम बदलकर कुंती रख दिया. कुंती के पांचों पुत्र (पांडव) और कर्ण देवताओं के मंत्र-प्रसाद थे. कुंती ने अपनी किशोरावस्था के दौरान अपनी सेवा से महर्षि दुर्वासा को प्रभावित किया, जिससे महर्षि दुर्वासा ने उन्हें एक दिव्य मंत्र दिया. इस मंत्र के द्वारा कुंती किसी भी देवता का आह्वान कर उनके आशीर्वाद से एक पुत्र प्राप्त कर सकती थीं.

कुंती के मन में बड़ी जिज्ञासा हुई कि मंत्र की परीक्षा करके देखा जाये. उन्होंने सूर्यदेव का आह्वान करने के लिए मंत्र का उपयोग किया, और तब सूर्यदेव ने प्रकट होकर कुंती को एक पुत्र का आशीर्वाद दे दिया, जिसका नाम कर्ण रखा गया. कर्ण जन्म से ही कवच और कुण्डल धारण किये हुए था. चूंकि अभी कुंती का विवाह नहीं हुआ था, अतः कुंती बहुत डर गईं कि सब उनके बारे में क्या कहेंगे, यह मंत्र और वरदान वाली बात भला कौन मानेगा, सब उनके चरित्र और उनके पिता के संस्कारों पर ही उंगली उठाएंगे; यह सोचकर कुंती ने सूर्यदेव से कर्ण की रक्षा की प्रार्थना की और कर्ण को एक टोकरी में रखकर गंगा में बहा दिया, जिसे भीष्म के सारथी अधिरथ ने गोद ले लिया.

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विवाह के बाद कुंती के पति राजा पाण्डु (धृतराष्ट्र के छोटे भाई) से अनजाने में एक ऋषिहत्या हो जाती है, जिस कारण उन्हें संतान उत्पन्न न करने का शाप मिला, तब कुंती ने पाण्डु को अपने इन मंत्रों के वरदान वाली बता दी. यह सुनकर पाण्डु अत्यंत प्रसन्न हुए और दोनों ने मिलकर अलग-अलग देवताओं का आह्वान करके उन देवताओं के समान तीन वीर पुत्रों- युधिष्ठिर (धर्म), भीम (वायु) और अर्जुन (इंद्र) को प्राप्त किया. कुन्ती ने अपने मंत्रों की दीक्षा पाण्डु की छोटी पत्नी माद्री को भी दी और तब माद्री ने अश्विनी कुमारों के आशीर्वाद से दो पुत्रों- नकुल और सहदेव को प्राप्त किया. राजा पाण्डु और माद्री की मृत्यु के बाद कुन्ती अपने पांचों बच्चों को हस्तिनापुर ले गईं.

माद्री कुंती से कहती हैं कि “मैं आपको जानती हूँ, आप मेरे पुत्रों को अपने पुत्रों के समान ही प्रेम देंगी, जबकि मैं शायद आपके पुत्रों को उतना प्रेम न दे सकूं.” कुंती ने पांचों पांडवों को सदैव धर्म की शिक्षा दी. उन्होंने पाँचों को सदा साथ-साथ प्रेम से रहने की शिक्षा दी. पांचों पांडव पांच शरीर और एक प्राण बन गए थे. पांचों पांडवों में अलग-अलग विशेषताएं थीं, लेकिन पांचों जब मिल जाते थे, तब उन्हें पराजित करना असंभव हो जाता था. वे पांचों जहाँ भी जाते थे, वहीं धर्म और संपत्ति की उन्नति होने लगती थी.

मंदोदरी (Mandodari)

हेमा नामक अप्सरा से उत्पन्न रावण की पटरानी मंदोदरी मायासुर की कन्या तथा मेघनाद और अक्षय कुमार की माता थीं. मंदोदरी की गणना पतिव्रता पत्नियों में की जाती है क्योंकि उन्होंने सदा ही अपने पति को सही सलाह दी. मन्दोदरी ने रावण को अनेक बार समझाया पर अपने धन-बल के अहंकार में रावण मन्दोदरी की बात को समझ नहीं सका. फिर भी मंदोदरी ने अपना धर्म नहीं छोड़ा.

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मन्दोदरी अत्यन्त ही सुन्दरी, सुशीला, सरल और गुणवती थीं. उनकी बात सदैव ही विवेकपूर्ण, नीतिसंगत रही. जब रावण माता सीता का हरण करने वाला था, तब मंदोदरी रावण को समझाती हैं और उसे ऐसा पाप करने से रोकती हैं, लेकिन रावण मानता नहीं. युद्ध होने तक मंदोदरी रावण को हर प्रकार से समझाती रहीं, पर रावण हर बार मंदोदरी द्वारा विनम्रतापूर्वक कही गई बातों को अनसुना कर यह कहते हुए वहां से चला जाता है कि “स्त्रियों का स्वभाव बहुत डरपोक होता है.” भले ही मंदोदरी के प्रयास असफल रहे, पर उनके प्रयासों और धर्म में स्थिर रहने की सराहना सभी ने की.

तारा (Tara)

तारा बाली की पत्नी और अंगद की माता थीं. तारा वीर, बुद्धिमान और कुशल राजनीतिज्ञ भी थीं. वे भी बाली को सदा सही सलाह देती रहीं, पर बाली भी अपने बल-अहंकार में तारा की बातों को अनसुना कर देता है. वाल्मीकि रामायण के किष्किंधाकाण्ड में तारा की बुद्धिमता का परिचय मिलता है. वे बाली को समझाते हुए कहती हैं-

“शूरवीर! आपके लिए जो हितकर है, वही बता रही हूँ. सुग्रीव आपसे विशेष पीड़ित होने के बाद पुनः आपको युद्ध के लिए ललकार रहे हैं, तो अवश्य ही वे किसी प्रबल सहायक को साथ लेकर ही आये होंगे. उन्होंने अवश्य ही उसके बल और पराक्रम को परख लिया होगा. मैंने श्रीराम और लक्ष्मण के विषय में सुना है. श्रीराम आर्त मनुष्यों के आश्रय, यश के अधिकारी, ज्ञान-विज्ञान से संपन्न और पिता की आज्ञा में स्थित रहने वाले तथा उत्तम गुणों के भंडार हैं. उन पर विजय पाना अत्यंत कठिन है, अतः आपका उनसे विरोध करना तनिक भी उचित नहीं है. सुग्रीव आपके भाई हैं, वे आपका प्रेम पाने योग्य हैं, उनके साथ युद्ध न कीजिये. वैरभाव को दूर करके श्रीराम के साथ सौहार्द्र और सुग्रीव के साथ प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर लीजिये.”

वाल्मीकि जी लिखते हैं कि तारा ने बाली के हित और लाभ की ही बात कही थी, लेकिन बाली को उसकी बात रुचिकर नहीं लगी क्योंकि उसके विनाश का समय निकट था. भगवान श्रीराम ने बाली को उसके समस्त पापों से मुक्त कर अपने परम धाम में भेज दिया और उसकी पत्नी तारा को अपनी माया से मुक्त कर दिया. किष्किंधा में राजा के रूप में सुग्रीव का राजतिलक हुआ. वाल्मीकि रामायण के कुछ श्लोकों के अनुसार, बाली की मृत्यु के बाद तारा का विवाह सुग्रीव के साथ हो गया था. तारा के पुत्र वीर अंगद को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया गया.

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यह दिखाता है कि उस समय सती प्रथा जैसी कोई चीज नहीं थी और विधवा-पुनर्विवाह भी होते थे. कुछ लोग पाण्डु की छोटी पत्नी माद्री को लेकर कहते हैं कि महाभारत के समय सती प्रथा थी, जबकि यह सच नहीं है. माद्री अपनी इच्छा से सती हुई थीं, जबकि ऋषियों ने उन्हें ऐसा करने से रोका भी था. यदि उस समय ऐसी कोई प्रथा होती तो कुंती भी सती हो जातीं, जबकि कुंती को तो पंचकन्याओं में शामिल कर सम्मान दिया गया. इसी प्रकार पुनर्विवाह करने वाली तारा को भी पंचकन्याओं में शामिल किया गया. इससे पता चलता है कि हमारा पुराना इतिहास पुरुषवादी नहीं था और न ही स्त्रीविरोधी था, बल्कि आधुनिक समाज से अधिक उदार, अधिक लैंगिग समानता रखता था.

Written By : Nancy Garg

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