यंत्र (Yantra) एक विशेष प्रकार की सधी हुई ज्यामिति आकृति है. यंत्रों को मंत्रों का भौतिक स्वरूप कहा जाता है. यंत्रों का बहुत महत्व है. ये बहुत बड़ी शक्ति होते हैं और इनकी ताकत भी बहुत ज्यादा होती है. यंत्र में आकृति, रेखाओं और बिंदुओं का विशेष प्रयोग और महत्व होता है, इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण होता है कि किसी यंत्र का निर्माण कैसे किया जा रहा है. यानी यंत्र की एक-एक लकीर, एक-एक खाना और एक-एक बिंदु का महत्व होता है.
अगर एक बिंदु भी गलत बन जाए तो यह ठीक नहीं होता और उस यंत्र का प्रयोग नहीं करना चाहिए. इसीलिए ज्यादातर लोग यंत्रों का इस्तेमाल करने से डरते हैं और डरना भी चाहिए. यहां डरने का मतलब है कि यंत्रों के प्रयोग में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए).
यंत्र दो तरह के होते हैं- रेखाओं और आकृतियों वाले यंत्र और,
अंकों वाले यंत्र जिसमें 9 खाने होते हैं और सभी खानों में नंबर लिखे होते हैं, वह भी एक यंत्र ही होता है.
हालांकि, इन दोनों में से आकृति वाले यंत्र ज्यादा ताकतवर होते हैं, लेकिन अगर वे बिल्कुल सही बने हों तो. जबकि अंकों वाले यंत्र कम ताकतवर होते हैं, लेकिन इन यंत्रों का कोई साइड इफेक्ट नहीं होता क्योंकि इनमें गलतियों की संभावना कम होती है.
श्रीयंत्र की महिमा
यंत्र कई प्रकार के हैं, लेकिन श्रीयंत्र (Sri Yantra) सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है. सबसे ताकतवर यंत्र यही है. यह एक एक जटिल ज्यामितीय आकृति है. इस यंत्र की अधिष्ठात्री देवी भगवती श्रीदेवी यानी महालक्ष्मी जी हैं. सभी यंत्रों में इसे ‘यंत्रराज’ कहा जाता है. मुख्य रूप से यही यंत्र धन, शक्ति और सिद्धि का प्रतीक है. इसे ‘श्रीचक्र’ भी कहते हैं. श्रीचक्र पराशक्ति का लौकिक रूप है.
यह यंत्र श्री विद्या से संबंध रखता है. श्री विद्या का अर्थ है- लक्ष्मी, संपदा, विद्या आदि हर प्रकार की ‘श्री’ देने वाली विद्या. श्रीयंत्र के प्रयोग से संपन्नता, समृद्धि और एकाग्रता की प्राप्ति होती है. श्रीयंत्र के सही प्रयोग से हर तरह की दरिद्रता दूर की जा सकती है, लेकिन यंत्र बिल्कुल सही बना होना चाहिए. श्रीयंत्र की स्थापना और पूजा से हर सिद्धि की प्राप्ति होती है. महालक्ष्मी जी के श्रीयंत्र की सिद्धि आदि शंकराचार्य जी ने की थी.
श्रीयंत्र के प्रकार-
श्रीयंत्र भी 3 तरह के आते हैं- समतल, उभरा हुआ और पिरामिड की तरह का. श्रीयंत्र की आकृति दो प्रकार की होती है- उर्ध्वमुखी और अधोमुखी. उर्ध्वमुखी में त्रिभुज ऊपर की तरफ होता है और अधोमुखी में त्रिभुज नीचे की तरफ होता है. आदि शंकराचार्य ने उर्ध्वमुखी प्रतीक को सबसे ज्यादा मान्यता दी है.
श्रीयंत्र के प्रयोग में सावधानी
तांबे पर बने श्रीयंत्र का फल सौ गुना, चांदी में लाख गुना और सोने पर बने श्रीयंत्र का फल करोड़ गुना होता है. स्फटिक से बना हुआ पिरामिड के आकार का श्रीयंत्र बहुत अच्छा माना जाता है.
बिल्कुल सही तरीके से बने हुए श्रीयंत्र को अपने काम करने के स्थान पर, अपने घर में पूजा स्थान पर, या अपने पढ़ने के स्थान पर, या जिस स्थान का आदर करते हों और उसे साफ-सुथरा रखते हों, उस स्थान पर श्रीयंत्र को स्थापित किया जा सकता है.
जिस स्थान पर भी श्रीयंत्र की स्थापना करें, उस स्थान पर सात्विकता और पवित्रता बनाए रखें. कोई भी जूठे बर्तन या जूठा पानी या गंदगी आदि बिल्कुल न रखें.
श्रीयंत्र की स्थापना शुक्रवार के दिन या पूर्णिमा के दिन करनी चाहिए. श्रीयंत्र को एक छोटी सी चौकी पर गुलाबी कपड़ा बिछाकर उस पर रखें. रोज सुबह पूजा के दौरान श्रीयंत्र पर भी जल चढ़ाएं, पुष्प अर्पित करें और इसके बाद घी का दीपक जलाकर श्रीयंत्र के मंत्र का जप करें-
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः
श्रीयंत्र का जितनी बार दर्शन किया जाए, उतना ही अच्छा होता है. इसलिए श्रीयंत्र को ऐसे पवित्र स्थान पर स्थापित करना चाहिए, जहां आपकी नजर बार-बार जाए और आप उसे प्रणाम कर सकें. श्रीयंत्र के सामने महालक्ष्मी जी के मंत्र का रोजाना कम से कम 9 बार जब जरूर करना चाहिए. इससे श्रीयंत्र की ताकत मिलती रहती है.
श्रीयंत्र को गले में लॉकेट की तरह पहना जा सकता है, लेकिन उसे किसी और अंग में धारण नहीं करना चाहिए. श्रीयंत्र को धारण कर रहे हैं तो तन-मन की स्वच्छता को बनाए रखना जरूरी है. रात को सोते समय इसे निकाल देना चाहिए और सुबह स्नान करने के बाद पहनना चाहिए.
श्रीयंत्र का बहुत महत्व होता है, इसलिए इसके प्रयोग में बहुत सावधानी रखनी पड़ती है. जब तक यह पूरी तरह सही तरीके से बना हुआ न हो, तब तक इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए. ऐसे में इसकी जगह अंकों वाले श्रीयंत्र का प्रयोग किया जाना चाहिए.
चित्र वाले यंत्रों का निर्माण और प्रयोग
शब्दों और मंत्रों को आकृतियों में ढालकर यंत्र बनाए जाते हैं. यंत्रों को कभी भी किसी भी समय नहीं बना लिया जाता है. इन्हें बनाने का भी विशेष नियम और समय होता है. इन्हें विशेष नक्षत्रों में पवित्र मन से ही बनाया जाता है और किसी विशेष समय में ही इन्हें स्थापित किया जाता है. श्रीयंत्र का निर्माण और स्थापना सिद्ध मुहूर्त में ही किया जाता है, जैसे- दीपावली, शिवरात्रि, अक्षय तृतीया, नवरात्रि, धन-त्रयोदशी, गुरुपुष्य योग, रविपुष्य योग आदि.
आकृतियों के बन जाने के बाद एक-एक शब्दों को जागृत या एक्टिव किया जाता है. यंत्रों को निर्माण करने और इसके प्रयोग की विधि गोपनीय होती है. इन्हें बनाना और इनका प्रयोग करना बच्चों का खेल नहीं है, इसलिए सही यंत्र मिलना और बनाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि थोड़ी सी लापरवाही से परिणाम बदल जाते हैं.
यंत्रों का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है. ये तेजी से काम करते हैं. इनके प्रभाव बड़ी तेजी से देखने को मिलते हैं, फिर चाहे वह पॉजिटिव हों या नेगेटिव. यंत्र ग्रहों-नक्षत्रों की पॉजिटिव एनर्जी को अपनी तरफ आकर्षित करने में भी सक्षम होते हैं और यंत्रों का सही तरीके से उपयोग करने पर वह पॉजिटिव एनर्जी व्यक्ति में आ जाती है.
यंत्रों का प्रयोग बिना किसी सही विद्वान के परामर्श के बिना नहीं करना चाहिए. अपने मन से खुराफाती नहीं करनी चाहिए. यंत्रों पर प्रैक्टिकल नहीं करना चाहिए. बाजार के रेडीमेड यंत्रों के प्रयोग के बजाय हाथों से बने यंत्र का प्रयोग करना अच्छा होता है.
आकृति वाले यंत्रों का प्रयोग कम से कम करना चाहिए. अगर यंत्र का इस्तेमाल करना ही है, तो अंकों वाले यंत्रों का प्रयोग करें, क्योंकि भले ही अंकों वाले यंत्रों का असर देर से देखने को मिलता है, लेकिन लेकिन इनके नुकसान बहुत कम होते हैं.
चित्र वाले यंत्रों का निर्माण करना और उनका प्रयोग करना, दोनों ही बहुत कठिन होता है. अगर यंत्र ठीक से बना हो और इसका ठीक से प्रयोग किया जाए, तो ये बहुत फायदा पहुंचाते हैं, लेकिन अगर यंत्र ठीक से न बना हो या उसका प्रयोग ठीक से न किया जाए, तो इनके परिणाम भी भयंकर हो सकते हैं. इसलिए जब तक बहुत जरूरत न हो और किसी सही गुरु की कृपा न हो, तब तक यंत्रों के प्रयोग से बचना चाहिए. उसकी जगह पर किसी मंत्र का जप करें और नियमित पूजा-उपासना करें.
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