Devi Ansuya : देवी अनसूया की कथा, तप की शक्ति और महिमा

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Devi Ansuya ki Katha

प्रकृति का नियम है कि जो तप करेगा, परिश्रम करेगा, उसे शक्तियां प्राप्त होंगी. फिर चाहे वो स्त्री हो या पुरुष, मनुष्य हो या देव या दानव, या किसी भी वर्ण का अनुसरण करता हो.

एक साधारण मानव अपनी तपस्या और कर्तव्यपरायणता से कितना महान, असाधारण और शक्तिशाली बन सकता है, ये माता अनुसुइया, श्रवण कुमार, महर्षि विश्वामित्र, देवी सावित्री, राजा हरिश्चंद्र आदि महान विभूतियों से पता चलता है.

महर्षि विश्वामित्र ने अपनी तप की शक्ति से न केवल एक अलग स्वर्गलोक की रचना कर डाली, बल्कि तीन उच्च शक्तियों की संगम माता गायत्री को भी प्रकट किया. स्वयं भगवान विष्णु ने अपने मनुष्य अवतार में महर्षि विश्वामित्र को अपना गुरु बनाया.

माता अनुसुइया ने अपने तप की शक्ति से न केवल एक निर्जन वन में गंगा की धारा प्रकट की, बल्कि त्रिदेवों तक को तीन नन्हें शिशुओं में बदल दिया. स्वयं माता सीता जी ने अपने पूरे वनवास के दौरान उन्हीं के दिए हुए वस्त्र और आभूषण धारण किए.

वहीं, श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता की सेवा से वो स्थान पाया कि आज एक आदर्श पुत्र के रूप में उनकी समानता स्वयं भगवान श्रीराम से की जाती है.

इन सभी ने जन्म तो एक साधारण मानव के रूप में ही लिया था, लेकिन अपने तप के बल से इन्होंने देवताओं से भी ऊंचा स्थान पा लिया. इतिहास में ऐसे हजारों उदाहरण हैं.

और इसीलिए श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-

तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता।
तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा।
तपबल सेषु धरइ महिभारा॥2

अर्थात्- तप के बल से ही ब्रह्मा जी संसार की रचना करते हैं और तप के बल से ही श्री विष्णु सारे जगत् का पालन करते हैं. तप के बल से ही भगवान शिव (रुद्र रूप से) जगत् का संहार करते हैं और तप के बल से ही शेषजी पृथ्वी का भार धारण करते हैं.

कथा है माता अनुसूइया (या अनसूया) जी की, जिनकी वंदना स्वयं भगवान भी करते हैं-

माता अनसूया प्रजापति कर्दम और देवहूति की पुत्री और अत्रि मुनि की पत्नी थीं. अनसूया जी के पतिव्रत धर्म और तप की महिमा अपार है. इनके तप की परीक्षा समय-समय पर होती रही है.

एक समय चित्रकूट और उसके आसपास के प्रदेशों में भयंकर अकाल पड़ा और वहां दस वर्षों तक वर्षा नहीं हुई.

उस समय महर्षि अत्रि अपनी पत्नी अनसूया के साथ चित्रकूट में रहने के लिए आए थे. तब जैसे ही उन दोनों ने देखा कि यहां तो पेड़ों पर पत्ते ही नहीं रह गए थे, केवल सूखे ठूंठे खड़े थे, जल की एक बूंद नहीं थी. कोई पशु-पक्षी तो क्या, कोई कीट तक दिखाई नहीं पड़ता था. इतने सालों तक वर्षा न होने से आर्द्रता का चिन्ह तक मिट गया था.

पृथ्वी पर अन्न-जल से सामान्य प्राणी का पोषण होता है, लेकिन जो अपने धर्म यानी कर्तव्य और तप पर स्थिर रहता हो, उसका पोषण करने का दायित्व उसके धर्म पर है. उसे प्रकृति की अवस्था आबद्ध नहीं कर सकती.

अनसूया जी ने आंखें बंद कर मां गंगा जी का ध्यान किया-
“भगवती त्रिलोचनमौलिमण्डिनी विष्णुपादोद्भवा जाह्नवी! मैं तुम्हारा आवाहन करती हूं. हे सुरसरि! अनसूया तुम्हें पुकारती है. पधारो मां, इस निर्जन प्रदेश को जल दो.”

फिर जैसे ही अनसूया जी ने अपनी आंखें खोलीं, उन्होंने देखा कि वे जहां खड़ी हैं, उनके आसपास से गंगाजल की धारा फूट निकली है. गंगा जी की यही धारा चित्रकूट में पवित्र मंदाकिनी नाम से प्रसिद्ध है.

इसके बाद देवलोक तो क्या… कैलाश, ब्रह्मलोक और बैकुंठ लोक तक देवी अनुसूया की यशोगाथा गूंज उठी. ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने भी उनकी वंदना की. इस पर देवी पार्वती, महालक्ष्मी जी और माता सरस्वती को देवी अनसूया जी से कुछ ईर्ष्या हुई. तीनों ने अपने-अपने पतियों से देवी अनसूया जी की परीक्षा लेने का आग्रह किया.

तीनों देवियों के आग्रह पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश देवी अनसूया की परीक्षा लेने के लिए सहमत हो गए.

क्या त्रिदेवियों के अंदर भी अहंकार और ईर्ष्या का भाव आ सकता है? विश्व की सभी नारियों को पतिव्रत धर्म की शक्ति और शिक्षा तो इन त्रिदेवियों से ही मिलती है. जो जगत की सबसे बड़ी नियामक शक्तियां हैं, जो स्वयं में सृजन, पालन और संहार की संपूर्ण व्यवस्था हैं, उनमें ईर्ष्या जैसा छुद्र भाव आएगा? नहीं. वस्तुतः यह ईर्ष्या नहीं थी!

किसी भी व्यक्ति को संसार में सर्वश्रेष्ठ यूँ ही तो नहीं माना जा सकता है न? जीवन की कोई भी सबसे बड़ी उपलब्धि बिना कठिन परीक्षा के नहीं मिलती. उपलब्धि जितनी बड़ी होती है, परीक्षा भी उतनी ही कड़ी होती है. त्रिदेवियों की जिद के पीछे परीक्षा का विधान था, न कि द्वेष! त्रिदेव जानते थे माता अनुसुइया के सत्य को, उनके सतीत्व को, उनकी तपस्या को… और इसीलिए लेने गए थे उनकी परीक्षा. भगवान हर किसी की परीक्षा नहीं लेते, क्योंकि उनकी परीक्षा में बैठने की योग्यता हर किसी में नहीं होती.

भगवान शिव, विष्णु और ब्रह्मा जी महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुंचे. उस समय महर्षि अत्रि फल आदि लेने के लिए वन में गए हुए थे. तीनों देव यतियों का वेश धारण कर देवी अनसूया जी के आश्रम में पहुंचे और भिक्षा मांगने लगे.

देवी अनसूया ने तीनों को आसन दिया, जल दिया. लेकिन अतिथियों ने एक अलग ही बात कही. परीक्षा लेने के लिए उन्होंने अनसूया जी से कहा, “जब तक आप निरावरण होकर आहार नहीं देंगी, तब तक वह हमारे उपयोग में नहीं आएगा.”

तीनों की ऐसी बात सुनते ही देवी अनसूया समझ गईं कि ‘किसी में इतना साहस नहीं, जो मेरे सामने ऐसी बात कह सके. अवश्य ही कोई विशेष बात है.’

देवी अनसूया ने अपनी आँखें बंद कर अपने पति महर्षि अत्रि का स्मरण किया. और फिर अनसूया की तप और शक्ति के आगे त्रिदेवों की माया भी न चल सकी. दिव्य शक्ति से उन्हें सत्य का पता लग गया और तब वे मन ही मन बहुत प्रसन्न हुईं. उन्होंने देवों से कहा, “जैसी आपकी इच्छा.”

“तुम तीनों नवजात शिशु बन जाओ”, ऐसा कहकर अनसूया ने हाथ में जल लेकर तीनों देवों पर छिड़क दिया. तीनों देव उसी समय तीन नन्हे शिशुओं में बदल गए और किलकारियां मरने लगे. तीनों शिशुओं को देखकर अनसूया जी अत्यंत प्रसन्न हुईं (आखिर उन्हें त्रिदेवों की माता बनने का गौरव जो मिल रहा था). उन्होंने तीनों को अपनी गोद में बिठाकर उन्हें दूध पिलाया और झूले में डालकर प्यार से सुला दिया.

तभी महर्षि अत्रि फल-फूल आदि लेकर आश्रम में आए. इस पर देवी अनसूया ने उन्हें पूरी बात बताई और कहा कि ‘अब से ये तीनों देव हमारे पुत्र हैं’.

तीनों शिशुओं की बाल-क्रीड़ा से महर्षि अत्रि का आश्रम मुखरित हो गया, और उधर कैलाश, ब्रह्मलोक और बैकुंठ में तीनों देवियां परेशान हो उठीं.

चूंकि तीनों की विपत्ति कथा एक ही थी, अतः तीनों देवियां एक साथ अत्रि-आश्रम में पहुंचीं. वहां उन्होंने देखा कि माता अनुसुइया तीन शिशुओं को बड़े प्रेम से भोजन करा रही हैं. तीनों देवियों ने अपनी दैवीय शक्ति से तीनों शिशुओं में अपने-अपने पतियों को पहचान लिया.

तीनों देवियां अनुसूया के पास पहुंचीं और उनसे क्षमा मांगते हुए बोलीं, “माता! हम आपकी पुत्रवधुएं हैं. हमारे पति आपकी शक्ति और प्रभाव को पहले से ही जानते थे. हमारे ही कहने पर हमारे पति आपकी परीक्षा लेने के लिए आए थे. अब जब तक आप नहीं चाहेंगी, तब तक ये अपना वास्तविक रूप ग्रहण नहीं करेंगे. हमारे अपराध क्षमा करें माता…” और ऐसा कहकर तीनों देवियों ने अनुसूया के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया और कहा कि, “अब हमें हमारे स्वामी प्राप्त हों, माता हम पर कृपा करें.”

तीनों देवियों की प्रार्थना पर देवी अनुसूया ने त्रिदेवों को उनके वास्तविक रूप दे दिए. इस पर त्रिदेवों ने माता अनुसूया से प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगने को कहा, तब अनसूया ने कहा कि, “अगर आप तीनों मुझसे प्रसन्न हैं, तो मेरे पुत्र के रूप में जन्म लें.”

तब ब्रह्मा, विष्णु, महेश के अंश से महर्षि अत्रि के तीन पुत्र हुए. भगवान विष्णु के अंश से दत्त, शिव जी के अंश से दुर्वासा और ब्रह्मा जी के अंश से चंद्रमा.

त्रेतायुग में जब भगवान श्रीराम चित्रकूट से दक्षिण की तरफ जाने लगे, तब वे महर्षि अत्रि के आश्रम में भी पहुंचे. उस समय माता अनुसूया ने ही सीता जी को पतिव्रत धर्म का उपदेश देते हुए उन्हें अपने दिव्य वस्त्र और आभूषण दिए थे, जो कभी मैले नहीं होते थे.

भगवान शिव और माता पार्वती जी का प्रेम विवाह
श्रीराम से विवाह के लिए सीता जी की प्रार्थना
मंत्र-जप की शक्ति


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LLB (Bachelor of Law). Work experience in Mahendra Institute and National News Channel (TV9 Bharatvarsh and Network18). Interested in Research. Contact- sonagarwal00003@gmail.com

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