Bharat Name History : हमारे देश का नाम ‘भारत’ कब और कैसे पड़ा?

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Bharat

Bharat Name History

भारत शब्द का आशय भारतीय उपमहाद्वीप या वृहत्तर भारत से लिया जाता है. उत्तर में महान हिमालय, दक्षिण में हिन्द महासागर, पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर के बीच स्थित हमारा भारत बहुसांस्कृतिक अनुभवों का मिश्रण है. समृद्ध विरासत और असंख्य आकर्षणों के साथ, यह देश दुनिया के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक है. आज इसका क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किमी है, जो बर्फ से ढके हिमालय की ऊंचाइयों से लेकर दक्षिण के उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों तक फैला हुआ है.

विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा देश भारत बेहतरीन वास्तुकला विरासत और शानदार परिदृश्यों का घर है. जैसे-जैसे आप भारत के विस्तार की यात्रा करते हैं, आपका स्वागत व्यंजनों, आस्थाओं, कला, शिल्प, संगीत, प्रकृति, भूमि, जनजातियों, इतिहास और साहसिक खेलों की विविध बारीकियों से होता है. भारत में पुराने और नए का मंत्रमुग्ध कर देने वाला मिश्रण है. पहाड़ों की ओर जाएं, समुद्र तट पर विश्राम का आनंद लें या सुनहरे थार के माध्यम से यात्रा करें, भारत में सभी के लिए प्रचुर विकल्प हैं.

रत्नाकर धौतपदां हिमालय किरीटिनीम्।
ब्रह्मराजर्षि रत्नाढ्यां वन्दे भारत-मातरम्।

“बहुमूल्य रत्नों से भरा सागर जिसके चरण धो रहा है, हिमालय जिसका मुकुट है और जो ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि रत्नों से समृद्ध है, ऐसी भारत मां की मैं वंदना करती/करता हूं.”


हमारे देश का नाम ‘भारत’ कैसे पड़ा?

भारत को भारतवर्ष, जम्बूद्वीप, हिमवर्ष, भारतखण्ड, आर्यावर्त, हिन्दुस्तान, हिन्द आदि नामों से भी जाना जाता है. इसमें तो किसी को कोई संदेह हो ही नहीं सकता कि हमारे देश का नाम सदा से भारत ही है, लेकिन हमारे देश का नाम भारत कब और कैसे पड़ा? इस बात की जानकारी ऋग्वेद सहित विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, भागवत पुराण, लिंगपुराण, अग्निपुराण, वायु पुराण और महाभारत आदि में सविस्तार मिलता है.

महाभारत के अनुसार, हमारे देश का ‘भारतवर्ष’ या ‘भारत’ नाम हस्तिनापुर के महाराज दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर पड़ा है, जो आगे चलकर एक चक्रवर्ती सम्राट हुए और जिन्हें चारों दिशाओं की भूमि का स्वामी कहा जाता था. महाभारत के आदिपर्व के अनुसार-

शकुन्तलायां दुष्यन्ताद् भरतश्चापि जज्ञिवान।
यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्॥
स राजा चक्रवर्त्यासीत्‌ सार्वभौम: प्रतापवान्‌।
ईजे च बहुभिर्यज्ञैर्यथा शक्रो मरुत्पति:॥
भरताद् भारती कीर्तिर्येनेदं भारतं कुलम्‌।
अपरे ये च पूर्वे वै भारता इति विश्रुता:॥
(महाभारत आदिपर्व २.९६ और ७४.१२९, १३१)

“राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र महात्मा भरत के नाम से यह भरतवंश संसार में प्रसिद्ध हुआ. महाराज भरत समस्त भूमण्डल में विख्यात, प्रतापी एवं चक्रवर्ती सम्राट्‌ थे. उन्होंने देवराज इन्द्र की भाँति बहुत-से यज्ञों का अनुष्ठान किया. राजा भरत से ही इस भूखण्ड का नाम भारत (अथवा भूमिका नाम भारती) हुआ. उन्हीं से यह कौरववंश भरतवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ. उनके बाद उस कुल में पहले तथा आज भी जो राजा हुये हैं, वे भारत (भरतवंशी) कहे जाते हैं.”

जम्बूद्वीपे, भरतखण्डे, आर्यावर्ते भारतवर्षे,
एक नगरी है विख्यात अयोध्या नाम की,
यही जनमभूमि है परम पूज्य श्रीराम की।

वाल्मीकि रामायण से पता चलता है कि महाराज दुष्यंत और शकुंतला भगवान् श्रीराम (त्रेतायुग) से बहुत पहले आये थे, क्योंकि शकुंतला विश्वामित्र और मेनका की पुत्री थीं, और वाल्मीकि रामायण में राजा जनक के कुलगुरु शतानन्द जी ने भगवान् श्रीराम को महर्षि विश्वामित्र जी की पूरी कथा सुनाई है, जिसमें वे मेनका के आने, रम्भा के आने और विश्वामित्र जी की तपस्या के पूरी होने का भी विस्तार से वर्णन करते हैं. (बालकाण्ड में) शतानन्द जी श्रीराम से कहते हैं कि-

“हे रघुनन्दन! महर्षि विश्वामित्र के कर्म अचिन्त्य हैं. ये तपस्या से ब्रह्मर्षिपद को प्राप्त हुए हैं. इनकी कान्ति असीम है और ये महातेजस्वी हैं. मैं इन्हें जानता हूँ. ये जगत के परम हितैषी हैं.”

भगवान् श्रीराम के अवतार लेने तक विश्वामित्र जी की तपस्या पूरी हो चुकी थी और तभी वे श्रीराम के गुरु बन सके थे. वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में शतानन्द जी श्रीराम को बताते हैं कि ‘विश्वामित्र जी के आश्रम में मेनका दस वर्ष तक रही थीं. और जब विश्वामित्र जी सब कुछ समझ जाते हैं, तब वे बिना किसी पर क्रोध किये मेनका को विदा दे देते हैं और फिर से दुर्जय तपस्या में लीन हो जाते हैं. उन्होंने हजारों वर्षों तक घोर तपस्या की, और तब जाकर उन्हें ब्रह्मर्षिपद की प्राप्ति हुई.’

विष्णु पुराण के द्वितीय अंश के अनुसार-

स्वायम्भुव मनु के दो पुत्र थे- प्रियव्रत और उत्तानपाद. उनमें से उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव के विषय में तो सब जानते ही हैं. प्रियव्रत ने कर्दम जी की पुत्री से विवाह किया था, जिससे प्रियव्रत के दस पुत्र हुए. आग्नीन्ध्र, अग्निबाहु, वपुष्मान, द्युतिमान, मेधा, मेधातिथि, भव्य, सवन, पुत्र और ज्योतिष्मान. सभी पुत्र बड़े बुद्धिमान, बलवान, विनयसम्पन्न और अपने माता-पिता के अत्यंत प्रिय थे. मेधा, अग्निबाहु और पुत्र- ये तीनों योगपरायण तथा अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त जानने वाले थे. उन्होंने राज्य आदि भोगों में अपना चित्त नहीं लगाया.

राजा प्रियव्रत ने अपने शेष सात महात्मा पुत्रों को सात द्वीप बाँट दिए-
आग्नीन्ध्र को जम्बूद्वीप,
मेधातिथि को प्लक्ष द्वीप,
वपुष्मान को शाल्मल द्वीप,
ज्योतिष्मान को कुशद्वीप,
द्युतिमान को क्रौंच द्वीप,
भव्य को शाक द्वीप और
सवन को पुष्कर द्वीप का अधिपति बनाया.

ये सातों द्वीप चारों ओर से खारे पानी और मीठे जल के सात समुद्रों से घिरे हुए हैं. जम्बूद्वीप इन सबके मध्य में स्थित है और उसके बीच में मेरुपर्वत है. मेरुपर्वत के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट और निषध तथा उत्तर में नील, श्वेत और शृंगी नामक वर्ष हैं. (विष्णु पुराण २.२)

जम्बूद्वीप- ऐतिहासिक भूगोल के वर्णन के अनुसार जम्बूद्वीप सप्तमहाद्वीपों में से एक है. वस्तुतः जम्बूद्वीप का अधिकांश भाग वर्तमान एशिया माना जाता है. यह पृथ्वी के केंद्र में स्थित माना गया है. इसके नौ खण्ड हैं. इसका नामकरण जम्बू नामक वृक्ष के आधार पर हुआ है. इस जम्बू वृक्ष के रसीले फल जिस नदी में गिरते हैं, वह मधुवाहिनी जम्बूनदी कहलाती है. यहीं से जाम्बूनद नामक स्वर्ण उत्पन्न होता है. इस जल और फल के सेवन से रोग, वृद्धावस्था, दुर्गन्ध तथा इन्द्रियक्षय आदि का प्रभाव नहीं होता. (विष्णु पुराण २.२)

जम्बूद्वीप के विभाग-

जम्बूद्वीप के अधीश्वर राजा आग्नीन्ध्र के प्रजापति के समान नौ पुत्र हुए- नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्य, हिरण्वान, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल.

पिता आग्नीन्ध्र ने दक्षिण की ओर का हिमवर्ष (जिसे अब भारतवर्ष कहते हैं) नाभि को दिया. इसी प्रकार, किम्पुरुष को हेमकूटवर्ष, हरिवर्ष को नैषधवर्ष, इलावृत को इलावृतवर्ष (जिसके मध्य में मेरुपर्वत है), तथा नीलाचल से लगा हुआ वर्ष रम्य को दिया. उसका उत्तरवर्षी श्वेतवर्ष हिरण्वान को, शृंगवान पर्वत के उत्तर में स्थित वर्ष कुरु को, मेरु के पूर्व में स्थित वर्ष भद्राश्व को दिया.

महात्मा नाभि (हिमवर्ष के अधीश्वर) के पुत्र का नाम ऋषभ था. ऋषभ जी से भरत का जन्म हुआ, जो अपने सौ भाईयों में सबसे बड़े थे. अपनी इन्द्रियों पर विजय पाकर पिता ऋषभदेव ने वन जाते समय (वानप्रस्थ आश्रम) अपना राज्य भरत को दिया था, और तब से यह हिमवर्ष इस लोक में भारतवर्ष नाम से प्रसिद्ध हुआ. आगे चलकर भारतवर्ष को नौ विभागों से विभूषित किया गया- इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण.

ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषुगीयते।
भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रातिष्ठिता वनम्‌॥
(विष्णु पुराण २.१.३२)

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥
कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्गं च गच्छताम्।
अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने।
अत्र जन्म सहस्त्राणां सहस्त्रैरपि सत्तम।
कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्यसञ्चयात्॥
(विष्णु पुराण २.३)

“जो समुद्र की उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित है, वह देश भारतवर्ष कहलाता है. उसमें भरत की संतान बसी हुई है. यह स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त करने वालों की कर्मभूमि है. जम्बूद्वीप में भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि यह कर्मभूमि है. जीव को सहस्त्रों जन्मों के अनन्तर महान पुण्यों का उदय होने पर ही इस देश में मनुष्य जन्म प्राप्त होता है. देवता निरंतर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के बीच में बसे भारत में जन्म लिया है, वे पुरुष हम देवताओं से भी अधिक धन्य हैं.”

ऋग्वेद में भारत का उल्लेख-

एकं॑ च॒ यो विं॑श॒तिं च॑ श्रव॒स्या वै॑क॒र्णयो॒र्जना॒न्राजा॒ न्यस्तः॑।
द॒स्मो न सद्म॒न्नि शि॑शाति ब॒र्हिः शूरः॒ सर्ग॑मकृणो॒दिन्द्र॑ एषाम्॥
(ऋग्वेद मण्डल ७ श्लोक ७.१८.११)

ऋग्वेद के सातवें मंडल में ७.१८, ७.३३ और ७.८३.४-८ में दशराजन युद्ध (दस राजाओं का युद्ध) का उल्लेख मिलता है, जो परुष्णी (रावी) नदी के तट पर लड़ा गया था. यह युद्ध राजा सुदास एवं मित्र राजाओं व दूसरी ओर दस राजाओं के एक दल के बीच लड़ा गया था. ऋग्वेद के अनुसार, इस युद्ध में स्वयं देवराज इंद्र ने राजा सुदास की सहायता की थी, जिससे उनकी विजय हुई थी. राजा ‘सुदास’ भरत वंश के थे. कालांतर में इसी भरत वंश के नाम पर आर्यावर्त का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा.

अन्य मान्यताएं व प्रमाण –

देश का नाम भारत होने के पीछे एक मान्यता यह भी है कि माता सरस्वती का एक नाम भारती है, जो भरण-पोषण करने की विद्या प्रदान करने वाली देवी हैं, इसलिए भी इस देश का नाम भारत है.

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भगवान् श्रीराम के छोटे भाई ‘भरत’ के नामकरण-प्रसंग में लिखा है-

बिस्व भरन पोषन कर जोई।
ताकर नाम भरत अस होई।
(श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड १९६.७)

“हे राजन्‌! जो संसार का भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम ‘भरत’ होगा.”

अब किस भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा, यह तो निश्चित करना अत्यंत कठिन है. तो हम यह कह सकते हैं कि यह पवित्र भूमि महान भरतों की भूमि है. भारत को ‘भारत’ कहे जाने में सभी भरतों का सम्मिलित योगदान रहा है. अलग-अलग समय के भरतों ने अपने-अपने कार्यों और गौरव-गाथाओं से नाम को सार्थक किया है, और इस पुण्यभूमि का यही नाम बना रहे, इसके लिए सार्थकता प्रदान की है.

महाभारत के भीष्मपर्व के अध्याय ९ में संजय धृतराष्ट्र से भारतवर्ष की नदियों, देशों, जनपदों तथा भूमिका, महत्त्व आदि का विस्तृत वर्णन करते हैं. इस दौरान वे कहते हैं-

अत्र ते कीर्तयिष्यामि वर्षं भारत भारतम्।
प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च॥५॥
पृथोस्तु राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोर्महात्मनः।
ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च॥६॥
तथैव मुचुकुन्दस्य शिवेरौशीनरस्य च।
ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा॥७॥
कुशिकस्य च दुर्द्धर्ष गाधेश्चैव महात्मनः।
सोमकस्य च दुर्द्धर्ष दिलीपस्य तथैव च॥८॥
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्।
सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥९॥

“हे राजन्‌! अब मैं आपसे उस भारतवर्ष का वर्णन करूंगा जो इंद्रदेव और वैवस्वत मनु का प्रिय देश है. वेननंदन पृथु, महात्मा इक्ष्वाकु, ययाति, अम्बरीष, मान्धाता, नहुष, मुचुकुन्द, शिबि, ऋषभ, इलानन्दन पुरुरवा, राजा नृग, कुशिक, महात्मा गाधि, सोमक, दिलीप तथा अन्य जो महाबली नरेश हुए हैं, उन सभी को भारतवर्ष बहुत प्रिय रहा है.”

आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त विदुर्बुधा:॥
(मनुस्मृति २.२२)

“पूर्व में समुद्र तक और पश्चिम में समुद्र तक (उत्तर दक्षिण में हिमालय, विन्ध्याचल) दोनों पर्वतों के बीच अन्तराल (प्रदेश) को विद्वान आर्यावर्त (श्रेष्ठ पुरुषों की भूमि) कहते हैं.”

सरस्वतीदृषद्वत्योर्देव नद्योर्यदन्तरम्।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते॥
(मनुस्मृति २.१७)

‘बार्हस्पत्यशास्त्र’ में कहा गया है-

हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते॥

“हिमालय और इन्दु सरोवर- इन दो स्थानों के मध्य स्थित देवनिर्मित देश को ‘हिंदुस्थान’ कहा जाता है.”

‘बार्हस्पत्यशास्त्र’ का उल्लेख महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत (शान्तिपर्व ५६.३८) में आया है- ‘बार्हस्पत्ये च शास्त्रे च श्लोके निगदितः पुरा। (अर्थात् ‘इसी बात के समर्थन में बार्हस्पत्यशास्त्र का एक प्राचीन श्लोक पढ़ा जाता है…’).

अतः इससे यह पता चलता है कि ‘बार्हस्पत्यशास्त्र’ महाभारत से भी प्राचीन ग्रन्थ है. और बार्हस्पत्यशास्त्र में ‘हिंदुस्थान’ शब्द आने का तात्पर्य है कि ‘हिंदू’ शब्द भी अत्यंत प्राचीन है.

भारत में कोई भी भारतीय जब पूजन विधि करता है, तब ईश्वर की आराधना करते हुए वह उस अनुष्ठान के पूर्व निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करता है, जिसमें भारत का वर्णन किया गया है-

‘ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये पर्राधे श्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपे, भारतर्वषे, भरतखण्डे, आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते….. यथा​मिलितोपचारे गणप​ति पूजनं क​रिष्ये।’

एत देश प्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मनः।
स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन पथिव्यां सर्व मानवाः॥

“प्राचीन काल में, इस देश (भारत) में जन्मे लोगों के साथ रहकर पृथ्वी के सब लोगों ने अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ली.”


पवित्र तथा सर्वश्रेष्ठ भारत भूमि को नमन!

“प्राचीन भारतभूमि! मानवता की जन्मदात्री! नमस्कार! पूजनीय मातृभूमि! जिसे शताब्दियों से होने वाले नृशंस आक्रमणों ने भी अब तक विस्मृति की धूल के नीचे नहीं दबा पाया, तेरी जय हो! श्रद्धा, प्रेम, काव्य एवं विज्ञान की पितृभूमि! आपका अभिवादन! हम अपने पाश्चात्य भविष्य में आपके अतीत के पुनरागमन का जय-जयकार मनायें.” (– Louis Jacolliot)

वन्दे नितरां भारतवसुधाम्। दिव्य हिमालय-गंगा-यमुना-सरयू-कृष्णशोभितसरसाम्॥

“देवभूमि हिमालय, गंगा, यमुना, सरयू कृष्णा और कई नदियों के साथ चमकने वाली भारत की भूमि को नमन.”

वीरकदम्बैरतिकमनीयां सुधिजनैश्च परमोपास्याम्।
वेदपुराणैः नित्यसुगीतां राष्ट्रभक्तैरीड्याम् भव्याम्॥

“भारत माता सुंदर दिखने के लिए योद्धाओं की एक माला धारण करती हैं, जो श्रेष्ठ विद्वानों द्वारा पूजी जाती है, वेद और पुराणों के माध्यम से प्रतिदिन गाई जाती है, देशभक्तों के साथ जो भव्य दिखती है, ऐसी मां भारती को नमन.”

प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्।
त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयम्
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये॥
विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्॥

“हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर, इस हिन्दू राष्ट्र के घटक के रूप में मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ. आपके ही कार्य के लिए हम कटिबद्ध हुए हैं. हमें इस कार्य को पूरा करने के लिए आशीर्वाद दें. आपकी असीम कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने में समर्थ हो.”

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