Introduction to Ayurveda : आयुर्वेद का संक्षिप्त परिचय और इतिहास

Introduction and History of Ayurveda, आयुर्वेद का संक्षिप्त परिचय और इतिहास

Introduction to Ayurveda

भारत में आयुर्वेद विज्ञान (Ayurveda Science) प्राचीन काल से ही प्रचलित रहा है. यह विश्व की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति है. आधुनिक चिकित्सा शब्दावली और तकनीकों के प्रभाव के बीच भी आयुर्वेद विज्ञान अपना अस्तित्व बनाए हुए है और अपने सिद्धांतों को फिर से प्रसारित कर रहा है. आक्रमण काल ​​में आयुर्वेद को दबाने के कई प्रयास हुए. फिर भी प्राचीन ज्ञान आज भी अपना अस्तित्व एवं प्रासंगिकता बनाये हुए है. आज देश-विदेश में यह समझने का प्रयास किया जा रहा है कि वास्तव में आयुर्वेद का विज्ञान क्या है और यह आधुनिक शब्दों से किस प्रकार भिन्न एवं अधिक उपयोगी है.

अनेक आचार्यों एवं महर्षियों द्वारा आयुर्वेद के आविर्भाव की अनेक कथाएं बताई गई हैं. सामान्यताओं और समानताओं को ध्यान में रखते हुए, आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि-उत्पत्ति के पूर्व मानी गई है. ब्रह्मा संहिता जिसमें एक हजार अध्याय एवं दस लाख श्लोक थे, आज उपलब्ध नहीं है. आयुर्वेद का ज्ञान सबसे पहले ब्रह्मा जी द्वारा दक्ष प्रजापति को दिया गया था. दक्ष प्रजापति से यह ज्ञान देवताओं के उपयोग हेतु अश्विनीकुमारों को दिया गया था. उनके माध्यम से वह ज्ञान देवराज इंद्र तक पहुंचा. देवलोक से पृथ्वीलोक में आयुर्वेद के ज्ञान को पहुँचाने का श्रेय महर्षि भरद्वाज को दिया जाता है.

वेदों में आयुर्वेद (Ayurveda in the Vedas)

समस्त ज्ञान के आदि स्त्रोत कहे जाने वाले वेदों (Vedas) को आयुर्वेद का भी आद्य स्त्रोत कहा जाता है. यद्यपि आयुर्वेद की विषयवस्तु चारों वेदों में प्राप्त होती है, लेकिन सर्वाधिक साम्यता अथर्ववेद से होने के कारण आचार्य सुश्रुत ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपाङ्ग (सुश्रुत सूत्रस्थान १|६) कहा है. वाग्भट ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद (अ.हृ.सू. ८|९) कहा है. आचार्य चरक ने भी आयुर्वेद की सर्वाधिक घनिष्ठता अथर्ववेद से बताते हुए इसे पुण्यतम वेद कहा है (चरक सूत्रस्थान १|४३).

चूंकि ऋग्वेद सबसे प्राचीन है, इसलिए चरणव्यूह में आयुर्वेद को ऋग्वेद का भी उपवेद कहा गया है. महाभारत के सभापर्व (११|३३) में नीलकण्ठ की व्याख्या में भी आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपवेद कहा गया है. वहीं, काश्यप संहिता (आयुर्वेद का बाल रोग से सम्बंधित ग्रंथ) एवं ब्रह्मवैवर्त पुराण में आयुर्वेद को पञ्चम वेद कहा गया है.

आयुर्वेदोत्तर ग्रंथों में आयुर्वेद का सर्वप्रथम नाम पाणिनिकृत अष्टाध्यायी (क्रतूक्थादि-सूत्रान्ताट्ठक् ४|२|६०) आदि में प्राप्त होता है. महर्षि चरक को आयुर्वेद का मूल ज्ञाता माना जाता है. चरक संहिता में दिए गए ज्ञान का मुख्य स्रोत अग्निवेश है. बाद में आचार्य चरक ने उन सभी अवधारणाओं और तंत्रों का समन्वय किया. चरक संहिता और सुश्रुत संहिता मूल संहिताएं हैं, जो कि आज उपलब्ध हैं. अन्य काश्यप संहिता, हारीता संहिता आदि आज पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं हैं. बाद की संहिताएं अष्टाङ्गसंग्रह, अष्टाङ्गहृदय, माधवनिदान आदि की रचना चरक और सुश्रुत संहिता को आधार बनाकर की गई.

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आयुर्वेद शब्द का अर्थ (Meaning of Ayurveda)

हितहितं सुखं दुःखमायुः तस्य हितहितम्।
मानञ्च तच्च यत्रोक्तम्आयुर्वेदः स उच्यते॥
(चरक सूत्रस्थान १|४१)

अर्थात् ‘जिस शास्त्र में हित आयु, अहित आयु, सुख आयु और दुःख आयु के लिए हितकर और अहितकर भावों के मान का वर्णन हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं.’

आयुर्वेद शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- आयु और वेद. इनमें ‘आयु’ का अर्थ इस प्रकार है-

‘ऐति गच्छति इति आयु:’ अर्थात् जो निरंतर गतिमान रहती है, उसे आयु कहते हैं.
‘आयुर्जीवितकाल:’ अर्थात् जीवितकाल को आयु कहते हैं.
‘चैतन्यानुवर्तनमायु:’ (चरक सूत्रस्थान ३०|२२) अर्थात् जन्म से लेकर चेतना के बने रहने तक के काल को आयु कहते हैं.
‘शरीरजीवयोर्योगो जीवनम्, तेनावच्छिन्न:काल आयु:’ अर्थात् शरीर एवं जीव के संयोग को जीवन कहते हैं तथा जीवन से संयुक्त काल को आयु कहते हैं.

शरीरेन्द्रियसावात्मकसंयोगो धारि जीवतम्।
नित्यगश्चानुबंधश्च चर्यायैरायुरुच्यते॥
(चरक सूत्रस्थान १|४२)

अर्थात् शरीर, इन्द्रिय, सत्त्व एवं आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं. धारि, जीवित, नित्यग तथा अनुबन्ध ये आयु के पर्यायवाची हैं.

आयु चार प्रकार की बताई गई है-

1. सुखायु – शारीरिक एवं मानसिक रोगों ये सर्वथा मुक्त व्यक्तियों की आयु,
2. दु:खायु – रोगवस्था आयु,
3. हितायु – सभी प्राणियों के हित में लगे रहने वाले व्यक्तियों की आयु, सदाचारी, दानी, तपस्वी, सज्जन पुरुषों का आदर करने वाले आदि लक्षणों से युक्त व्यक्ति की आयु,
4. अहितायु – हितायु के विपरीत लक्षणों वाले व्यक्तियों आयु.

‘वेद’ शब्द का सामान्य अर्थ है ‘ज्ञान’. अत: आयुर्वेद का सामान्य अर्थ है- जीवन का विज्ञान (Science of Life).

आयुषो वेद: आयुर्वेद: या आयुर्वेदयत्यायुर्वेद।

अर्थात् आयुर्वेद वह शास्त्र है, जिसमें आयु से संबंधित सर्वांगीण ज्ञान का वर्णन किया गया है. महर्षि चरक ने आयुर्वेद की परिभाषा निम्नवत दी है-

हिताहितं सुखं दु:खमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेद: स उच्यते॥
(चरक सूत्रस्थान १|४१)

अर्थात् जिसमें हितायु, अहितायु, दु:खायु एवं सुखायु– इन चतुर्विध आयु के लिये हितकर और अहितकर भावों के मान एवं इसके स्वरूप आदि का वर्णन किया गया हो, आयुर्वेद कहलाता है.

अष्टाङ्ग आयुर्वेद (Ashtanga-Ayurveda)

आयुर्वेदिक चिकित्सा को उसके विषय के हिसाब से आठ अलग-अलग भागों में बांटा गया है. इन आठ भागों के सम्मिलित रूप को ‘अष्टाङ्ग आयुर्वेद’ (Ashtanga-Ayurveda) का नाम दिया गया है या, संहितोक्त आयुर्वेद को ‘अष्टाङ्ग आयुर्वेद’ कहा गया है, क्योंकि इसके आठ अंग हैं. काशिराज दिवोदास धन्वतरि को इस अष्टाङ्ग-आयुर्वेद के जनक माना जाता है. प्रारंभिक आयुर्वेद मुख्यत: काष्ठौषधियों (पेड़-पौधे से बनने वाली औषधि) पर निर्भर था, किन्तु कालांतर में इसमें धातुओं का भी भस्म आदि के रूप में प्रयोग होने लगा. इस प्रकार रसशास्त्र (धातु-खनिज से बनने वाली औषधियां) नामक शाखा उदय हुआ. अष्टाङ्ग आयुर्वेद के आठ अंग इस प्रकार हैं-

1. शल्य
2. शालाक्य
3. कायचिकित्सा
4. अगदतंत्र
5. भूतविद्या
6. कौमारभृत्य
7. रसायन
8. वाजीकरण.

आयुर्वेद का उद्देश्य (Purpose of Ayurveda)

प्रयोजनं चास्यस्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च।
(चरक सूत्रस्थान ३०|२६)

आयुर्वेद में स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करने पर विशेष बल दिया गया है. इसके लिए सद्व्रत, ऋतुचर्या, दिनचर्या आदि का विस्तृत उल्लेख किया गया है. आरोग्य की अवस्था बनाये रखना ही आयुर्वेद का लक्ष्य है. स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी के रोगों का शमन करना ही आयुर्वेद के मुख्य उद्देश्य या प्रयोजन बताये गए हैं.

स्वस्थ व्यक्ति कौन है, इस पर आचार्य सुश्रुत ने कहा है-

समदोष: समाग्निश्च समधातुमलक्रिय:।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमना: स्वस्थ इत्यभिधीयते॥
(सुश्रुत सूत्रस्थान १४|४१)

अर्थात् वह व्यक्ति स्वस्थ है, जिसमें वातादि दोष, त्रयोदश अग्नियां, सप्तधातुएं सम अवस्था में हों, मलमूत्र का विसर्जन निर्बाध रूप से हो रहा हो, आत्मा, इंद्रिय एवं मन प्रसन्न हो. सरल शब्दों में जो व्यक्ति शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से स्वस्थ हो, वही स्वस्थ व्यक्ति है.

नोट- आयुर्वेद में 13 प्रकार की अग्नियों के बारे में बताया गया है, जिन्हें उनके कार्य एवं शरीर में उनके स्थान के आधार पर बांटा गया है. इन सबमें जठराग्नि को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है. अग्नि के मुख्य प्रकार इस प्रकार हैं-

1. एक जठराग्नि (पाचक अग्नि, जो अपनी गर्मी से भोजन को जल्दी पचा देती है)
2. पांच भूताग्नियाँ- भौमग्नि, आप्याग्नि, आग्नेयाग्नि, वायव्याग्नि, आकाशाग्नी
3. सात धात्वाग्नियाँ- रसाग्नि, रक्ताग्नि, मान्साग्नि, मेदोग्नि, अस्थ्यग्नि, मज्जाग्नि, शुक्राग्नि.


रोग-आरोग्य

आयुर्वेद में केवल भौतिक शरीर के रोगों को ही रोग नहीं कहा जाता, बल्कि शरीर, इन्द्रिय, मन (मानसिक) को होने वाले दु:खों की भी रोग कहा जाता है. ‘तद्दु:खसंयोगा व्याधय उच्यन्ते’ (सु.सू. १|२३), ‘सुखसंज्ञकमारोग्यं विकारो दु:खमेव च.’ (च.सू. ९|४). आयुर्वेद में दोषों जैसे शारीरिक वात, पित, कफ तथा मानसिक रज एवं तम) की साम्यावस्था (यदि ये सब संतुलन में हैं) को आरोग्य एवं विषमावस्था (असंतुलन में हैं) को रोग कहा गया है. ‘रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यमरोगता.’ (अ.हृ.सू. १|२०).

आयुर्वेद के अनुसार, किसी भी रोग का मूल कारण त्रिदोष होता है, जो आगे चलकर शरीर के अन्य घटकों में असंतुलन के रूप में प्रकट होता है और बीमारी का कारण बनता है. रोग के यह 3 कारण सूक्ष्म प्रतीत होते हैं, परन्तु यदि हम दिन-प्रतिदिन वही गलतियां करते रहते हैं, तो हमारे शरीर और मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है और अक्सर लम्बे समय तक चलने वाले नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न हो जाते हैं-

• असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग
• प्रज्ञापराध
• परिनामा या परिणाम.

असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग- असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग का अर्थ है इंद्रियों का अनुचित संपर्क, जिसके परिणामस्वरूप अधिक उत्तेजना या संवेदी गतिविधि की कमी. दूसरे शब्‍दों में आप कह सकते हैं कि इंद्रियों का दुरुपयोग करना. यह शारीरिक और मानसिक रूप से नुकसान पहुंचा सकता है. आंतरिक और बाह्य रूप से संयम और सामंजस्य की आवश्यकता होती है.

प्रज्ञापराध- प्रज्ञा का अर्थ है ज्ञान और अपराध का अर्थ है गलत कार्य. जानकारी के बावजूद गलत कार्य करना, उपेक्षा या अवहेलना करना ही प्रज्ञापराध है. दूसरे शब्‍दों में, आप कह सकते हैं कि जब हम अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करते हैं या अपनी बुद्धि को गलत कार्यों की तरफ लगाते हैं, ताब हम तब रोग की ओर बढ़ते हैं.

परिणाम- हमारे पास बहुत सारे चक्र और लय हैं, जैसे- दिनरात के चक्र, मौसमी बदलाव, गर्भाधान, पीरियड्स जैसे जीवन से जुड़े चक्र. प्रत्येक अवधि के कुछ दिशानिर्देश होते हैं. जब हम इन लय के साथ तालमेल नहीं बिठाते हैं तो रोग की ओर बढ़ते हैं. परिनामा को काला या मौसमी बदलाव के नाम से भी जाना जाता है. परिनामा आमतौर पर समय के प्रभावों और समय के साथ होने वाले प्राकृतिक शारीरिक परिवर्तन को संदर्भित करता है.

दोषवैषम्य से उत्पन्न रोगों के निवारण के लिए चिकित्सा की जाती है. श्रेष्ठ चिकित्सा उसी को कहा गया है, जिससे एक रोग शांत हो जाये, किन्तु दूसरे रोग की उत्पत्ति न हो-

प्रयोगः शमयेद् व्याधिं योन्यमन्यमुदीरयेत्।
नासौ विशुद्धः शुद्धस्तु शमयेद्यो न कोपयेत्॥
(च. नि. ८|२३)


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