Ganeshotsav And Lalbaug Raja
गणेश चतुर्थी का त्योहार हरितालिका तीज के एक दिन बाद से शुरू होकर अनंत चतुर्दशी (Anant Chaturdashi) तक यानी 10 दिनों तक चलता है और इसीलिए इसे ‘गणेशोत्सव (Ganeshotsav)’ कहा जाता है. भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी भी कहते हैं. चतुर्थी से भगवान गणेश जी की प्रतिमा की स्थापना कर उनकी पूजा से इस उत्सव की शुरुआत होती है और अनंत चतुर्दशी के दिन बप्पा की विदाई की जाती है. विसर्जन के साथ ही गणेशोत्सव की समाप्ति होती है.
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गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) का त्योहार पूरे भारत में सबसे ज्यादा पसंद किए जाने वाले त्योहारों में से एक है. मुख्य रूप से यह महाराष्ट्र में मनाया जाता है, लेकिन इस त्योहार की रौनक देशभर में रहती है. 11 दिनों तक चलने वाला ये उत्सव अपने साथ इतना आनंद और उल्लास लेकर आता है कि इस समय का पूरा वातावरण ही बदल जाता है. हर कोई बप्पा के ही रंग में रंगे नजर आता है और चारों तरफ बस एक ही गूंज सुनाई देती है- गणपति बप्पा मोरया…
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भगवान गणेश जी की मिट्टी की बनी प्रतिमा को 10 दिनों की पूजा के लिए स्थापित किया और फिर वह हुआ, जिसका अंग्रेजों को डर था. अंग्रेजों ने जाति-वर्ग के आधार पर जितने लोगों को तोड़ा था, वे गणपति के पण्डालों में जुड़ने लगे, एकजुट होने लगे. एक दैवीय शक्ति के छत्रछाया में सबको एकत्रित कर दिया.
जिस ब्रिटिश सरकार ने किसी भी धार्मिक उत्सव के लिए हिंदुओं के एकजुट होने पर प्रतिबंध लगा दिया था, लोकमान्य तिलक ने उनके इस षड्यंत्र के अंत का श्रीगणेश कर दिया था. ‘गणपति बप्पा मोरया’ का जयघोष कब ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के नारे में बदल गया, अंग्रेजों को इसकी हवा भी नहीं लगी. भगवान श्री गणेश केवल रिद्धि-सिद्धि, सुख और संपत्ति के ही देवता नहीं, स्वतंत्रता के भी देवता हैं.
बाल गंगाधर तिलक ने शुरू किया था गणेशोत्सव
भारत में प्राचीन काल से ही विघ्नहर्ता गणेश जी की पूजा होती रही है, लेकिन गणेशोत्सव मनाने की परंपरा महाराष्ट्र के पेशवाओं शुरू की थी. शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने पुणे में ‘कस्बा गणपति’ नाम से प्रसिद्ध गणेश जी की स्थापना की थी. इसके बाद सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव को मनाने की शुरुआत करने का श्रेय स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (Lokmanya Bal Gangadhar Tilak) को जाता है.
साल 1893 में कांग्रेस के उदारवादी नेताओं के भारी विरोध की परवाह किए बिना गरम दल के नेता बाल गंगाधर तिलक ने इस गौरवशाली परंपरा की नींव रखी, जिसमें उन्हें काफी कठिनाइयों और विरोध का सामना करना पड़ा था. आजादी की लड़ाई के रूप में तिलक ने सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव की शुरुआत देश के लोगों में सांस्कृतिक चेतना जगाने, लोगों को एकजुट करने और अंग्रेजों के खिलाफ संदेश देने के लिए की थी. तिलक की इस कोशिश से पहले गणेश पूजा परिवारों तक ही सीमित थी.
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अंग्रेजों से देश को स्वतंत्रता दिलाने में सार्वजनिक गणेशोत्सव लोगों को एकजुट करने का एक बहुत बड़ा जरिया बना और बाद में राष्ट्रीय एकता का प्रतीक भी बन गया. इसमें तिलक का साथ लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, अरविंदो घोष, राजनारायण बोस और अश्विनी कुमार दत्त जैसे नेताओं ने दिया और सार्वजनिक रूप से गणेश उत्सव की शुरुआत हुई. इसी कवि गोविंद ने नासिक में गणेशोत्सव मनाने के लिए मित्रमेला संस्था बनाई थी जो बड़े पैमाने पर धार्मिक आयोजन करती थी. बीसवीं सदी में गणेशोत्सव बहुत लोकप्रिय हो गया.
इच्छाओं की पूर्ति करते हैं लालबाग के राजा
गणेशोत्सव की धूम पूरे देशभर में रहती है. देशभर के अलग-अलग पंडालों में गणेश जी की एक से बढ़कर एक प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं और बड़े हर्षोल्लास के साथ उनकी पूजा की जाती है, लेकिन इस त्यौहार की सबसे ज्यादा धूम महाराष्ट्र में देखने को मिलती है. उनमें भी सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं- मुंबई के लालबाग के राजा (Lalbagh ka Raja).
लालबाग के राजा मुंबई के सर्वाधिक लोकप्रिय सार्वजनिक गणेश मंडल हैं, जिनकी स्थापना साल 1934 में की गई थी. तब से लेकर आज तक भगवान के रूप में कई बदलाव आए, लेकिन इनकी महिमा आज भी वैसी ही है. ये मुंबई के लालबाग परेल इलाके में हैं, इसीलिए इन्हें ‘लालबाग के राजा’ के नाम से पुकारा जाता है.
लालबाग के राजा के दर्शन करना ही अपने-आप में भाग्यशाली हो जाना माना जाता है. माना जाता है कि यहां जो भी मन्नतें मांगी जाती हैं, वे जरूर पूरी होती हैं. लालबाग के राजा को ‘इच्छाओं की पूर्ति करने वाले गणपति’ के रूप में जाना जाता है. केवल इनका दर्शन पाने के लिए ही हर साल करीब 5 किलोमीटर से भी ज्यादा की लंबी लाइन लगती है.
लालबाग के राजा की प्रतिमा का विसर्जन गिरगांव चौपाटी में किया जाता है. उस दिन सड़कों पर इतनी भारी भीड़ होती है कि कहीं भी पैर रखने तक की जगह मुश्किल से मिलती है. भक्तों को जहां से भी अवसर मिले, सब लालबाग के राजा की एक झलक को पाने के लिए अपने घरों की छतों-बालकनियों, सब जगह इकट्ठा हो जाते हैं. उस समय वहां मौजूद लगभग हर भक्त की केवल एक ही इच्छा होती है- अपने राजा जी के दर्शन कर लेना और उन्हें जीभरकर देख लेना.
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